गुनाहों का देवता 2

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‘अबकी जाड़े में तुम्हारा ब्याह होगा तो आखिर हम लोग नयी-नयी चीज का इन्तजाम करें न। अब डॉक्टर हुए, अब डॉक्टरनी आएँगी!” सुधा बोली।

खैर, बहुत मनाने-बहलाने-फुसलाने पर सुधा मिठाई मँगवाने को राजी हुई। जब नौकर मिठाई लेने चला गया तो चन्दर ने चारों ओर देखकर पूछा, ”कहाँ गयी बिनती? उसे भी बुलाओ कि अकेले-अकेले खा लोगी!”

”वह पढ़ रही है मास्टर साहब से!”

”क्यों? इम्तहान तो खत्म हो गया, अब क्या पढ़ रही है?” चन्दर ने पूछा।

”विदुषी का दूसरा खण्ड तो दे रही है न सितम्बर में!” सुधा बोली।

”अच्छा, बुलाओ बिसरिया को भी!” चन्दर बोला।

”अच्छा, मिठाई आने दो।” सुधा ने कहा और फाइल की ओर देखकर कहा, ”मुझे इस कम्बख्त पर बहुत गुस्सा आ रहा है।”

”क्यों?”

”इसकी वजह से तुम डेढ़ महीने सीधे से बोले तक नहीं। इम्तहान वाले दिन सुबह-सुबह तुम्हें हाथ जोडऩे आयी तो तुमने सिर पर हाथ भी नहीं रखा!” सुधा ने शिकायत के स्वर में कहा।

”तो अब आशीर्वाद दे दें। अब तो खत्म हुई थीसिस। अब जितना चाहो बात कर लो। थीसिस न लिखते तो फिर तुम्हारे चन्दर को उपाधि कहाँ से मिलती?” चन्दर ने दुलार से कहा।

”तो फिर कन्वोकेशन पर तुम्हारी गाउन हम पहनकर फोटो खिंचाएँगे!” सुधा मचलकर बोली। इतने में नौकर मिठाई ले आया। ”जाओ, बिनतीजी को बुला लाओ।” चन्दर ने कहा।

बिनती आयी।

”तुम पढ़ चुकी!” चन्दर ने पूछा।

”अभी नहीं।” बिनती बोली।

”अच्छा, अब आज पढ़ाई बन्द करो, उन्हें भी बुला लाओ। मिठाई खाई जाए।” चन्दर ने कहा।

”अच्छा!” कहकर बिनती जो मुड़ी तो सुधा बोली, ”अरे लालचिन! ये तो पूछ ले कि मिठाई काहे की है?”

”मुझे मालूम है!” बिनती मुसकराती हुई बोली, ”उनके यहाँ आज गये होंगे, पम्मी के यहाँ फिर आज कुछ उस दिन जैसी बात हुई होगी।”

सुधा हँस पड़ी। चन्दर झेंप गया। बिनती चली गयी बिसरिया को बुलाने।

”अब तो ये तुमसे बोलने लगी!” सुधा ने कहा।

”हाँ, यह है बड़ी सुशील लड़की और बहुत शान्त। हमें बहुत अच्छी लगती है। बोलना तो जैसे आता ही नहीं इसे।”

”हाँ, लेकिन अब खूब सीख रही है। इसकी गुरु मिली है गेसू। हमसे भी ज्यादा गेसू से पटने लगी है इसकी। दोनों ब्याह करने जा रही हैं और दोनों उसी की बातें करती हैं जब मिलती हैं तब।” सुधा बोली।

”और कविता भी करती है यह, तुम एक बार कह रही थीं?” चन्दर ने पूछा।

”नहीं जी, असल में एक बड़ी सुन्दर-सी नोट-बुक थी, उसमें यह जाने क्या लिखती थी? हमें नहीं दिखाती थी। बाद में हमने देखा कि एक डायरी है। उसमें धोबी का हिसाब लिखती थी।”

”तो कविता नहीं लिखतीं! ताज्जुब है, वरना सोलह बरस के बाद प्रेम करके कविता करना तो लड़कियों का फैशन हो गया है, उतना ही व्यापक जितना उलटा पल्ला ओढ़ना।” चन्दर बोला।

”चला तुम्हारा नारी-पुराण!” सुधा बिगड़ी।

मिठाई खाने वाले आये। आगे-आगे बिनती, पीछे-पीछे बिसरिया। अभिवादन के बाद बिसरिया बैठ गया। ”कहो बिसरिया, तुम्हारी शिष्या कैसी है?”

”बस अद्वितीय।” कवि बिसरिया ने सिर हिलाकर कहा। सुधा मुसकरा दी, चन्दर की ओर देखकर।

”और ये सुधा कैसी थी?”

”बस अद्वितीय।” बिसरिया ने उसी तरह कहा।

”दोनों अद्वितीय हैं? साथ ही!” चन्दर ने पूछा।

सुधा और बिनती दोनों हँस दीं। बिसरिया नहीं समझ पाया कि उसने कौन-सी हँसने की बात की थी और जब नहीं समझ पाया तो पहले सिर खुजलाने लगा फिर खुद भी हँस पड़ा। उसकी हँसी पर तीनों और हँस पड़े।

”चन्दर, मास्टर साहब भी खूब हैं। एक दिन बिनती को महादेवी की वह कविता पढ़ा रहे थे, ‘विरह का जलजात जीवन,’ तो पढ़ते-पढ़ते बड़ी गहरी साँस भरने लगे।”

चन्दर और बिनती दोनों हँस पड़े। बिसरिया पहले तो खुद हँसा फिर बोला, ”हाँ भाई, क्या करें, कपूर! तुम तो जानते ही हो, मैं बहुत भावुक हूँ। मुझसे बर्दाश्त नहीं होता। एक बार तो ऐसा हुआ कि पर्चे में एक करुण रस का गीत आ गया अर्थ लिखने को। मैं उसे पढ़ते ही इतना व्यथित हो गया कि उठकर टहलने लगा। प्रोफेसर समझे मैं दूसरे लड़के की कॉपी देखने उठा हूँ, तो उन्होंने निकाल दिया। मुझे निकाले जाने का अफसोस नहीं हुआ लेकिन कविता पढक़र मुझे बहुत रुलाई आयी।”

सुधा हँसी तो चन्दर ने आँख के इशारे से मना किया और गम्भीरता से बोला, ”हाँ भाई बिसरिया, सो तो सही है ही। तुम इतने भावुक न हो तो इतना अच्छा कैसे लिख सकते हो? तो तुमने पर्चा छोड़ दिया?”

”हाँ, मैं पर्चे वगैरह की क्या परवाह करता हूँ? मेरे लिए इन सभी वस्तुओं का कुछ भी अर्थ नहीं। मैं भावना की उपासना करता हूँ। उस समय परीक्षा देने की भावना से ज्यादा सबल उस कविता की करुण भावना थी। और इस तरह मैं कितनी बार फेल हो चुका हूँ। मेरे साथ वह पढ़ता था न हरिहर टंडन, वह अब बस्ती कॉलेज का प्रिन्सिपल है। एक मेरा सहपाठी था, वह रेडियो का प्रोग्राम एक्जीक्यूटिव है…”

”और एक तुम्हारा सहपाठी तो हमने सुना कि असेम्बली का स्पीकर भी है!” चन्दर बात काटकर बोला। सुधा फिर हँस पड़ी। बिनती भी हँस पड़ी।

खैर मिठाई का भोग प्रारम्भ हुआ। बिसरिया कुछ तकल्लुफ कर रहा था तो बिनती बोली, ”खाइए, मिठाई तो विरह-रोग और भावुकता में बहुत स्वास्थ्यप्रद होती है!”

”अच्छा, अब तो बिनती का कंठ फूट निकला! अपने गुरुजी को बना रही है।” चन्दर बोला।

बिसरिया थोड़ी देर बाद चला गया। ”अब मुझे एक पार्टी में जाना है।” उसने कहा। जब आखिर में एक रसगुल्ला बच रहा तो बिनती हाथ में लेकर बोली, ”कौन लेगा?” आज पता नहीं क्यों बिनती बहुत खुश थी और बहुत बोल रही थी।

चन्दर बोला, ”हमें दो!”

सुधा बोली, ”हमें!”

बिनती ने एक बार चन्दर की ओर देखा, एक बार सुधा की ओर। चन्दर बोला, ”देखें बिनती हमारी है या सुधा की है।”

बिनती ने झट रसगुल्ला सुधा के मुख में रख दिया और सुधा के सिर पर सिर रखकर बोली-

”हम अपनी दीदी के हैं!” सुधा ने आधा रसगुल्ला बिनती को दे दिया तो बिनती चन्दर को दिखलाकर खाते हुए सुधा से बोली, ”दीदी, ये हमें बहुत बनाते हैं, अब हम भी तुम्हारी तरह बोलेंगे तो इनका दिमाग ठीक हो जाएगा।”

”हम-तुम दोनों मिलके इनका दिमाग ठीक करेंगे?” सुधा ने प्यार से बिनती को थपथपाते हुए कहा, ”अब हम तश्तरियाँ धोकर रख दें।” और तश्तरियाँ उठाकर चल दी।

”पानी नहीं दोगी?” चन्दर बोला।

बिनती पानी ले आयी और बोली, ”हम तो आपका इतना काम करते हैं और आप जब देखो तब हमें बनाते रहते हैं। आपको क्या आनन्द आता है हमें बनाने में?”

चन्दर ने पल-भर बिनती की ओर देखा और बोला, ”असल में बनने के बाद जब तुम झेंप जाती हो तो…हाँ ऐसे ही।”

बिनती ने फिर झेंपकर मुँह छिपा लिया और लाज से सकुचाकर इन्द्रवधू बन गयी। बिनती देखने-सुनने में बड़ी अच्छी थी। उसकी गठन तो सुधा की तरह नहीं थी लेकिन उसके चेहरे पर एक फिरोजी आभा थी जिसमें गुलाल के डोरे थे। आँखें उसकी बड़ी-बड़ी और पलकों में इस तरह डोलती थीं जैसे किसी सुकुमार सीपी में कोई बहुत बड़ा मोती डोले। झेंपती थी तो मुँह पर साँझ मुसकरा उठती थी और गालों में फूलों के कटोरों जैसे दो छोटे-छोटे गड्ढो। और बिनती के अंग-अंग में एक रूप की लहर थी जो नागिन की तरह लहराती थी और उसकी आदत थी कि बात करते समय अपनी गरदन जरा टेढ़ी कर लेती थी और अँगुलियों से अपने आँचल का छोर उमेठने लगती थी।

इस वक्त चन्दर की बात पर झेंप गयी और उसी तरह आँचल के छोर को उमेठती हुई, मुसकान छिपाकर उसने ऐसी निगाह से चन्दर की ओर देखा जिसमें थोड़ी लाज, थोड़ा गुस्सा, थोड़ी प्रसन्नता और थोड़ी शरारत थी।

चन्दर एकदम बोला उठा, ”अरे सुधा, सुधा, जरा बिनती की आँख देखो इस वक्त!”

”आयी अभी।” बगल के कमरे में तश्तरी रखते हुए सुधा बोली।

”बड़े खराब हैं आप?” बिनती बोली।

”हाँ, बनाओगी न आज से हमें? हमारा दिमाग ठीक करोगी न? बहुत बोल रही थी, अब बताओ!”

”बताएँ क्या? अभी तक हम बोलते नहीं थे तभी न?”

”अब अपनी ससुराल में बोलना टुइयाँ ऐसी! वहीं तुम्हारे बोल पर रीझेंगे लोग।” चन्दर ने फिर छेड़ा।

”छिह, राम-राम! ये सब मजाक हमसे मत किया कीजिए। दीदी से क्यों नहीं कहते जिनकी अभी शादी होने जा रही है।”

”अभी उनकी कहाँ, अभी तो तय भी नहीं हुई।”

”तय ही समझिए, फोटो इनकी उन लोगों ने पसन्द कर ली। अच्छा एक बात कहें, मानिएगा!” बिनती बड़े आग्रह और दीनता के स्वर में बोली।

”क्या?” चन्दर ने आश्चर्य से पूछा। बिनती आज सहसा कितना बोलने लगी है। बिनती बोली, नीचे जमीन की ओर देखती हुई-”आप हमसे ब्याह के बारे में मजाक न किया कीजिए, हमें अच्छा नहीं लगता।”

”ओहो, ब्याह अच्छा लगता है लेकिन उसके बारे में मजाक नहीं। गुड़ खाया गुलगुले से परहेज!”

”हाँ, यही तो बात है।” बिनती सहसा गम्भीर हो गयी-”आप समझते होंगे कि मैं ब्याह के लिए उत्सुक हूँ, दीदी भी समझती हैं; लेकिन मेरा ही दिल जानता है कि ब्याह की बात सुनकर मुझे कैसा लगने लगता है। लेकिन फिर भी मैंने ब्याह करने से इनकार नहीं किया। खुद दौड़-दौडक़र उस दिन दुबेजी की सेवा में लगी रही, इसलिए कि आप देख चुके हैं कि माँ का व्यवहार मुझसे कैसा है? आप यहाँ इस परिवार को देखकर समझ नहीं सकते कि मैं वहाँ कैसे रहती हूँ, कैसे माँजी की बातें बर्दाश्त करती हूँ, वह नरक है मेरे लिए, माँ की गोद नरक है और मैं किसी तरह निकल भागना चाहती हूँ। कुछ चैन तो मिलेगा!” बिनती की आँखों में आँसू आ गये और सिसकती हुई बोली, ”लेकिन आप या दीदी जब यह कहते हैं, तो मुझे लगता है कि मैं कितनी नीच हूँ, कितनी पतित हूँ कि खुद अपने ब्याह के लिए व्याकुल हूँ, लेकिन आप न कहा करें तो अच्छा है!” बिनती को आँसुओं का तार बँध गया था।

सुधा बगल के कमरे से सब कुछ सुन रही थी। आयी और चन्दर से बोली, ”बहुत बुरी बात है, चन्दर! बिनती, क्यों रो रही हो, रानी? बुआ का स्वभाव ही ऐसा है, उससे हमेशा अपना दिल दुखाने से क्या लाभ?” और पास जाकर उसको छाती से लगाकर सुधा बोली, ”मेरी राजदुलारी! अब रोना मत, ऐं! अच्छा, हम लोग कभी मजाक नहीं करेंगे! बस अब चुप हो जाओ, रानी बिटिया की तरह जाओ मुँह धो आओ।”

बिनती चली गयी। चन्दर लज्जित-सा बैठा था।

”लो, अब तुम्हें भी रुलाई आ रही है क्या?” सुधा ने बहुत दुलार से कहा, ”तुम उससे ससुराल का मजाक मत किया करो। वह बहुत दु:खी है और बहुत कदर करती है तुम्हारी। और किसी की मजाक की बात और है। हम या तुम कहते हैं तो उसे लग जाता है।”

”अच्छा, वो कह रही थी, तुम्हारी फोटो उन लोगों ने पसन्द कर ली है”-चन्दर ने बात बदलने के खयाल से कहा।

”और क्या, कोई हमारी शक्ल तुम्हारी तरह है कि लोग नापसन्द कर दें।” सुधा अकड़कर बोली।

”नहीं, सच-सच बताओ?” चन्दर ने पूछा।

”अरे जी,” लापरवाही से मुँह बिचकाकर सुधा बोली, ”उनके पसन्द करने से क्या होता है? मैं ब्याह-उआह नहीं करूँगी। तुम इस फेर में न रहना कि हमें निकाल दोगे यहाँ से।”

इतने में बिनती आ गयी। वह भी उदास थी। सुधा उठी और बिनती को पकड़ लायी और ढकेलकर चन्दर के बगल में बिठा दिया।

”लो, चन्दर! अब इसे दुलार कर लो तो अभी गुरगुराने लगे। बिल्ली कहीं की!” सुधा ने उसे हल्की-सी चपत मारकर कहा। बिनती का मुँह अपनी हथेलियों में लेकर अपने मुँह के पास लाकर आँखों में आँख डालकर कहा, ”पगली कहीं की, आँसू का खजाना लुटाती फिरती है।”

”चन्दर!” डॉ. शुक्ला ने पुकारा और चन्दर उठकर चला गया।

सुधा पर इन दिनों घूमना सवार था। सुबह हुई कि चप्पल पहनी और गायब। गेसू, कामिनी, प्रभा, लीला शायद ही कोई लड़की बची होगी जिसके यहाँ जाकर सुधा ऊधम न मचा आती हो, और चार सुख-दु:ख की बातें न कर आती हो। बिनती को घूमना कम पसन्द था, हाँ जब कभी सुधा गेसू के यहाँ जाती थी तो बिनती जरूर जाती थी, उसे सुधा की सभी मित्रों में गेसू सबसे ज्यादा पसन्द थी। डॉक्टर शुक्ला के ब्यूरो में छुट्टी हो चुकी थी पर वे सुधा का ब्याह तय करने की कोशिश कर रहे थे। इसलिए वह बाहर भी नहीं गये थे। चन्दर डेढ़ महीने तक लगातार मेहनत करने के बाद पढ़ाई-लिखाई की ओर से आराम कर रहा था और उसने निश्चित कर लिया था कि अब बरसात के पहले वह किताब छुएगा नहीं। बड़े आराम के दिन कटते थे उसके। सुबह उठकर साइकिल पर गंगा नहाने जाता था और वहाँ अक्सर ठाकुर साहब से भी मुलाकात हो जाती थी। डॉक्टर शुक्ला ने भी कई दफे इरादा किया कि वे गंगाजी चला करें लेकिन एक तो उनसे दिन में काम नहीं होता था, शाम को वे घूमते और सुबह उठकर किताब लिखते थे।

एक दिन सुबह लिख रहे थे कि चन्दर आया और उनके पैर छूकर बोला, ”प्रान्तीय सरकार का वह पुरस्कार कल शाम को आ गया!”

”कौन-सा?”

”वह जो उत्तर प्रान्त में माता और शिशुओं की मृत्यु-संख्या पर मैंने निबन्ध लिखा था, उसी पर।”

”तो क्या पदक आ गया?” डॉक्टर शुक्ला ने कहा।

”जी,” अपनी जेब में से एक मखमली डिब्बा निकालकर चन्दर ने दिया। पदक बहुत सुन्दर था। जगमगाता हुआ स्वर्णपदक जिसमें प्रान्तीय राजमुद्रा अंकित थी।

”ईश्वर तुम्हें बहुत यशस्वी करे जीवन में।” डॉक्टर शुक्ला ने पदक उसकी कमीज में अपने हाथों से लगा दिया, ”जाओ, अन्दर सुधा को दिखा आओ।”

चन्दर जाने लगा तो डॉक्टर साहब ने बुलाया, ”अच्छा, अब सुधा की शादी का इन्तजाम करना है। हमसे तो कुछ होने से रहा, तुम्हीं को सब करना होगा। और सुनो, जेठ दशहरा को लड़के का भाई और माँ देखने आ रही हैं। और बहन भी आएँगी गाँव से।”

”अच्छा?” चन्दर बैठ गया कुर्सी पर और बोला, ”कहाँ है लड़का? क्या करता है?”

”लड़का शाहजहाँपुर में है। घर के जमींदार हैं ये लोग। लड़का एम. ए. है। और अच्छे विचारों का है। उसने लिखा है कि सिर्फ दस आदमी बारात में आएँगे, एक दिन रुकेंगे। संस्कार के बाद चले जाएँगे। सिवा लड़की के गहने-कपड़े और लड़के के गहने-कपड़ों के और कुछ भी नहीं स्वीकार करेंगे।”

”अच्छा, ब्राह्मणों में तो ऐसा कुल नहीं मिलेगा।”

”तभी तो! सुधा की किस्मत है, वरना तुम बिनती के ससुर को तो देख ही चुके हो। अच्छा जाओ, सुधा से मिल आओ।”

वह सुधा के कमरे में आ गया। सुधा थी ही नहीं। वह आँगन में आया। देखा महराजिन खाना बना रही है और बिनती बरामदे में बुरादे की अँगीठी पर पकोड़ियाँ बना रही है।

”आइए,” बिनती बोली, ”दीदी तो गयी हैं गेसू को बुलाने। आज गेसू की दावत है।…पीढ़े पर बैठिएगा, लीजिए।” एक पीढ़ा चन्दर की ओर बिनती ने खिसका दिया। चन्दर बैठ गया। बिनती ने उसके हाथ में मखमली डिब्बा देखा तो पूछा, ”यह क्या लाये? कुछ दीदी के लिए है क्या? यह तो अँगूठी मालूम पड़ती है।”

”अँगूठी, वह क्या दाल में मिला के खाएगी! जंगली कहीं की! उसे क्या तमीज है अँगूठी पहनने की!”

”हमारी दीदी के लिए ऐसी बात की तो अच्छा नहीं होगा, हाँ!” उसे बिनती ने उसी तरह गरदन टेढ़ी कर आँखें डुलाते हुए धमकाया-”उन्हें नहीं अँगूठी पहननी आएगी तो क्या आपको आएगी? अब ब्याह में सोलहों सिंगार करेंगी! अच्छा, दीदी कैसी लगेंगी घूँघट काढ़ के? अभी तक तो सिर खोले चकई की तरह घूमती-फिरती हैं।”

”तुमने तो डाल ली आदत, ससुराल में रहने की!” चन्दर ने बिनती से कहा।

”अरे हमारा क्या!” एक गहरी साँस लेते हुए बिनती ने कहा, ”हम तो उसी के लिए बने थे। लेकिन सुधा दीदी को ब्याह-शादी में न फँसना पड़ता तो अच्छा था। दीदी इन सबके लिए नहीं बनी थीं। आप मामाजी से कहते क्यों नहीं?”

चन्दर ने कुछ जवाब नहीं दिया। चुपचाप बैठा हुआ सोचता रहा। बिनती भी कड़ाही में से पकौड़ियाँ निकाल-निकालकर थाली में रखने लगी। थोड़ी देर बाद जब वह घी में पकौड़ियाँ डाल चुकी तब भी वह वैसे ही गुमसुम बैठा सोच रहा था।

”क्या सोच रहे हैं आप? नहीं बताइएगा। फिर अभी हम दीदी से कह देंगे कि बैठ-बैठे सोच रहे थे।” बिनती बोली।

”क्या तुम्हारी दीदी का डर पड़ा है?” चन्दर ने कहा।

”अपने दिल से पूछिए। हमसे नहीं बन सकते आप!” बिनती ने मुसकराकर कहा और उसके गालों में फूलों के कटोरे खिल गये-”अच्छा, इस डिब्बे में क्या है, कुछ प्राइवेट!”

”नहीं जी, प्राइवेट क्या होगा, और वह भी तुमसे? सोने का मेडल है। मिला है मुझे एक लेख पर।” और चन्दर ने डिब्बा खोलकर दिखला दिया।

”आहा! ये तो बहुत अच्छा है। हमें दे दीजिए।” बिनती बोली।

”क्या करेगी तू?” चन्दर ने हँसकर पूछा।

”अपने आनेवाले जीजाजी के लिए कान के बुन्दे बनवा लेंगे।” बिनती बोली, ”अरे हाँ, आपको एक चीज दिखाएँगे।”

”क्या?”

”यह नहीं बताते। देखिएगा तो उछल पडि़एगा।”

”तो दिखाओ न!”

”अभी तो दीदी आ रही होंगी। दीदी के सामने नहीं दिखाएँगे।”

”सुधा से छिपाकर हम कुछ नहीं कर सकते, यह तुम जानती हो।” चन्दर बोला।

”छिपाने की बात थोड़े ही है। देखकर तब उन्हें बता दीजिएगा। वैसे वह खुद ही सुधा दीदी से क्या छिपाते हैं? लो, सुधा दीदी तो आ गयीं…”

चन्दर ने पीछे मुडक़र देखा। सुधा के हाथ में एक लम्बा-सा सरकंडा था और उसे झंडे की तरह फहराती हुई चली आ रही थी। चन्दर हँस पड़ा।

”खिल गये दीदी को देखते ही!” बिनती बोली और एक गरम पकौड़ी चन्दर के ऊपर फेंक दी।

”अरे, बड़ी शैतान हो गयी हो तुम इधर! पाजी कहीं की!” चन्दर बोला।

सुधा चप्पल उतारकर अन्दर आयी। झूमती-इठलाती हुई चली आ रही थी।

”कहो, सेठ स्वार्थीमल!” उसने चन्दर को देखते ही कहा, ”सुबह हुई और पकौड़ी की महक लग गयी तुम्हें!” पीढ़ा खींचकर उसके बगल में बैठ गयी और सरकंडा चन्दर के हाथ पर रखते हुए बोली, ”लो, यह गन्ना। घर में बो देना। और गँडेरी खाना! अच्छा!” और हाथ बढ़ाकर वह डिबिया उठा ली और बोली, ”इसमें क्या है? खोलें या न खोलें?”

”अच्छा, खत तक तो हमारे बिना पूछे खोल लेती हो। इसे पूछ के खोलोगी!”

”अरे हमने सोचा शायद इस डिबिया में पम्मी का दिल बन्द हो। तुम्हारी मित्र है, शायद स्मृति-चिह्नï में वही दे दिया हो।” और सुधा ने डिबिया खोली तो उछल पड़ी, ”यह तो उसी निबन्ध पर मिला है जिसका चार्ट तुम बनाये थे!”

”हाँ!”

”तब तो ये हमारा है।” डिबिया अपने वक्ष में छिपाकर सुधा बोली।

”तुम्हारा तो है ही। मैं अपना कब कहता हूँ?” चन्दर ने कहा।

”लगाकर देखें!” और उठकर सुधा चल दी।

”बिनती, दो पकौड़ी तो दो।” और दो पकौड़ियाँ लेकर खाते हुए चन्दर सुधा के कमरे में गया। देखा, सुधा शीशे के सामने खड़ी है और मेडल अपनी साड़ी में लगा रही है। वह चुपचाप खड़ा होकर देखने लगा। सुधा ने मेडल लगाया और क्षण-भर तनकर देखती रही फिर उसे एक हाथ से वक्ष पर चिपका लिया और मुँह झुकाकर उसे चूम लिया।

”बस, कर दिया न गन्दा उसे!” चन्दर मौका नहीं चूका।

और सुधा तो जैसे पानी-पानी। गालों से लाज की रतनारी लपटें फूटीं और एड़ी तक धधक उठीं। फौरन शीशे के पास से हट गयी और बिगड़कर बोली, ”चोर कहीं के! क्या देख रहे थे?”

बिनती इतने में तश्तरी में पकौड़ी रखकर ले आयी। सुधा ने झट से मेडल उतार दिया और बोली, ”लो, रखो सहेजकर।”

”क्यों, पहने रहो न!”

”ना बाबा, परायी चीज, अभी खो जाये तो डाँड़ भरना पड़े।” और मेडल चन्दर की गोद में रख दिया।

बिनती ने धीमे से कहा, ”या मुरली मुरलीधर की अधरा न धरी अधरा न धरौंगी।”

चन्दर और सुधा दोनों झेंप गये। ”लो, गेसू आ गयी।”

सुधा की जान में जान आ गयी। चन्दर ने बिनती का कान पकडक़र कहा, ”बहुत उलटा-सीधा बोलने लगी है!”

बिनती ने कान छुड़ाते हुए कहा, ”कोई झूठ थोड़े ही कहती हूँ!”

चन्दर चुपचाप सुधा के कमरे में पकौडिय़ाँ खाता रहा। बगल के कमरे में सुधा, गेसू, फूल और हसरत बैठे बातें करते रहे। बिनती उन लोगों को नाश्ता देती रही। उस कमरे में नाश्ता पहुँचाकर बिनती एक गिलास में पानी लेकर चन्दर के पास आयी और पानी रखकर बोली, ”अभी हलुआ ला रही हूँ, जाना मत!” और पल-भर में तश्तरी में हलुआ रखकर ले आयी।

”अब मैं चल रहा हूँ!” चन्दर ने कहा।

”बैठो, अभी हम एक चीज दिखाएँगे। जरा गेसू से बात कर आएँ।” बिनती बड़े भोले स्वर में बोली, ”आइए, हसरत मियाँ।” और पल-भर में नन्हें-मुन्ने-से छह वर्ष के हसरत मियाँ तनजेब का कुरता और चूड़ीदार पायजामे पर पीले रेशम की जाकेट पहने कमरे में खरगोश की तरह उछल आये।

”आदाबर्ज।” बड़े तमीज से उन्होंने चन्दर को सलाम किया।

चन्दर ने उसे गोद में उठाकर पास बिठा दिया। ”लो, हलुआ खाओ, हसरत!”

हसरत ने सिर हिला दिया और बोला, ”गेसू ने कहा था, जाकर चन्दर भाई से हमारा आदाब कहना और कुछ खाना मत! हम खाएँगे नहीं।”

चन्दर बोला, ”हमारा भी नमस्ते कह दो उनसे जाकर।”

हसरत उठ खड़ा हुआ-”हम कह आएँ।” फिर मुडक़र बोला, ”आप तब तक हलुआ खत्म कर देंगे?”

चन्दर हँस पड़ा, ”नहीं, हम तुम्हारा इन्तजार करेंगे, जाओ।”

हसरत सिर हिलाता हुआ चला गया।

इतने में सुधा आयी और बोली, ”गेसू की गजल सुनो यहाँ बैठकर। आवाज आ रही है न! फूल भी आयी है इसलिए गेसू तुम्हारे सामने नहीं आएगी वरना फूल अम्मीजान से शिकायत कर देगी। लेकिन वह तुमसे मिलने को बहुत इच्छुक है, अच्छा यहीं से सुनना बैठे-बैठे…”

सुधा चली गयी। गेसू ने गाना शुरू किया बहुत महीन, पतली लेकिन बेहद मीठी आवाज में जिसमें कसक और नशा दोनों घुले-मिले थे। चन्दर एक तकिया टेककर बैठ गया और उनींदा-सा सुनने लगा। गजल खत्म होते ही सुधा भागकर आयी-”कहो, सुन लिया न!” और उसके पीछे-पीछे आया हसरत और सुधा के पैरों में लिपटकर बोला, ”सुधा, हम हलुआ नहीं खाएँगे!”

सुधा हँस पड़ी, ”पागल कहीं का। ले खा।” और उसके मुँह में हलुआ ठूँस दिया। हसरत को गोद में लेकर वह चन्दर के पास बैठ गयी और गेसू के बारे में बताने लगी, ”गेसू गर्मियाँ बिताने नैनीताल जा रही है। वहीं अख्तर की अम्मी भी आएँगी और मँगनी की रस्म वहीं पूरी करेंगी। अब वह पढ़ेगी नहीं। जुलाई तक उसका निकाह हो जाएगा। कल रात की गाड़ी से जा रहे हैं ये लोग। वगैरह-वगैरह।”

बिनती बैठी-बैठी गेसू और फूल से बातें करती रही। थोड़ी देर बाद सुधा उठकर चली गयी। तुम जाना मत, आज खाना यहीं खाना, मैं बिनती को तुम्हारे पास भेज रही हूँ, उससे बातें करते रहना।”

थोड़ी देर बाद बिनती आयी। उसके हाथ में कुछ था जिसे वह अपने आँचल से छिपाये हुई थी। आयी और बोली, ”अब दीदी नहीं हैं, जल्दी से देख लीजिए।”

”क्या है?” चन्दर ने ताज्जुब से पूछा।

”जीजाजी की फोटो।” बिनती ने मुसकराकर कहा और एक छोटी-सी बहुत कलात्मक फोटो चन्दर के हाथ में रख दी।

”अरे यह तो मिश्र है। कॉमरेड कैलाश मिश्र।” और चन्दर के दिमाग में बरेली की बातें, लाठी चार्ज…सभी कुछ घूम गया। चन्दर के मन में इस वक्त जाने कैसा-सा लग रहा था। कभी बड़ा अचरज होता, कभी एक सन्तोष होता कि चलो सुधा के भाग्य की रेखा उसे अच्छी जगह ले गयी, फिर कभी सोचता कि मिश्र इतना विचित्र स्वभाव का है, सुधा की उससे निभेगी या नहीं? फिर सोचता, नहीं सुधा भाग्यवान है। इतना अच्छा लड़का मिलना मुश्किल था।

”आप इन्हें जानते हैं?” बिनती ने पूछा।

”हाँ, सुधा भी उन्हें नाम से जानती है शक्ल से नहीं। लेकिन अच्छा लड़का है, बहुत अच्छा लड़का।” चन्दर ने एक गहरी साँस लेकर कहा और फिर चुप हो गया। बिनती बोली, ”क्या सोच रहे हैं आप?”

