नदी के उस पार कौशाम्बी नगर में एक राजा हुआ करते थें।और नदी के इस पार वो सुंदरी रहती थी।दोनो को क्या पता था किसी दिन दोनो की राहें एक ही हो जानी है।दोनो एक बार किसी मेले में अचानक मिल गए।मिलन ऐसा की मानो सदियों के बिछड़े दो प्रेमी मिले हो।लोक लाज तक का किसी को भी ख्याल न रहा।दोनो मिले आंखे चार हुई।या यूं कहले नैसर्गिक प्यार हो गया दोनो को।
जब दोनों ने एक दूसरे को देखा, देखते ही रह गए।ना कोई उलझन न ही कोई अनजानापन । दोनो ही मन ही में एक दूसरे को पाने की चाह जाग उठी।
मेले से लौटकर राजा जी की नींद ,खाना पीना सब हराम हो गया।हरदम उसी सुंदरी के यादो में खोये रहते।
हमेशा उनके सीने में तड़प की भावना रहती की कब मिले अपनी प्रेयसी से।
कहते है ना किसी और मर्ज की दवा तो कहीं मिल भी जाये पर इस रोग की दवा तो प्रियतम के पास ही मिलेगी।राज्य के कर्मचारियों को राजा की दशा देखकर रहा नहीं गया।उन्होंने उस सुंदरी का पता लगवाया।पता चला नदी के उस पार रहने वाली वह कन्या उत्तम कुल की नहीं है।सारे धर्मसंकट मे पड़ गए।इधर राजा जी की ये दशा उधर सुंदरी का विचलित करने वाला कुल, मेल कैसे करवाया जाए।
खैर जो भी हो देखा जाएगा सोचकर राजाजी को उस सुंदरी का पता ठिकाना दे दिया गया।राजाजी उसी समय सुंदरी की चाह में ऐसे दौड़ पड़े जैसे कृष्ण जी सुदामा की अगुवाई करने दौड़ पड़े थे।प्रेम का बंधन ही ऐसा है ऊँच नीच ,भेद भाव ,देर सबेर की कहाँ परवाह करता है।
सीधा पहुचे उस सुंदरी के पास भागते हुए गिरते पड़ते।सुंदरी ने जब देखा कि नगर नरेश इस हाल में उसके पास पहुँचे है तो वह झट से उनके स्वागत सत्कार में लग गयी।सुंदरी ने भी अपना पूरा समय उनके विरह में ही तो गुजारे थे।
महाराज चारपाई पर बैठे थे और सुंदरी उनके पैर पखार रहीं थीं।महाराज को तो ये भी पता नहीं चला कि जिस जल से उनके पैरों को पखारा जा रहा था उसमें जल से ज्यादा सुंदरी के प्रेममयी आँसू थे।
इन आंसुओं की भी अजीब कहानी है।प्रिय मिलन में भी बाधा पहुचाते है।प्रिय की जुदाई में तो रुषवा ही कर जाते है।सर झुकाए सुंदरी उनके पैरों को निहारती रही।पता नहीं ये समर्पित प्रेम की भावना थी या फिर प्रिय मिलन के बाद कि झिझक।दोनो ही उसी अवस्था में काफी देर तक रहें।ततपश्चात महाराज ने सुंदरी को उठाकर गले लगा लिया।निःशब्द दोनो ने अपने प्यार का इजहार भी कर दिया।
महाराज ने प्रेम का इकरार तो कर ही दिया था।अब वे सुंदरी से मिलने रोजाना ही सारे राजदरबार के काम छोड़ कर आने लगे।
राज्य में रानियां परेशान, सारे कर्मचारी जन परेशान पर इसका कोई हल नहीं निकल पा रहा था।मंत्रियों की बैठक हुई।सबने कई तर्क कुतर्क किये कोई समाधान न सुझा।अंत मे मुख्य मंत्री को यह भार सौप गया जैसे भी हो राजाजी की पुनः वापसी होनी चाहिए।