”कुछ नहीं।” पलकों में आये हुए आँसू रोककर और होठों पर मुसकान लाने की कोशिश करते हुए बोला, ”मैं सोच रहा हूँ, आज कितना सन्तोष है मुझे, कितनी खुशी है मुझे, कि सुधा एक ऐसे घर जा रही है जो इतना अच्छा है, ऐसे लड़के के साथ जा रही है जो इतना ऊँचा”…कहते-कहते चन्दर की आँखें भर आयीं।

बिनती चन्दर के पास खड़ी होकर बोली, ”छिह, चन्दर बाबू! आपकी आँखों में आँसू! यह तो अच्छा नहीं लगता। जितनी पवित्रता और ऊँचाई से आपने सुधा के साथ निबाह किया है, यह तो शायद देवता भी नहीं कर पाते और दीदी ने आपको जैसा निश्छल प्यार दिया है उसको पाकर तो आदमी स्वर्ग से भी ऊँचा उठ जाता है, फौलाद से भी ज्यादा ताकतवर हो जाता है, फिर आज इतने शुभ अवसर पर आप में कमजोरी कहाँ से? हमें तो बड़ी शरम लग रही है। आज तक दीदी तो दूर, हम तक को आप पर गर्व था। अच्छा, मैं फोटो रख तो आऊँ वरना दीदी आ जाएँगी!” बिनती ने फोटो ली और चली गयी।

बिनती जब लौटी तो चन्दर स्वस्थ था। बिनती की ओर क्षण भर चन्दर ने देखा और कहा, ”मैं इसलिए नहीं रोया था बिनती, मुझे यह लगा कि यहाँ कैसा लगेगा। खैर जाने दो।”

”एक दिन तो ऐसा होता ही है न, सहना पड़ेगा!” बिनती बोली।

”हाँ, सो तो है; अच्छा बिनती, सुधा ने यह फोटो देखी है?” चन्दर ने पूछा।

”अभी नहीं, असल में मामाजी ने मुझसे कहा था कि यह फोटो दिखा दे सुधा को; लेकिन मेरी हिम्मत नहीं पड़ी। मैंने उनसे कह दिया कि चन्दर आएँगे तो दिखा देंगे। आप जब ठीक समझें तो दिखा दें। जेठ दशहरा अगले ही मंगल को है।” बिनती ने कहा।

”अच्छा।” एक गहरी साँस लेकर चन्दर बोला।

बिनती थोड़ी देर तक चन्दर की ओर एकटक देखती रही। चन्दर ने उसकी निगाह चुरा ली और बोला, ”क्या देख रही हो, बिनती?”

”देख रही हूँ कि आपकी पलकें झपकती हैं या नहीं?” बिनती बहुत गम्भीरता से बोली।

”क्यों?”

”इसलिए कि मैंने सुना था, देवताओं की पलकें कभी नहीं गिरतीं।”

चन्दर एक फीकी हँसी हँसकर रह गया।

”नहीं, आप मजाक न समझें। मैंने अपनी जिंदगी में जितने लोग देखे, उनमें आप-जैसा कोई भी नहीं मिला। कितने ऊँचे हैं आप, कितना विशाल हृदय है आपका! दीदी कितनी भाग्यशाली हैं।”

चन्दर ने कुछ जवाब नहीं दिया। ”जाओ, फोटो ले आओ।” उसने कहा, ”आज ही दिखा दूँ। जाओ, खाना भी ले आओ। अब घर जाकर क्या करना है।”

पापा को खाना खिलाने के बाद चन्दर और सुधा खाने बैठे। महराजिन चली गयी थी। इसलिए बिनती सेंक-सेंककर रोटी दे रही थी। सुधा एक रेशमी सनिया पहने चौके के अन्दर खा रही थी। और चन्दर चौके के बाहर। सुबह के कच्चे खाने में डॉक्टर शुक्ला बहुत छूत-छात का विचार रखते थे।

”देखो, आज बिनती ने रोटी बनायी है तो कितनी मीठी लग रही है, एक तुम बनाती हो कि मालूम ही नहीं पड़ता रोटी है कि सोख्ता!” चन्दर ने सुधा को चिढ़ाते हुए कहा।

सुधा ने हँसकर कहा, ”हमें बिनती से लड़ाने की कोशिश कर रहे हो! बिनती की हमसे जिंदगी-भर लड़ाई नहीं हो सकती!”

”अरे हम सब समझते हैं इनकी बात!” बिनती ने रोटी पटकते हुए कहा और जब सुधा सिर झुकाकर खाने लगी तो बिनती ने आँख के इशारे से पूछा, ”कब दिखाओगे?”

चन्दर ने सिर हिलाया और फिर सुधा से बोला, ”तुम उन्हें चिट्ठी लिखोगी?”

”किन्हें?”

”कैलाश मिश्रा को, वही बरेली वाले? उन्होंने हमें खत लिखा था उसमें तुम्हें प्रणाम लिखा था।” चन्दर बोला।

”नहीं, खत-वत नहीं लिखते। उन्हें एक दफे बुलाओ तो यहाँ।”

”हाँ, बुलाएँगे अब महीने-दो महीने बाद, तब तुमसे खूब परिचय करा देंगे और तुम्हें उसकी पार्टी में भी भरती करा देंगे।” चन्दर ने कहा।

”क्या? हम मजाक नहीं करते? हम सचमुच समाजवादी दल में शामिल होंगे।” सुधा बोली, ”अब हम सोचते हैं कुछ काम करना चाहिए, बहुत खेल-कूद लिये, बचपन निभा लिया।”

”उन्होंने अपना चित्र भेजा है। देखोगी?” चन्दर ने जेब में हाथ डालते हुए पूछा।

”कहाँ?” सुधा ने बहुत उत्सुकता से पूछा, ”निकालो देखें।”

”पहले बताओ, हमें क्या इनाम दोगी? बहुत मुश्किल से भेजा उन्होंने चित्र!” चन्दर ने कहा।

”इनाम देंगे इन्हें!” सुधा बोली और झट से झपटकर चित्र छीन लिया।

”अरे, छू लिया चौके में से?” बिनती ने दबी जबान से कहा।

सुधा ने थाली छोड़ दी। अब छू गयी थी वह; अब खा नहीं सकती थी।

”अच्छी फोटो देखी दीदी। सामने की थाली छूट गयी!” बिनती ने कहा।

सुधा ने हाथ धोकर आँचल के छोर से पकडक़र फोटो देखी और बोली, ”चन्दर, सचमुच देखो! कितने अच्छे लग रहे हैं। कितना तेज है चेहरे पर, और माथा देखो कितना ऊँचा है।” सुधा फोटो देखती हुई बोली।

”अच्छी लगी फोटो? पसन्द है?” चन्दर ने बहुत गम्भीरता से पूछा।

”हाँ, हाँ, और समाजवादियों की तरह नहीं लगते ये।” सुधा बोली।

”अच्छा सुधा, यहाँ आओ।” और चन्दर के साथ सुधा अपने कमरे में जाकर पलँग पर बैठ गयी। चन्दर उसके पास बैठ गया और उसका हाथ अपने हाथ में लेकर उसकी अँगूठी घुमाते हुए बोला, ”सुधा, एक बात कहें, मानोगी?”

”क्या?” सुधा ने बहुत दुलार और भोलेपन से पूछा।

”पहले बता दो कि मानोगी?” चन्दर ने उसकी अँगूठी की ओर एकटक देखते हुए कहा।

”फिर, हमने कभी कोई बात तुम्हारी टाली है! क्या बात है?”

”तुम मानोगी चाहे कुछ भी हो?” चन्दर ने पूछा।

”हाँ-हाँ, कह तो दिया। अब कौन-सी तुम्हारी ऐसी बात है जो तुम्हारी सुधा नहीं मान सकती!” आँखों में, वाणी में, अंग-अंग से सुधा के आत्मसमर्पण छलक रहा था।

”फिर अपनी बात पर कायम रहना, सुधा! देखो!” उसने सुधा की उँगलियाँ अपनी पलकों से लगाते हुए कहा, ”सुधी मेरी! तुम उस लड़के से ब्याह कर लो!”

”क्या?” सुधा चोट खायी नागिन की तरह तड़प उठी-”इस लड़के से? यही शकल है इसकी हमसे ब्याह करने की! चन्दर, हम ऐसा मजाक नापसन्द करते हैं, समझे कि नहीं! इसलिए बड़े प्यार से बुला लाये, बड़ा दुलार कर रहे थे!”

”तुम अभी वायदा कर चुकी हो!” चन्दर ने बहुत आजिजी से कहा।

”वायदा कैसा? तुम कब अपने वायदे निभाते हो? और फिर यह धोखा देकर वायदा कराना क्या? हिम्मत थी तो साफ-साफ कहते हमसे! हमारे मन में आता सो कहते। हमें इस तरह से बाँध कर क्यों बलिदान चढ़ा रहे हो!” और सुधा मारे गुस्से के रोने लगी।

चन्दर स्तब्ध। उसने इस दृश्य की कल्पना ही नहीं की थी। वह क्षण भर खड़ा रहा। वह क्या कहे सुधा से, कुछ समझ ही में नहीं आता था। वह गया और रोती हुई सुधा के कंधे पर हाथ रख दिया। ”हटो उधर!” सुधा ने बहुत रुखाई से हाथ हटा दिया और आँचल से सिर ढकती हुई बोली, ”मैं ब्याह नहीं करूँगी, कभी नहीं करूँगी। किसी से नहीं करूँगी। तुम सभी लोगों ने मिलकर मुझे मार डालने की ठानी है। तो मैं अभी सिर पटककर मर जाऊँगी।” और मारे तैश के सचमुच सुधा ने अपना सिर दीवार पर पटक दिया। ”अरे!” दौडक़र चन्दर, ने सुधा को पकड़ लिया। मगर सुधा ने गरजकर कहा, ”दूर हटो चन्दर, छूना मत मुझे।” और जैसे उसमें जाने कहाँ की ताकत आ गयी है, उसने अपने को छुड़ा लिया।

चन्दर ने दबी जबान से कहा, ”छिह सुधा! यह तुमसे उम्मीद नहीं थी मुझे। यह भावुकता तुम्हें शोभा नहीं देती। बातें कैसी कर रही हो तुम! हम वही चन्दर हैं न!”

”हाँ, वही चन्दर हो! और तभी तो! इस सारी दुनिया में तुम्हीं एक रह गये हो मुझे फोटो दिखाकर पसन्द कराने को।” सुधा सिसक-सिसककर रोने लगी-”पापा ने भी धोखा दे दिया। हमें पापा से यह उम्मीद नहीं थी।”

”पगली! कौन अपनी लड़की को हमेशा अपने पास रख पाया है!” चन्दर बोला।

”तुम चुप रहो, चन्दर। हमें तुम्हारी बोली जहर लगती है। ‘सुधा, यह फोटो तुम्हें पसन्द है?’ तुम्हारी जबान हिली कैसे? शरम नहीं आयी तुम्हें। हम कितना मानते थे पापा को, कितना मानते थे तुम्हें? हमें यह नहीं मालूम था कि तुम लोग ऐसा करोगे।” थोड़ी देर चुपचाप सिसकती रही सुधा और फिर धधककर उठी-”कहाँ है वह फोटो? लाओ, अभी मैं जाऊँगी पापा के पास! मैं कहूँगी उनसे हाँ, मैं इस लड़के को पसन्द करती हूँ। वह बहुत अच्छा है, बहुत सुन्दर है। लेकिन मैं उससे शादी नहीं करूँगी, मैं किसी से शादी नहीं करूँगी! झूठी बात है…” और उठकर पापा के कमरे की ओर जाने लगी।

”खबरदार, जो कदम बढ़ाया!” चन्दर ने डाँटकर कहा, ”बैठो इधर।”

”मैं नहीं रुकूँगी!” सुधा ने अकडक़र कहा।

”नहीं रुकोगी?”

”नहीं रुकूँगी।”

और चन्दर का हाथ तैश में उठा और एक भरपूर तमाचा सुधा के गाल पर पड़ा। सुधा के गाल पर नीली उँगलियाँ उपट आयीं। वह स्तब्ध! जैसे पत्थर बन गयी हो। आँख में आँसू जम गये। पलकों में निगाहें जम गयीं। होठों में आवाजें जम गयीं और सीने में सिसकियाँ जम गयीं।

चन्दर ने एक बार सुधा की ओर देखा और कुर्सी पर जैसे गिर पड़ा और सिर पटककर बैठ गया। सुधा कुर्सी के पास जमीन पर बैठ गयी। चन्दर के घुटनों पर सिर रख दिया। बड़ी भारी आवाज में बोली, ”चन्दर, देखें तुम्हारे हाथ में चोट तो नहीं आयी।”

चन्दर ने सुधा की ओर देखा, एक ऐसी निगाह से जिसमें कब्र मुँह फाड़कर जमुहाई ले रही थी। सुधा एकाएक फिर सिसक पड़ी और चन्दर के पैरों पर सिर रखकर बोली, ”चन्दर, सचमुच मुझे अपने आश्रय से निकालकर ही मानोगे! चन्दर, मजाक की बात दूसरी है, जिंदगी में तो दुश्मनी मत निकाला करो।”

चन्दर एक गहरी साँस लेकर चुप हो गया। और सिर थामकर बैठ गया। पाँच मिनट बीत गये। कमरे में सन्नाटा, गहन खामोशी। सुधा चन्दर के पाँवों को छाती से चिपकाये सूनी-सूनी निगाहों से जाने कुछ देख रही थी दीवारों के पार, दिशाओं के पार, क्षितिजों से परे…दीवार पर घड़ी चल रही थी टिक…टिक…

चन्दर ने सिर उठाया और कहा, ”सुधा, हमारी तरफ देखो-” सुधा ने सिर ऊपर उठाया। चन्दर बोला, ”सुधा, तुम हमें जाने क्या समझ रही होगी, लेकिन अगर तुम समझ पाती कि मैं क्या सोचता हूँ! क्या समझता हूँ।” सुधा कुछ नहीं बोली, चन्दर कहता गया, ”मैं तुम्हारे मन को समझता हूँ, सुधा! तुम्हारे मन ने जो तुमसे नहीं कहा, वह मुझसे कह दिया था-लेकिन सुधा, हम दोनों एक-दूसरे की जिंदगी में क्या इसीलिए आये कि एक-दूसरे को कमजोर बना दें या हम लोगों ने स्वर्ग की ऊँचाइयों पर साथ बैठकर आत्मा का संगीत सुना सिर्फ इसीलिए कि उसे अपने ब्याह की शहनाई में बदल दें?”

”गलत मत समझो चन्दर, मैं गेसू नहीं कि अख्तर से ब्याह के सपने देखूँ और न तुम्हीं अख्तर हो, चन्दर! मैं जानती हूँ कि मैं तुम्हारे लिए राखी के सूत से भी ज्यादा पवित्र रही हूँ लेकिन मैं जैसी हूँ, मुझे वैसी ही क्यों नहीं रहने देते! मैं किसी से शादी नहीं करूँगी। मैं पापा के पास रहूँगी। शादी को मेरा मन नहीं कहता, मैं क्यों करूँ? तुम गुस्सा मत हो, दुखी मत हो, तुम आज्ञा दोगे तो मैं कुछ भी कर सकती हूँ, लेकिन हत्या करने से पहले यह तो देख लो कि मेरे हृदय में क्या है?” सुधा ने चन्दर के पाँवों को अपने हृदय से और भी दबाकर कहा।

”सुधा, तुम एक बात सोचो। अगर तुम सबका प्यार बटोरती चलती हो तो कुछ तुम्हारी जिम्मेदारी है या नहीं? पापा ने आज तक तुम्हें किस तरह पाला। अब क्या तुम्हारा यह फर्ज है कि तुम उनकी बात को ठुकराओ? और एक बात और सोचो-हम पर कुछ विश्वास करके ही उन्होंने कहा है कि मैं तुमसे फोटो पसन्द कराऊँ? अगर अब तुम इनकार कर देती हो तो एक तरफ पापा को तुमसे धक्का पहुँचेगा, दूसरी ओर मेरे प्रति उनके विश्वास को कितनी चोट लगेगी। हम उन्हें क्या मुँह दिखाने लायक रहेंगे भला! तो तुम क्या चाहती हो? महज अपनी थोड़ी-सी भावुकता के पीछे तुम सभी की जिंदगी चौपट करने के लिए तैयार हो? यह तुम्हें शोभा नहीं देता है। क्या कहेंगे पापा, कि चन्दर ने अभी तक तुम्हें यही सिखाया था? हमें लोग क्या कहेंगे? बताओ। आज तुम शादी न करो। उसके बाद पापा हमेशा के लिए दु:खी रहा करें और दुनिया हमें कहा करे, तब तुम्हें अच्छा लगेगा?”

”नहीं।” सुधा ने भर्राये हुए गले से कहा।

”तब, और फिर एक बात और है न सुधी! सोने की पहचान आग में होती है न! लपटों में अगर उसमें और निखार आये तभी वह सच्चा सोना है। सचमुच मैंने तुम्हारे व्यक्तित्व को बनाया है या तुमने मेरे व्यक्तित्व को बनाया है, यह तो तभी मालूम होगा जबकि हम लोग कठिनाइयों से, वेदनाओं से, संघर्षों से खेलें और बाद में विजयी हों और तभी मालूम होगा कि सचमुच मैंने तुम्हारे जीवन में प्रकाश और बल दिया था। अगर सदा तुम मेरी बाँहों की सीमा में रहीं और मैं तुम्हारी पलकों की छाँव में रहा और बाहर के संघर्षों से हम लोग डरते रहे तो कायरता है। और मुझे अच्छा लगेगा कि दुनिया कहे कि मेरी सुधा, जिस पर मुझे नाज था, वह कायर है? बोलो। तुम कायर कहलाना पसन्द करोगी?”

”हाँ!” सुधा ने फिर चन्दर के घुटनों में मुँह छिपा लिया।

”क्या? यह मैं सुधा के मुँह से सुन रहा हूँ! छिह पगली! अभी तक तेरी निगाहों ने मेरे प्राणों में अमृत भरा है और मेरी साँसों ने तेरे पंखों में तूफानों की तेजी। और हमें-तुम्हें तो आज खुश होना चाहिए कि अब सामने जो रास्ता है उसमें हम लोगों को यह सिद्ध करने का अवसर मिलेगा कि सचमुच हम लोगों ने एक-दूसरे को ऊँचाई और पवित्रता दी है। मैंने आज तक तुम्हारी सहायता पर विश्वास किया था। आज क्या तुम मेरा विश्वास तोड़ दोगी? सुधा, इतनी क्रूर क्यों हो रही हो आज तुम? तुम साधारण लड़की नहीं हो। तुम ध्रुवतारा से ज्यादा प्रकाशमान हो। तुम यह क्यों चाहती हो कि दुनिया कहे, सुधा भी एक साधारण-सी भावुक लड़की थी और आज मैं अपने कान से सुनूँ! बोलो सुधी?” चन्दर ने सुधा के सिर पर हाथ रखकर कहा।

सुधा ने आँखें उठायीं, बड़ी कातर निगाहों से चन्दर की ओर देखा और सिर झुका लिया। सुधा के सिर पर हाथ फेरते हुए चन्दर बोला-

”सुधा, मैं जानता हूँ मैं तुम पर शायद बहुत सख्ती कर रहा हूँ, लेकिन तुम्हारे सिवा और कौन है मेरा? बताओ। तुम्हीं पर अपना अधिकार भी आजमा सकता हूँ। विश्वास करो मुझ पर सुधा, जीवन में अलगाव, दूरी, दुख और पीड़ा आदमी को महान बना सकती है। भावुकता और सुख हमें ऊँचे नहीं उठाते। बताओ सुधा, तुम्हें क्या पसन्द है? मैं ऊँचा उठूँ तुम्हारे विश्वास के सहारे, तुम ऊँची उठो मेरे विश्वास के सहारे, इससे अच्छा और क्या है सुधा! चाहो तो मेरे जीवन को एक पवित्र साधन बना दो, चाहो तो एक छिछली अनुभूति।”

सुधा ने एक गहरी साँस ली, क्षण-भर घड़ी की ओर देखा और बोली, ”इतनी जल्दी क्या है अभी, चन्दर? तुम जो कहोगे मैं कर लूँगी!” और फिर वह सिसकने लगी-”लेकिन इतनी जल्दी क्या हैï? अभी मुझे पढ़ लेने दो!”

”नहीं, इतना अच्छा लड़का फिर मिलेगा नहीं। और इस लड़के के साथ तुम वहाँ पढ़ भी सकती हो। मैं जानता हूँ उसे। वह देवताओं-सा निश्छल है। बोलो, मैं पापा से कह दूँ कि तुम्हें पसन्द है?”

सुधा कुछ नहीं बोली।

”मौन का मतलब हाँ है न?” चन्दर ने पूछा।

सुधा ने कुछ नहीं कहा। झुककर चन्दर के पैरों को अपने होठों से छू लिया और पलकों से दो आँसू चू पड़े। चन्दर ने सुधा को उठा लिया और उसके माथे पर हाथ रखकर कहा, ”ईश्वर तुम्हारी आत्मा को सदा ऊँचा बनाएगा, सुधा!” उसने एक गहरी साँस लेकर कहा, ”मुझे तुम पर गर्व है,” और फोटो उठाकर बाहर चलने लगा।

”कहाँ जा रहे हो! जाओ मत!” सुधा ने उसका कुरता पकडक़र बड़ी आजिजी से कहा, ”मेरे पास रहो, तबीयत घबराती है?”

चन्दर पलँग पर बैठ गया। सुधा तकिये पर सिर रखकर लेट गयी और फटी-फटी पथराई आँखों से जाने क्या देखने लगी। चन्दर भी चुप था, बिल्कुल खामोश। कमरे में सिर्फ घड़ी चल रही थी, टिक…टिक…

थोड़ी देर बाद सुधा ने चन्दर के पैरों को अपने तकिये के पास खींच लिया और उसके तलवों पर होठ रखकर उसमें मुँह छिपाकर चुपचाप लेटी रही। बिनती आयी। सुधा हिली भी नहीं! चन्दर ने देखा वह सो गयी थी। बिनती ने फोटो उठाकर इशारे से पूछा, ”मंजूर?” ”हाँ।” बिनती ने बजाय खुश होने के चन्दर की ओर देखकर सिर झुका लिया और चली गयी।

सुधा सो रही थी और चन्दर के तलवों में उसकी नरम क्वाँरी साँसें गूँज रही थीं। चन्दर बैठा रहा चुपचाप। उसकी हिम्मत न पड़ी कि वह हिले और सुधा की नींद तोड़ दे। थोड़ी देर बाद सुधा ने करवट बदली तो वह उठकर आँगन के सोफे पर जाकर लेट रहा और जाने क्या सोचता रहा।

जब उठा तो देखा धूप ढल गयी है और सुधा उसके सिरहाने बैठी उसे पंखा झल रही है। उसने सुधा की ओर एक अपराधी जैसी कातर निगाहों से देखा और सुधा ने बहुत दर्द से आँखें फेर लीं और ऊँचाइयों पर आखिरी साँसें लेती हुई मरणासन्न धूप की ओर देखने लगी।

चन्दर उठा और सोचने लगा तो सुधा बोली, ”कल आओगे कि नहीं?”

”क्यों नहीं आऊँगा?” चन्दर बोला।

”मैंने सोचा शायद अभी से दूर होना चाहते हो।” एक गहरी साँस लेकर सुधा बोली और पंखे की ओट में आँसू पोंछ लिये।

चन्दर दूसरे दिन सुबह नहीं गया। उसकी थीसिस का बहुत-सा भाग टाइप होकर आ गया था और उसे बैठा वह सुधार रहा था। लेकिन साथ ही पता नहीं क्यों उसका साहस नहीं हो रहा था वहाँ जाने का। लेकिन मन में एक चिन्ता थी सुधा की। वह कल से बिल्कुल मुरझा गयी थी। चन्दर को अपने ऊपर कभी-कभी क्रोध आता था। लेकिन वह जानता था कि यह तकलीफ का ही रास्ता ठीक रास्ता है। वह अपनी जिंदगी में सस्तेपन के खिलाफ था। लेकिन उसके लिए सुधा की पलक का एक आँसू भी देवता की तरह था और सुधा के फूलों-जैसे चेहरे पर उदासी की एक रेखा भी उसे पागल बना देती थी। सुबह पहले तो वह नहीं गया, बाद में स्वयं उसे पछतावा होने लगा और वह अधीरता से पाँच बजने का इन्तजार करने लगा।

पाँच बजे, और वह साइकिल लेकर पहुँचा। देखा, सुधा और बिनती दोनों नहीं हैं। अकेले डॉक्टर शुक्ला अपने कमरे में बैठे हैं। चन्दर गया। ”आओ, सुधा ने तुमसे कह दिया, उसे पसन्द है?” डॉक्टर शुक्ला ने पूछा।

”हाँ, उसे कोई एतराज नहीं।” चन्दर ने कहा।

”मैं पहले से जानता था। सुधा मेरी इतनी अच्छी है, इतनी सुशील है कि वह मेरी इच्छा का उल्लंघन तो कर ही नहीं सकती। लेकिन चन्दर, कल से उसने खाना-पीना छोड़ दिया है। बताओ, इससे क्या फायदा? मेरे बस में क्या है? मैं उसे हमेशा तो रख नहीं सकता। लेकिन, लेकिन आज सुबह खाते वक्त वह बैठी भी नहीं मेरे पास बताओ…” उनका गला भर आया-”बताओ, मेरा क्या कसूर है?”

चन्दर चुप था।

”कहाँ है सुधा?” चन्दर ने पूछा।

”गैरेज में मोटर ठीक कर रही है। मैं इतना मना किया कि धूप में तप जाओगी, लू लग जाएगी-लेकिन मानी ही नहीं! बताओ, इस झल्लाहट से मुझे कैसा लगता है?” वृद्ध पिता के कातर स्वर में डॉक्टर ने कहा, ”जाओ चन्दर, तुम्हीं समझाओ! मैं क्या कहूँ?”

चन्दर उठकर गया। मोटर गैरेज में काफी गरमी थी, लेकिन बिनती वहीं एक चटाई बिछाये पड़ी सो रही थी और सुधा इंजन का कवर उठाये मोटर साफ करने में लगी हुई थी। बिनती बेहोश सो रही थी। तकिया चटाई से हटकर जमीन पर चला गया था और चोटी फर्श पर सोयी हुई नागिन की तरह पड़ी थी। बिनती का एक हाथ छाती पर था और एक हाथ जमीन पर। आँचल, आँचल न रहकर चादर बन गया था। चन्दर के जाते ही सुधा ने मुँह फेरकर देखा-”चन्दर, आओ।” क्षीण मुसकराहट उसके होठों पर दौड़ गयी। लेकिन इस मुसकराहट में उल्लास लुट चुका था, रेखाएँ बाकी थीं। सहसा उसने मुडक़र देखा-”बिनती! अरे, कैसे घोड़ा बेचकर सो रही है! उठ! चन्दर आये हैं!” बिनती ने आँखें खोलीं, चन्दर की ओर देखा, लेटे-ही-लेटे नमस्ते किया और आँचल सँभालकर फिर करवट बदलकर सो गयी।

”बहुत सोती है कम्बख्त!” सुधा बोली, ”इतना कहा इससे कमरे में जाकर पंखे में सो! लेकिन नहीं, जहाँ दीदी रहेगी, वहीं यह भी रहेगी। मैं गैरेज में हूँ तो यह कैसे कमरे में रहे। वहीं मरेगी जहाँ मैं मरूँगी।”

”तो तुम्हीं क्यों गैरेज में थीं! ऐसी क्या जरूरत थी अभी ठीक करने की!” चन्दर ने कहा, लेकिन कोशिश करने पर भी सुधा को आज डाँट नहीं पा रहा था। पता नहीं कहाँ पर क्या टूट गया था।

”नहीं चन्दर, तबीयत ही नहीं लग रही थी। क्या करती! क्रोसिया उठायी, वह भी रख दिया। कविता उठायी, वह भी रख दी। कविता वगैरह में तबीयत नहीं लगी। मन में आया, कोई कठोर काम हो, कोई नीरस काम हो लोहे-लक्कड़, पीतल-फौलाद का, तो मन लग जाए। तो चली आयी मोटर ठीक करने।”

”क्यों, कविता में भी तबीयत नहीं लगी? ताज्जुब है, गेसू के साथ बैठकर तुम तो कविता में घंटों गुजार देती थीं!” चन्दर बोला।

”उन दिनों शायद किसी को प्यार करती रही होऊँ तभी कविता में मन लगता था!” सुधा उस दिन की पुरानी बात याद करके बहुत उदास हँसी हँसी-”अब प्यार नहीं करती होऊँगी, अब तबीयत नहीं लगती। बड़ी फीकी, बड़ी बेजार, बड़ी बनावटी लगती हैं ये कविताएँ, मन के दर्द के आगे सभी फीकी हैं।” और फिर वह उन्हीं पुरजों में डूब गयी। चन्दर भी चुपचाप मोटर की खिडक़ी से टिककर खड़ा हो गया। और चुपचाप कुछ सोचने लगा।

सुधा ने बिना सिर उठाये, झुके-ही-झुके, एक हाथ से एक तार लपेटते हुए कहा-

”चन्दर, तुम्हारे मित्र का परिवार आ रहा है, इसी मंगल को। तैयारी करो जल्दी।”

”कौन परिवार, सुधा?”

”हमारे जेठ और सास आ रही हैं, इसी बैसाखी को हमें देखने। उन्होंने तिथि बदल दी है। तो अब छह ही दिन रह गये हैं।”

चन्दर कुछ नहीं बोला। थोड़ी देर बाद सुधा फिर बोली-

”अगर उचित समझो तो कुछ पाउडर-क्रीम ले आना, लगाकर जरा गोरे हो जाएँ तो शायद पसन्द आ जाएँ! क्यों, ठीक है न!” सुधा ने बड़ी विचित्र-सी हँसी हँस दी और सिर उठाकर चन्दर की ओर देखा। चन्दर चुप था लेकिन उसकी आँखों में अजीब-सी पीड़ा थी और उसके माथे पर बहुत ही करुण छाँह।

सुधा ने कवर गिरा दिया और चन्दर के पास जाकर बोली, ”क्यों चन्दर, बुरा मान गये हमारी बात का? क्या करें चन्दर, कल से हम मजाक करना भी भूल गये। मजाक करते हैं तो व्यंग्य बन जाता है। लेकिन हम तुमको कुछ कह नहीं रहे थे, चन्दर। उदास न होओ।” बड़े ही दुलार से सुधा बोली, ”अच्छा, हम कुछ नहीं कहेंगे।” और उसने अपना आँचल सँभालने के लिए हाथ उठाया। हाथ में कालौंच लग गयी थी। चन्दर समझा मेरे कन्धे पर हाथ रख रही है सुधा। वह अलग हटा तो सुधा अपने हाथ देखकर बोली, ”घबराओ न देवता, तुम्हारी उज्ज्वल साधना में कालिख नहीं लगाऊँगी। अपने आँचल में पोंछ लूँगी।” और सचमुच आँचल में हाथ पोंछकर बोली, ”चलो, अन्दर चलें, उठ बिनती! बिलैया कहीं की!”

चन्दर को सोफे पर बिठाकर उसी की बगल में सुधा बैठ गयी और अँगुलियाँ तोड़ते हुए कहा, ”चन्दर, सिर में बहुत दर्द हो रहा है मेरे।”

”सिर में दर्द नहीं होगा तो क्या? इतनी तपिश में मोटर बना रही थीं! पापा कितने दुखी हो रहे थे आज? तुम्हें इस तरह करना चाहिए? फिर फायदा क्या हुआ? न ऐसे दु:खी किया, वैसे दु:खी कर लिया। बात तो वही रही न? तारीफ तो तब थी कि तुम अपनी दुनिया में अपने हाथ से आग लगा देती और चेहरे पर शिकन न आती। अभी तक दुनिया की सभी ऊँचाई समेटकर भी बाहर से वही बचपन कायम रखा था तुमने, अब दुनिया का सारा सुख अपने हाथ से लुटाने पर भी वही बचपन, वही उल्लास क्यों नहीं कायम रखती!”

”बचपन!” सुधा हँसी-”बचपन अब खत्म हो गया, चन्दर! अब मैं बड़ी हो गयी।”

”बड़ी हो गयी! कब से?”

”कल दोपहर से, चन्दर!”