मंत्री जी इस समस्या को लेकर राजगुरु के पास गए।उन्होंने बहुत सोचा फिर मंत्री जी से कहा “मन्त्रिवर मुझे तो इस विपदा का कोई समाधान नजर नहीं आ रहा है।प्रजा कल्याण हेतु अगर उस नीच कुल की कन्या से महाराज की विवाह प्रस्ताव भी मुझे उचित नहीं प्रतीत होती है।हमारे महाराज उसपे आसक्त हो गए हैं लेकिन इस तरह तो राजधर्म से मुख मोड़ना नहीं चाहिए।अब एक ही उपाय है जाकर उस कन्या को ही समझाया जाय तो शायद कोई बात बन सकती है”
मन्त्रिवर सुंदरी से मिलने पहुँचे।सुंदरी ने मर्यादानुसार उनकी अगवानी की।संकोचवस मन्त्रिवर से कुछ कहते न बन रहा था।सुंदरी उनके मनोभाव को समझते हुए बोली “श्रीमान कृपया संशय त्याग कर अपने आगमन का प्रयोजन बताए।”
मन्त्रिवर ने कहा “हे सुंदरी तन के माफ़िक सुंदर मन वाली ।मैं यहाँ अपने राज्य के कल्याण हेतु उपस्थित हुआ हूँ।आपसे अनुकम्पा है आप मेरी बातों को अन्यथा नहीं लेंगी”।
सुंदरी ने कहा “मान्यवर अपनी बात बेहिचक रखें।अगर मेरे प्राणों की भी आहुति राज्यकल्याण में देना पड़े तो यह मेरे लिए गर्व की बात होगी।”
सुंदरी की बाते सुन मन्त्रिवर थोड़े आश्वस्त हुए और सारी बात उस सुंदरी के समक्ष पेश कर दिया।सुंदरी ये सुनकर आंखों में आंसू और चेहरे पर मुस्कान लिए बोली “मान्यवर निश्चिंत होकर आप वापस जाये।मन के हाथों प्रेमवश मुझसे जो अनर्थ होने जा रहा था उसकी भरपाई मैं अवश्य करूँगी।आप निश्चिंत रहें ।राज्य की उन्नति और विकाश के आगे मेरा प्रेम तुच्छ है।राष्ट्र हित मे इसके बलिदान से सहर्ष मुझे खुशी होगी।”
मन्त्रिवर ने कहा “हे माते।देश के लिए अपने प्रेम का यू बलिदान कर देने वाली देवी आप महान हो।आपके बलिदान के लिए सारा नगर आपका आभारी रहेगा “।
मन्त्रिवर वहाँ से बडे आशावादी होकर चले गए।राजन को कुछ दिनों तक विशेष कार्यो में लगाकर उलझाए रहें।इधर अपने प्रेमी की विरह में सुंदरी ने खुद को ध्यान धर्म मे व्यस्त कर लिया।उसके घर के पास ही एक मंदिर था उसकी देखभाल और उसमें रहनेवाले देव की स्तुति करना अब उसके मुख्य कर्म हो गए थे।उस मंदिर में वो ध्यान लगाकर घण्टो बैठी रहती।
राजन को राज्य के मुख्य कार्य से फारिग होते ही सुंदरी की याद आयी।मन्त्रिवर और रानियों के समझाने के बाद भी राजन किसी सामान्य मोहि की तरह लाज शर्म त्याग पुनः निकल पड़े सुंदरी के घर की ओर।रात्रि का समय हो चला था।आँधी और तुफानो का सिलसिला लगातार जारी था।राजन अपने घोड़े पर चले ही जा रहें थे।नदी किनारे पहुँचकर उन्हीने देखा केवट और उसकी नाव का कुछ भी अता पता नहीं है।राजन ने केवट के इंतजार में समय गवाना उचित नहीं समझा और घोड़े सहित नदी पार करने लगे।कहते हैं प्रेम में नर , नारायण में कोई फर्क नहीं रह जाता।उसी शक्ति के जोर से प्रेम में लोग आग का दरिया भी पार करने का हौशला कर लेते है।
राजन अपने घोड़े के साथ उस लहराती बलखाती नदी में चले तो गए लेकिन बीच मझधार में पहुँचकर उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ लेकिन तबतक काफी देर हो चुकी थी।उन्हें अपने घोड़े से हाथ धोना पड़ा।किसी तरह एक बहती हुई लकड़ी के टुकड़े को पकड़कर हाथ पैर चलाते नदी के उस पर पहुँच गए।सुंदरी के प्रेम में इतने खोए हुए थे कि उन्हें ये भी अहसास नहीं हुआ कि इस अंधेरी रात में बिना अपने घोड़े के आगे का सफर कैसे तय होगा।बस अपनी ही धुन में गिरते फिसलते चले जा रहे थे।इस समय अगर कोई राजन को इस हाल में देख लेता तो बरबस ही उसे राज्य,धन,शक्ति सब चीजो का मोह खत्म हो जाता।।