चन्दर चुप। थोड़ी देर बाद फिर स्वयं सुधा ही बोली, ”नहीं चन्दर, दो-तीन दिन में ठीक हो जाऊँगी! तुम घबराओ मत। मैं मृत्यु-शैय्या पर भी होऊँगी तो तुम्हारे आदेश पर हँस सकती हूँ।” और फिर सुधा गुमसुम बैठ गयी। चन्दर चुपचाप सोचता रहा और बोला, ”सुधी! मेरा तुम्हें कुछ भी ध्यान नहीं है?”

”और किसका है, चन्दर! तुम्हारा ध्यान न होता तो देखती मुझे कौन झुका सकता था। आज से सालों पहले जब मैं पापा के पास आयी थी तो मैंने कभी न सोचा था कि कोई भी होगा जिसके सामने मैं इतना झुक जाऊँगी।…अच्छा चन्दर, मन बहुत उचट रहा है! चलो, कहीं घूम आएँ! चलोगे?”

”चलो!” चन्दर ने कहा।

”जाएँ बिनती को जगा लाएँ। वह कमबख्त अभी पड़ी सो रही है।” सुधा उठकर चली गयी। थोड़ी देर में बिनती आँख मलते बगल में चटाई दाबे आयी और फिर बरामदे में बैठकर ऊँघने लगी। पीछे-पीछे सुधा आयी और चोटी खींचकर बोली, ”चल तैयार हो! चलेंगे घूमने।”

थोड़ी देर में तैयार हो गये। सुधा ने जाकर मोटर निकाली और बोली चन्दर से-”तुम चलाओगे या हम? आज हमीं चलाएँ। चलो, किसी पेड़ से लड़ा दें मोटर आज!”

”अरे बाप रे।” पीछे बिनती चिल्लायी, ”तब हम नहीं जाएँगे।”

सुधा और चन्दर दोनों ने मुडक़र उसे देखा और उसकी घबराहट देखकर दंग रह गये।

”नहीं। मरेगी नहीं तू!” सुधा ने कहा। और आगे बैठ गयी।

”बिनती, तू पीछे बैठेगी?” सुधा ने पूछा।

”न भइया, मोटर चलेगी तो मैं गिर जाऊँगी।”

”अरे कोई मोटर के पीछे बैठने के लिए थोड़ी कह रही हूँ। पीछे की सीट पर बैठेगी?” सुधा ने पूछा।

”ओ! मैं समझी तुम कह रही हो पीछे बैठने के लिए जैसी बग्घी में साईस बैठते हैं! हम तुम्हारे पास बैठेंगे।” बिनती ने मचलकर कहा।

”अब तेरा बचपन इठला रहा है, बिल्ली कहीं की, चल आ मेरे पास!” बिनती मुसकराती हुई जाकर सुधा के बगल में बैठ गयी। सुधा ने उसे दुलार से पास खींच लिया। चन्दर पीछे बैठा तो सुधा बोली, ”अगर कुछ हर्ज न समझो तो तुम भी आगे आ जाओ या दूरी रखनी हो तो पीछे ही बैठो।”

चन्दर आगे बैठ गया। बीच में बिनती, इधर चन्दर उधर सुधा।

मोटर चली तो बिनती चीखी, ”अरे मेरे मास्टर साहब!”

चन्दर ने देखा, बिसरिया चला जा रहा था, ”आज नहीं पढ़ेंगे…” चन्दर ने चिल्लाकर कहा। सुधा ने मोटर रोकी नहीं।

चन्दर को बेहद अचरज हुआ जब उसने देखा कि मोटर पम्मी के बँगले पर रुकी। ”अरे यहाँ क्यों?” चन्दर ने पूछा।

”यों ही।” सुधा ने कहा। ”आज मन हुआ कि मिस पम्मी से अँगरेजी कविता सुनें।”

”क्यों, अभी तो तुम कह रही थीं कि कविता पढऩे में आज तुम्हारा मन ही नहीं लग रहा है!”

”कुछ कहो मत चन्दर, आज मुझे जो मन में आये, कर लेने दो। मेरा सिर बेहद दर्द कर रहा है। और मैं कुछ समझ नहीं पाती क्या करूँ। चन्दर तुमने अच्छा नहीं किया?”

चन्दर कुछ नहीं बोला। चुपचाप आगे चल दिया। सुधा के पीछे-पीछे कुछ संकोच करती हुई-सी बिनती आ रही थी।

पम्मी बैठी कुछ लिख रही थी। उसने उठकर सबों का स्वागत किया। वह कोच पर बैठ गयी। दूसरी पर सुधा, चन्दर और बिनती। सुधा ने बिनती का परिचय पम्मी से कराया और पम्मी ने बिनती से हाथ मिलाया तो बिनती जाने क्यों चन्दर की ओर देखकर हँस पड़ी। शायद उस दिन की घटना की याद में।

सहसा सुधा को जाने क्या खयाल आ गया, बिनती की शरारत-भरी हँसी देखकर कि उसने फौरन कहा चन्दर से-”चन्दर, तुम पम्मी के पास बैठो, दो मित्रों को साथ बैठना चाहिए।”

”हाँ, और खास तौर से जब वह कभी-कभी मिलते हों।”-बिनती ने मुसकराते हुए जोड़ दिया। पम्मी ने मजाक समझ लिया और बिना शरमाये बोली-

”हम लोगों को मध्यस्थ की जरूरत नहीं, धन्यवाद! आओ चन्दर, यहाँ आओ।” पम्मी ने चन्दर को बुलाया। चन्दर उठकर पम्मी के पास बैठ गया। थोड़ी देर तक बातें होती रहीं। मालूम हुआ, बर्टी अपने एक दोस्त के साथ तराई के पास शिकार खेलने गया है। आजकल वह दिल की शक्ल का एक पाननुमा दफ्ती का टुकड़ा काटकर उसमें गोली मारा करता है और जब किसी चिड़िया वगैरह को मारता है तो शिकार को उठाकर देखता है कि गोली हृदय में लगी है या नहीं। स्वास्थ्य उसका सुधर रहा है। सुधा कोच पर सिर टेके उदास बैठी थी। सहसा पम्मी ने बिनती से कहा, ”आपको पहली दफे देखा मैंने। आप बातें क्यों नहीं करतीं?”

बिनती ने झेंपकर मुँह झुका लिया। बड़ी विचित्र लड़की थी। हमेशा चुप रहती थी और कभी-कभी बोलने की लहर आती तो गुटरगूँ करके घर गुँजा देती थी और जिन दिनों चुप रहती थी उन दिनों ज्यादातर आँख की निगाह, कपोलों की आशनाई या अधरों की मुसकान के द्वारा बातें करती थी। पम्मी बोली, ”आपको फूलों से शौक है?”

”हाँ, हाँ” बिनती सिर हिलाकर बोली।

”चन्दर, इन्हें जाकर गुलाब दिखा लाओ। इधर फिर खूब खिले हैं!”

बिनती ने सुधा से कहा, ”चलो दीदी।” और चन्दर के साथ बढ़ गयी।

फूलों के बीच में पहुँचकर, बिनती ने चन्दर से कहा, ”सुनिए, दीदी को तो जाने क्या होता जा रहा है। बताइए, ऐसे क्या होगा?”

”मैं खुद परेशान हूँ, बिनती! लेकिन पता नहीं कहाँ मन में कौन-सा विश्वास है जो कहता है कि नहीं, सुधा अपने को सँभालना जानती है, अपने मन को सन्तुलित करना जानती है और सुधा सचमुच ही त्याग में ज्यादा गौरवमयी हो सकती है।” इसके बाद चन्दर ने बात टाल दी। वह बिनती से ज्यादा बात करना नहीं चाहता था, सुधा के बारे में।

बिनती ने चन्दर को मौन देखा तो बोली, ”एक बात कहें आपसे? मानिएगा!”

”क्या?”

”अगर हमसे कभी कोई अनधिकार चेष्टा हो जाए तो क्षमा कर दीजिएगा, लेकिन आप और दीदी दोनों मुझे इतना चाहते हैं कि हम समझ नहीं पाते कि व्यवहारों को कहाँ सीमित रखूँ!” बिनती ने सिर झुकाये एक फूल को नोचते हुए कहा।

चन्दर ने उसकी ओर देखा, क्षण-भर चुप रहा, फिर बोला, ”नहीं बिनती, जब सुधा तुम्हें इतना चाहती है तो तुम हमेशा मुझ पर उतना ही अधिकार समझना जितना सुधा पर।”

उधर पम्मी ने चन्दर के जाते ही सुधा से कहा, ”क्या आपकी तबीयत खराब है?”

”नहीं तो।”

”आज आप बहुत पीली नजर आती हैं!” पम्मी ने पूछा।

”हाँ, कुछ मन नहीं लग रहा था तो मैं आपके पास चली आयी कि आपसे कुछ कविताएँ सुनूँ, अँगरेजी की। दोपहर को मैंने कविता पढऩे की कोशिश की तो तबीयत नहीं लगी और शाम को लगा कि अगर कविता नहीं सुनूँगी तो सिर फट जाएगा।” सुधा बोली।

”आपके मन में कुछ संघर्ष मालूम पड़ता है, या शायद…एक बात पूछूँ आपसे?”

”क्या, पूछिए?”

”आप बुरा तो नहीं मानेंगी?”

”नहीं, बुरा क्यों मानूँगी?”

”आप कपूर को प्यार तो नहीं करतीं? उससे विवाह तो नहीं करना चाहतीं?”

”छिह, मिस पम्मी, आप कैसी बातें कर रही हैं। उसका मेरे जीवन में कोई ऐसा स्थान नहीं। छिह, आपकी बात सुनकर शरीर में काँटे उठ आते हैं। मैं और चन्दर से विवाह करूँगी! इतनी घिनौनी बात तो मैंने कभी नहीं सुनी!”

”माफ कीजिएगा, मैंने यों ही पूछा था। क्या चन्दर किसी को प्यार करता है?”

”नहीं, बिल्कुल नहीं!” सुधा ने उतने ही विश्वास से कहा जितने विश्वास से उसने अपने बारे में कहा था।

इतने में चन्दर और बिनती आ गये। सुधा बोली अधीरता से, ”मेरा एक-एक क्षण कटना मुश्किल हो रहा है, आप शुरू कीजिए कुछ गाना!”

”कपूर, क्या सुनोगे?” पम्मी ने कहा।

”अपने मन से सुनाओ! चलो, सुधा ने कहा तो कविता सुनने को मिली!”

पम्मी ने आलमारी से एक किताब उठायी और एक कविता गाना शुरू की-अपनी हेयर पिन निकालकर मेज पर रख दी और उसके बाल मचलने लगे। चन्दर के कन्धे से वह टिककर बैठ गयी और किताब चन्दर की गोद में रख दी। बिनती मुसकरायी तो सुधा ने आँख के इशारे से मना कर दिया। पम्मी ने गाना शुरू किया, लेडी नार्टन का एक गीत-

मैं तुम्हें प्यार नहीं करती हूँ न! मैं तुम्हें प्यार नहीं करती हूँ।

फिर भी मैं उदास रहती हूँ जब तुम पास नहीं होते हो!

और मैं उस चमकदार नीले आकाश से भी ईष्र्या करती हूँ

जिसके नीचे तुम खड़े होगे और जिसके सितारे तुम्हें देख सकते हैं…”

चन्दर ने पम्मी की ओर देखा। सुधा ने अपने ही वक्ष में अपना सिर छुपा लिया। पम्मी ने एक पद समाप्त कर एक गहरी साँस ली और फिर शुरू किया-

”मैं तुम्हें प्यार नहीं करती हूँ-फिर भी तुम्हारी बोलती हुई आँखें;

जिनकी नीलिमा में गहराई, चमक और अभिव्यक्ति है-

मेरी निर्निमेष पलकों और जागते अर्धरात्रि के आकाश में नाच जाती हैं!

और किसी की आँखों के बारे में ऐसा नहीं होता…”

सुधा ने बिनती को अपने पास खींच लिया और उसके कन्धे पर सिर टेककर बैठ गयी। पम्मी गाती गयी-

”न मुझे मालूम है कि मैं तुम्हें प्यार नहीं करती हूँ, लेकिन फिर भी,

कोई शायद मेरे साफ दिल पर विश्वास नहीं करेगा।

और अकसर मैंने देखा है, कि लोग मुझे देखकर मुसकरा देते हैं

क्योंकि मैं उधर एकटक देखती हूँ, जिधर से तुम आया करते हो!”

गीत का स्वर बड़े स्वाभाविक ढंग से उठा, लहराने लगा, काँप उठा और फिर धीरे-धीरे एक करुण सिसकती हुई लय में डूब गया। गीत खत्म हुआ तो सुधा का सिर बिनती के कंधे पर था और चन्दर का हाथ पम्मी के कन्धे पर। चन्दर थोड़ी देर सुधा की ओर देखता रहा फिर पम्मी की एक हल्की सुनहरी लट से खेलते हुए बोला, ”पम्मी, तुम बहुत अच्छा गाती हो!”

”अच्छा? आश्चर्यजनक! कहो चन्दर, पम्मी इतनी अच्छी है यह तुमने कभी नहीं बताया था, हमें फिर कभी सुनाइएगा?”

”हाँ, हाँ मिस शुक्ला! काश कि बजाय लेडी नार्टन के यह गीत आपने लिखा होता!”

सुधा घबरा गयी, ”चलो। चन्दर, चलें अब! चलो।” उसने चन्दर का हाथ पकडक़र खींच लिया-”मिस पम्मी, अब फिर कभी आएँगे। आज मेरा मन ठीक नहीं है।”

चन्दर ड्राइव करने लगा। बिनती बोली, ”हमें आगे हवा लगती है, हम पीछे बैठेंगे।”

कार चली तो सुधा बोली, ”अब मन कुछ शान्त है, चन्दर। इसके पहले तो मन में कैसे तूफान आपस में लड़ रहे थे, कुछ समझ में नहीं आता। अब तूफान बीत गये। तूफान के बाद की खामोश उदासी है।” सुधा ने गहरी साँस ली, ”आज जाने क्यों बदन टूट रहा है।” बैठे ही बैठे बदन उमेठते हुए कहा।

दूसरे दिन चन्दर गया तो सुधा को बुखार आ गया था। अंग-अंग जैसे टूट रहा हो और आँखों में ऐसी तीखी जलन कि मानो किसी ने अंगारे भर दिये हों। रात-भर वह बेचैन रही, आधी पागल-सी रही। उसने तकिया, चादर, पानी का गिलास सभी उठाकर फेंक दिया, बिनती को कभी बुलाकर पास बिठा लेती, कभी उसे दूर ढकेल देती। डॉक्टर साहब परेशान, रात-भर सुधा के पास बैठे, कभी उसका माथा, कभी उसके तलवों में बर्फ मलते रहे। डॉक्टर घोष ने बताया यह कल की गरमी का असर है। बिनती ने एक बार पूछा, ”चन्दर को बुलवा दें?” तो सुधा ने कहा, ”नहीं, मैं मर जाऊँ तो! मेरे जीते जी नहीं!” बिनती ने ड्राइवर से कहा, ”चन्दर को बुला लाओ।” तो सुधा ने बिगडक़र कहा, ”क्यों तुम सब लोग मेरी जान लेने पर तुले हो?” और उसके बाद कमजोरी से हाँफने लगी। ड्राइवर चन्दर को बुलाने नहीं गया।

जब चन्दर पहुँचा तो डॉक्टर साहब रात-भर के जागरण के बाद उठकर नहाने-धोने जा रहे थे। ”पता नहीं सुधा को क्या हो गया कल से! इस वक्त तो कुछ शान्त है पर रात-भर बुखार और बेहद बेचैनी रही है। और एक ही दिन में इतनी चिड़चिड़ी हो गयी है कि बस…” डॉक्टर साहब ने चन्दर को देखते ही कहा।

चन्दर जब कमरे में पहुँचा तो देखा कि सुधा आँख बन्द किये हुए लेटी है और बिनती उसके सिर पर आइस-बैग रखे हुए है। सुधा का चेहरा पीला पड़ गया है और मुँह पर जाने कितनी ही रेखाओं की उलझन है, आँखें बन्द हैं और पलकों के नीचे से अँगारों की आँच छनकर आ रही है। चन्दर की आहट पाते ही सुधा ने आँखें खोलीं। अजब-सी आग्नेय निगाहों से चन्दर की ओर देखा और बिनती से बोली, ”बिनती, इनसे कह दो जाएँ यहाँ से।”

बिनती स्तब्ध, चन्दर नहीं समझा, पास आकर बैठ गया, बोला, ”सुधा, क्यों, पड़ गयी न, मैंने कहा था कि गैरेज में मोटर साफ मत करो। परसों इतना रोयी, सिर पटका, कल धूप खायी। आज पड़ रही! कैसी तबीयत है?”

सुधा उधर खिसक गयी और अपने कपड़े समेट लिये, जैसे चन्दर की छाँह से भी बचना चाहती है और तेज, कड़वी और हाँफती हुई आवाज में बोली, ”बिनती, इनसे कह दो जाएँ यहाँ से।”

चन्दर चुप हो गया और एकटक सुधा की ओर देखने लगा और सुधा की बात ने जैसे चन्दर का मन मरोड़ दिया। कितनी गैरियत से बात कर रही है सुधा! सुधा, जो उसके अपने व्यक्तित्व से ज्यादा अपनी थी, आज किस स्वर में बोल रही है! ”सुधी, क्या हुआ तुम्हें?” चन्दर ने बहुत आहत हो बहुत दुलार-भरी आवाज में पूछा।

”मैं कहती हूँ जाओगे नहीं तुम?” फुफकारकर सुधा बोली, ”कौन हो तुम मेरी बीमारी पर सहानुभूति प्रकट करने वाले? मेरी कुशल पूछने वाले? मैं बीमार हूँ, मैं मर रही हूँ, तुमसे मतलब? तुम कौन हो? मेरे भाई हो? मेरे पिता हो? कल अपने मित्र के यहाँ मेरा अपमान कराने ले गये थे!” सुधा हाँफने लगी।

”अपमान! किसने तुम्हारा अपमान किया, सुधा? पम्मी ने तो कुछ भी नहीं कहा? तुम पागल तो नहीं हो गयीं?” चन्दर ने सुधा के पैरों पर हाथ रखते हुए कहा।

”पागल हो नहीं गयी तो हो जाऊँगी!” उसने पैर हटा लिये, ”तुम, पम्मी, गेसू, पापा डॉक्टर सब लोग मिलकर मुझे पागल कर दोगे। पापा कहते है ब्याह करो, पम्मी कहती है मत करो, गेसू कहती है तुम प्यार करती हो और तुम…तुम कुछ भी नहीं कहते। तुम मुझे इस नरक में बरसों से सुलगते देख रहे हो और बजाय इसके कि तुम कुछ कहो, तुमने मुझे खुद इस भट्टी में ढकेल दिया!…चन्दर, मैं पागल हूँ, मैं क्या करूँ?” सुधा बड़े कातर स्वर में बोली। चन्दर चुप था। सिर्फ सिर झुकाये, हाथों पर माथा रखे बैठा था। सुधा थोड़ी देर हाँफती रही। फिर बोली-

”तुम्हें क्या हक था कल पम्मी के यहाँ ले जाने का? उसने क्यों कल गीत में कहा कि मैं तुम्हें प्यार करती हूँ?” सुधा बोली। चन्दर ने बिनती की ओर देखा-”क्यों बिनती? बिनती से मैं कुछ नहीं छिपाता!” ”क्यों पम्मी ने कल कहा, मैं तुम्हें प्यार नहीं करती! मेरा मन मुझे धोखा नहीं दे सकता। मैं तुमसे सिर्फ जाने क्या करती हूँ…फिर पम्मी ने कल ऐसी बात क्यों कही? मेरे रोम-रोम में जाने कौन-सा ज्वालामुखी धधक उठता है ऐसी बातें सुनकर? तुम क्यों पम्मी के यहाँ ले गये?”

”तुम खुद गयी थीं, सुधा!” चन्दर बोला।

”तो तुम रोक नहीं सकते थे! तुम कह देते मत जाओ तो मैं कभी जा सकती थी? तुमने क्यों नहीं रोका? तुम हाथ पकड़ लेते। तुम डाँट देते। तुमने क्यों नहीं डाँटा? एक ही दिन में मैं तुम्हारी गैर हो गयी? गैर हूँ तो फिर क्यों आये हो? जाओ यहाँ से। मैं कहती हूँ; जाओ यहाँ से?” दाँत पीसकर सुधा बोली।

”सुधा…”

”मैं तुम्हारी बोली नहीं सुनना चाहती। जाते हो कि नहीं…” और सुधा ने अपने माथे पर से उठाकर आइस-बैग फेंक दिया। बिनती चौंक उठी। चन्दर चौंक उठा। उसने मुडक़र सुधा की ओर देखा। सुधा का चेहरा डरावना लग रहा था। उसका मन रो आया। वह उठा, क्षण-भर सुधा की ओर देखता रहा और धीरे-धीरे कमरे से बाहर चला गया।

बरामदे के सोफे पर आकर सिर झुकाकर बैठ गया और सोचने लगा, यह सुधा को क्या हो गया? परसों शाम को वह इसी सोफे पर सोया था, सुधा बैठी पंखा झल रही थी। कल शाम को वह हँस रही थी, लगता था तूफान शान्त हो गया पर यह क्या? अन्तर्द्वंद्व ने यह रूप कैसे ले लिया?

और क्यों ले लिया? जब वह अपने मन को शान्त रख सकता है, जब वह सभी कुछ हँसते-हँसते बरदाश्त कर सकता है तो सुधा क्यों नहीं कर सकती? उसने आज तक अपनी साँसों से सुधा का निर्माण किया है। सुधा को तिल-तिल बनाया, सजाया, सँवारा है फिर सुधा में यह कमजोरी क्यों?

क्या उसने यह रास्ता अख्तियार करके भूल की? क्या सुधा भी एक साधारण-सी लड़की है जिसके प्रेम और घृणा का स्तर उतना ही साधारण है? माना उसने अपने दोनों के लिए एक ऐसा रास्ता अपनाया है जो विलक्षण है लेकिन इससे क्या! सुधा और वह दोनों ही क्या विलक्षण नहीं हैं? फिर सुधा क्यों बिखर रही है? लड़कियाँ भावना की ही बनी होती हैं? साधना उन्हें आती ही नहीं क्या? उसने सुधा का गलत मूल्यांकन किया था? क्या सुधा इस ‘तलवार की धार’ पर चलने में असमर्थ साबित होगी? यह तो चन्दर की हार थी।

और फिर सुधा ऐसी ही रही तो चन्दर? सुधा चन्दर की आत्मा है; इसे अब चन्दर खूब अच्छी तरह पहचान गया। तो क्या अपनी ही आत्मा को घोंट डालने की हत्या का पाप चन्दर के सिर पर है?

तो क्या त्याग मात्र नाम ही है? क्या पुरुष और नारी के सम्बन्ध का एक ही रास्ता है-प्रणय, विवाह और तृप्ति! पवित्रता, त्याग और दूरी क्या सम्बन्धों को, विश्वासों को जिन्दा नहीं रहने दे सकते? तो फिर सुधा और पम्मी में क्या अन्तर है? क्या सुधा के हृदय के इतने समीप रहकर, सुधा के व्यक्तित्व में घुल-मिलकर और आज सुधा को इतने अन्तर पर डालकर चन्दर पाप कर रहा है? तो क्या फूल को तोड़कर अपने ही बटन होल में लगा लेना ही पुण्य है और दूसरा रास्ता गर्हित है? विनाशकारी है? क्यों उसने सुधा का व्यक्तित्व तोड़ दिया है?

किसी ने उसके कन्धे पर हाथ रखा। विचार-शृंखला टूट गयी…बिनती थी। ”क्या सोच रहे हैं आप?” बिनती ने पूछा, बहुत स्नेह से।

”कुछ नहीं!”

”नहीं बताइएगा? हम नहीं जान सकते?” बिनती के स्वर में ऐसा आग्रह, ऐसा अपनापन, ऐसी निश्छलता रहती थी कि चन्दर अपने को कभी नहीं रोक पाता था। छिपा नहीं पाता था।

”कुछ नहीं बिनती! तुम कहती हो, सुधा को इतने अन्तर पर मैंने रखा तो मैं देवता हूँ! सुधा कहती है, मैंने अन्तर पर रखा, मैंने पाप किया! जाने क्या किया है मैंने? क्या मुझे कम तकलीफ है? मेरा जीवन आजकल किस तरह घायल हो गया है, मैं जानता हूँ। एक पल मुझे आराम नहीं मिलता। क्या उतनी सजा काफी नहीं थी जो सुधा को भी किस्मत यह दण्ड दे रही है? मुझी को सभी बचैनी और दु:ख मिल जाता। सुधा को मेरे पाप का दण्ड क्यों मिल रहा है? बिनती, तुमसे अब कुछ नहीं छिपा। जिसको मैं अपनी साँसों में दुबकाकर इन्द्रधनुष के लोक तक ले गया, आज हवा के झोंके उसे बादलों की ऊँचाई से क्यों ढकेल देना चाहते हैं? और मैं कुछ भी नहीं कर सकता?” इतनी देर बाद बिनती के ममता-भरे स्पर्श में चन्दर की आँखें छलछला आयीं।

”छिह, आप समझदार हैं! दीदी ठीक हो जाएँगी! घबराने से काम नहीं चलेगा न! आपको हमारी कसम है। उदास मत होइए। कुछ सोचिए मत। दीदी बीमार हैं, आप इस तरह से करेंगे तो कैसे काम चलेगा! उठिए, दीदी बुला रही हैं।”

चन्दर गया। सुधा ने इशारे से पास बुलाकर बिठा लिया। ”चन्दर, हमारा दिमाग ठीक नहीं है। बैठ जाओ लेकिन कुछ बोलना मत, बैठे रहो।”

उसके बाद दिन भर अजब-सा गुजरा। जब-जब चन्दर ने उठने की कोशिश की, सुधा ने उसे खींचकर बिठा लिया। घर तो उसे जाने ही नहीं दिया। बिनती वहीं खाना ले आयी। सुधा कभी चन्दर की ओर देख लेती। फिर तकिये में मुँह गड़ा लेती। बोली एक शब्द भी नहीं, लेकिन उसकी आँखों में अजब-सी कातरता थी। पापा आये, घंटों बैठे रहे; पापा चले गये तो उसने चन्दर का हाथ अपने हाथ में ले लिया, करवट बदली और तकिये पर अपने कपोलों से चन्दर की हथेली दबाकर लेटी रही। पलकों से कितने ही गरम-गरम आँसू छलककर गालों पर फिसलकर चन्दर की हथेली भिगोते रहे।

चन्दर चुप रहा। लेकिन सुधा के आँसू जैसे नसों के सहारे उसके हृदय में उतर गये और जब हृदय डूबने लगा तो उसकी पलकों पर उतर आये। सुधा ने देखा लेकिन कुछ भी नहीं बोली। घंटा-भर बहुत गहरी साँस ली; बेहद उदासी से मुसकराकर कहा, ”हम दोनों पागल हो गये हैं, क्यों चन्दर? अच्छा, अब शाम हो गयी। जरा लॉन पर चलें।”

सुधा चन्दर के कन्धे पर हाथ रखकर खड़ी हो गयी। बिनती ने दवा दी, थर्मामीटर से बुखार देखा। बुखार नहीं था। चन्दर ने सुधा के लिए कुरसी उठायी। सुधा ने हँसकर कहा, ”चन्दर, आज बीमार हूँ तो कुरसी उठा रहे हो, मर जाऊँगी तो अरथी उठाने भी आना, वरना नरक मिलेगा! समझे न!”

”छिह, ऐसा कुबोल न बोला करो, दीदी?”

सुधा लॉन में कुरसी पर बैठ गयी। बगल में नीचे चन्दर बैठ गया। सुधा ने चन्दर का सिर अपनी कुरसी में टिका लिया और अपनी उँगलियों से चन्दर के सूखे होठों को छूते हुए कहा, ”चन्दर, आज मैंने तुम्हें बहुत दु:खी किया, क्यों? लेकिन जाने क्यों, दु:खी न करती तो आज मुझे वह ताकत न मिलती जो मिल गयी।” और सहसा चन्दर के सिर को अपनी गोद में खींचती हुई-सी सुधा ने कहा, ”आराध्य मेरे! आज तुम्हें बहुत-सी बातें बताऊँगी। बहुत-सी।”

बिनती उठकर जाने लगी तो सुधा ने कहा, ”कहाँ चली? बैठ तू यहाँ। तू गवाह रहेगी ताकि बाद में चन्दर यह न कहे कि सुधा कमजोर निकल गयी।” बिनती बैठ गयी। सुधा ने क्षण-भर आँखें बन्द कर लीं और अपनी वेणी पीठ पर से खींचकर गोद में ढाल ली और बोली, ”चन्दर, आज कितने ही साल हुए, जबसे मैंने तुम्हें जाना है, तब से अच्छे-बुरे सभी कामों का फैसला तुम्ही करते रहे हो। आज भी तुम्हीं बताओ चन्दर कि अगर मैं अपने को बहुत सँभालने की कोशिश करती हूँ और नहीं सँभाल पाती हूँ, तो यह कोई पाप तो नहीं? तुम जानते हो चन्दर, तुम जितने मजबूत हो उस पर मुझे घमंड है कि तुम कितनी ऊँचाई पर हो, मैं भी उतना ही मजबूत बनने की कोशिश करती हूँ, उतने ही ऊँचे उठने की कोशिश करती हूँ, अगर कभी-कभी फिसल जाती हूँ तो यह अपराध तो नहीं?”

”नहीं।” चन्दर बोला।

”और अगर अपने उस अन्तर्द्वंद्व के क्षणों में तुम पर कठोर हो जाती हूँ, तो तुम सह लेते हो। मैं जानती हूँ, तुम मुझे जितना स्नेह करते हो, उसमें मेरी सभी दुर्बलताएँ धुल जाती हैं। लेकिन आज मैं तुम्हें विश्वास दिलाती हूँ चन्दर कि मुझे खुद अपनी दुर्बलताओं पर शरम आती है और आगे से मैं वैसी ही बनूँगी जैसा तुमने सोचा है, चन्दर।”

चन्दर कुछ नहीं बोला सिर्फ घास पर रखे हुए सुधा के पाँवों पर अपनी काँपती उँगलियाँ रख दीं। सुधा कहती गयी, ”चन्दर, आज से कुछ ही महीने पहले जब गेसू ने मुझसे पूछा था कि तुम्हारा दिल कहीं झुका था तो मैंने इनकार कर दिया था, कल पम्मी ने पूछा, तुम चन्दर को प्यार करती हो तो मैंने इनकार कर दिया था, मैं आज भी इनकार करती हूँ कि मैंने तुम्हें प्यार किया है, या तुमने मुझे प्यार किया है। मैं भी समझती हूँ और तुम भी समझते हो लेकिन यह न तुमसे छिपा है न मुझसे कि तुमने जो कुछ दिया है वह प्यार से कहीं ज्यादा ऊँचा और प्यार से कहीं ज्यादा महान है।…मैं ब्याह नहीं करना चाहती थी, मैंने परसों इनकार कर दिया था, इतनी रोयी थी, खीझी थी, बाद में मैंने सोचा कि यह गलत है, यह स्वार्थ है। जब पापा मुझे इतना प्यार करते हैं तो मुझे उनका दिल नहीं दुखाना चाहिए। पर मन के अन्दर की जो खीझ थी, जो कुढऩ थी, वह कहीं तो उतरती ही। वह मैं अपने पर उतार देना चाहती थी, मन में आता था अपने को कितना कष्ट दे डालूँ इसीलिए अपने गैरेज में जाकर मोटर सँभाल रही थी, लेकिन वहाँ भी असफल रही और अन्त में वह खीझ अपने मन पर भी न उतारकर उस पर उतारी जिसको मैंने अपने से भी बढ़कर माना है। वह खीझ उतरी तुम पर!”