प्रेम की गजब लीला देखी भाई।
क्या राजा क्या रंक सब एक राही।।
(ऐसे ही किसी दृश्य को देखकर अंग्रेजी में फॉल इन लव शब्द बना होगा)
काफी दूर निकल आने पर उन्हें अंधेरे में दूर से आति रोशनी नजर आयी।राजन को उम्मीद बढ़ी की अपने प्रिय के ठहर पहुँचने ही वाले है।उन्हें अपना होश आया कि यह कौन सी दशा बना रखी है।कीचड़ से लथपथ फ़टे वस्त्र और शरीर चोटों से लहूलुहान।उन्होंने इधर उधर देखा।एक गढ़िए में बारिश का पानी जमा था।उसी में डुबकी लगाकर खुद को स्वच्छ करने लगे।कीचड़ से मुक्ति पाकर राजन फिर अपने प्रिय की घर को चल पड़े।
इधर सुंदरी अपने घर मे बैठी बाहर होती बारिश को निहार रही थी।भयावह अंधेरी रात में होती बारिश उसके मन मे अजीब सी उदासीनता को बढ़ावा दे रही थी।रह रहकर उसे राजन की याद आ जाती और उसके नयन इस बारिश के साथ लय में लय मिलाने लगते।इन्हीं लय के साथ दरवाजे पर हुई थाप किसी स्वर लहरियों से सुनाई पड़ते।इन्ही स्वर लहरियों में खोई हुई सुंदरी को ये भी आभास न हुआ की दरवाजे पर कोई उसके आगमन की आस में दरवाजा खड़का रहा है।जैसे ही थोड़ी देर बाद दरवाजे की आवाज़ से उसकी तंद्रा टूटी वो भागते हुए दरवाजे पर पहुँची।दरवाजा खोलने से पहले उसने आगन्तुक के बारे में जानने हेतु उसका परिचय पूछा।दरवाजे के उस पार से आती आवाज को पहचानते ही उसकी धड़कनें और उसकी आवाज़ ने उसका साथ देना छोड़ दिया।उसके हाथ कुंडी खोलने को स्वतः बढ़ गए।कुण्डियों तक पहुँचे हाथ कुछ सोच रुक गए।जो धड़कने अश्ववेग को पछाड़ रहीं थीं मानो शांत हो गयी।नयनो की चमक जो अँधरे में भी किसी को राह दिखा दे धूमिल पड़ गई।उसके गले से ने उसका साथ देना छोड़ दिया, गले से आवाज़ निकलना बंद हो गया।
दरवाजे पर ही सुंदरी पलटकर आँसू बहाने लगी।करे तो क्या करे उसकी समझ से बाहर था।एक तरफ नगर का भविष्य उससे त्याग की दुहाई दे रहा था दूसरी तरफ प्रेमी राजन उसे दरवाजा खोलने का आग्रह कर रहें थे।दिल और दिमाग के इस द्वंद में सुंदरी पिसी जा रही थी।
सुंदरी ने जी कड़ा कर कहा “राजन आप मेरे होने से पहले नगर के राजा हो।आपका राजधर्म आपको मुझसे दूर रहने को कहता है।मैं तो आपकी दासी मात्र हुँ।एक दासी को राजन का साथ शोभा नहीं देता।कृपा करके आप यहां से चले जाएं।”
“सुंदरी तुम्हारा स्थान क्या है मेरे लिए तुम्हे भी नहीं पता।मैं तुम्हे महारानी का दर्जा दूंगा।हर उस शख्स को फाँसी चढ़ा दूंगा जो तुम्हारी शान में कुछ भी कहेगा” राजन ने कहा।
“महाराज पैरों की जूती को सर पर रखकर अपने बल द्वारा उसे सही प्रमाणित करना आपको शोभा नहीं देगा।मुझपर भी इस माटी का कर्ज है उसे मैं अपने निजी स्वार्थ सिद्धि हेतु लज्जित नहीं होने दूँगी।सुंदरी का कथन था।
“सुंदरी तुम्हारे लिए जो कहो मैं करने को तैयार हूं राज पाट ,धन बल सब छोड़ने को तैयार हूं मुझे अंदर तो आने दो।वरना यही तुम्हारे द्वार पर अन्न जल त्याग कर अपने प्राण त्याग दूंगा”।राजन ने कहा।
दोनो तरफ नयनधार बह रहे थे।दोनो के दिल मे प्रिय मिलन की इच्छा बलवती थी लेकिन सुंदरी को उसके धर्म ने रोक रखा था और बड़े बड़े किलों को फतह करने वाले राजन को उस सामान्य से दरवाजे ने।अनुनय विनय करते हुए राजन ने बहुत कोशिस की लेकिन सुंदरी ने दरवाजा नहीं खोला।
अंततः राजन ने कहा “तुम खुद को मेरी दासी समझती हो तो मेरी आज्ञा का पालन करो और ये दरवाजा खोलो”
सुंदरी ने जबाब दिया “दरवाजे पर खड़ा आज्ञा देने वाला अगर महाराज होतो तो अवश्य मैं ये दरवाजा खोल देती।लेकिन एक प्रेम की चाहत रखे महाराज के लिए ये दरवाजा हमेशा के लिए बन्द है।अगर ज्यादा जिद किया आपने तो मैं आपको छोड़ मृत्यु को गले लगाना पसंद करूँगी।”
महाराज अब करें तो क्या करें।प्रेम को खोने का डर उनपर हावी हो गया अश्रुधारा बह निकली।अंत मे हर मानकर उन्होंने सुंदरी से अंतिम दर्शन की विनती की।”प्रिये तुम जीती मैं हार गया।अब कृपा करके अपने चाँद से मुखडे का अंतिम दर्शन तो करवा दो।इसके बाद मैं तुमसे कुछ नहीं मांगूगा।इतने निष्ठुर तो न बनो प्रिय”
दूसरी तरफ से केवल सिसकियों की आवाज़ आती रही।कोई और आवाज़ नहीं आयी तो व्याकुल होकर राजन ने कहा “कुछ तो बोलो प्रिय यु तुम्हारी खामोशी हमे डस रही है।कुछ भी कहो मगर यूँ खामोश तो न रहो।तुम्हारी ये खामोशी सज़ा से भी बढ़कर है मेरे लिए”
“जितना प्रेम आप मुझ निःसक्रिस्ट हाड़ मांस और रक्त मज़्ज़ा से करते हो इसका थोड़ा भाग भी ऊपरवाले पर लगाते तो भवसागर पार हो जाते।”सुंदरी ने कहा।
राजन बोले”जिस ऊपरवाले को देखा नहीं, जिसको समझा नहीं कैसे उसकी कामना करुं।इस दिल मे तो केवल तुम और तुम्हारा प्रेम बसा है।कैसे किसी और को जगह दे दु।रही मेरी बात अगर मैं इतना ही सचेत होता तो इस घनघोर रात्रि के इस बेला में यहाँ तुमसे प्रेम याचना न कर रहा होता।तुम ही मेरे खुदा और तुम्हारा प्रेम ही मेरा तारणहार है।चाहो तो मेरी नैया पार लगा दो या बीच भंवर में ही डूबा दो”
दोनो तरफ कुछ पल की खामोशी छाई रही फिर सुंदरी ने बहुत ही शांत श्वर में कहा “मुझे पाना है तो एक शर्त है।वचन दे मानेंगे ?”राजन ने सहर्ष ही स्वीकार कर लिया और कहा “प्रिये अगर तुम मेरी जान भी मांगो तो मुझे कोई अफसोस नहीं होगा”
“मुझे भगवान चाहिये।जिस दिन भी आप उसे लेकर आवोगे मैं तभी आपको अपने प्रेम के लायक समझूगीं।”सुंदरी ने ये सोचकर कहा कि शायद इस असंभव कार्य को सुनकर राजन वापस चले जएँगे और उसका कभी ध्यान नहीं करेंगे।
राजन ने स्वीकृति दी और वहाँ से चले गए ।सुंदरी के आसुओ का वेग बढ़ता ही गया ।।
बाकी की कहानी अगले भाग में।कृपया अपनी बेबाक राय जरूर दे।
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