चन्दर ने सुधा की ओर देखा। सुधा मुसकराकर बोली, ”न, ऐसे मत देखो। यह मत समझो कि अपने आज के व्यवहार के लिए मैं तुमसे क्षमा मागूँगी। मैं जानती हूँ, माँगने से तुम दु:खी भी होगे और डाँटने भी लगोगे। खैर, आज से मैं अपना रास्ता पहचान गयी हूँ। मैं जानती हूँ कि मुझे कितना सँभलकर चलना है। तुम्हारे सपने को पूरा करने के लिए मुझे अपने को क्या बनाना होगा, यह भी मैं समझ गयी हूँ। मैं खुश रहूँगी, सबल रहूँगी और सशक्त रहूँगी और जो रास्ता तुम दिखलाओगे उधर ही चलूँगी। लेकिन एक बात बताओ चन्दर, मैंने ब्याह कर लिया और वहाँ सुखी न रह पायी, फिर और उन्हें वह भावना, उपासना न दे पायी और फिर तुम्हें दु:ख हुआ, तब?”

चन्दर ने घास का एक तिनका तोडक़र कहा, ”देखो सुधा, एक बात बताओ। अगर मैं तुम्हें कुछ कह देता हूँ और उसे तुम मुझी को वापस दे देती हो तो कोई बहुत ऊँची बात नहीं हुई। अगर मैंने तुम्हें सचमुच ही स्नेह या पवित्रता जो कुछ भी दिया है, उसे तुम उन सभी के जीवन में ही क्यों नहीं प्रतिफलित कर सकती जो तुम्हारे जीवन में आते हैं, चाहे वह पति ही क्यों न हों। तुम्हारे मन के अक्षय स्नेह-भंडार के उपयोग में इतनी कृपणता क्यों? मेरा सपना कुछ और ही है, सुधा। आज तक तुम्हारी साँसों के अमृत ने ही मुझे यह सामग्री दी कि मैं अपने जीवन में कुछ कर सकूँ और मैं भी यही चाहता हूँ कि मैं तुम्हें वह स्नेह दूँ जो कभी घटे ही न। जितना बाँटो उतना बढ़े और इतना मुझे विश्वास है कि तुम यदि स्नेह की एक बूँद दो तो मनुष्य क्या से क्या हो सकता है। अगर वही स्नेह रहेगा तो तुम्हारे पति को कभी कोई असन्तोष क्या हो सकता है और फिर कैलाश तो इतना अच्छा लड़का है, और उसका जीवन इतना ऊँचा कि तुम उसकी जिंदगी में ऐसी लगोगी, जैसे अँगूठी में हीरा। और जहाँ तक तुम्हारा अपना सवाल है, मैं तुमसे भीख माँगता हूँ कि अपना सब कुछ खोकर भी अगर मुझे कोई सन्तोष रहेगा तो यह देखकर कि मेरी सुधा अपने जीवन में कितनी ऊँची है। मैं तुमसे इस विश्वास की भीख माँगता हूँ।”

”छिह, मुझसे बड़े हो ,चन्दर! ऐसी बात नहीं कहते! लेकिन एक बात है। मैं जानती हूँ कि मैं चन्द्रमा हूँ, सूर्य की किरणों से ही जिसमें चमक आती है। तुमने जैसे आज तक मुझे सँवारा है, आगे भी तुम अपनी रोशनी अगर मेरी आत्मा में भरते गये तो मैं अपना भविष्य भी नहीं पहचान सकूँगी। समझे!”

”समझा, पगली कहीं की!” थोड़ी देर चन्दर चुप बैठा रहा फिर सुधा के पाँवों से सिर टिकाकर बोला-”परेशान कर डाला, तीन रोज से। सूरत तो देखो कैसी निकल आयी है और बैसाखी को कुल चार रोज रह गये। अब मत दिमाग बिगाड़ना! वे लोग आते ही होंगे!”

”बिनती! दवा ले आ…” बिनती उठकर गयी तो सुधा बोली, ”हटो, अब हम घास पर बैठेंगे!” और घास पर बैठकर वह बोली, ”लेकिन एक बात है, आज से लेकर ब्याह तक तुम हर अवसर पर हमारे सामने रहना, जो कहोगे वह हम करते जाएँगे।”

”हाँ, यह हम जानते हैं।” चन्दर ने कहा और कुछ दूर हटकर घास पर लेट गया और आकाश की ओर देखने लगा। शाम हो गयी थी और दिन-भर की उड़ी हुई धूल अब बहुत कुछ बैठ गयी थी। आकाश के बादल ठहरे हुए थे और उन पर अरुणाई झलक रही थी। एक दुरंगी पतंग बहुत ऊँचे पर उड़ रही थी। चन्दर का मन भारी था। हालाँकि जो तूफान परसों उठा था वह खत्म हो गया था, लेकिन चन्दर का मन अभी मरा-मरा हुआ-सा था। वह चुपचाप लेटा रहा। बिनती दवा और पानी ले आयी। दवा पीकर सुधा बोली, ”क्यों, चुप क्यों हो, चन्दर?”

”कोई बात नहीं।”

”फिर बोलते क्यों नहीं, देखा बिनती, अभी-अभी क्या कह रहे थे और अब देखो इन्हें।” सुधा बोली।

”हम अभी बताते हैं इन्हें!” बिनती बोली और गिलास में थोड़ा-सा पानी लेकर चन्दर के ऊपर फेंक दिया। चन्दर चौंककर उठ बैठा और बिगड़क़र बोला, ”यह क्या बदतमीजी है? अपनी दीदी को यह सब दुलार दिखाया करो।”

”तो क्यों पड़े थे ऐसे? बात करेंगे ऋषि-मुनियों जैसे और उदास रहेंगे बच्चों की तरह! वाह रे चन्दर बाबू!” बिनती ने हँसकर कहा, ”दीदी, ठीक किया न मैंने?”

”बिल्कुल ठीक, ऐसे ही इनका दिमाग ठीक होगा।”

”इतने में डॉक्टर शुक्ला आये और कुरसी पर बैठ गये। सुधा के माथे पर हाथ रखकर देखा, ”अब तो तू ठीक है?”

”हाँ, पापा!”

”बिनती, कल तुम्हारी माताजी आ रही हैं। अब बैसाखी की तैयारी करनी है। सुधा के जेठ आ रहे हैं और सास।”

सुधा चुपचाप उठकर चली गयी। चन्दर, बिनती और डॉक्टर साहब बैठे उस दिन का बहुत-सा कार्यक्रम बनाते रहे।

चन्दर को सबसे बड़ा सन्तोष था कि सुधा ठीक हो गयी थी। बैसाख पूनो के एक दिन पहले ही से बिनती ने घर को इतना साफ कर डाला था कि घर चमक उठा था। यह बात तो दूसरी है कि स्टडी-रूम की सफाई में बिनती ने चन्दर के बहुत-से कागज बुहारकर फेंक दिये थे और आँगन धोते वक्त उसने चन्दर के कपड़ों को छीटों से तर कर दिया था। उसके बदले में चन्दर ने बिनती को डाँटा था और सुधा देख-देखकर हँस रही थी और कह रही थी, ”तुम क्यों चिढ़ रहे हो? तुम्हें देखने थोड़े ही आ रही हैं हमारी सास।”

बैशाखी पूनो की सुबह डॉक्टर साहब और बुआजी गाड़ी लेकर उनको लिवा लाने गये थे। चन्दर बाहर बरामदे में बैठा अखबार पढ़ रहा था और सुधा अन्दर कमरे में बैठी थी। अब दो दिन उसे बहुत दब-ढँककर रहना होगा। वह बाहर नहीं घूम सकती थी; क्योंकि जाने कैसे और कब उसकी सास आ जाएँ और देख लें। बुआ उसे समझा गयी थीं और उसने एक गम्भीर आज्ञाकारी लड़की की तरह मान लिया था और अपने कमरे में चुपचाप बैठी थी। बिनती कढ़ी के लिए बेसन फेंट रही थी और महराजिन ने रसोई में दूध चढ़ा रखा था।

सुधा चुपके से आयी, किवाड़ की आड़ से देखा कि पापा और बुआ की मोटर आ तो नहीं रही है! जब देखा कि कोई नहीं है तो आकर चुप्पे से खड़ी हो गयी और पीछे से चन्दर के हाथ से अखबार ले लिया। चन्दर ने पीछे देखा तो सुधा एक बच्चे की तरह मुसकरा दी और बोली, ”क्यों चन्दर, हम ठीक हैं न? ऐसे ही रहें न? देखा तुम्हारा कहना मानते हैं न हम?”

”हाँ सुधी, तभी तो हम तुमको इतना दुलार करते हैं!”

”लेकिन चन्दर, एक बार आज रो लेने दो। फिर उनके सामने नहीं रो सकेंगे।” और सुधा का गला रुँध गया और आँख छलछला आयी।

”छिह, सुधा…” चन्दर ने कहा।

”अच्छा, नहीं-नहीं…” और झटके से सुधा ने आँसू पोंछ लिये। इतने में गेट पर किसी कार का भोंपू सुनाई पड़ा और सुधा भागी।

”अरे, यह तो पम्मी की कार है।” चन्दर बोला। सुधा रुक गयी। पम्मी ने पोर्टिको में आकर कार रोकी।

”हैलो, मेरे जुड़वा मित्र, क्या हाल है तुम लोगों का?” और हाथ मिलाकर बेतकल्लुफी से कुर्सी खींचकर बैठ गयी।

”इन्हें अन्दर ले चलो, चन्दर! वरना अभी वे लोग आते होंगे!” सुधा बोली।

”नहीं, मुझे बहुत जल्दी है। आज शाम को बाहर जा रही हूँ। बर्टी अब मसूरी चला गया है, वहाँ से उसने मुझे भी बुलाया है। उसके हाथ में कहीं शिकार में चोट लग गयी है। मैं तो आज जा रही हूँ।”

सुधा बोली, ”हमें ले चलिएगा?”

”चलिए। कपूर, तुम भी चलो, जुलाई में लौट आना!” पम्मी ने कहा।

”जब अगले साल हम लोगों की मित्रता की वर्षगाँठ होगी तो मैं चलूँगा।” चन्दर ने कहा।

”अच्छा, विदा!” पम्मी बोली। चन्दर और सुधा ने हाथ जोड़े तो पम्मी ने आगे बढक़र सुधा का मुँह हथेलियों में उठाकर उसकी पलकें चूम लीं और बोली, ”मुझे तुम्हारी पलकें बहुत अच्छी लगती हैं। अरे! इनमें आँसुओं का स्वाद है, अभी रोयी थीं क्या?” सुधा झेंप गयी।

चन्दर के कन्धे पर हाथ रखकर पम्मी ने कहा, ”कपूर, तुम खत जरूर लिखते रहना। चलते तो बड़ा अच्छा रहता। अच्छा, आप दोनों मित्रों का समय अच्छी तरह बीते।” और पम्मी चल दी।

थोड़ी देर में डॉक्टर साहब की कार आयी। सुधा ने अपने कमरे के दरवाजे बन्द कर लिये, बिनती ने सिर पर पल्ला ढक लिया और चन्दर दौड़कर बाहर गया। डॉक्टर साहब के साथ जो सज्जन उतरे वे ठिगने-से, गोरे-से, गोल चेहरे के कुलीन सज्जन थे और खद्दर का कुरता और धोती पहने हुए थे। हाथ में एक छोटा-सा सफरी बैग था। चन्दर ने लेने को हाथ बढ़ाया तो हँसकर बोले, ”नहीं जी, क्या इतना-सा बैग ले चलने में मेरा हाथ थक जाएगा। आप लोग तो खातिर करके मुझे महत्वपूर्ण बना देंगे!”

सब लोग स्टडी रूम में गये। वहीं डॉक्टर शुक्ला ने परिचय कराया-”यह हमारे शिष्य और लड़के, प्रान्त के होनहार अर्थशास्त्री चन्द्रकुमार कपूर और आप शाहजहाँपुर के प्रसिद्ध काँग्रेसी कार्यकर्ता और म्युनिसिपल कमिश्नर श्री शंकरलाल मिश्र।”

”अब तू नहाय लेव संकरी, फिर चाय ठंडाय जइहै।” बुआजी ने आकर कहा। आज बुआजी ने बहुत दिनों पहले की बूटीदार साड़ी पहन रखी थी और शायद वह खुश थीं क्योंकि बिनती को डाँट नहीं रही थीं।

”नहीं, मैं तो वेटिंग-रूम में नहा चुका। चाय मैं पीता नहीं। खाना ही तैयार कराइए।” और घड़ी देखकर शंकर बाबू बोले, ”मुझे जरा स्वराज्य-भवन जाना है और दो बजे की गाड़ी से वापस चले जाना है और शायद उधर से ही चला जाऊँगा।” उन्होंने बहुत मीठे स्वर से मुसकराते हुए कहा।

”यह तो अच्छा नहीं लगता कि आप आये भी और कुछ रुके नहीं।” डॉक्टर शुक्ला बोले।

”हाँ, मैं खुद रुकना चाहता था लेकिन माँजी की तबीयत ठीक नहीं है। कैलाश भी कानपुर गया हुआ है। मुझे जल्दी जाना चाहिए।”

बिनती ने लाकर थाली रखी। चन्दर ने आश्चर्य से डॉक्टर साहब की ओर देखा। वे हँसकर बोले, ”भाई, यह लोग हमारी तरह छूत-पाक नहीं मानते। शंकर तुम्हारे सम्प्रदाय के हैं, यहीं कच्चा खाना खा लेंगे।”

”इन्हें ब्राह्मïण कहत के है, ई तो किरिस्तान है, हमरो धरम बिगाडिऩ हिंयाँ आय कै!” बुआजी बोलीं। बुआजी ने ही यह शादी तय करायी थी, लड़काबताया था और दूर के रिश्ते से वे कैलाश और शंकर की भाभी लगती थीं।

शंकर बाबू ने हाथ धोये और कुर्सी खींचकर बैठ गये। चन्दर, की ओर देखकर बोले, ”आइए, होनहार डॉक्टर साहब, आप तो मेरे साथ खा सकते हैं?”

”नहीं, आप खाइए।” चन्दर ने तकल्लुफ करते हुए कहा।

”अजी वाह! मैं ब्राह्मïण हूँ, शुद्ध; मेरे साथ खाकर आपको जल्दी मोक्ष मिल जाएगा। कहीं हाथ में तरकारी लगी रह गयी तो आपके लिए स्वर्ग का फाटक फौरन खुल जाएगा! खाओ।”

दो कौर खाने के बाद शंकर बाबू ने बुआजी से कहा, ”यही बहू है, जो लड़की थाली रख गयी थी?”

”अरे राम कहौ, ऊ तो हमार छोरी है बिनती! पहचनत्यौ नै। पिछले साल तो मुन्ने के विवाह में देखे होबो!” बुआजी बोलीं।

शंकर बाबू कैलाश से काफी बड़े थे लेकिन देखने में बहुत बड़े नहीं लगते थे। खाते-पीते बोले, ”डॉक्टर साहब! लड़की से कहिए, रोटी दे जाये। मैं इसी तरह देख लूँगा, और ज्यादा तडक़-भड़क की कोई जरूरत नहीं!”

डॉक्टर साहब ने बुआजी को इशारा किया और वे उठकर चली गयीं। थोड़ी देर में सुधा आयी। सादी सफेद धोती पहने, हाथ में रोटी लिये दरवाजे पर आकर हिचकी, फिर आकर चन्दर से बोली, ”रोटी लोगे!” और बिना चन्दर की आवाज सुने रोटी चन्दर के आगे रखकर बोली, ”और क्या चाहिए?”

”मुझे कढ़ी चाहिए!” शंकर बाबू ने कहा। सुधा गयी और कढ़ी ले आयी। शंकर बाबू के सामने रख दी। शंकर बाबू ने आँखें उठाकर सुधा की ओर देखा, सुधा ने निगाहें नीची कर लीं और चली गयी।

”बहुत अच्छी है लड़की!” शंकर बाबू ने कहा। ”इतनी पढ़ी-लिखी लड़की में इतनी शर्म-लिहाज नहीं मिलती। सचमुच जैसे आपकी एक ही लड़की थी, आपने उसे खूब बनाया है। कैलाश के बिल्कुल योग्य लड़की है। यह तो कहिए डॉक्टर साहब कि शिष्टा प्रबल होती है वरना हमारा कहाँ सौभाग्य था! जब से मेरी पत्नी मरी तभी से माताजी कैलाश के विवाह की जिद कर रही हैं। कैलाश अन्तर्जातीय विवाह करना चाहता था, लेकिन हमें तो अपनी जाति में ही इतना अच्छा सम्बन्ध मिल गया।”

”तो तोहरे अबहिन कौन बैस ह्वा गयी। तुहौ काहे नाही बहुरिया लै अउत्यौ। सुधी के अकेल मन न लगी!” बुआजी बोलीं।

शंकर बाबू कुछ नहीं बोले। खाना खाकर उन्होंने हाथ धोये और घड़ी देखी।

”अब थोड़ा सो लूँ, या जाने दीजिए। आइए, बातें करें हम और आप,” उन्होंने चन्दर से कहा। एक बजे तक चन्दर शंकर बाबू से बातें करता रहा और डॉक्टर साहब और सुधा वगैरह खाना खाते रहे। शंकर बाबू बहुत हँसमुख थे और बहुत बातूनी भी। चन्दर को तो कैलाश से भी ज्यादा शंकर बाबू पसन्द आये। बातें करने से मालूम हुआ कि शंकर बाबू की आयु अभी तीस वर्ष से अधिक की नहीं है। एक पाँच वर्ष का बच्चा है और उसी के होने में उनकी पत्नी मर गयी। अब वे विवाह नहीं करेंगे, वे गाँधीवादी हैं, काँग्रेस के प्रमुख स्थानीय कार्यकर्ता हैं और म्युनिसिपल कमिश्नर हैं। घर के जमींदार हैं। कैलाश बरेली में पढ़ता था। अब भी कैलाश का कोई इरादा किसी प्रकार की नौकरी या व्यापार करने का नहीं है, वह मजदूरों के लिए साप्ताहिक पत्र निकालने का इरादा कर रहा है। वह सुधा को बजाय घर पर रखने के अपने साथ रखेगा क्योंकि वह सुधा को आगे पढ़ाना चाहता है, सुधा को राजनीति क्षेत्र में ले जाना चाहता है।

बीच में एक बार बिनती आयी और उसने चन्दर को बुलाया। चन्दर बाहर गया तो बिनती ने कहा, ”दीदी पूछ रही हैं, ये कितनी देर में जाएँगे?”

”क्यों?”

”कह रही हैं अब चन्दर को याद थोड़े ही है कि सुधा भी इसी घर में है। उन्हीं से बातें कर रहे हैं।”

चन्दर हँस दिया और कुछ नहीं कहा। बिनती बोली, ”ये लोग तो बहुत अच्छे हैं। मैं तो कहूँगी सुधा दीदी को इससे अच्छा परिवार मिलना मुश्किल है। हमारे ससुर की तरह नहीं हैं ये लोग।”

”हाँ, फिर भी सुधा इतनी सेवा नहीं कर रही है इनकी। बिनती, तुम सुधा को कुछ शिक्षा दे दो इस मामले में।”

”हाँ-हाँ, हम सेवा करने की शिक्षा दे देंगे और ब्याह करने के बाद की शिक्षा अपनी पम्मी से दिलवा देना। खुद तो उनसे ले ही चुके होंगे आप!”

चन्दर झेंप गया। ”पाजी कहीं की, बहुत बेशरम हो गयी है। पहले मुँह से बोल नहीं निकलता था!”

”तुमने और दीदी ने ही तो किया बेशरम! हम क्या करें? पहले हम कितना डरते थे!” बिनती ने उसी तरह गर्दन टेढ़ी करके कहा और मुसकराकर भाग गयी।

जब डॉक्टर साहब आये तो शंकर बाबू ने कहा, ”अब तो मैं जा रहा हूँ, यह माला मेरी ओर से बहू को दे दीजिए।” और उन्होंने बड़ी सुन्दर मोतियों की माला बैग से निकाली और बुआजी के हाथ में दे दी।

”हाँ, एक बात है!” शंकर बाबू बोले, ”ब्याह हम लोग महीने भर के अन्दर ही करेंगे। आपकी सब बात हमने मानी, यह बात आपको हमारी माननी होगी।”

”इतनी जल्दी!” डॉक्टर शुक्ला चौंक उठे, ”यह असम्भव है, शंकर बाबू ! मैं अकेला हूँ, आप जानते हैं।”

”नहीं, आपको कोई कष्ट न होगा।” शंकर बाबू बहुत मीठे स्वर में बोले, ”हम लोग रीति-रसम के तो कायल हैं नहीं। आप जितना चाहे रीति-रसम अपने मन से कर लें। हम लोग तो सिर्फ छह-सात आदमियों के साथ आएँगे। सुबह आएँगे, अपने बँगले में एक कमरा खाली करा दीजिएगा। शाम को अगवानी और विवाह कर दें। दूसरे दिन दस बजे हम लोग चले जाएँगे।”

”यह नहीं होगा।” डॉक्टर साहब बोले, ”हमारी तो अकेली लड़की है और हमारे भी तो कुछ हौसले हैं। और फिर लड़की की बुआ तो यह कभी भी नहीं स्वीकार करेंगी।”

”देखिए, मैं आपको समझा दूँ, कैलाश शादियों में तड़क-भड़क के सख्त खिलाफ है। पहले तो वह इसलिए जाति में विवाह नहीं करना चाहता था, लेकिन जब मैंने उसे भरोसा दिलाया कि बहुत सादा विवाह होगा तभी वह राजी हुआ। इसीलिए इसे आप मान ही लें फिर विवाह के बाद तो जिंदगी पड़ी है। आपकी अकेली लड़की है जितना चाहिए, करिए। रहा कम समय का तो शुभस्य शीघ्रम्! फिर आपको कुछ खास इन्तजाम भी नहीं करना, अगर कुछ हो तो कहिए मैं यहीं रह जाऊँ, आपका काम कर दूँ!” शंकर बाबू हँसकर बोले।

कुछ देर तक बातें होती रहीं, अन्त में शंकर बाबू ने अपने सौजन्य और मीठे स्वभाव से सभी को राजी कर ही लिया। उसके बाद उन्होंने सबसे विदा माँगी, चलते वक्त बुआजी और डॉक्टर साहब के पैर छुए, चन्दर से हाथ मिलाया और शंकर बाबू सबका मन जीतकर चले गये।

बुआजी ने माला हाथ में ली, उसे उलट-पलटकर देखा और बोलीं, ”एक ऊ आये रहे जूताखोर! एक ठो कागज थमाय के चले गये!” और एक गहरी साँस लेके चली गयीं।

डॉ. साहब ने सुधा को बुलाया। उसके हाथ में वह माला रखकर उसे चिपटा लिया। सुधा पापा की गोद में मुँह छिपाकर रो पड़ी।

उसके बाद सुधा चली गयी और चन्दर, डॉक्टर साहब और बुआजी बैठे शादी के इन्तजाम की बातें करते रहे। यह तय हुआ कि अभी तो इन्हीं की इच्छानुसार विवाह कर दिया जाए फिर यूनिवर्सिटी खुलने पर सभी को बुलाकर अच्छी दावत वगैरह दे दी जाए। यह भी तय हुआ कि बुआजी गाँव जाकर अनाज, घी, बडिय़ाँ और नौकर वगैरह का इन्तजाम कर लाएँ और पन्द्रह दिन के अन्दर लौट आएँ। अगवानी ठीक छह बजे शाम को हो जाए और सुबह के नाश्ते में क्या दिया जाए, यह सभी डॉक्टर साहब ने तय कर डाला। लेकिन निश्चय यह किया गया कि चूँकि आदमी बहुत कम आ रहे हैं, अत: सुबह-शाम के नाश्ते का काम यूनिवर्सिटी के किसी रेस्तराँ को दे दिया जाए।

इसी बीच में बिनती खरबूजा और शरबत लाकर रख गयी और चन्दर ने बहुत आराम से शरबत पीते हुए पूछा, ”किसने बनाया है?”

”सुधा दीदी ने।”

”आज बड़ी खुश मालूम पड़ती है, चीनी बहुत कम छोड़ी है!” चन्दर बोला। बुआ और बिनती दोनों हँस पड़ीं।

थोड़ी देर बाद चन्दर उठकर भीतर गया तो देखा कि सुधा अपने पलँग पर बैठी सामने एक किताब रखे जाने क्या देख रही है और सामने वह माला पड़ी है। चन्दर गया और बोला, ”सुधा! आज मैं बहुत खुश हूँ।”

सुधा ने आँखें उठायीं और चन्दर की ओर देखकर मुसकराने की कोशिश की और बोली, ”मैं भी बहुत खुश हूँ।”

”क्यों, तय हो गया इसलिए?” बिनती ने पूछा।

”नहीं, चन्दर बहुत खुश हैं इसलिए!” और एक गहरी साँस लेकर किताब बन्द कर दी।

”कौन-सी किताब है, सुधा?” चन्दर ने पूछा।

”कुछ नहीं, इस पर उर्दू के कुछ अशआर लिखे हैं जो गेसू ने सुनाये थे।” सुधा बोली।

चन्दर ने बिनती की ओर देखा और कहा, ”बिनती, कैलाश तो जैसा है वैसा ही है, लेकिन शंकरबाबू की तारीफ मैं कर नहीं सकता। क्या राय है तुम्हारी?”

”हाँ, है तो सही; दीदी इतनी सुखी रहेंगी कि बस! दीदी, हमें भूल मत जाना, समझीं!” बिनती बोली।

”और हमें भी मत भूलना सुधा!” चन्दर ने सुधा की उदासी दूर करने के लिए छेड़ते हुए कहा।

”हाँ, तुम्हें भूले बिना कैसे काम चलेगा।” सुधा ने और भी गहरी साँस लेते हुए कहा और एक आँसू गालों पर फिसल ही आया।

”अरे पगली, तुम सब कुछ अपने चन्दर के लिए कर रही हो, उसकी आज्ञा मानकर कर रही हो। फिर यह आँसू कैसे? छिह! और यह माला सामने रखे क्या कर रही हो?” चन्दर ने बहलाया।

”माला तो दीदी इसलिए सामने रखे थीं कि बतलाऊँ…बतलाऊँ!” बिनती बोली, ”असल में रामायण की कहानी तो सुनी है चन्दर, तुमने? रामचन्द्र ने अपने एक भक्त को मोती की माला दी तो वह उसे दाँत से तोडक़र देख रहा था कि उसके अन्दर रामनाम है या नहीं। सो यह माला सामने रखकर देख रही थीं, इसमें कहीं चन्दर की झलक है या नहीं?”

”चुप गिलहरी कहीं की?” सुधा हँस पड़ी, ”बहुत बोलना आ गया है!” सुधा ने हँसते हुए बनावटी गुस्से से कहा। फिर सुधा तकिये से टिककर बैठ गयी-”आज गेसू नहीं है। मुझे गेसू की बहुत याद आ रही है।”

”क्यों?”

”इसलिए कि आज उसके कई शेर याद आ रहे हैं। एक दफे उसने सुनाया था-

ये आज फिजा खामोश है क्यों, हर जर्रे को आखिर होश है क्यों?

या तुम ही किसी के हो न सके, या कोई तुम्हारा हो न सका।’

इसी की अन्तिम पंक्ति है-

मौजें भी हमारी हो न सकीं, तूफाँ भी हमारा हो न सका’!”

”वाह! यह पंक्ति बहुत अच्छी है,” चन्दर ने कहा।

”आज गेसू होती तो बहुत-सी बातें करते!” सुधा बोली, ”देखो चन्दर, जिंदगी भी क्या होती है! आदमी क्या सोचता है और क्या हो जाता है। आज से तीन-चार महीने पहले मैंने क्या सोचा था! क्लास-रूम से भागकर हम लोग पेड़ के नीचे लेटकर बातें करते थे, तो मैं हमेशा कहती थी-मैं शादी नहीं करूँगी। पापा को समझा लूँगी। उस दिन क्या मालूम था कि इतनी जल्दी जुए के नीचे गरदन डाल देनी होगी और पापा को भी जीतकर किसी दूसरे से हार जाना होगा। अभी उसकी तय भी नहीं हुई और महीने-भर बाद मेरी…” सुधा थोड़ी देर चुप रही और फिर-”और दूसरी बात उसकी, जो मैंने तुम्हें बतायी थी। उसने कहा था जब किसी के कदम हट जाते हैं सिर के नीचे से, तब मालूम होता है कि हम किसका सपना देख रहे थे। पहले हमें भी नहीं मालूम होता था कि हमारे सिर किसके कदमों पर झुक चुके हैं। याद है? मैंने तुम्हें बताया था, तुमने पूछा था!”

”याद है।” चन्दर ने कहा। बिनती उठकर चली गयी लेकिन सुधा या चन्दर किसी ने ध्यान भी नहीं दिया। चन्दर बोला, ”लेकिन सुधा, इन सब बातों को सोचने से क्या फायदा, आगे का रास्ता सामने है, बढ़ो।”

”हाँ, सो तो है ही देवता मेरे! कभी-कभी जाने कितनी पुरानी बातें मन में आ ही जाती हैं और मन करता है कि मैं सोचती ही जाऊँ। जाने क्यों मन को बड़ा सन्तोष मिलता है। और चन्दर, जब मैं वहाँ रहूँगी, तुमसे दूर, तो इन्हीं स्मृतियों के अलावा और क्या शेष रहेगा…तुम्हें वह दिन याद है जब मैं गेसू के यहाँ नहीं जा पायी थी और उस स्थान पर हम लोगों में झगड़ा हो गया था…चन्दर, वहाँ सब कुछ है लेकिन मैं लड़ूँगी-झगड़ूँगी किससे वहाँ?”

चन्दर एक फीकी-सी हँसी हँसकर बोला, ”अब क्या जन्म-भर बच्ची ही बनी रहोगी!”

”हाँ चन्दर, चाहती तो यही थी लेकिन जिंदगी तो जबरदस्ती सब सुख छीन लेती है और बदले में कुछ भी नहीं देती। आओ, चलो लॉन पर चलें। शाम को तुमसे बातें ही करेंगे!”

उसके बाद सुधा रात को आठ बजे उठी, जब बुआ तैयार होकर स्टेशन जा रही थीं और ड्राइवर मोटर निकाल रहा था। और उदास टिमटिमाते हुए सितारों ने देखा कि चन्दर और सुधा दोनों की आँखों में आँसुओं की अवशेष नमी झिलमिला रही थी। उठते हुए सुधा ने क्षण-भर चन्दर की ओर देखा, चन्दर ने सिर झुका लिया और बहुत उदास आवाज में कहा, ”चलो सुधा, बहुत देर कर दी हम लोगों ने।”

पन्द्रह दिन बाद बुआ आयीं तो उन्होंने घर की शक्ल ही बदल दी। दरवाजे पर और बरसाती में हल्दी के हाथों की छाप लग गयी, कमरों का सभी सामान हटाकर दरियाँ बिछा दी गयीं और सबसे अन्दर वाले कमरे में सुधा का सब सामान रख दिया गया। स्टडी-रूम की सभी किताबें समेट दी गयीं और वहाँ एक बड़ी-सी मशीन लाकर रख दी गयी जिस पर बैठकर बिनती सिलाई करती थी। उसी को कपड़े और गहनों का भंडार-घर बनाया गया और उसकी चाबी बिनती या बुआ के पास रहती थी। गाँव से एक महराजिन, एक कहारिन और दो मजदूर आये थे, वे सभी गैरेज में सोते थे और दिन-भर काम करते थे और ‘पानी पीने’ को माँगते रहते थे। सभी कुर्सियाँ और सोफासेट निकलवाकर सायबान में लगवा दिये गये थे। रसोई के पार वाली कोठरी में कुल्हड़, पत्तलें, प्याले वगैरह रखे थे और पूजा वाले कमरे में शक्कर, घी, तरकारी और अनाज था। मिठाई कहाँ रखी जाएगी, इस पर बुआजी, महराजिन और बिनती में घंटे-भर तक बहस हुई लेकिन जब बुआजी ने बिनती से कहा, ”आपन लड़के-बच्चे का बियाह कियो तो कतरनी अस जबान चलाय लिह्यो, अबहिन हर काम में काहे टाँग अड़ावा करत हौ!” तो बिनती चुप हो गयी और अन्त में बुआजी की राय सर्वोपरि मानी गयी। बुआजी की जबान जितनी तेज थी, हाथ भी उतने ही तेज। चार बोरा गेहूँ उन्होंने साफ करके कोठरियों में भरवा दिये। कम-से-कम पाँच तरह की दालें लायी थीं। बेसन पिसवाया, दाल दरवायी, पापड़ बनवाये, मैदा छनवाया, सूजी दरवायी, बरी-मुँगौरी डलवायीं, चावल की कचौरियाँ बनवायीं और सबको अलग-अलग गठरी में बाँधकर रख दिया। रात को अकसर बुआजी, महराजिन तथा गाँव की महरिन ढोलक लेकर बैठ जातीं और गीत गातीं। बिनती उनमें भी शामिल रहती।

सच पूछो तो सुधा के ब्याह का जितना उछाह बुआ को नहीं था, उतना बिनती को था। वह सुबह से उठकर झाड़ू लेकर सारा घर बुहार डालती थी, इसके बाद नहाकर तरकारी काटती, उसके बाद फिर चाय चढ़ाती। डॉक्टर साहब, चन्दर, सुधा सभी को चाय देती, बैठकर चन्दर अगर कुछ हिसाब लिखाता तो हिसाब लिखती, फिर अपनी मशीन पर बैठ जाती और बारह-एक बजे तक सिलाई करती रहती, फिर दोपहर को चावल और दाल बीनती, शाम को खरबूजे काटती, शरबत बनाती और रात-भर जाग-जागकर गाती या दीदी को हँसाने की कोशिश करती। एक दिन सुधा ने कहा, ”मेरे ब्याह में तो इतनी खुश है, अपने ब्याह में क्या करेगी?” तो बिनती ने जवाब दिया, ”अपने ब्याह में तो मैं खुद बैंड बजाऊँगी, वर्दी पहनकर!”

घर चमक उठा था जैसे रेशम! लेकिन रेशम के चमकदार, रंगीन उल्लास भरे गोले के अन्दर भी एक प्राणी होता है, उदास स्तब्ध अपनी साँस रोककर अपनी मौत की क्षण-क्षण प्रतीक्षा करने वाला रेशम का कीड़ा। घर के इस सारे उल्लास और चहल-पहल से घिरा हुआ सिर्फ एक प्राणी था जिसकी साँस धीरे-धीरे डूब रही थी, जिसकी आँखों की चमक धीरे-धीरे कुम्हला रही थी, जिसकी चंचलता ने उसकी नजरों से विदा माँग ली थी, वह थी-सुधा। सुधा बदल गयी थी। गोरा चम्पई चेहरा पीला पड़ गया था, और लगता था जैसे वह बीमार हो। खाना उसे जहर लगने लगा था, अपने कमरे को छोड़कर कहीं जाती न थी। एक शीतलपाटी बिछाये उसी पर दिन-रात पड़ी रहती थी। बिनती जब हँसती हुई खाना लाती और सुधा के इनकार पर बिनती के आँसू छलछला आते तब सुधा पानी के घूँट के सहारे कुछ खा लेती और उदास, फिर अपनी शीतलपाटी पर लेट जाती। स्वर्ग को कोई इन्द्रधनुषों से भर दे और शची को जहर पिला दे, कुछ ऐसा ही लग रहा था वह घर।

डॉक्टर शुक्ला का साहस न होता था सुधा से बोलने का। वह रोज बिनती से पूछ लेते-”सुधा खाना खाती है या नहीं?” बिनती कहती, ”हाँ।” तो एक गहरी साँस लेकर अपने कमरे में चले जाते।

चन्दर परेशान था। उसने इतना काम शायद कभी भी न किया हो अपनी जिंदगी में। सुनार के यहाँ, कपड़े वाले के यहाँ, फिर राशनिंग अफसर के यहाँ, पुलिस बैंड ठीक कराने पुलिस लाइंस, अर्जी देने मैजिस्ट्रेट के यहाँ, रुपया निकालने बैंक, शामियाने का इन्तजाम, पलँग, कुर्सी वगैरह का इन्तजाम, खाने-परोसने के बरतनों के इन्तजाम और जाने क्या-क्या…और जब बुरी तरह थककर आता, जेठ की तपती हुई दोपहरी में, तब बिनती आकर बताती-सुधा ने आज फिर कुछ नहीं खाया तो उसका मन होता था वह सिर पटक-पटक दे। वह सुधा के पास जाता, सुधा आँसू पोंछकर बैठती, एक टूटी-फूटी मुसकान से चन्दर का स्वागत करती। चन्दर उससे पूछता, ”खाती क्यों नहीं?”

”खाती तो हूँ चन्दर, इससे ज्यादा गरमियों में मैं कभी नहीं खाती थी।” सुधा कहती और इतने दृढ़ स्वर से कि चन्दर से कुछ प्रतिवाद नहीं करते बनता।

अब बाहरी काम लगभग समाप्त हो गये थे। वैसे तो सभी जगह हल्दी छिडक़कर पत्र रवाना किये जा चुके थे लेकिन निमंत्रण-पत्र भी बहुत सुन्दर छपकर आये थे, हालाँकि कुछ देर हो गयी थी। ब्याह को अब कुल सात दिन बचे थे। चन्दर सुबह दस बजे एक डिब्बे में निमंत्रण-पत्र और लिफाफा-भरे हुए आया और स्टडी-रूम में बैठ गया। बिनती बैठी हुई कुछ सिल रही थी।

”सुधा कहाँ है? उसे बुला लाओ।”

सुधा आयी, सूजी आँखें, सूखे होठ, रूखे बाल, मैली धोती, निष्प्राण चेहरा और बीमार चाल। हाथ में पंखा लिये थी। आयी और चन्दर के पास बैठ गयी-”कहो, क्या कर आये, चन्दर! अब कितना इन्तजाम बाकी है?”

”अब सब हो गया, सुधा रानी! आज तो पैर जवाब दे रहे हैं। साइकिल चलाते-चलाते पैर में जैसे गाँठें पड़ गयी हों।” चन्दर ने कार्ड फैलाते हुए कहा, ”शादी तुम्हारी होगी और जान मेरी निकली जा रही है मेहनत से।”

”हाँ चन्दर, इतना उत्साह तो और किसी को नहीं है मेरी शादी का!” सुधा ने कहा और बहुत दुलार से बोली, ”लाओ, पैर दबा दूँ तुम्हारे?”

”अरे पागल हो गयी?” चन्दर ने अपने पैर उठाकर ऊपर रख लिये।

”हाँ, चन्दर!” गहरी साँस लेते हुए सुधा बोली, ”अब मेरा अधिकार भी क्या है तुम्हारे पैर छूने का। क्षमा करना, मैं भूल गयी थी कि मैं पुरानी सुधा नहीं हूँ।” और टप से दो आँसू गिर पड़े। सुधा ने पंखे की ओट कर आँखें पोंछ लीं।

”तुम तो बुरा मान गयीं, सुधा!” चन्दर ने पैर नीचे रखते हुए कहा।

”नहीं चन्दर, अब बुरा-भला मानने के दिन बीत गये। अब गैरों की बात का भी बुरा-भला नहीं मान पाऊँगी, फिर घर के लोगों की बातों का बुरा-भला क्या…छोड़ो ये सब बातें। ये क्या निमंत्रण-पत्र छपा है, देखें!”

चन्दर ने एक निमंत्रण-पत्र उठाया, उसे लिफाफे में भरकर उस पर सुधा का नाम लिखकर कहा, ”लो, हमारी सुधा का ब्याह है, आइएगा जरूर!”

सुधा ने निमंत्रण पत्र ले लिया-”अच्छा!” एक फीकी हँसी हँसकर बोली, ”अच्छा, अगर हमारे पतिदेव ने आज्ञा दे दी तो आऊँगी आपके यहाँ। उनका भी नाम लिख दीजिए वरना बुरा न मान जाएँ।” और सुधा उठ खड़ी हुई।

”कहाँ चली?” चन्दर ने पूछा।

”यहाँ बहुत रोशनी है! मुझे अपना अँधेरा कमरा ही अच्छा लगता है।” सुधा बोली।

”चलो बिनती, वहीं कार्ड ले चलो!” चन्दर ने कहा, ”आओ सुधा, आज कार्ड लिखते जाएँगे, तुमसे बात करते जाएँगे। जिंदगी देखो, सुधी! आज पन्द्रह दिन से तुमसे दो मिनट बैठकर बात भी न कर सके।”

”अब क्या करना है, चन्दर! जैसा कह रहे हो वैसा कर तो रही हूँ। अभी कुछ और बाकी है क्या? बता दो वह भी कर डालूँ। अब तो रो-पीटकर ऊँचा बनना ही है।”

बिनती ने कार्ड समेटे तो सुधा डाँटकर बोली-”रख इसे यहीं; चली उठा के! बड़ी चन्दर की आज्ञाकारी बनी है। ये भी हमारी जान की गाहक हो गयी अब! हमारे कमरे में लायी ये सब, तो टाँग तोड़ दूँगी! पाजी कहीं की!”

बिनती ने कार्ड धर दिये। नौकर ने आकर कहा, ”बाबूजी, कुम्हार अपना हिसाब माँगता है!”

”अच्छा, अभी आया, सुधा!” और चन्दर चला गया।

और इस तरह दिन बीत रहे थे। शादी नजदीक आती जा रही थी और सभी का सहारा एक-दूसरे से छूटता जा रहा था। सुधा के मन पर जो कुछ भी धीरे-धीरे मरघट की उदासी की तरह बैठता जा रहा था और चन्दर अपने प्यार से, अपनी मुसकानों से, अपने आँसुओं से धो देने के लिए व्याकुल हो उठा था, लेकिन यह जिंदगी थी जहाँ प्यार हार जाता है, मुसकानें हार जाती हैं, आँसू हार जाते हैं-तश्तरी, प्याले, कुल्हड़, पत्तलें, कालीनें, दरियाँ और बाजे जीत जाते हैं। जहाँ अपनी जिंदगी की प्रेरणा-मूर्ति के आँसू गिनने के बजाय कुल्हड़ और प्याले गिनवाकर रखने पड़ते हैं और जहाँ किसी आत्मा की उदासी को अपने आँसुओं से धोने के बजाय पत्तलें धुलवाना ज्यादा महत्वपूर्ण होता है, जहाँ भावना और अन्तर्द्वंद्व के सारे तूफान सुनार और बिजलीवालों की बातें में डूब जाते हैं, और जहाँ दो आँसुओं में डूबते हुए व्यक्तियों की पुकार शहनाइयों की आवाज में डूब जाती है और जिस वक्त कि आदमी के हृदय का कण-कण क्षतविक्षत हो जाता है, जिस वक्त उसकी नसों में सितारे टूटते हैं, जिस वक्त उसके माथे पर आग धधकती है, जिस वक्त उसके सिर पर से आसमान और पाँव तले से धरती हट जाती है, उस समय उसे शादी की साड़ियों का मोल-तोल करना पड़ता है और बाजे वाले को एडवान्स रुपया देना पड़ता है।

ऐसी थी उस वक्त चन्दर की जिंदगी और उस जिंदगी ने अपना चक्र पूरी तरह चला दिया था। करोड़ों तूफान घुमड़ाते हुए उसे नचा रहे थे। वह एक क्षण भी कहीं नहीं टिक पाता था। एक पल भी उसे चैन नहीं था, एक पल भी वह यह नहीं सोच पाता था कि उसके चारों ओर क्या हो रहा है? वह बेहोशी में, मूर्छा में मशीन की तरह काम कर रहा था। आवाजें थीं कि उसके कानों से टकराकर चली जाती थीं, आँसू थे कि हृदय को छू नहीं पाते थे, चक्र उसे फँसाकर खींचे लिये जा रहा था। बिजली से भी ज्यादा तेज, प्रलय से भी ज्यादा सशक्त वह खिंचा जा रहा था। सिर्फ एक ओर। शादी का दिन। सुधा ने नथुनी पहनी, उसे नहीं मालूम। सुधा ने कोरे कपड़े पहने, उसे नहीं मालूम। सुधा ने चूड़े पहने, उसे नहीं मालूम। घर में गीत हुए, उसे नहीं मालूम। सुधा ने चूल्हा पूजते वक्त अपना सिर पटक दिया, उसे नहीं मालूम…वह व्यक्ति नहीं था, तूफान में उड़ता हुआ एक पीला पत्ता था जो वात्याचक्र में उलझ गया था और झोंके उसे नचाये जा रहे थे…

और उसे होश आया तब, जब बिनती जबरदस्ती उसका हाथ पकडक़र खींच ले गयी बारात आने के एक दिन पहले। उस छत पर, जहाँ सुधा पड़ी रो रही थी, चन्दर को ढकेलकर चली आयी।

चन्दर के सामने सुधा थी। सुधा, जिससे वह पता नहीं क्यों बचना चाहता था। अपनी आत्मा के संघर्षों से, अपने अन्त:करण के घावों की कसक से घबराकर जैसे कोई आदमी एकान्त कमरे से भागकर भीड़ में मिल जाता है, भीड़ के निरर्थक शोर में अपने को खो देना चाहता है, बाहर के शोर में अन्दर का तूफान भुला देना चाहता है; उसी तरह चन्दर पिछले हफ्ते से सब कुछ भूल गया; उसे सिर्फ एक चीज याद रहती थी-शादी का प्रबन्ध। सुबह से लेकर सोने के वक्त तक वह इतना काम कर डालना चाहता था कि उसे एक क्षण भी बैठने का मौका न मिले, और सोने से पहले वह इतना थक जाये, इतना चूर-चूर हो जाये कि लेटते ही नींद उसे जकड़ ले और उसे बेहोश कर दे। लेकिन उस वक्त बिनती उसे उसके विस्मरण-स्थल से खींचकर एकान्त में ले आयी है जहाँ उसकी ताकत और उसकी कमजोरी, उसकी पवित्रता और उसका पाप, उसकी मुसकान और उसके आँसू, उसकी प्रतिभा और उसकी विस्मृति; उसकी सुधा अपनी जिंदगी के चिरन्तन मोड़ पर खड़ी अपना सब कुछ लुटा रही थी। चन्दर को लगा जैसे उसको अभी चक्कर आ जाएगा। वह अकुलाकर खाट पर बैठ गया।

शाम थी, सूरज डूब रहा था और दिन-भर की तपी हुई छत पर जलती हुई बरसाती के नीचे एक खरहरी खाट पर सुधा लेटी थी। एक महीन पीली धोती पहने, कोरी मारकीन की कुर्ती, पहने, रूखे चिकटे हुए बाल और नाक में बहुत बड़ी-सी नथ। पन्द्रह दिन के आँसुओं ने चेहरे को जाने कैसा बना दिया। न चेहरे पर सुकुमारता थी, न कठोरता। न रूप था, न ताजगी। सिर्फ ऐसा लगता था कि जैसा सुधा का सब कुछ लुट चुका है। न केवल प्यार और जिंदगी लुटी है, वरन आवाज भी लुट गयी है और नीरवता भी। वैभव भी लुट गया और याचना भी।

सुधा ने अपने पीले पल्ले से आँसू पोंछे और उठकर बैठ गयी। दोनों चुप। पहले कौन बोले! बिनती आयी, चन्दर और सुधा का खाना रखकर चली गयी। ”खाना खाओगी, सुधा?” चन्दर ने पूछा। सुधा कुछ बोली नहीं सिर्फ सिर हिला दिया। और डूबते हुए सूरज और उड़ते हुए बादलों की ओर देखकर जाने क्या सोचने लगी। चन्दर ने थाली खिसका दी और सुधा को अपनी ओर खींचकर बोला, ”सुधा, इस तरह कैसे काम चलेगा। तुम्हीं को देखकर तो मैं अपना धीरज सँभालूँगा, बताओ और तुम्हीं यह कर रही हो!” सुधा चन्दर के पास खिसक आयी और दो मिनट तक चुपचाप चन्दर की ओर फटी हुई पथरायी आँखों से देखती रही और एकदम हृदय को फाड़ देने वाली आवाज में चीखकर रो उठी-”चन्दर, अब क्या होगा!”

चन्दर की समझ में नहीं आया, वह क्या करे! आँसू उसके सूख चुके थे। वह रो नहीं सकता था। उसके मन पर कहीं कोई पत्थर रखा था जो आँसुओं की बूँदों को बनने के साथ ही सोख लेता था लेकिन वह तड़प उठा, ”सुधा!” वह घबराकर बोला, ”सुधा, तुम्हें हमारी कसम है-चुप हो जाओ! चुप…बिल्कुल चुप…हाँ…ऐसे ही!” सुधा चन्दर के पाँवों में मुँह छिपाये थी-”उठकर बैठो ठीक से सुधा…इतना समझ-बूझकर यह सब करती हो, छिह! तुम्हें अपना दिल मजबूत करना चाहिए वरना पापा को कितना दुख होगा।”

”पापा ने तो मुझसे बोलना भी छोड़ दिया है, चन्दर! पापा से कह दो आज तो बोल लें, कल से हम उन्हें परेशान करने नहीं आएँगे, कभी नहीं आएँगे। अब उनकी सुधा को सब ले जा रहे हैं, जाने कहाँ ले जा रहे हैं!” और फिर वह फफक-फफककर रो पड़ी।

चन्दर ने बिनती से पापा को बुलवाया। सुधा को रोते हुए देखकर बिनती खड़ी हो गयी, ”दीदी, रोओ मत दीदी, फिर हम किसके भरोसे रहेंगे यहाँ?” और सुधा को चुप कराते-कराते बिनती भी रोने लगी। और आँसू पोंछते हुए चली गयी।

पापा आये। सुधा चुप हो गयी और कुछ कहा नहीं, फिर रोने लगी। डॉक्टर शुक्ला भर्राये गले से बोले, ”मुझे यह रोआई अच्छी नहीं लगती। यह भावुकता क्यों? तुम पढ़ी-लिखी लड़की हो। इसी दिन के लिए तुम्हें पढ़ाया-लिखाया गया था! भावुकता से क्या फायदा?” कहते-कहते डॉक्टर शुक्ला खुद रोने लगे। ”चलो चन्दर यहाँ से! अभी जनवासा ठीक करवाना है।” चन्दर और डॉक्टर शुक्ला दोनों उठकर चले गये।

अपनी शादी के पहले, हमेशा के लिए अलग होने से पहले सुधा को इतना ही मौका मिला…उसके बाद…

सुबह छह बजे गाड़ी आती थी, लेकिन खुशकिस्मती से गाड़ी लेट थी; डॉक्टर शुक्ला तथा अन्य लोग बारात का स्वागत करने स्टेशन पर जा रहे थे और चन्दर घर पर ही रह गया था जनवासे का इन्तजाम करने। जनवासा बगल में था। माथुर साहब के बँगले के दोनों हॉल और कमरा खाली करवा लिये गये थे। चन्दर सुबह छह ही बजे आ गया था और जनवासे में सब सामान लगवा दिया था। नहाने का पानी और बाकी इन्तजाम कर वह घर आया। जलपान का इन्तजाम तो केदार के हाथ में था लेकिन कुछ तौलिये भिजवाने थे।

”बिनती, कुछ तौलिये निकाल दो।” चन्दर ने बिनती से कहा।

बिनती उर्द की दाल धो रही थी। उसने फौरन उठकर हाथ धोये और कमरे की ओर चली गयी।

”ऐ बिनती…” बुआजी ने भंडारे के अन्दर से आवाज लगायी-”जाने कहाँ मर गयी मुँहझौंसी! अरे सिंगार-पटार बाद में कर लियो, काम में तनिक दीदा नै लगते। बेसन का कनस्टर कहाँ रखा है?”

”अभी आये!” बिनती ने चन्दर से कहा और अपनी माँ के पास दौड़ी, पन्द्रह मिनट हो गये लेकिन बिनती लौटी ही नहीं। ब्याह का घर! हर तरफ से बिनती की पुकार मचती और बिनती पंख लगाये उड़ रही थी। जब बिनती नहीं लौटी तो चन्दर ने सुधा को ढुँढक़र कहा, ”सुधी, एक बहुत बड़ा-सा तौलिया निकाल दो।”

सुधा चुपचाप उठी और स्टडी-रूम में चली गयी। चन्दर भी पीछे-पीछे गया।

”बैठो, अभी निकालकर लाते हैं!” सुधा ने भरी हुई आवाज में कहा और बगल के कमरे में चली गयी। वहाँ से लौटी तो उसके हाथ में मीठे की तश्तरी थी।

”अरे खाने का वक्त नहीं है, सुधा! आठ बजे लोग आ जाएँगे।”

”अभी दो घंटे हैं, खा लो चन्दर! अब कभी तुम्हारे काम में हरजा करके खाने को नहीं कहूँगी!” सुधा बोली। चन्दर चुप।

”याद है, चन्दर! इसी जगह आँचल में छिपाकर नानखटाई लायी थी। आओ, आज अपने हाथ से खिला दूँ। कल ये हाथ पराये हो जाएँगे। और सुधा ने एक इमरती तोडक़र चन्दर के मुँह में दे दी। चन्दर की आँखों में दो आँसू छलक आये-सुधा ने अपने हाथ से आँसू पोंछ दिये और बोली, ”चन्दर, घर में कोई खाने का खयाल करने वाला नहीं है। खाते-पीते जाना, तुम्हें हमारी कसम है। मैं शाहजहाँपुर से लौटकर आऊँगी तो दुबले मत मिलना।” चन्दर कुछ बोला नहीं। आँसू बहते गये, सुधा खिलाती गयी, वह खाता गया। सुधा ने गिलास में पानी दिया, उसने हाथ धोया और जेब से रूमाल निकाला।

”क्यों, आज आँचल में हाथ नहीं पोंछोगे?” सुधा बोली। चन्दर ने आँचल हाथ में ले लिया और पलकों पर आँचल दबाकर फूट-फूटकर रो पड़ा।

”छिह, चन्दर! आज तो हम सँभल गये हैं, हमने सब स्वीकार कर लिया चुपचाप। अब तुम कमजोर मत बनो, तुमने कहा था, मैं शान्त रहूँ तो शान्त हो गयी। अब क्यों मुझे भी रुलाओगे! उठो।” चन्दर उठ खड़ा हुआ।

सुधा ने एक पान चन्दर के मुँह में देकर कत्था उसकी कमीज से लगा दिया। चन्दर कुछ नहीं बोला।

”अरे, आज तो लड़ लो, चन्दर! आज से खत्म कर देना।”

इतने में बिनती तौलिया ले आयी। ”दीदी, इन्हें कुछ खिला दो। ये खा नहीं रहे हैं।” बिनती ने कहा।

”खिला दिया।” सुधा बोली, ”देखो चन्दर, आज मैं नहीं रोऊँगी लेकिन एक शर्त पर। तुम बराबर मेरे सामने रहना। मंडप में रहोगे न?”

”हाँ, रहूँगा।” चन्दर ने आँसू पीते हुए कहा।

”कहीं चले मत जाना! मेरी आखिरी बिनती है।” सुधा बोली। चन्दर तौलिया लेकर चला आया।

चूँकि बारात में कुल आठ ही लोग थे अत: घर की और माथुर साहब की दो ही कारों से काम चल गया। जब ये लोग आये तो नाश्ते का सामान तैयार था और चन्दर चुपचाप बैठा था। उसने फौरन सबका सामान लगवाया और सामान रखवाकर वह जा ही रहा था कि कैलाश ने पीछे से कन्धे पर हाथ रखकर उसे पीछे घुमा लिया और गले से लगकर बोला, ”कहाँ चले कपूर साहब, नमस्ते! चलो, पहले नाश्ता करो।” और खींचकर वह चन्दर को ले गया। अपने बगल की मेज पर बिठाकर, उसकी चाय अपने हाथ से बनायी और बोला, ”कुछ नाराज थे क्या, कपूर? खत का जवाब क्यों नहीं देते थे?”

”हम तो बराबर खत का जवाब देते रहे, यार!” कपूर चाय पीते हुए बोला।

”अच्छा तो हम घूमते रहे इधर-उधर, खत गड़बड़ हो गये होंगे।…लो, समोसा खाओ!” कैलाश ने कहा। चन्दर ने सिर हिलाया तो बोला, ‘अरे, वाह म्याँ? शादी तुम्हारी नहीं हो रही है, हमारी हो रही है, समझे? तुम क्यों तकल्लुफ कर रहे हो। अच्छा कपूर…काम तो तुम्हीं पर होगा सब!”

”हाँ!” कपूर बोला।

”बड़ा अफसोस है, यार!” जब हम लोग पहली दफा मिले थे तो यह नहीं मालूम था कि तुम और डॉक्टर साहब इतना अच्छा इनाम दोगे, अपने को बचाने का। हमारे लायक कोई काम हो तो बताओ!”

”आपकी दुआ है!” चन्दर ने सिर झुकाकर कहा, और सभी हँस पड़े। इतने में शंकर बाबू डॉक्टर साहब के साथ आये और सब लोग चुप हो गये।

दिन भर के व्यवहार से चन्दर ने देखा कि कैलाश भी उतना ही अच्छा हँसमुख और शालीन है जितने शंकर बाबू थे। वह उसे राजनीतिक क्षेत्र में जितना फौलादी लगा था, घरेलू जिंदगी में उतना ही अच्छा लगा। चन्दर का मन खुशी से नाच उठा। सुधा की ओर से वह थोड़ा निश्चिन्त हो गया। अब सुधा निभा ले जाएगी। वह मौका निकालकर घर में गया। देखा, सुधा को औरतें घेरे हुए बैठी हैं और महावर लगा रही हैं। बिनती कनस्तर में से घी निकाल रही थी। चन्दर गया और बिनती की चोटी घसीटकर बोला, ”ओ गिलहरी, घी पी रही है क्या?”

बिनती ने दंग होकर चन्दर की ओर देखा। आज तक कभी अच्छे-भले में तो चन्दर ने उसे नहीं चिढ़ाया था। आज क्या हो गया? आज जबकि पिछले पन्द्रह रोज से चन्दर के होठ मुसकराना भूल गये हैं।

”आँख फाड़कर क्या देख रही है? कैलाश बहुत अच्छा लड़का है, बहुत अच्छा। अब सुधा बहुत सुखी रहेगी। कितना अच्छा होगा, बिनती! हँसती क्यों नहीं गिलहरी!” और चन्दर ने बिनती की बाँह में चुटकी काट ली।

”अच्छा! हमें दीदी समझा है क्या? अभी बताती हूँ।” और घी भरे हाथ से चन्दर की बाँह पकड़कर बिनती ने जोर से घुमा दी। चन्दर ने अपने को छुड़ाया और बिनती को चपत मारकर गुनगुनाता हुआ चला गया।

बिनती ने कनस्तर के मुँह पर लगा घी पोंछा और मन में बोली, ‘देवता और किसे कहते हैं?’

शाम को बारात चढ़ी। सादी-सी बारात। सिर्फ एक बैंड था। कैलाश ने शेरवानी और पायजामा पहना था, और टोपी। सिर्फ एक माला गले में पड़ी थी और हाथ में कंगन बँधा था। मौर पीछे किसी आदमी के हाथ में था। जयमाला की रस्म होने वाली थी। लेकिन बुआजी ने स्पष्ट कर दिया कि हमारी लड़की कोई ऐसी-वैसी नहीं कि ब्याह के पहले भरी बारात में मुँह खोलकर माला पहनाये। लेकिन घूँघट के मामले पर सुधा ने दृढ़ता से मना किया था, वह घूँघट बिल्कुल नहीं करेगी।

अन्त में पापा उसे लेकर मंडप में आये। घर का काम-काज निबट गया था। सभी लोग आँगन में बैठे थे। कामिनी, प्रभा, लीला सभी थीं, एक ओर बाराती बैठे थे। सुधा शान्त थी लेकिन उसका मुँह ग्रहण के चन्द्रमा की तरह निस्तेज था। मंडप का एक बल्ब खराब हो गया था और चन्दर सामने खड़ा उसे बदल रहा था। सुधा ने जाते-जाते चन्दर को देखा और आँसू पोंछकर मुसकराने लगी और मुसकराकर फिर आँसू पोंछने लगीं। कामिनी, प्रभा, लीला तमाम लड़कियाँ कैलाश पर फब्तियाँ कस रही थीं। सुधा सिर झुकाये बैठी थी। पापा से उसने कहा, ”बिनती को हमारे पास भेज दो।” बिनती आकर सुधा के पीछे बैठ गयी। कैलाश ने आँख के इशारे से चन्दर को बुलाया। चन्दर जाकर पीछे बैठा तो कैलाश ने कहा, ”यार, यहाँ जो लोग खड़े हैं इनका परिचय तो बता दो चुपके से!” चन्दर ने सभी का परिचय बताया। कामिनी, प्रभा, लीला सभी के बारे में जब चन्दर बता रहा था तो बिनती बोली, ”बड़े लालची मालूम देते हैं आप? एक से सन्तोष नहीं है क्या? वाह रे जीजाजी!” कैलाश ने मुसकराकर चन्दर से पूछा, ”इसका ब्याह तय हुआ कि नहीं?”

”हो गया।” चन्दर ने कहा।

”तभी बोलने का अभ्यास कर रही हैं; मंडप में भी इसीलिए बैठी हैं क्या?” कैलाश ने कहा। बिनती झेंप गयी और उठकर चली गयी।

संस्कार शुरू हुआ। कैलाश के हाथ में नारियल और उसकी मुठ्ठी पर सुधा के दोनों हाथ। सुधा अब चुप थी। इतनी चुप…इतनी चुप कि लगता था उसके होठों ने कभी बोलना जाना ही नहीं। संस्कार के दौरान ही पारस्परिक वचन का समय आया। कैलाश ने सभी प्रतिज्ञाएँ स्वयं कहीं। शंकरबाबू ने कहा, लड़की भी शिक्षित है और उसे भी स्वयं वचन करने होंगे। सुधा ने सिर हिला दिया। एक असन्तोष की लहर-सी बारातियों में फैल गयी। चन्दर ने बिनती को बुलाया। उसके कान में कहा, ”जाकर सुधा से कह दो कि पागलपन नहीं करते। इससे क्या फायदा?” बिनती ने जाकर बहुत धीरे से सुधा के कान में कहा। सुधा ने सिर उठाकर देखा। सामने बरामदे की सीढिय़ों पर चन्दर बैठा हुआ बड़ा चिन्तित-सा कभी शंकरबाबू की ओर देखता और कभी सुधा की ओर। सुधा से उसकी निगाह मिली और वह सिहर-सा उठा, सुधा क्षण-भर उसकी ओर देखती रही। चन्दर ने जाने क्या कहा और सुधा ने आँखों-ही-आँखों में उसे क्या जवाब दे दिया। उसके बाद सुधा नीचे रखे हुए पूजा के नारियल पर लगे हुए सिन्दूर को देखती रही फिर एक बार चन्दर की ओर देखा। विचित्र-सी थी वह निगाह, जिसमें कातरता नहीं थी, करुणा नहीं थी, आँसू नहीं थे, कमजोरी नहीं थी, था एक गम्भीरतम विश्वास, एक उपमाहीन स्नेह, एक सम्पूर्णतम समर्पण। लगा, जैसे वह कह रही हो-सचमुच तुम कह रहे हो, फिर सोच लो चन्दर…इतने दृढ़ हो…इतने कठोर हो…मुझसे मुँह से क्यों कहलवाना चाहते हो…क्या सारा सुख लूटकर थोड़ी-सी आत्मवंचना भी मेरे पास नहीं छोड़ोगे?…अच्छा लो, मेरे देवता! और उसने हारकर सिसकियों से सने स्वरों में अपने को कैलाश को समर्पित कर दिया। प्रतिज्ञाएँ दोहरा दीं और उसके बाद साड़ी का एक छोर खींचकर, नथ की डोरी ठीक करने के बहाने उसने आँसू पोंछ लिये।

चन्दर ने एक गहरी साँस ली और बगल में बैठी हुई बुआजी से कहा, ”बुआजी, अब तो बैठा नहीं जाता। आँखों में जैसे किसी ने मिर्च भर दी हो।”

”जाओ…जाओ, सोय रहो ऊपर, खाट बिछी है। कल सुबह दस बजे विदा करे को है। कुछ खायो पियो नै, तो पड़े रहबो!” बुआ ने बड़े स्नेह से कहा।

चन्दर ऊपर गया तो देखा एक खाट पर बिनती औंधी पड़ी सिसक रही है। ”बिनती! बिनती!” उसने बिनती को पकडक़र हिलाया। बिनती फूट-फूटकर रो पड़ी।

”उठ पगली, हमें तो समझाती है, खुद अपने-आप पागलपन कर रही है।” चन्दर ने रुँधे गले से कहा।

बिनती उठकर एकदम चन्दर की गोद में समा गयी और दर्दनाक स्वर में बोली, ”हाय चन्दर…अब…क्या…होगा?”

चन्दर की आँखों में आँसू आ गये, वह फूट पड़ा और बिनती को एक डूबते हुए सहारे की तरह पकडक़र उसकी माँग पर मुँह रखकर फूट-फूटकर रो पड़ा। लेकिन फिर भी सँभल गया और बिनती का माथा सहलाते हुए और अपनी सिसकियों को रोकते हुए कहा, ”रो मत पगली!”

धीरे-धीरे बिनती चुप हुई। और खाट के पास नीचे छत पर बैठ गयी और चन्दर के घुटनों पर हाथ रखकर बोली, ”चन्दर, तुम आना मत छोड़ना। तुम इसी तरह आते रहना! जब तक दीदी ससुराल से लौट न आएँ।”

”अच्छा!” चन्दर ने बिनती की पीठ पर हाथ रखकर कहा, ”घबराते नहीं। तुम तो बहादुर लड़की हो न! सब चीज बहादुरी से सहना चाहिए। कैसी दीदी की बहन हो? क्यों?”

बिनती उठकर नीचे चली गयी।

चन्दर लेट रहा। उसकी पोर-पोर में दर्द हो रहा था। नस-नस को जैसे कोई तोड़ रहा हो, खींच रहा हो। हड्डियों के रेशे-रेशे में थकान मिल गयी थी लेकिन उसे नींद नही आयी। आँगन में पुरोहितजी के मंत्र-पाठ का स्वर और बीच-बीच में आने वाले किसी बाराती या औरतों की आवाजें उसके मन को अस्त-व्यस्त कर देती थीं। उसकी थकान और उसकी अशान्ति ही उसको बार-बार झटके से जगा देती थी। वह करवट बदलता, कभी ऊपर देखता, कभी आँखें बन्द कर लेता कि शायद नींद आ जाए लेकिन नींद नहीं ही आयी। धीरे-धीरे नीचे का रव भी शान्त हो गया। संस्कार भी समाप्त हुआ। बाराती उठकर चलने लगे और वह आवाजों से यह पहचानने की कोशिश करने लगा कि अब कौन क्या कर रहा है। धीरे-धीरे सब शोर शान्त हो गया।

चन्दर ने फिर करवट बदली और आँख बन्द कर ली। धीरे-धीरे एक कोहरा उसके मन पर छा गया। वह इतना जागा कि अब अगर वह आँख भी बन्द करता तो जब पलकें पुतलियों से छा जातीं तो एक बहुत कड़ुआ दर्द होने लगा था। जैसे-तैसे उसकी थोड़ी-सी आँख लगी…

किसी ने सहसा जगा दिया। पलक बन्द करने में जितना दर्द हुआ था उतना ही पलकें खोलने में। उसने पलकें खोलीं-देखा सामने सुधा खड़ी थी…

माँग और माथे में सिन्दूर, कलाई में कंगन, हाथ में अँगूठियाँ, कड़े, चूड़े, गले में गहने, बड़ी-सी नथुनी डोरे के सहारे कान में बँधी हुई, आँखें-जिनमें भादों की घटाओं की गरज खामोश हो रही बरसात-सी हो गयी थी।

वह क्षण-भर पैताने खड़ी रही। चन्दर उठकर बैठ गया! उसका दिल इस तरह धडक़ रहा था जैसे किसी के सामने भाग्य का रूठा हुआ देवता खड़ा हो। सुधा कुछ बोली नहीं। उसने दोनों हाथ जोड़े और झुककर चन्दर के पैरों पर माथा टेक दिया। चन्दर ने उसके सिर पर हाथ रखकर कहा, ”ईश्वर तुम्हारा सुहाग अटल करे! तुम बहुत महान हो। मुझे तुम पर आज से गर्व है। आज तक तुम जो कुछ थी उससे कहीं ज्यादा हो मेरे लिए, सुधा!”

सुधा कुछ बोली नहीं। आँचल से आँसू पोंछती हुई पायताने जमीन पर बैठ गयी। और अपने गले से एक बेले का हार उतारा। उसे तोड़ डाला और चन्दर के पाँव खींचकर खाट के नीचे जमीन पर रख लिये।

”अरे यह क्या कर रही हो, सुधा।” चन्दर ने कहा।

”जो मेरे मन में आएगा!” बहुत मुश्किल से रुँधे गले से सुधा बोली, ”मुझे किसी का डर नहीं, तुम जो कुछ दंड दे चुके हो, उससे बड़ा दंड तो अब भगवान भी नहीं दे सकेंगे?” सुधा ने चन्दर के पाँवों पर फूल रखकर उन्हें चूम लिया और अपनी कलाई में बँधी हुई एक पुड़िया खोलकर उसमें से थोड़ा-सा सिन्दूर उन फूलों पर छिडक़कर, चन्दर के पाँवों पर सिर रखकर चुपचाप रोती रही।

थोड़ी देर बाद उठी और उन फूलों को समेटा। अपने आँचल के छोर में उन्हें बाँध लिया और उठकर चली…धीमे-धीमे नि:शब्द…

”कहाँ चली, सुधा?” चन्दर ने सुधा का हाथ पकड़ लिया।

”कहीं नहीं!” अपना हाथ छुड़ाते हुए सुधा ने कहा।

”नहीं-नहीं, सुधा, लाओ ये हम रखेंगे!” चन्दर ने सुधा को रोकते हुए कहा।

”बेकार है, चन्दर! कल तक, परसों तक ये जूठे हो जाएँगे, देवता मेरे!” और सुधा सिसकते हुए चली गयी।

एक चमकदार सितारा टूटा और पूरे आकाश पर फिसलते हुए जाने किस क्षितिज में खो गया।

दूसरे दिन आठ बजे तक सारा सामान स्टेशन पहुँच गया था। शंकर बाबू और डॉक्टर साहब पहले ही स्टेशन पहुँच गये थे। बाराती भी सब वहीं चले गये थे। कैलाश और सुधा को स्टेशन तक लाने का जिम्मा चन्दर पर था। बहुत जल्दी करते-कराते भी सवा नौ बजे गये थे। उसने फिर जाकर कहा। कैलाश और सुधा खड़े हुए थे। पीछे से नाइन सुधा के सिर पर पंखा रखी थी और बुआजी रोचना कर रही थीं। चन्दर के जल्दी मचाने पर अन्त में उन्हें फुरसत मिली और वह आगे बढ़े। मोटर पर सुधा ने ज्यों ही पाँव रखा कि बिनती पाँव से लिपट गयी और रोने लगी। सुधा जोर से बिलख-बिलखकर रो पड़ी। चन्दर ने बिनती को छुड़ाया। सुधा पीछे बैठकर खिड़की पर मुँह रखकर सिसकती रही। मोटर चल दी। सुधा मुडक़र अपने घर की ओर देख रही थी। बिनती ने हाथ जोड़े तो सुधा चीखकर रो पड़ी। फिर चुप हो गयी।

स्टेशन पर भी सुधा बिल्कुल शान्त रही। सुधा और कैलाश के लिए सेकेंड क्लास में एक बर्थ सुरक्षित थी। बाकी लोग ड्योढ़े में थे। शंकर बाबू ने दोनों को उस डिब्बे में पहुँचाया और बोले, ”कैलाश, तुम जरा हमारे साथ आओ। मिस्टर कपूर, जरा बहू के पास आप रहिए। मैं डॉक्टर साहब को यहाँ भेज रहा हूँ।”

चन्दर खिडक़ी के पास खड़ा हो गया। शंकर बाबू का छोटा बच्चा आकर अपनी नयी चाची के पास बैठ गया और उनकी रेशमी चादर से खेलने लगा। चन्दर चुपचाप खड़ा था।

सहसा सुधा ने उसके हाथों पर अपना मेहँदी लगा हाथ रख दिया और धीमे से कहा, ”चन्दर!” चन्दर ने मुडक़र देखा तो बोली, ”अब कुछ सोचो मत। इधर देखो!” और सुधा ने जाने कितने दुलार से चन्दर से कहा, ”देखो, बिनती का ध्यान रखना। उसे तुम्हारे ही भरोसे छोड़ रही हूँ और सुनो, पापा को रात को सोते वक्त दूध में ओवल्टीन जरूर दे देना। खाने-पीने में गड़बड़ी मत करना, यह मत समझना कि सुधा मर गयी तो फिर बिना दूध की चाय पीने लगो। हम जल्दी से आ जाएँगे। पम्मी का कोई खत आये तो हमें लिखना।”

इतने में डॉक्टर साहब और कैलाश आ गये। कैलाश कम्पार्टमेंट के बाथरूम में चला गया। डॉक्टर साहब आये और सुधा के सिर पर हाथ रखकर बोले, ”बेटा! आज तेरी माँ होती तो कितना अच्छा होता। और देख, महीने-भर में बुला लेंगे तुझे! वहाँ घबराना मत।”

गाड़ी ने सीटी दी।

पापा ने कहा, ”बेटा, अब ठीक से रहना और भावुकता या बचपना मत करना। समझी!” पापा ने आँख से रूमाल लगा लिया-”विवाह बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है। अब तुम्हारी नयी जिंदगी है। अब तक बेटी थी, अब बहू हो…।”

सुधा बोली, ”पापा, तुम्हारा ओवल्टीन का डिब्बा शीशे वाली मेज पर है। उसे पी लिया करना और पापा, बिनती को गाँव मत भेजना। चन्दर को अब घर पर ही बुला लो। तुम अकेले पड़ गये! और हमें जल्दी बुला लेना…”

गार्ड ने सीटी दी। कैलाश ने जल्दी से डॉक्टर साहब के पैर छुए। चन्दर से हाथ मिला लिया। सुधा बोली, ”चन्दर, ये पुर्जा बिनती को देना और देखो मेरा नतीजा निकले तो तार देना।” गाड़ी चल पड़ी। ”अच्छा पापा, अच्छा चन्दर…” सुधा ने हाथ जोड़े और खिडक़ी पर टिककर रोने लगी। और बार-बार आँसू पोंछ-पोंछकर देखने लगी।…

गाड़ी प्लेटफार्म के बाहर चली गयी तब चन्दर मुड़ा। उसके बदन में पोर-पोर में दर्द हो रहा था। वह कैसे घर पर पहुँचा उसे मालूम नहीं।

दो

चन्दर को हफ्ते-भर तक होश नहीं रहा। शादी के दिनों में उसे एक नशा था जिसके बल पर वह मशीन की तरह काम करता गया। शादी के बाद इतनी भयंकर थकावट उसकी नसों में कसक उठी कि उसका चलना-फिरना मुश्किल हो गया था। वह अपने घर से होटल तक खाना खाने नहीं जा पाता था। बस पड़ा-पड़ा सोता रहता। सुबह नौ बजे सोता; पाँच बजे उठता; थोड़ी देर होटल में बैठकर फिर वापस आ जाता। चुपचाप छत पर लेटा रहता और फिर सो जाता। उसका मन एक उजड़े हुए नीड़ की तरह था जिसमें से विचार, अनुभूति, स्पन्दन और रस के विहंगम कहीं दूर उड़ गये थे। लगता था, जैसे वह सब कुछ भूल गया है। सुधा, बिनती, पम्मी, डॉक्टर साहब, रिसर्च, थीसिस, सभी कुछ! ये सब चीजें कभी-कभी उसके मन में नाच जातीं लेकिन चन्दर को ऐसा लगता कि ये किसी ऐसी दुनिया की चीजें हैं जिसको वह भूल गया है, जो उसके स्मृति-पटल से मिट चुकी है, कोई ऐसी दुनिया जो कभी थी, कहीं थी, लेकिन किसी भयंकर जलप्रलय ने जिसका कण-कण ध्वस्त कर दिया था। उसकी दुनिया अपनी छत तक सीमित थी, छत के चारों ओर की ऊँची दीवारों और उन चारदीवारों से बँधे हुए आकाश के चौकोर टुकड़े तक ही उसके मन की उड़ान बँध गयी थी। उजाला पाख था। पहले वह लुब्धक तारे की रोशनी देखता फिर धीरे-धीरे चाँद की दूधिया रोशनी सफेद कफन की तरह छा जाती और वह मन में थके हुए स्वर जैसे चाँदनी को ओढ़ता हुआ-सा कहता, ”सो जा मुरदे…सो जा।”

छठे दिन उसका मन कुछ ठीक हुआ। थकावट, जो एक केंचुल की तरह उस पर छायी हुई थी, धीरे-धीरे उतर गयी और उसे लगा जैसे मन में कुछ टूटा हुआ-सा दर्द कसक रहा है। यह दर्द क्यों है, कैसा है, यह उसके कुछ समझ में नहीं आता था। पाँच बजे थे लेकिन धूप बिल्कुल नहीं थी। पीले उदास बादलों की एक झीनी तह ने ढलते हुए आषाढ़ के सूरज को ढँक लिया था। हवा में एक ठंडक आ गयी थी; लगता था कि झोंके किसी वर्षा के देश से आ रहे हैं। वह उठा, नहाया और बिनती के घर चल पड़ा।

डॉक्टर शुक्ला लॉन पर हाथ में किताब लिये टहल रहे थे। पाँच दिनों में जैसे वह बहुत बूढ़े हो गये थे। बहुत झुके हुए-से निस्तेज चेहरा, डबडबायी आँखें और चाल में जैसे उम्र थक गयी हो। उन्होंने चन्दर का स्वागत भी उस तरह नहीं किया जैसे पहले करते थे। सिर्फ इतना बोले, ”चन्दर, दो दफे ड्राइवर को भेजकर बुलाया तो मालूम हुआ तुम सो रहे हो। अब अपना सामान यहीं ले आओ।” और वे बैठकर किताब उलट-पलट कर देखने लगे। अभी तक वे बूढ़े थे, उनका व्यक्तित्व तरुण था। आज लगता था जैसे उनके व्यक्तित्व पर झुर्रियाँ पडऩे लगी हैं, उनके व्यक्तित्व की कमर भी झुक गयी है। चन्दर कुछ नहीं बोला। चुपचाप खड़ा रहा। सामने आकाश पर एक अजब-सी जर्दी छा रही थी। डॉक्टर साहब ने किताब बन्द की और बोले, ”सुना है…कॉलेज के प्रिन्सिपल आ गये हैं। जाऊँ जरा उनसे तुम्हारे बारे में बात कर आऊँ। तुम जाओ, सुधा का खत आया है बिनती के पास।”

”बुआजी हैं?” चन्दर ने पूछा।

”नहीं, आज ही सुबह तो गयीं। हम लोग कितना रोकते रहे लेकिन उन्हें कहीं और चैन ही नहीं पड़ता। बिनती को बड़ी मुश्किल से रोका मैंने।” और डॉक्टर साहब गैरेज की ओर चल पड़े।

चन्दर भीतर गया। सारा घर इतना सुनसान था, इतना भयंकर सन्नाटा कि चन्दर के रोएँ-रोएँ खड़े हो गये। शायद मौत के बाद का घर भी इतना नीरव और इतना भयानक न लगता होगा जितना यह शादी के बाद का घर। सिर्फ रसोई से कुछ खटपट की आवाज आ रही थी। ”बिनती!” चन्दर ने पुकारा। बिनती चौके में थी। वह निकल आयी। बिनती को देखते ही चन्दर दंग हो गया। वह लड़की इतनी दुबली हो गयी थी कि जैसे बीमार हो। रो-रोकर उसकी आँखें सूज गयी थीं और होठ मोटे पड़ गये थे। चन्दर को देखते ही उसने कड़ाही उतारकर नीचे रख दी और बिखरी हुई लटें सुधारकर, आँचल ठीक कर बाहर निकल आयी। कमरे से खींचकर एक चौकी आँगन में डालकर चन्दर से बहुत उदास स्वर में बोली, ”बैठिए!”

”घर कितना सूना लग रहा है बिनती, तुम अकेले कैसे रहती होगी?” चन्दर ने कहा। बिनती की आँखों में आँसू छलछला आये।

”बिनती, रोती क्यों हो? छिह! मुझे देखो। मैं कैसे पत्थर बन गया हूँ। क्यों? तुम तो इतनी अच्छी लड़की हो।” चन्दर ने बिनती के कन्धे पर हाथ रखकर कहा।

बिनती ने आँसू भरी पलकें चन्दर की ओर उठायीं और बड़े ही कातर स्वर में कहा, ”आप देवता हो सकते हैं, लेकिन हरेक तो देवता नहीं है। फिर आपने कहा था आप आएँगे बराबर। पिछले हफ्ते से आये भी नहीं। यह भी नहीं सोचा कि हमारा क्या हाल होगा! रोज सुबह-शाम कोई भी आता तो हम दौडक़र देखते कि आप आये हैं या नहीं। दीदी आपकी थीं! बस उन तक आपका रिश्ता था। हम तो आपके कोई नहीं हैं।”

”नहीं बिनती! इतने थक गये थे कि हम कहीं आने-जाने की हिम्मत ही नहीं पड़ती थी। बुआजी को जाने क्यों दिया तुमने? उन्हें रोक लेती!” चन्दर ने कहा।

”अरे, वह थीं तो रोने भी नहीं देती थीं। मैं दो-तीन दिन तक रोयी तो मुझ पर बहुत बिगड़ीं और महराजिन से बोलीं, ”हमने तो ऐसी लड़की ही नहीं देखी। बड़ी बहन का ब्याह हो गया तो मारे जलन के दिन-रात आँसू बहा-बहाकर अमंगल बनाती है। जब बखत आएगा तभी शादी करेंगे कि अभी ही किसी के साथ निकाल दूँ।” बिनती ने एक गहरी साँस लेकर कहा, ”आप समझ नहीं सकते कि जिंदगी कितनी खराब है। अब तो हमारी तबीयत होती है कि मर जाएँ। अभी तक दीदी थीं, सहारा दिये रहती थीं। हिम्मत बँधाये रहती थीं, अब तो कोई नहीं हमारा।”

”छिह, ऐसी बातें नहीं करते, बिनती! महीने-भर में सुधा आ जाएगी। और माँ की बातों का क्या बुरा मानना?”

”आप लड़की होते तो समझते, चन्दर बाबू!” बिनती बोली और जाकर एक तश्तरी में नाश्ता ले आयी, ”लो, दीदी कह गयी थीं कि चन्दर के खाने-पीने का खयाल रखना लेकिन यह किसको मालूम था कि दीदी के जाते ही चन्दर गैर हो जाएँगे।”

”नहीं बिनती, तुम गलत समझ रही हो। जाने क्यों एक अजीब-सी खिन्नता मन में आ गयी थी। कुछ करने की तबीयत ही नहीं होती थी। आज कुछ तबीयत ठीक हुई तो सबसे पहले तुम्हारे ही पास आया। बिनती! अब सुधा के बाद मेरा है ही कौन, सिवा तुम्हारे?” चन्दर ने बहुत उदास स्वर में कहा।

”तभी न! उस दिन मैं बुलाती रह गयी और आप यह गये, वह गये और आँख से ओझल! मैंने तो उसी दिन समझ लिया था कि अब पुराने चन्दर बाबू बदल गये।” बिनती ने रोते हुए कहा।

चन्दर का मन भर आया था, गले में आँसू अटक रहे थे लेकिन आदमी की जिंदगी भी कैसी अजब होती है। वह रो भी नहीं सकता था, माथे पर दुख की रेखा भी झलकने नहीं दे सकता था, इसलिए कि सामने कोई ऐसा था, जो खुद दुखी था और सुधा की थाती होने के नाते बिनती को समझाना उसका पहला कर्तव्य था। बिनती के आँसू रोकने के लिए वह खुद अपने आँसू पी गया और बिनती से बोला, ”लो, कुछ तुम भी खाओ।” बिनती ने मना किया तो उसने अपने हाथ से बिनती को खिला दिया। बिनती चुपचाप खाती रही और रह-रहकर आँसू पोंछती रही।

इतने में महराजिन आयी। बिनती ने चौके के काम समझा दिये और चन्दर से बोली, ”चलिए, ऊपर चलें।” चन्दर ने चारों ओर देखा। घर का सन्नाटा वैसा ही था। सहसा उसके मन में एक अजीब-सी बात आयी। सुधा के साथ कभी भी कहीं भी वह जा सकता था, लेकिन बिनती के साथ छत पर अकेले जाने में क्यों उसके अन्त:करण ने गवाही नहीं दी। वह चुपचाप बैठा रहा। बिनती कुछ भी हो, कितनी ही समीप क्यों न हो, बिनती सुधा नहीं थी, सुधा नहीं हो सकती थी। ”नहीं, यहीं ठीक है।” चन्दर बोला।

बिनती गयी। सुधा का पत्र ले आयी। चन्दर का मन जाने कैसा होने लगा। लगता था जैसे अब आँसू नहीं रुकेंगे। उसके मन में सिर्फ इतना आया कि अभी बहत्तर घंटे पहले सुधा यहीं थी, इस घर की प्राण थी; आज लगता है जैसे इस घर में सुधा थी ही नहीं…

आँगन में अँधेरा होने लगा था। वह उठकर सुधा के कमरे के सामने पड़ी हुई कोच पर बैठ गया और बिनती ने बत्ती जला दी। खत छोटा-सा था-

”डॉक्टर चन्दर बाबू,

क्या तुम कभी सोचते थे कि तुम इतनी दूर होगे और मैं तुम्हें खत लिखूँगी। लेकिन खैर!

अब तो घर में चैन की बंसी बजाते होंगे। एक अकेले मैं ही काँटे-जैसी खटक रही थी, उसे भी तुमने निकाल फेंका। अब तुम्हें न कोई परेशान करता होगा, न तुम्हारे पढ़ने-लिखने में बाधा पहुँचती होगी। अब तो तुम एक महीने में दस-बारह थीसिस लिख डालोगे।

जहाँ दिन में चौबीस घंटे तुम आँख के सामने रहते थे, वहाँ अब तुम्हारे बारे में एक शब्द सुनने के लिए तड़प उठती हूँ। कई दफे तबीयत आती है कि जैसे बिनती से तुम्हारे बारे में बातें करती थी वैसे ही इनसे (तुम्हारे मित्र से) तुम्हारे बारे में बातें करूँ लेकिन ये तो जाने कैसी-कैसी बातें करते हैं।

और सब ठीक है। यहाँ बहुत आजादी है मुझे। माँजी भी बहुत अच्छी हैं। परदा बिल्कुल नहीं करतीं। अपने पूजा के सारे बरतन पहले ही दिन हमसे मँजवाये।

देखो, पापा का ध्यान रखना। और बिनती को जैसे मैं छोड़ आयी हूँ उतनी ही मोटी रहे। मैं महीने-भर बाद आकर तुम्हीं से बिनती को वापस लूँगी, समझे? यह न करना कि मैं न रहूँ तो मेरे बजाय बिनती को रुला-रुलाकर, कुढ़ा-कुढ़ाकर मार डालो, जैसी तुम्हारी आदत है।

चाय ज्यादा मत पीना-खत का जवाब फौरन!

तुम्हारी-सुधा।”

चन्दर ने चिठ्ठी एक बार फिर पढ़ी, दो बार पढ़ी, और बार-बार पढ़ता गया। हलके हरे कागज पर छोटे-छोटे काले अक्षर जाने कैसे लग रहे थे। जाने क्या कह रहे थे, छोटे-छोटे अर्थात कुछ उनमें अर्थ था जो शब्द से भी ज्यादा गम्भीर था। युगों पहले वैयाकरणों ने उन शब्दों के जो अर्थ निश्चित किये थे, सुधा की कलम से जैसे उन शब्दों को एक नया अर्थ मिल गया था। चन्दर बेसुध-सा तन्मय होकर उस खत को बार-बार पढ़ता गया और किस समय वे छोटे-छोटे नादान अक्षर उसके हृदय के चारों ओर कवच-जैसे बौद्धिकता और सन्तुलन के लौह पत्र को चीरकर अन्दर बिंध गये और हृदय की धड़कनों को मरोडऩा शुरू कर दिया, यह चन्दर को खुद नहीं मालूम हुआ जब तक कि उसकी पलकों से एक गरम आँसू खत पर नहीं टपक पड़ा। लेकिन उसने बिनती से वह आँसू छिपा लिया और खत मोड़क़र बिनती को दे दिया। बिनती ने खत लेकर रख लिया और बोली, ”अब चलिए खाना खा लीजिए!” चन्दर इनकार नहीं कर सका।

महराजिन ने थाली लगायी और बोली, ”भइया, नीचे अबहिन आँगन धोवा जाई, आप जाय के ऊपर खाय लेव।”

चन्दर को मजबूरन ऊपर जाना पड़ा। बिनती ने खाट बिछा दी। एक स्टूल डाल दिया। पानी रख दिया और नीचे थाली लाने चली गयी। चन्दर का मन भारी हो गया था। यह वही जगह है, वही खाट है जिस पर शादी की रात वह सोया था। इसी के पैताने सुधा आकर बैठी थी अपने नये सुहाग में लिपटी हुई-सी। यही पर सुधा के आँसू गिरे थे…।

बिनती थाली लेकर आयी और नीचे बैठकर पंखा करने लगी।

”हमारी तबीयत तो है ही नहीं खाने की, बिनती!” चन्दर ने भर्राये हुए स्वर में कहा।

”अरे, बिना खाये-पीये कैसे काम चलेगा? और फिर आप ऐसा करेंगे तो हमारी क्या हालत होगी? दीदी के बाद और कौन सहारा है! खाइए!” और बिनती ने अपने हाथ से एक कौर बनाकर चन्दर को खिला दिया! चन्दर खाने लगा। चन्दर चुप था, वह जाने क्या सोच रहा था। बिनती चुपचाप बैठी पंखा झल रही थी।

”क्या सोच रहे हैं आप?” बिनती ने पूछा।

”कुछ नहीं!” चन्दर ने उतनी ही उदासी से कहा।

”नहीं बताइएगा?” बिनती ने बड़े कातर स्वर से कहा।

चन्दर एक फीकी मुसकान के साथ बोला, ”बिनती! अब तुम इतना ध्यान न रखा करो! तुम समझती नहीं, बाद में कितनी तकलीफ होती है। सुधा ने क्या कर दिया है यह वह खुद नहीं समझती!”

”कौन नहीं समझता!” बिनती एक गहरी साँस लेकर बोली, ”दीदी नहीं समझती या हम नहीं समझते! सब समझते हैं लेकिन जाने मन कैसा पागल है कि सब कुछ समझकर धोखा खाता है। अरे दही तो आपने खाया ही नहीं।” वह पूड़ी लाने चली गयी।

और इस तरह दिन कटने लगे। जब आदमी अपने हाथ से आँसू मोल लेता है, अपने-आप दर्द का सौदा करता है, तब दर्द और आँसू तकलीफ-देह नहीं लगते। और जब कोई ऐसा हो जो आपके दर्द के आधार पर आपको देवता बनाने के लिए तैयार हो और आपके एक-एक आँसू पर अपने सौ-सौ आँसू बिखेर दे, तब तो कभी-कभी तकलीफ भी भली मालूम देने लगती है। लेकिन फिर भी चन्दर के दिन कैसे कट रहे थे यह वही जानता था। लेकिन अकबर के महल में जलते हुए दीपक को देखकर अगर किसी ने जाड़े की रात जमुना के घुटनों-घुटनों पानी में खड़े होकर काट दी, तो चन्दर अगर सुधा के प्यारे-प्यारे खतों के सहारे समय काट रहा था तो कोई ताज्जुब नहीं। अपने अध्ययन में प्रौढ़, अपने विचारों में उदार होने के बावजूद चन्दर अपने स्वभाव में बच्चा था, जिससे जिंदगी कुछ भी करवा सकती थी बशर्ते जिंदगी को यह आता हो कि इस भोले-भाले बच्चे को कैसे बहलावा दिया जाये।

बहलावे के लिए मुसकानें ही जरूरी नहीं होती हैं, शायद आँसुओं से मन जल्दी बहल जाता है। बिनती के आँसुओं में चन्दर सुधा की तसवीर देखता था और बहल जाता था। वह रोज शाम को आता और बिनती से सुधा की बातें करता, जाने कितनी बातें, जाने कैसी बातें और बिनती के माध्यम से सुधा में डूबकर चला आता था। चूँकि सुधा के बिना उसका दिन कटना मुश्किल था, एक क्षण कटना मुश्किल था इसलिए बिनती उसकी एक जरूरत बन गयी थी। वह जब तक बिनती से सुधा की बात नहीं कर लेता था, तब तक जैसे वह बेचैन रहता था, तब तक उसकी किसी काम में तबीयत नहीं लगती थी।

जब तक सुधा सामने रही, कभी भी उसे यह नहीं मालूम हुआ कि सुधा का क्या महत्व है उसकी जिंदगी में। आज जब सुधा दूर थी तो उसने देखा कि सुधा उसकी साँसों से भी ज्यादा आवश्यक थी उसकी जिंदगी के लिए। लगता था वह एक क्षण सुधा के बिना जिन्दा नहीं रह सकता। सुधा के अभाव में बिनती के माध्यम से वह सुधा को ढूँढ़ता था और जैसे सूरज के डूब जाने पर चाँद सूरज की रोशनी उधार लेकर रात को उजियारा कर देता है उसी तरह बिनती सुधा की याद से चन्दर के प्राणों पर उजियारी बिखेरती रही। चन्दर बिनती को इस तरह अपनी साँसों की छाँह में दुबकाये रहा जैसे बिनती सुधा का स्पर्श हो, सुधा का प्यार हो।

बिनती भी चन्दर के माथे पर उदासी के बादल देखते ही तड़प उठती थी। लेकिन फिर भी बिनती चन्दर को हँसा नहीं पायी। चन्दर का पुराना उल्लास लौटा नहीं। साँप का काटा हुआ जैसे लहरें लेता है वैसे ही चन्दर की नसों में फैला हुआ उदासी का जहर रह-रहकर चन्दर को झकझोर देता था। उन दिनों दो-दो तीन-तीन दिन तक चन्दर कुछ नहीं करता था, बिनती के पास भी नहीं जाता था, बिनती के आँसुओं की भी परवाह नहीं करता था। खाना नहीं खाता था, और अपने को जितनी तकलीफ हो सकती थी, देता था। फिर ज्यों ही सुधा का कोई खत आता था, वह उसे चूम लेता और फिर स्वस्थ हो जाता था। बिनती चाहे जितना करे लेकिन चन्दर की इन भयंकर उदासी की लहरों को चन्दर से छीन नहीं पायी थी। चाँद कितनी कोशिश क्यों न करे, वह रात को दिन नहीं बना सकता।

लेकिन आदमी हँसता है, दुख-दर्द सभी में आदमी हँसता है। जैसे हँसते-हँसते आदमी की प्रसन्नता थक जाती है वैसे ही कभी-कभी रोते-रोते आदमी की उदासी थक जाती है और आदमी करवट बदलता है। ताकि हँसी की छाँह में कुछ विश्राम कर फिर वह आँसुओं की कड़ी धूप में चल सके।

ऐसी ही एक सुबह थी जबकि चन्दर के उदास मन में आ रहा था कि वह थोड़ी देर हँस भी ले। बात यों हुई थी कि उसे शेली की एक कविता बहुत पसन्द आयी थी जिसमें शैली ने भारतीय मलयज को सम्बोधित किया है। उसने अपना शेली-कीट्स का ग्रन्थ उठाया और उसे खोला तो वही आम के अचार के दाग सामने पड़ गये जो सुधा ने शरारतन डाल दिये थे। बस वह शेली की कविता तो भूल गया और उसे याद आ गयी आम की फाँक और सुधा की शरारत से भरी शोख आँखें। फिर तो एक के बाद दूसरी शरारत प्राणों में उठ-उठकर चन्दर की नसों को गुदगुदाने लगी और चन्दर उस दिन जाने क्यों हँसने के लिए व्याकुल हो उठा। उसे ऐसा लगा जैसे सुधा की यह दूरी, यह अलगाव सभी कुछ झूठ है। सच तो वे सुनहले दिन थे जो सुधा की शरारतों से मुसकराते थे, सुधा के दुलार में जगमगाते थे। और कुछ भी हो जाये, सुधा उसके जीवन का एक ऐसा अमर सत्य है जो कभी भी डगमगा नहीं सकता। अगर वह उदास होता है, दु:खी होता है तो वह गलत है। वह अपने ही आदर्श को झूठा बना रहा है, अपने ही सपने का अपमान कर रहा है। और उसी दिन सुधा का खत भी आया जिसमें सुधा ने साफ-साफ तो नहीं पर इशारे से लिखा था कि वह चन्दर के भरोसे ही किसी तरह दिन काट रही थी। उसने सुधा को एक पत्र लिखा, जिसमें वही शरारत, वही खिझाने की बातें थीं जो वह हमेशा सुधा से करता था लेकिन जिसे वह पिछले तीन महीने में भूल गया था।

उसके बाद वह बिनती के यहाँ गया।

बिनती अपनी धोती में क्रोशिया की बेल टाँक रही थी। ”ले गिलहरी, तेरी दीदी का खत! लाओ, मिठाई खिलाओ।”

”हम काहे को खिलाएँ! आप खिलाइए जो खिले पड़े हैं आज!” बिनती बोली।

”हम! हम क्यों खिलाएँगे! यहाँ तो सुधा का नाम सुनते ही तबीयत कुढ़ जाती है!”

”अरे चलिए, आपका घर मेरा देखा है। मुझसे नहीं बन सकते आप!” बिनती ने मुँह चिढ़ाकर कहा, ”आज बड़े खुश हैं!”

”हाँ, बिनती…” एक गहरी साँस लेकर चन्दर चुप हो गया, ”कभी-कभी उदासी भी थक जाती है!” और मुँह झुकाकर बैठ गया।

”क्यों, क्या हुआ?” बिनती ने चन्दर की बाँह में सुई चुभो दी-चन्दर चौंक उठा। ”हमारी शक्ल देखते ही आपके चेहरे पर मुहर्रम छा जाता है!”

”अजी नहीं, आपका मुख-मंडल देखकर तो आकाश में चन्द्रमा भी लज्जित हो जाता होगा, श्रीमती बिनती विदुषी!” चन्दर ने हँसकर कहा। आज चन्दर बहुत खुश था।

बिनती लजा गयी और फिर उसके गालों में फूल के कटोरे खिल गये और उसने चन्दर के कन्धे से फिर सूई चुभोकर कहा, ”आपको एक बड़े मजे की बात बतानी है आज!”

”क्या?”

”फिर हँसिएगा मत! और चिढ़ाइएगा नहीं!” बिनती बोली।

”कुछ तेरे ब्याह की बात होगी!” चन्दर ने कहा।

”नहीं, ब्याह की नहीं, प्रेम की!” बिनती ने हँसकर कहा और झेंप गयी।

”अच्छा, गिलहरी को यह रोग कब सेï?” चन्दर ने हँसकर पूछा, ”अपनी माँजी की शकल देखी है न, काटकर कुएँ में फेंक देंगी तुझे!”

”अब क्या करें, कोई सिर पर प्रेम मढ़ ही दे तो!” बिनती ने बड़े आत्मविश्वास से कहा। थी बड़ी खुले स्वभाव की लड़की।

”आखिर कौन अभागा है वह! जरा नाम तो सुनें।” चन्दर बोला।

”हमारे महाकवि मास्टर साहब।” बिनती ने हँसकर कहा।

”अच्छा, यह कब से! तूने पहले तो कभी बताया नहीं।”

”अब तो जाकर हमें मालूम हुआ। पहले सोचा दीदी को लिख दें। फिर कहा वहाँ जाने किसके हाथ में चिठ्ठी पड़े। तो सोचा तुम्हें बता दें!”

”हुआ क्या आखिर?” चन्दर ने पूछा।

”बात यह हुई कि पहले तो हम दीदी के साथ पढ़ते थे तब तो मास्टर साहब कुछ नहीं बोलते थे, इधर जबसे हम अकेले पढऩे लगे तब से कविताएँ समझाने के बहाने दुनिया-भर की बातें करते रहे। एक बार स्कन्दगुप्त पढ़ाते-पढ़ाते बड़ी ठंडी साँस लेकर बोले, काश कि आप भी देवसेना बन सकतीं। बड़ा गुस्सा आया मुझे। मन में आया कह दूँ कि मैं तो देवसेना बन जाती लेकिन आप अपना कवि सम्मेलन का पेशा छोड़कर स्कन्दगुप्त कैसे बन पाएँगे। लेकिन फिर मैंने कुछ कहा नहीं। दीदी से सब बात कह दी। दीदी तो हैं ही लापरवाह। कुछ कहा ही नहीं उन्होंने। और मास्टर साहब वैसे अच्छे हैं, पढ़ाते भी अच्छा हैं, लेकिन यह फितूर जाने कैसे उनके दिमाग में चढ़ गया।” बिनती बड़े सहज स्वभाव से बोली।

”लेकिन इधर क्या हुआ?” चन्दर ने पूछा।

”अभी कल आये, एक हाथ में उनके एक मोटी-सी कॉपी थी। दे गये तो देखा वह उनकी कविताओं का संग्रह है और उसका नाम उन्होंने रखा है ‘बिनती’। अभी आते होंगे। क्या करें कुछ समझ में नहीं आता। अभी तक दीदी के भरोसे हमने सब छोड़ दिया था। वह पता नहीं कब आएँगी।”

”अच्छा लाओ, वह संग्रह हमें दे दो।” चन्दर ने कहा, ”और बिसरिया से कह देना वह चन्दर के हाथ पड़ गया। फिर कल सुबह तुम्हें मजा दिखलाएँगे। लेकिन हाँ, यह पहले बता दो कि तुम्हारा तो कुछ झुकाव नहीं है उधर, वरना बाद में हमें कोसो?” चन्दर ने छेड़ते हुए कहा।

”अरे हाँ, मुसलमान भी हो तो बेहना के संग! कवियों से प्यार लगाकर कौन बवालत पाले!” बिनती ने झेंपते हुए कहा।

दूसरे दिन सुबह पहुँचा तो बिसरिया साहब पढ़ा रहे थे। बिसरिया की शक्ल पर कुछ मायूसी, कुछ परेशानी, कुछ चिन्ता थी। उसको बिनती ने बता दिया कि संग्रह चन्दर के पास पहुँच गया है। चन्दर को देखते ही वह बोला, ”अरे कपूर, क्या हाल है?” और उसके बाद अपने को निर्दोष बताने के लिए फौरन बोला, ”कहो, हमारा संग्रह देखा है?”

”हाँ देखा है, जरा आप इन्हें पढ़ा लीजिए। आपसे कुछ जरूरी बातें करनी हैं।” चन्दर ने इतने कठोर स्वर में कहा कि बिसरिया के दिल की धडक़नें डूबने-सी लगीं। वह काँपती हुई आवाज में बहुत मुश्किल से अपने को सम्हालते हुए बोला, ”कैसी बातें? कपूर, तुम कुछ गलत समझ रहे हो।”

कपूर एक उपेक्षा की हँसी हँसा और चला गया। डॉक्टर साहब पूजा करके उठे थे। दोनों में बातें होती रहीं। उनसे मालूम हुआ कि अगले महीने में सम्भवत: चन्दर की नियुक्ति हो जाएगी और तीन दिन बाद डॉक्टर साहब खुद सुधा को लाने के लिए शाहजहाँपुर जाएँगे। उन्होंने बुआजी को पत्र लिखा है कि यदि वह आ जाएँ तो अच्छा है, वरना चन्दर को दो-तीन दिन बाद यहीं रहना पड़ेगा क्योंकि बिनती अकेली है। चन्दर की बात दूसरी है लेकिन और लोगों के भरोसे डॉक्टर साहब बिनती को अकेले नहीं छोड़ सकते।

अविश्वास आदमी की प्रवृत्तियों को जितना बिगाड़ता है, विश्वास आदमी को उतना ही बनाता है। डॉक्टर साहब चन्दर पर जितना विश्वास करते थे, सुधा चन्दर पर जितना विश्वास करती थी और इधर बिनती उस पर जितना विश्वास करने लगी थी उसके कारण चन्दर के चरित्र में इतनी दृढ़ता आ गयी थी कि वह फौलाद बन गया था। ऐसे अवसरों पर जब मनुष्य को गम्भीरतम उत्तरदायित्व सौंपा जाता है तब स्वभावत: आदमी के चरित्र में एक विचित्र-सा निखार आ जाता है। यह निखार चन्दर के चरित्र में बहुत उभरकर आया था और यहाँ तक कि बुआजी अपनी लड़की पर अविश्वास कर सकती थीं, वह भी चन्दर को देवता ही मानती थीं, बिनती पर और चाहे जो बन्धन हो लेकिन चन्दर के हाथ में बिनती को छोड़कर वे निश्चिन्त थीं।

डॉक्टर साहब और चन्दर बैठे बातें कर ही रहे थे कि बिनती ने आकर कहा, ”चलिए, मास्टर साहब आपका इन्तजार कर रहे हैं!” चन्दर उठ खड़ा हुआ। रास्ते में बिनती बोली, ”हमसे बहुत नाराज हैं। कहते हैं तुम्हें हम ऐसा नहीं समझते थे!” चन्दर कुछ नहीं बोला। जाकर बिसरिया के सामने कुर्सी पर बैठ गया। ”तुम जाओ, बिनती!” बिनती चली गयी तो चन्दर ने कहा, बहुत गम्भीर स्वरों में, ”बिसरिया साहब, आपका संग्रह देखकर बहुत खुशी हुई लेकिन मेरे मन में सिर्फ एक शंका है। यह ‘बिनती’ नाम के क्या माने हैं?”

बिसरिया ने अपने गले की टाई ठीक की, वह गरमी में भी टाई लगाता था, और दिन में नाइट कैप पहनता था। टाई ठीक कर, खँखारकर बोला, ”मैं भी यही समझता था कि आपको यह गलत-फहमी होगी। लेकिन वास्तविक बात यह है कि मुझे मध्यकाल की कविता बहुत पसन्द है, खासतौर में उसमें बिनती (प्रार्थना) शब्द बड़ा मधुर है। मैंने यह संग्रह तो बहुत पहले तैयार किया था। मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ जब मैं बिनती से मिला। मैंने उनसे कहा कि यह संग्रह भी बिनती नाम का है। फिर मैंने उन्हें लाकर दिखला दिया।”

चन्दर मुसकराया और मन-ही-मन कहा, ‘है बिसरिया बहुत चालाक। लेकिन खैर मैं हार नहीं मान सकता।’ और बहुत गम्भीर होकर बैठ गया।

”तो यह संग्रह इस लड़की के नाम पर नहीं है?”

”बिल्कुल नहीं।”

”और बिनती के लिए आपके मन में कहीं कोई आकर्षण नहीं?”

”बिल्कुल नहीं। छिह, आप मुझे क्या समझते हैं।” बिसरिया बोला।

”छिह, मैं भी कैसा आदमी हूँ, माफ करना बिसरिया! मैंने व्यर्थ में शक किया।”

बिसरिया यह नहीं जानता था कि यह दाँव इतना सफल होगा। वह खुशी से फूल उठा। सहसा चन्दर ने एक गहरी साँस ली।

”क्या बात है चन्दर बाबू?” बिसरिया ने पूछा।

”कुछ नहीं बिसरिया, आज तक मुझे तुम्हारी प्रतिभा, तुम्हारी भावना, तुम्हारी कला पर विश्वास था, आज से उठ गया।”

”क्यों?”

”क्यों क्या? अगर बिनती-जैसी लड़की के साथ रहकर भी तुम उसके आन्तरिक सौन्दर्य से अपनी कला को अभिसिंचित न कर सके तो तुम्हारे मन में कलात्मकता है; यह मैं विश्वास नहीं कर पाता। तुम जानते हो, मैं पुराने विचारों का संकीर्ण, बड़ा बुजुर्ग तो हूँ नहीं, मैं भी भावनाओं को समझता हूँ। मैं सौन्दर्य-पूजा या प्यार को पाप नहीं समझता और मुझे तो बहुत खुशी होती यह जानकर कि तुमने ये कविताएँ बिनती पर लिखी हैं, उसकी प्रेरणा से लिखी हैं। यह मत समझना कि मुझे इससे जरा भी बुरा लगता। यह तो कला का सत्य है। पाश्चात्य देशों में तो लोग हर कवि को प्रेरणा देने वाली लड़कियों की खोज में वर्षों बिता देते हैं, उसकी कविता से ज्यादा महत्व उसकी कविता के पीछे रहने वाले व्यक्तित्व को देते हैं। हिन्दोस्तान में पता नहीं क्यों हम नारी को इतना महत्वहीन समझते हैं, या डरते हैं, या हममें इतना नैतिक साहस नहीं है। तुम्हारा स्वभाव, तुम्हारी प्रतिभा किसी हालत में मुझे विदेश के किसी कवि से कम नहीं लगती। मैंने सोचा था, जब तुम अपनी कविताओं के प्रेरणात्मक व्यक्तित्व का नाम घोषित करोगे तो सारी दुनिया बिनती को और हमारे परिवार को जान जाएगी। लेकिन खैर, मैंने गलत समझा था कि बिनती तुम्हारी प्रेरणा-बिन्दु थी।” और चन्दर चुपचाप गम्भीरता से बिसरिया के संग्रह के पृष्ठ उलटने लगा।

बिसरिया के मन में कितनी उथल-पुथल मची हुई थी। चन्दर का मन इतना विशाल है, यह उसे कभी नहीं मालूम था। यहाँ तो कुछ छिपाने की जरूरत ही नहीं और जब चन्दर इतनी स्पष्ट बातें कर रहा है तो बिसरिया क्यों छिपाये।

”कपूर, मैं तुमसे कुछ नहीं छिपाऊँगा। मैं कह नहीं सकता कि बिनती जी मेरे लिए क्या हैं। शेक्सपियर की मिराण्डा, प्रसाद की देवसेना, दाँते की बीएत्रिस, कीट्स की फैनी और सूर की राधा से बढ़कर माधुर्य अगर मुझे कहीं मिला है तो बिनती में। इतना, इतना डूब गया मैं बिनती में कि एक कविता भी नहीं लिख पाया। मेरा संग्रह छपने जा रहा था तो मैंने सोचा कि इसका नाम ही क्यों न ‘बिनती’ रखूँ।”

चन्दर ने बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी रोकी। दरवाजे के पास छिपी खड़ी हुई बिनती खिलखिलाकर हँस पड़ी। चन्दर बोला, ”नाम तो ‘बिनती’ बहुत अच्छा सोचा तुमने, लेकिन सिर्फ एक बात है। मेरे जैसे विचार के लोग सभी नहीं होते। अगर घर के और लोगों को यह मालूम हो गया, मसलन डॉक्टर साहब को, तो वह न जाने क्या कर डालेंगे। इन लोगों को कविता और उसकी प्रेरणा का महत्व ही नहीं मालूम। उस हालत में अगर तुम्हारी बहुत बेइज्जती हुई तो न हम कुछ बोल पाएँगे न बिनती। डॉक्टर साहब पुलिस को सौंप दें, यह अच्छा नहीं लगता। वैसे मेरी राय है कि तुम बिनती ही नाम रखो; बड़ा नया नाम है; लेकिन यह समझ लो कि डॉक्टर साहब बहुत सख्त हैं इस मामले में।”

बिसरिया की समझ में नहीं आता था कि वह क्या करे। थोड़ी देर तक सिर खुजलाता रहा, फिर बोला, ”क्या राय है कपूर, तुम्हारी? अगर मैं कोई दूसरा नाम रख दूँ तो कैसा रहेगा?”

”बहुत अच्छा रहेगा और सुरक्षित रहेगा। अभी अगर तुम बदनाम हो गये तो आगे तुम्हारी उन्नति के सभी मार्ग बन्द हो जाएँगे। आदमी प्रेम करे मगर जरा सोच-समझकर; मैं तो इस पक्ष में हूँ।”

”भावना को कोई नहीं समझता इस दुनिया में। कोई नहीं समझता, हम कलाकारों की कितनी मुसीबत है।” एक गहरी साँस लेकर बिसरिया बोला, ”लेकिन खैर! अच्छा तो कपूर, क्या राय है तुम्हारी? मैं क्या नाम रखूँ इसका?”

चन्दर गम्भीरता से सिर झुकाये थोड़ी देर तक सोचता रहा। फिर बोला, ”तुम्हारी कविताओं में बहुत रस है। कैसा रहे अगर तुम इसका नाम ‘गड़ेरियाँ’ रखो!”

”क्या?” बिसरिया ताज्जुब से बोला।

”हाँ-हाँ गड़ेरियाँ, मेरा मतलब है गन्ने की गड़ेरियाँ!” दरवाजे के पीछे बिनती से न रहा गया और खिलखिलाकर हँस पड़ी और सामने आ गयी। चन्दर भी अट्टïहास कर पड़ा।

बिसरिया क्षण-भर आँख फाड़े दोनों की ओर देखता रहा। उसके बाद वह ज्यों ही मजाक समझा, उसका चेहरा लाल हो गया। हैट उठाकर बोला, ”अच्छा, आप लोग मजाक बना रहे थे मेरा। कोई बात नहीं, मैं देखूँगा। मिस्टर कपूर, आप अपने को क्या समझते हैं?” वह चल दिया।

”अरे, सुनो बिसरिया!” चन्दर ने पुकारा, वह हँसी नहीं रोक पा रहा था। बिसरिया मुड़ा। मुड़कर बोला, ”कल से मैं पढ़ाने नहीं आ सकता। मैं आपकी शकल भी नहीं देखना चाहता।” उसने बिनती से कहा।

”तो मुँह फेरकर पढ़ा दीजिएगा।” चन्दर बोला। बिनती फिर हँस पड़ी। बिसरिया ने मुडक़र बड़े गुस्से से देखा और पैर पटकते हुए चला गया।

”बेचारे कवि, कलाकार आज की दुनिया में प्यार भी नहीं कर पाते।” चन्दर ने कहा और दोनों की हँसी बहुत देर तक गूँजती रही।

अगस्त की उदास शाम थी, पानी रिमझिमा रहा था और डॉक्टर शुक्ला के सूने बँगले में बरामदे में कुर्सी डाले, लॉन पर छोटे-छोटे गड्ढों में पंख धोती और कुलेलें करती हुई गौरैयों की तरफ अपलक देखता हुआ चन्दर जाने किन खयालों में डूबा हुआ था। डॉक्टर साहब सुधा को लिवाने के लिए शाहजहाँपुर गये थे। बिनती भी जिद करके उनके साथ गयी थी। वहाँ से ये लोग दिल्ली घूमने के लिए चले गये थे लेकिन आज पन्द्रह रोज हो गये उन लोगों का कोई भी खत नहीं आया था। डॉक्टर साहब ने ब्यूरो को महज एक अर्जी भेज दी थी। चन्दर को डॉक्टर साहब के जाने के पहले ही कॉलेज में जगह मिल गयी थी और उसने क्लास लेने शुरू कर दिये थे। वह अब इसी बँगले में आ गया था। सुबह तो क्लास के पाठ की तैयारी करने और नोट्स बनाने में कट जाती थी, दोपहर कॉलेज में कट जाती थी लेकिन शामें बड़ी उदास गुजरती थीं और फिर पन्द्रह दिन से सुधा का कोई भी खत नहीं आया। वह उदास बैठा सोच रहा था।

लेकिन यह उदासी थी, दुख नहीं था। और वह भी उदासी, एक देवता की उदासी जो दुख भरी न होकर सुन्दर और सुकुमार अधिक होती है। एक बात जरूर थी। जब कभी वह उदास होता था तो जाने क्यों वह यह हमेशा सोचने लगता था कि उसके जीवन में जो कुछ हो गया है उस पर उसे गर्व करना चाहिए जैसे वह अपनी उदासी को अपने गर्व से मिटाने का प्रयास करता था। लेकिन इस वक्त एक बात रह-रहकर उभर आती थी उसके मन में, ‘सुधा ने खत क्यों नहीं लिखा?’

पानी बिल्कुल बन्द हो गया था। पश्चिम के दो-एक बादल खुल गये थे। और पके जामुन के रंग के एक बहुत बड़े बादल के पीछे से डूबते सूरज की उदास किरणें झाँक रही थीं। इधर की ओर एक इन्द्रधनुष खिल गया था जो मोटर गैरेज की छत से उठकर दूर पर युक्लिप्टस की लम्बी शाखों में उलझ गया था।

इतने में छाता लगाये पोस्टमैन आया, उसने पोर्टिको में अपने जूतों में लगी कीचड़ झाड़ी, पैर पटके और किरमिच के झोले से खत निकाले और सीढ़ी पर फैला दिये। उनमें से ढूँढ़कर तीन लिफाफे निकाले और चन्दर को दे दिये। चन्दर ने लपककर लिफाफे ले लिये। पहला लिफाफा बुआ का था बिनती के नाम, दूसरा था ओरियंटल इन्श्योरेन्स का लिफाफा डॉक्टर साहब के नाम और तीसरा एक सुन्दर-सा नीला लिफाफा। यह सुधा का होगा। पोस्टमैन जा चुका था। उसने इतने प्यार से लिफाफे को चूमा जितने प्यार से डूबता हुआ सूरज नीली घटाओं को चूम रहा था। ”पगली कहीं की! परेशान कर डालती है। यहाँ थी तो वही आदत, वहाँ है तो वही आदत !” चन्दर ने मन में कहा और लिफाफा खोल डाला।

लिफाफा पम्मी का था, मसूरी से आया। उसने झल्लाकर लिफाफा फेंक दिया। सुधा कितनी लापरवाह है। वह जानती है कि चन्दर को यहाँ कैसा लग रहा होगा। बिनती ने बता दिया होगा फिर भी वही लापरवाही! मारे गुस्से के…

थोड़ी देर बाद उसने पम्मी का खत पढ़ा। छोटा-सा खत था। पम्मी अभी मसूरी में ही है, अक्टूबर तक आएगी। लगभग सभी यात्री जा चुके हैं लेकिन उसे पहाड़ों की बरसात बहुत अच्छी लग रही है। बर्टी इलाहाबाद चला गया है। उसके साथ वहाँ से एक पहाड़ी ईसाई लड़की भी गयी है। बर्टी कहता है कि वह उसके साथ शादी करेगा। बर्टी अब बहुत स्वस्थ है। चन्दर चाहे तो जाकर बर्टी से मिल ले।

सुधा के खत के न आने से चन्दर के मन में बहुत बेचैनी थी। उसे ठीक से मालूम भी नहीं हो पा रहा था कि ये लोग हैं कहाँ? बर्टी के आने की खबर मिलने पर उसे सन्तोष हुआ, चलो एक दिन बर्टी से ही मिल आएँगे, अब देखें कैसे हैं वह?

तीसरे या चौथे दिन जब अकस्मात पानी बन्द था तो वह कार लेकर बर्टी के यहाँ गया। बरसात में इलाहाबाद की सिविल लाइन्स का सौन्दर्य और भी निखर आता है। रूखे-सूखे फुटपाथों और मैदानों पर घास जम जाती है; बँगले की उजाड़ चहारदीवारियों तक हरी-भरी हो जाती हैं। लम्बे और घने पेड़ और झाडिय़ाँ निखरकर, धुलकर हरे मखमली रंग की हो जाती हैं और कोलतार की सडक़ों पर थोड़ी-थोड़ी पानी की चादर-सी लहरा उठती है जिसमें पेड़ों की हरी छायाएँ बिछ जाती हैं। बँगले में पली हुई बत्तखों के दल सड़क पर चलती हुई मोटरों को रोक लेते हैं और हर बँगले में से रेडियो या ग्रामोफोन के संगीत की लहरें मचलती हुई वातावरण पर छा जाती हैं।

कॉलेज से लौटकर, एक प्याला चाय पीकर, कार लेकर चन्दर बर्टी के यहाँ चल दिया। वह बहुत दिन बाद बर्टी को देखने जा रहा है। जिन व्यक्तियों को उसने अपने जीवन में देखा था, बर्टी शायद उन सभी से निराला था, अद्भुत था। लेकिन कितना अभागा था। नहीं, अभागा नहीं कमजोर था बर्टी। और वही क्या कमजोर था यह सारी दुनिया कितनी कमजोर है।

बर्टी का बँगला आ गया था। वह उतरकर अन्दर गया। बाहर कोई नहीं था। बरामदे में एक पिंजरा टँगा हुआ था जिसमें एक बहुत छोटा तोते का बच्चा टँगा था। चन्दर भीतर जाने में हिचक रहा था क्योंकि एक तो पम्मी नहीं थी और दूसरे कोई और लड़की भी बर्टी के साथ आयी थी, बर्टी की भावी पत्नी। चन्दर ने आवाज दी। अन्दर कोई बहुत भारी पुरुष-स्वर में एक साधारण गीत गा रहा था। चन्दर ने फिर आवाज दी। बर्टी बाहर आया। चन्दर उसे देखकर दंग रह गया, बर्टी का चेहरा भर गया था, जवानी लौट आयी थी, पीलेपन की बजाय चेहरे पर खून दौड़ गया था, सीना उभर आया था। बर्टी खाकी रंग का कोट, बहुत मोटा खाकी हैट, खाकी ब्रिचेज, शिकारी बूट पहने हुए था और कन्धे पर बन्दूक लटक रही थी। वह आया ड्राइंगरूम के दरवाजे पर पीठ झुकाकर एक हाथ से बन्दूक पकडक़र और एक हाथ आँखों के आगे रखकर उसने इस तरह देखा जैसे वह शिकार ढूँढ़ रहा हो। चन्दर के प्राण सूख गये। उसने मन-ही-मन सोचा, पहली बार तो वह कुश्ती में बर्टी से जीत गया था, लेकिन अबकी बार जीतना मुश्किल है। कहाँ बेकार फँसा आकर। उसने घबरायी हुई आवाज में कहा-

”यह मैं हूँ मिस्टर बर्टी, चन्दर कपूर, पम्मी का मित्र!”

”हाँ-हाँ, मैं जानता हूँ।” बर्टी तनकर खड़ा हो गया और हँसकर बोला, ”मैं आपको भूला नहीं; मैं तो आपको यह दिखला रहा था कि मैं पागल नहीं हूँ, शिकारी हो गया हूँ।” और उसने चन्दर के कन्धे पकड़कर इतना जोर से झकझोर दिया कि चन्दर की पसलियाँ चरमरा उठीं। ”आओ!” उसने चन्दर के कन्धे दबाकर बरामदे की ही कोच पर बिठा दिया और सामने कुर्सी पर बैठता हुआ बोला, ”मैं तुम्हें अन्दर ले चलता, लेकिन अन्दर जेनी है और एक मेरा मित्र। दोनों बातें कर रहे हैं। आज जेनी की सालगिरह है। तुम जेनी को जानते हो न? वह तराई के कस्बे में रहती थी। मुझे मिल गयी। बहुत खराब औरत है! मैं तन्दुरुस्त हो गया हूँ न!”

”बहुत, मुझे ताज्जुब है कि तन्दुरुस्ती के लिए तुमने क्या किया तीन महीने तक!”

”नफरत, मिस्टर कपूर! औरतों से नफरत। उससे ज्यादा अच्छा टॉनिक तन्दुरुस्ती के लिए कोई नहीं है।”

”लेकिन तुम तो शादी करने जा रहे हो, लड़की ले आये हो वहाँ से।”

”अकेली लड़की नहीं, मिस्टर! मैं वहाँ से दो चीज लाया हूँ। एक तो यह तोते का बच्चा और एक जेनी, वही लड़की। तोते को मैं बहुत प्यार करता हूँ, यह बड़ा हो जाएगा, बोलने लगेगा तो इसे गोली मार दूँगा और लड़की से मैं बहुत नफरत करता हूँ, इससे शादी कर लूँगा! क्यों, है न ठीक? इसको शिकार का चाव कहते हैं और अब मैं शिकारी हूँ न!”

चन्दर हाँ कहे या न कहे। अभी बर्टी का दिमाग बिल्कुल वैसा ही है, इसमें कोई शक नहीं। वह क्या बात करे? अन्त में बोला-

”यह बन्दूक तो उतारकर रखिए। हमेशा बाँधे रहते हैं!”

”हाँ, और क्या? शिकार का पहला सिद्धान्त है कि जहाँ खतरा हो, जंगली जानवर हों वहाँ कभी बिना बन्दूक के नहीं जाना चाहिए?” और बहुत धीमे से चन्दर के कान में बर्टी बोला, ”तुम जानते हो चन्दर, एक औरत है जो चौबीस घंटे घर में रहती है। मैं तो एक क्षण को बन्दूक अलग नहीं रखता।”

सहसा अन्दर से कुछ गिरने की आवाज आयी, कोई चीखा और लगा जैसे कोई चीज पियानो पर गिरी और परदों को तोड़ती हुई नीचे आ गयी। फिर कुछ झगड़ों की आवाज आयी।

चन्दर चौंक उठा, ”क्या बात है बर्टी, देखो तो!”

बर्टी ने हाथ पकडक़र चन्दर को खींच लिया-”बैठो, बैठो! अन्दर मेरे मित्र और जेनी सालगिरह मना रहे हैं, अन्दर मत जाना!”

”लेकिन यह आवाजें कैसी हैं?” चन्दर ने चिन्ता से पूछा।

”शायद वे लोग प्रेम कर रहे होंगे!” बर्टी बोला और निश्चिन्तता से बैठ गया।

और क्षण-भर बाद उसने अजब-सा दृश्य देखा। एक बर्टी का ही हमउम्र आदमी हाथ से माथे का खून पोंछता हुआ आया। वह नशे में चूर था। और बहुत भद्दी गालियाँ देता हुआ चला जा रहा था। वह गिरता-पड़ता आया और उसने बर्टी को देखते ही घूँसा ताना-”तुमने मुझे धोखा दिया। मुझसे पचास रुपये उपहार ले लिया…मैं अभी तुम्हें बताता हूँ।” चन्दर स्तब्ध था। क्या करे क्या न करे? इतने में अन्दर से जेनी निकली। लम्बी-तगड़ी, कम-से-कम तीस वर्ष की औरत। उसने आते ही पीछे से उस आदमी की कमीज पकड़ी और उसे सीढ़ी से नीचे कीचड़ में ढकेल दिया और सैकड़ों गाली देते हुए बोली, ”जा सीधे, वरना हड्डी नहीं बचेगी यहाँ।” वह फिर उठा तो खुद भी नीचे कूद पड़ी और घसीटती हुई दरवाजे के बाहर ढकेल आयी।

बर्टी साँस रोके अपराधी-सा खड़ा था। वह लौटी और बर्टी का कालर पकड़ लिया-”मैं निर्दोष हूँ! मैं कुछ नहीं जानता!” सहसा जेनी ने चन्दर की ओर देखा-”हूँ, यह भी तुम्हारा दोस्त है। अभी बताती हूँ!” और जो वह चन्दर की ओर बढ़ी तो चन्दर ने मन-ही-मन पम्मी का स्मरण किया। कहाँ फँसाया उस कम्बख्त ने खत लिखकर। ज्यों ही जेनी ने चन्दर का कालर पकड़ा कि बर्टी बड़े कातर स्वर में बोला, ”उसे छोड़ दो! वह मेरा नहीं पम्मी का मित्र है!” जेनी रुक गयी। ”तुम पम्मी के मित्र हो? अच्छा बैठ जाओ, बैठ जाओ, तुम शरीफ आदमी मालूम पड़ते हो। मगर आगे से तुम्हारा कोई मित्र आया तो मैं उसकी हत्या कर डालूँगी। समझे कि नहीं, बर्टी?”

बर्टी ने सिर हिलाया, ”हाँ, समझ गये!” जेनी अन्दर चल दी, फिर सहसा बाहर आयी और बर्टी को पकडक़र घसीटती हुई बोली, ”पानी बरस रहा है, इतनी सर्दी बढ़ रही है और तुमने स्वेटर नहीं पहना, चलो पहनो, मरने की ठानी है। मैं साफ बताये देती हूँ चाहे दुनिया इधर की उधर हो जाये, मैं बिना शादी किये मरने नहीं दूँगी तुम्हें।” और वह बकरे की तरह बर्टी का कान पकडक़र अन्दर घसीट ले गयी।

चन्दर ने मन में कहा, यह कुछ इस रहस्यमय बँगले का असर है कि हरेक का दिमाग खराब ही मालूम देता है। दो मिनट बाद जब बर्टी लौटा तो उसके गले में गुलबन्द, ऊनी स्वेटर, ऊनी मोजे थे। वह हाँफता हुआ आकर बैठ गया।

”मिस्टर कपूर! तुम्हें मानना होगा कि यह लड़की, यह डाइन जेनी बहुत क्रूर है।”

”मानता हूँ, बर्टी! सोलहों आने मानता हूँ।” चन्दर ने मुसकराहट रोककर कहा, ”लेकिन यह झगड़ा क्या है?”

”झगड़ा क्या होता है? औरतों को समझना बहुत मुश्किल है।”

”इस औरत के फन्दे में फँसे कैसे तुम?” चन्दर ने पूछा।

”शी! शी!” होठ पर हाथ रखकर धीरे बोलने का इशारा करते हुए बर्टी ने कहा, ”धीरे बोलो। बात ऐसी हुई कि जब मैं तराई में शिकार खेल रहा था तो एक बार अकेले छूट गया! यह एक पेंशनर फॉरेस्ट गार्ड की अनब्याही लड़की थी। शिकार में बहुत होशियार। मैं भटकते हुए पहुँचा तो इसका बाप बीमार था। मैं रुक गया। तीसरे दिन वह मर गया। उसे जाने कौन-सा रोग था कि उसका चेहरा बहुत डरावना हो गया था और पेट फूल गया था। रात को इसे बहुत डर लगा तो यह मेरे पास आकर लेट गयी। बीच में बन्दूक रखकर हम लोग सो गये। रात को इसने बीच से बन्दूक हटा दी और अब वह कहती है कि मुझसे ब्याह करेगी और नहीं करूँगा तो मार डालेगी। पम्मी भी मुझसे बोली-तुम्हें अब ब्याह करना ही होगा। अब मजबूरी है, मिस्टर कपूर!”

चन्दर चुप बैठा सोच रहा था, कैसी विचित्र जिंदगी है इस अभागे की! मानो प्रकृति ने सारे आश्चर्य इसी की किस्मत के लिए छोड़ रखे थे। फिर बोला-

”यह आज क्या झगड़ा था?”

”कुछ नहीं। आज इसकी सालगिरह थी। यह बोली, ”मुझे कुछ उपहार दो।” मैं बहुत देर तक सोचता रहा। क्या दूँ इसे? कुछ समझ ही में नहीं आया। बहुत देर सोचने के बाद मैंने सोचा-मैं तो इसका पति होने जा रहा हूँ। इसे एक प्रेमी उपहार में दे दूँ। मैंने एक मित्र से कहा कि तुम मेरी भावी पत्नी से आज शाम को प्रेम कर सकते हो? वह राजी हो गया, मैं ले आया।”

चन्दर जोर से हँस पड़ा।

”हँसो मत, हँसो मत, मिस्टर कपूर!” बर्टी बहुत गम्भीर बनकर बोला, ”इसका मतलब यह है कि तुम औरतों को समझते नहीं। देखो, एक औरत उसी चीज को ज्यादा पसन्द करती है, उसी के प्रति समर्पण करती है जो उसकी जिंदगी में नहीं होता। मसलन एक औरत है जिसका ब्याह हो गया है, या होने वाला है, उसे यदि एक नया प्रेमी मिल जाये तो उसकी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहता। वह अपने पति की बहुत कम परवा करेगी अपने प्रेमी के सामने। और अगर क्वाँरी लड़की है तो वह अपने प्रेमी की भावनाओं की पूरी तौर से हत्या कर सकती है यदि उसे एक पति मिल जाये तो! मैं तो समझता हूँ कि कोई भी पति अपनी पत्नी को यदि कोई अच्छा उपहार दे सकता है तो वह है एक नया प्रेमी और कोई भी प्रेमी अपनी रानी को यदि कोई अच्छा उपहार दे सकता है तो वह यह कि उसे एक पति प्रदान कर दे। तुम्हारी अभी शादी तो नहीं हुई?”

”न!”

”तो तुम प्रेम तो जरूर करते होंगे…न, सिर मत हिलाओ…मैं यकीन नहीं कर सकता…। मैं इतनी सलाह तुम्हें दे रहा हूँ, कि अगर तुम किसी लड़की से प्यार करते हो तो ईश्वर के वास्ते उससे शादी मत करना-तुम मेरा किस्सा सुन चुके हो। अगर दिल से प्यार करना चाहते हो और चाहते हो कि वह लड़की जीवन-भर तुम्हारी कृतज्ञ रहे तो तुम उसकी शादी करा देना…यह लड़कियों के सेक्स जीवन का अन्तिम सत्य है…! हा! हा! हा!” बर्टी हँस पड़ा।

चन्दर को लगा जैसे आग की लपट उसे तपा रही है। उसने भी तो यही किया है सुधा के साथ जिसे बर्टी कितने विचित्र स्वरों में कह रहा है। उसे लगा जैसे इस प्रेत-लोक में सारा जीवन विकृत दिखाई देता है। वहाँ साधना की पवित्रता भी कीचड़ और पागलपन में उलझकर गंदी हो जाती है। छिह, कहाँ बर्टी की बातें और कहाँ उसकी सुधा…

वह उठ खड़ा हुआ। जल्दी से विदा माँगकर इस तरह भागा जैसे उसके पैरों के नीचे अंगारे छिपे हों।

फिर उसे नींद नहीं आयी। चैन नहीं आया। रात को सोया तो वह बार-बार चौंक-सा उठा। उसने सपना देखा, एक बहुत बउ़ा कपूर का पहाड़ है। बहुत बड़ा। मुलायम कपूर की बड़ी-बड़ी चट्टानें और इतनी पवित्र खुशबू कि आदमी की आत्मा बेले का फूल बन जाये। वह और सुधा उन सौरभ की चट्टानों के बीच चढ़ रहे हैं। केवल वह है और सुधा…सुधा सफेद बादलों की साड़ी पहने है और चन्दर किरनों की चादर लपेटे है। जहाँ-जहाँ चन्दर जाता है, कपूर की चट्टानों पर इन्द्रधनुष खिल जाते हैं और सुधा अपने बादलों के आँचल में इन्द्रधनुष के फूल बटोरती चलती है।

सहसा एक चट्टïन हिली और उसमें से एक भयंकर प्रेत निकाला। एक सफेद कंकाल-जिसके हाथ में अपनी खोपड़ी और एक हाथ में जलती मशाल और उस मुंडहीन कंकाल ने खोपड़ी हाथ में लेकर चन्दर को दिखायी। खोपड़ी हँसी और बोली, ”देखो, जिंदगी का अन्तिम सत्य यह है। यह!” और उसने अपने हाथ की मशाल ऊँची कर दी। ”यह कपूर का पहाड़, यह बादलों की साड़ी, यह किरनों का परिधान, यह इन्द्रधनुष के फूल, यह सब झूठे हैं। और यह मशाल, जो अपने एक स्पर्श में इस सबको पिघला देगी।”

और उसने अपनी मशाल एक ऊँचे शिखर से छुआ दी। वह शिखर धधक उठा। पिघलती हुई आग की एक धार बरसाती नदी की तरह उमडक़र बहने लगी।

”भागो, सुधा!” चन्दर ने चीखकर कहा, ”भागो!”

सुधा भागी, चन्दर भागा और वह पिघली हुई आग की महानदी लहराते हुए अजगर की तरह उन्हें अपनी गुंजलिका में लपेटने के लिए चल पड़ी। शैतान हँस पड़ा, ”हा! हा! हा!” चन्दर ने देखा, सुधा शैतान की गोद में थी।

चन्दर चौंककर जाग गया। पानी बंद था लेकिन घनघोर अँधेरा था। और पिशाचनी की तरह पागल हवा पेड़ों को झकझोर रही थी जैसे युग के जमे हुए विश्वासों को उखाड़ फेंकना चाहती हो। चन्दर काँप रहा था, उसका माथा पसीने से तर था।

वह उठकर नीचे आया। उसके कदम ठीक नहीं पड़ रहे थे। बरामदे की बत्ती जलायी। महराजिन उठी-”का है भइया!” उसने पूछा।

”कुछ नहीं, अन्दर सोऊँगा।” चन्दर ने कहा और सुधा के कमरे में जाकर बत्ती जलायी। सुधा की चारपाई पर लेट गया। फिर उठा, चारों ओर के दरवाजे बन्द कर दिये कि कहीं कोई फिर ऐसा सपना बाहर के भयंकर अँधेरे में से न चला आये।

लेकिन बर्टी की बातों से अन्दर-ही-अन्दर उसके मन में जाने कहाँ क्या टूट गया जो फिर बन नहीं पाया। अभी तक उसे अपने पर गर्व था, विश्वास था, अब कभी-कभी वह अपने व्यक्तित्व का विश्लेषण करने लगा था। अब वह कभी-कभी अपने विश्वासों पर सिर ऊँचा करने के बजाय उन्हें सामने फेंक देता और एक निरपेक्ष वैज्ञानिक की तरह उनकी चीर-फाड़ करता, उनकी शव-परीक्षा किया करता। अभी तक उसके विश्वास का सम्बल था, अब किसी ने उसे तर्क का अस्त्र-शस्त्र दे दिया था। जाने किस राक्षसी प्रेरणा से उसने अपनी आत्मा को चीरना शुरू किया। और इस तर्क-वितर्क और अविश्वास के भयंकर जल-प्रलय की एक लहर ने उसे एक दिन नरक के किनारे ले जा पटका।

सुधा का खत आया था। दिल्ली में पापा अपने कुछ काम से रुके थे और सुधा की तबीयत खराब हो गयी थी। अब वह दो-तीन रोज में आ जाएगी।

लेकिन चन्दर के मन पर एक अजब-सा असर हुआ था इस खत का। सुधा का पत्र नहीं आया था, सुधा दूर थी तब वह खुश था, वह उल्लसित था। सुधा का पत्र आते ही सहसा वह उदास हो गया। उदास तो क्या उसे उबकाई-सी आने लगी। उसे यह सब सहसा, पता नहीं एक नाटक-सा लगने लगा था, एक बहुत सस्ता, नीचे स्तर का नाटक। उसे लगता था-ये सब चारों ओर का त्याग, साधन, सौन्दर्य, यह सब झूठ है। सुधा भी अन्ततोगत्वा वही साधारण लड़की है जो क्वाँरे जीवन में पति और विवाहित जीवन में प्रेमी की भूखी होती है।

वह भी शैतान से पूर्णतया हारा नहीं था। वह लड़ने की कोशिश करता था। लेकिन वह हार रहा था, यह भी उसे मालूम था। और चन्दर के जिस गर्व ने उसकी जीत में साथ दिया था, वही गर्व उसकी हार में साथ दे रहा था। उसने मन में सोच लिया कि वह सुधा से, सभी लड़कियों से, इस सारे नाटक से नफरत करता है। सुधा का विवाह होना ही था, सुधा को विवाह करना था, सुधा के आँसू झूठे थे, अगर चन्दर सुधा को न भी समझाता तो घूम-फिर सुधा विवाह करती ही।

तब फिर विश्वास काहे का? त्याग काहे का?

विश्वास टूट चुका था, गर्व जिंदा था, गर्व घमंड में बदल गया था, घमंड नफरत में, और नफरत नसों को चूर-चूर कर देने वाली उदासी में।

सुधा जब आयी तो उसने चन्दर को बिल्कुल बदला हुआ पाया। एक बात और हुई जिसने और भी आग सुलगा दी। यह लोग दोपहर को एक बजे के लगभग आये जबकि चन्दर कॉलेज गया था। पापा तो आते ही नहा-धोकर सोने चले गये। सुधा और बिनती ने आते ही अपने कमरे की सफाई शुरू की; कमरे की सारी किताबों झाड़ीं, कपड़े ठीक किये, मेजें साफ कीं और उसके बाद कमरा धोने में लग गयीं। बिनती बाल्टी में पानी भर-भर लाने लगी और सुधा झाड़ू से फर्श धोने लगी। हाथों में चूड़े अब भी थे, पाँव में बिछिया और माँग में सिन्दूर-चेहरा बहुत पीला पड़ गया था सुधा का; चेहरे की हड्डिïयाँ निकल आयी थीं और आँखों की रोशनी भी मैली पड़ गयी थी। वह जाने क्यों कमजोर भी हो गयी थी।

झाड़ू लगाते-लगाते सुधा बिनती से बोली, ”आज मालूम पड़ता है कि मैं आदमी हूँ! कल तक तो हैवान थी। पापा को भी जाने क्या सूझा कि इन्हें भी साथ दिल्ली ले गये। मैं तो शरम से मरी जाती थी।”

थोड़ी देर बाद चन्दर आया। बाहर ही उसे मालूम हो गया था कि सब लोग आ गये हैं। उसे जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि वह उलटे लौट जाये, वह अगर इस घर में गया तो जाने उससे क्या अनर्थ हो जाएगा, लेकिन वह बढ़ता ही गया। स्टडी-रूम में डॉक्टर साहब सो रहे थे। वह लौटा और अपने कपड़े उतारने के लिए ड्राइंग-रूम की ओर चला। सुधा ने ज्यों ही आहट पायी, वह फौरन झाड़ू फेंककर भागी, सिर खुला, धोती कमर में खुँसी हुई, हाथ गन्दे, बाल बिखरे और बेतहाशा दौड़कर चन्दर से लिपट गयी और बच्चों की भोली हँसी हँसकर बोली, ”चन्दर, चन्दर! हम आ गये, अब बताओ!” और चन्दर को इस तरह कस लिया कि अब कभी छोड़ेगी नहीं।

”छिह, दूर हटो, सुधा! यह क्या नाटक करती हो! आज तुम बच्ची नहीं हो!” और सुधा को बड़ी रुखाई से परे हटाकर अपने कोट पर से सुधा के हाथ से लगी हुई मिट्टी झाड़ते हुए चन्दर चुपचाप अपने कमरे में चला गया।

सुधा पर जैसे बिजली गिर पड़ी हो। वह पत्थर की तरह खड़ी रही। फिर जैसे लडख़ड़ाती हुई अपने कमरे में गयी और चारपाई पर लेटकर फूट-फूटकर रोने लगी। चन्दर सुधा से नहीं ही बोला। डॉक्टर साहब के जगते ही उनसे बातें करने लगा, शाम को वह साइकिल लेकर घूमने निकल गया। लौटकर ऊपर छत पर चला गया और बिनती को पुकारकर कहा, ”अगर तकलीफ न हो तो जरा ऊपर खाना दे जाओ।” बिनती ने थाली लगायी और सुधा से कहा, ”लो दीदी! दे आओ!” सुधा ने सिर हिलाकर कहा, ”तू ही दे आ! मैं अब कौन रह गयी उनकी।” बिनती के बहुत समझाने पर सुधा ऊपर खाना ले गयी। चन्दर लेटा था गुमसुम। सुधा ने स्टूल खींचकर खाना रखा। चन्दर कुछ नहीं बोला। उसने पानी रखा। चन्दर कुछ नहीं बोला।

”खाओ न!” सुधा ने कहा और एक कौर बनाकर चन्दर को देने लगी।

”तुम जाओ!” चन्दर ने बड़े रूखे स्वर में कहा, ”मैं खा लूँगा!”

सुधा ने कौर थाली में रख दिया और चन्दर के पायताने बैठकर बोली, ”चन्दर, तुम क्यों नाराज हो, बताओ हमसे क्या पाप हो गया है? पिछले डेढ़ महीने हमने एक-एक क्षण गिन-गिनकर काटे हैं कि कब तुम्हारे पास आएँ। हमें क्या मालूम था कि तुम ऐसे हो गये हो। मुझे जो चाहे सजा दे लो लेकिन ऐसा न करो। तुम तो कुछ भी नहीं समझते।” और सुधा ने चन्दर के पैरों पर सिर रख दिया। चन्दर ने पैर झटक दिये, ”सुधा, इन सब बातों से फायदा नहीं है। अब इस तरह की बातें करना और सुनना मैं भूल गया हूँ। कभी इस तरह की बातें करते अच्छा लगता था। अब तो किसी सोहागिन के मुँह से यह शोभा नहीं देता!”

सुधा तिलमिला उठी, ”तो यह बात है तुम्हारे मन में! मैं पहले से समझती थी। लेकिन तुम्हीं ने तो कहा था, चन्दर! अब तुम्हीं ऐसे कह रहे हो? शरम नहीं आती तुम्हें।” और सुधा ने हाथ से ब्याह वाले चूड़े उतारकर छत पर फेंक दिये, बिछिया उतारने लगी-और पागलों की तरह फटी आवाज में बोली, ”जो तुमने कहा, मैंने किया, अब जो कहोगे वह करूँगी। यही चाहते हो न!” और अन्त में उसने अपनी बिछिया उतारकर छत पर फेंक दी।

चन्दर काँप गया। उसने इस दृश्य की कल्पना भी नहीं की थी। ”बिनती! बिनती!” उसने घबराकर पुकारा और सुधा से बोला, ”अरे, यह क्या कर रही हो! कोई देखेगा तो क्या सोचेगा! पहनो जल्दी से।”

”मुझे किसी की परवा नहीं। तुम्हारा तो जी ठंडा पड़ जाएगा!”

चन्दर उठा। उसने जबरदस्ती सुधा के हाथ पकड़ लिये। बिनती आ गयी थी।

”लो, इन्हें चूड़े तो पहना दो!” बिनती ने चुपचाप चूड़े और बिछिया पहना दी। सुधा चुपचाप उठी और नीचे चली गयी।

चन्दर अपनी खाट पर सिर झुकाये लज्जित-सा बैठा था।

”लीजिए, खाना खा लीजिए।” बिनती बोली।

”मैं नहीं खाऊँगा।” चन्दर ने रुँधे गले से कहा।

”खाइए, वरना अच्छी बात नहीं होगी। आप दोनों मिलकर मुझे मार डालिए बस किस्सा खत्म हो जाए। न आप सीधे मुँह से बोलते हैं, न दीदी। पता नहीं आप लोगों को क्या हो गया है?”

चन्दर कुछ नहीं बोला।

”खाइए, आपको हमारी कसम है। वरना दीदी खाना नहीं खाएँगी! आपको मालूम नहीं, दीदी की तबीयत इधर बहुत खराब है। उन्हें सुबह-शाम बुखार रहता है। दिल्ली में तबीयत बहुत खराब हो गयी थी। आप ऐसे कर रहे हैं। बताइए, उनका क्या हाल होगा। आप समझते होंगे यह बहुत सुखी होंगी लेकिन आपको क्या मालूम!…पहले आप दीदी के एक आँसू पर पागल हो उठते थे, अब आपको क्या हो गया है?”

चन्दर ने सिर उठाया-और गहरी साँस लेकर बोला, ”जाने क्या हो गया है, बिनती! मैं कभी नहीं सोचता था कि सुधा को मैं इतना दु:ख दे सकूँगा। इतना अभागा हूँ कि मैं खुद भी इधर घुलता रहा और सुधा को भी इतना दुखी कर दिया। और सचमुच चन्दर की आँखों में आँसू भर आये। बिनती चन्दर के पीछे खड़ी थी। चन्दर का सिर अपनी छाती में लगाकर आँसू पोंछती हुई बोली, ”छिह, अब और दु:खी होइएगा तो दीदी और भी रोएँगी। लीजिए, खाइए!”

”जाओ, दीदी को बुला लो और उन्हें भी खिला दो!” चन्दर ने कहा। बिनती गयी। फिर लौटकर बोली, ”बहुत रो रही हैं। अब आज उनका नशा उतर जाने दीजिए, तब कल बात कीजिएगा।”

”फिर सुधा ने न खाया तो?”

”नहीं, आप खा लीजिएगा तो वे खा लेंगी। उनको खिलाए बिना मैं नहीं खाऊँगी।” बिनती बोली और अपने हाथ से कौर बनाकर चन्दर को देने लगी। चन्दर ने खाना शुरू किया और धीरे-से गहरी साँस-लेकर बोला, ”बिनती! तुम हमारी और सुधा की उस जनम की कौन हो?”

सुबह के वक्त चन्दर जब नाश्ता करने बैठा तो डॉक्टर साहब के साथ ही बैठा। सुधा आयी और प्याला रखकर चली गयी। वह बहुत उदास थी। चन्दर का मन भर आया। सुधा की उदासी उसे कितना लज्जित कर रही थी, कितना दुखी कर रही थी। दिन-भर किसी काम में उसकी तबीयत नहीं लगी। उसने क्लास छोड़ दिये। लाइब्रेरी में भी जाकर किताबें उलट-पलटकर चला आया। उसके बाद प्रेस गया जहाँ उसे अपनी थीसिस छपने को देनी थी, उसके बाद ठाकुर साहब के यहाँ गया। लेकिन कहीं भी वह टिक नहीं पाया। जब तक वह सुधा को हँसा न ले, सुधा के आँसू सुखा न दे; उसे चैन नहीं मिलेगा।

शाम को वह लौटा तो खाना तैयार था। बिनती से उसने पूछा, ”कहाँ है सुधा?” ”अपनी छत पर।” बिनती ने कहा। चन्दर ऊपर गया। पानी परसों से बंद था और बादल भी खुले हुए थे लेकिन तेज पुरवैया चल रही थी। तीज का चाँद शरमीली दुल्हन-सा बादलों में मुँह छिपा रहा था। हवा के तेज झकोरों पर बादल उड़ रहे थे और कचनार बादलों में तीज का धनुषाकार चाँद आँखमिचौली खेल रहा था। सुधा ने अपनी खाट बरसाती के बाहर खींच ली थी। छत पर धुँधला अँधेरा था और रह-रहकर सुधा पर चाँदनी के फूल बरस जाते थे। सुधा चुपचाप लेटी हुई बादलों को देखती हुई जाने क्या सोच रही थी।

चन्दर गया। चन्दर को देखते ही सुधा उठ खड़ी हुई और उसने बिजली जला दी और चुपचाप बैठ गयी। चन्दर बैठ गया। वह कुछ भी नहीं बोली। बगल में बिछी हुई बिनती की खाट पर सुधा बैठ गयी।

चन्दर को समझ नहीं आता था कि वह क्या कहे। सुधा को इतना दु:ख दिया उसने। सुधा उससे कल शाम से बोली तक नहीं।

”सुधा, तुम नाराज हो गयी! मुझे जाने क्या हो गया था। लेकिन माफ नहीं करोगी?” चन्दर ने बहुत काँपती हुई आवाज में कहा। सुधा कुछ नहीं बोली-चुपचाप बादलों की ओर देखती रही।

”सुधा?” चन्दर ने सुधा के दो कबूतरों जैसे उजले मासूम पैरों को लेकर अपनी गोद में रख लिया और भरे हुए गले से बोला, ”सुधा, मुझे जाने क्या हो जाता है कभी-कभी! लगता है वह पहले वाली ताकत टूट गयी। मैं बिखर रहा हूँ। तुम आयी और तुम्हारे सामने मन का जाने कौन-सा तूफान फूट पड़ा! तुमने उसका इतना बुरा मान लिया। बताओ, अगर तुम ही ऐसा करोगी तो मुझे सँभालने वाला फिर कौन है, सुधा?” और चन्दर की आँखों से एक बूँद आँसू सुधा के पाँवों पर चू पड़ा। सुधा ने चौंककर अपने पाँव खींच लिये। और उठकर चन्दर की खाट पर बैठ गयी और चन्दर के कन्धे पर सिर रखकर फूट-फूटकर रो पड़ी। बहुत रोयी…बहुत रोयी। उसके बाद उठी और सामने बैठ गयी।

”चन्दर! तुमने गलत नहीं किया। मैं सचमुच कितनी अपराधिन हूँ। मैंने तुम्हारी जिंदगी चौपट कर दी है। लेकिन मैं क्या करूँ? किसी ने तो मुझे कोई रास्ता नहीं बताया था। अब हो ही क्या सकता है, चन्दर! तुम भी बर्दाश्त करो और हम भी करें।” चन्दर नहीं बोला। उसने सुधा के हाथ अपने होठों से लगा लिये। ”लेकिन मैं तुम्हें इस तरह बिखरने नहीं दूँगी! तुमने अब अगर इस तरह किया तो अच्छी बात नहीं होगी। फिर हम तो बराबर हर पल तुम्हारे ही बारे में सोचते रहे और तुम्हारी ही बातें सोच-सोचकर अपने को धीरज देते रहे और तुम इस तरह करोगे तो…”

”नहीं सुधा, मैं अपने को टूटने नहीं दूँगा। तुम्हारा प्यार मेरे साथ है। लेकिन इधर मुझे जाने क्या हो गया था!”

”हाँ, समझ लो, चन्दर! तुम्हें हमारे सुहाग की लाज है, हम कितने दुखी हैं, तुम समझ नहीं सकते। एक तुम्हीं को देखकर हम थोड़ा-सा दुख-दर्द भूल जाते हैं, सो तुम भी इस तरह करने लगे! हम लोग कितने अभागे हैं!” और वह फिर चुपचाप लेटकर ऊपर देखती हुई जाने क्या सोचने लगी। चन्दर ने एक बार धुँधली रेशमी चाँदनी में मुरझाये हुए सोनजुही के फूल-जैसे मुँह की ओर देखा और सुधा के नरम गुलाबी होठों पर ऊँगलियाँ रख दीं। थोड़ी देर वह आँसू में भीगे हुए गुलाब की दुख-भरी पंखरियों से उँगलियाँ उलझाये रहा और फिर बोला-

”क्या सोच रही थीं?” चन्दर ने बहुत दुलार से सुधा के माथे पर हाथ फेरकर कहा। सुधा एक फीकी हँसी हँसकर बोली-

”जैसे आज लेटी हुई बादलों को देख रही हूँ और पास तुम बैठे हो, उसी तरह एक दिन कॉलेज में दोपहर को मैं और गेसू लेटे हुए बादलों को देख रहे थे। उस दिन उसने एक शेर सुनाया था। ‘कैफ बरदोश बादलों को न देख, बेखबर तू कुचल न जाए कहीं।’ उसका कहना कितना सच निकला! भाग्य ने कहाँ ले जा पटका मुझे!”

”क्यों, वहाँ तुम्हें कोई तकलीफ तो नहीं?” चन्दर ने पूछा।

”हाँ, समझते तो सब यही हैं, लेकिन जो तकलीफ है वह मैं जानती हूँ या बिनती जानती है।” सुधा ने गहरी साँस लेकर कहा, ”वहाँ आदमी भी बने रहने का अधिकार नहीं।”

”क्यों?” चन्दर ने पूछा।

”क्या बताएँ तुम्हें चन्दर! कभी-कभी मन में आता है कि डूब मरूँ। ऐसा भी जीवन होगा मेरा, यह कभी मैं नहीं सोचती थी।” सुधा ने कहा।

”क्या बात है? बताओ न!” चन्दर ने पूछा।

”बता दूँगी, देवता! तुमसे भला क्या छिपाऊँगी लेकिन आज नहीं, फिर कभी!”

सुधा ने कहा, ”तुम परेशान मत हो। कहाँ तुम, कहाँ दुनिया! काश कि कभी तुम्हारी गोद से अलग न होती मैं!” और सुधा ने अपना मुँह चन्दर की गोद में छिपा लिया। चाँदनी की पंखरियाँ बरस पड़ीं।

उल्लास और रोशनी का मलय पवन फिर लौट आया था, फिर एक बार चन्दर, सुधा और बिनती के प्राणों को विभोर कर गया था कि सुधा को महीने-भर बाद ही जाना है और सुधा भूल गयी थी कि शाहजहाँपुर से भी उसका कोई नाता है। बिनती का इम्तहान हो गया था और अकसर चन्दर और सुधा बिनती के ब्याह के लिए गहने और कपड़े खरीदने जाते। जिंदगी फिर खुशी के हिल्कोरों पर झूलने लगी थी। बिनती का ब्याह उतरते अगहन में होने वाला था। अब दो-ढाई महीने रह गये थे। सुधा और चन्दर जाकर कपड़े खरीदते और लौटकर बिनती को जबरदस्ती पहनाते और गुडिय़ा की तरह उसे सजाकर खूब हँसते। दोनों के बड़े-बड़े हौसले थे बिनती के लिए। सुधा बिनती को सलवार और चुन्नी का एक सेट और गरारा और कुरते का एक सेट देना चाहती थी। चन्दर बिनती को एक हीरे की अँगूठी देना चाहता था। चन्दर बिनती को बहुत स्नेह करने लगा था। वह बिनती के ब्याह में भी जाना चाहता था लेकिन गाँव का मामला, कान्यकुब्जों की बारात। शहर में सुधा, बिनती और चन्दर को जितनी आजादी थी उतनी वहाँ भला क्योंकर हो सकती थी! फिर कहने वालों की जबान, कोई क्या कह बैठे! यही सब सोचकर सुधा ने चन्दर को मना कर दिया था। इसीलिए चन्दर यहीं बिनती को जितने उपहार और आशीर्वाद देना चाहता था, दे रहा था। सुधा का बचपन लौट आया था और दिन-भर उसकी शरारतों और किलकारियों से घर हिलता था। सुधा ने चन्दर को इतनी ममता में डुबो लिया था कि एक क्षण वह चन्दर को अपने से अलग नहीं रहने देती थी। जितनी देर चन्दर घर में रहता, सुधा उसे अपने दुलार में, अपनी साँसों की गरमाई में समेटे रहती थी, चन्दर के माथे पर हर क्षण वह जाने कितना स्नेह बिखेरती रहती थी!

एक दिन चन्दर आया तो देखा कि बिनती कहीं गयी है और सुधा चुपचाप बैठी हुई बहुत-से पुराने खतों को सँभाल रही है। एक गम्भीर उदासी का बादल घर में छाया हुआ है। चन्दर आया। देखा, सुधा आँख में आँसू भरे बैठी है।

”क्या बात है, सुधा?”

”रुखसती की चिठ्ठी आ गयी चन्दर, परसों शंकर बाबू आ रहे हैं।”

चन्दर के हृदय की धडक़नों पर जैसे किसी ने हथौड़ा मार दिया। वह चुपचाप बैठ गया। ”अब सब खत्म हुआ, चन्दर!” सुधा ने बड़ी ही करुण मुस्कान से कहा, ”अब साल-भर के लिए विदा और उसके बाद जाने क्या होगा?”

चन्दर कुछ नहीं बोला। वहीं लेट गया और बोला, ”सुधा, दु:खी मत हो। आखिर कैलाश इतना अच्छा है, शंकर बाबू इतने अच्छे हैं। दुख किस बात का? रहा मैं तो अब मैं सशक्त रहूँगा। तुम मेरे लिए मत घबराओ!”

सुधा एकटक चन्दर की ओर देखती रही। फिर बोली, ”चन्दर! तुम्हारे जैसे सब क्यों नहीं होते? तुम सचमुच इस दुनिया के योग्य नहीं हो! ऐसे ही बने रहना, चन्दर मेरे! तुम्हारी पवित्रता ही मुझे जिन्दा रख सकेगी वर्ना मैं तो जिस नरक में जा रही हूँ…”

”तुम उसे नरक क्यों कहती हो! मेरी समझ में नहीं आता!”

”तुम नहीं समझ सकते। तुम अभी बहुत दूर हो इन सब बातों से, लेकिन…” सुधा बड़ी देर तक चुप रही। फिर खत सब एक ओर खिसका दिये और बोली, ”चन्दर, उनमें सबकुछ है। वे बहुत अच्छे हैं, बहुत खुले विचार के हैं, मुझे बहुत चाहते हैं, मुझ पर कहीं से कोई बन्धन नहीं, लेकिन इस सारे स्वर्ग का मोल जो देकर चुकाना पड़ता है उससे मेरी आत्मा का कण-कण विद्रोह कर उठता है।” और सहसा घुटनों में मुँह छिपाकर रो पड़ी।

चन्दर उठा और सुधा के माथे पर हाथ रखकर बोला, ”छिह, रोओ मत सुधा! अब तो जैसा है, जो कुछ भी है, बर्दाश्त करना पड़ेगा।”

”कैसे करूँ, चन्दर! वह इतने अच्छे हैं और इसके अलावा इतना अच्छा व्यवहार करते हैं कि मैं उनसे क्या कहूँ? कैसे कहूँ?” सुधा बोली।

”जाने दो सुधी, जैसी जिंदगी हो वैसा निबाह करना चाहिए, इसी में सुन्दरता है। और जहाँ तक मेरा खयाल है वैवाहिक जीवन के प्रथम चरण में ही यह नशा रहता है, फिर किसको यह सूझता है। आओ, चलो चाय पीएँ! उठो, पागलपन नहीं करते। परसों चली जाओगी, रुलाकर नहीं जाना होता। उठो!” चन्दर ने अपने मन की जुगुप्सा पीकर ऊपर से बहुत स्नेह से कहा।

सुधा उठी और चाय ले आयी। चन्दर ने अपने हाथ से एक कप में चाय बनायी और सुधा को पिलाकर उसी में पीने लगा। चाय पीते-पीते सुधा बोली-

”चन्दर, तुम ब्याह मत करना! तुम इसके लिए नहीं बने हो।”

चन्दर सुधा को हँसाना चाहता था-”चल स्वार्थी कहीं की! क्यों न करूँ ब्याह? जरूर करूँगा! और जनाब, दो-दो करूँगा! अपने आप तो कर लिया और मुझे उपदेश दे रही हैं!”

सुधा हँस पड़ी। चन्दर ने कहा-

”बस ऐसे ही हँसती रहना हमेशा, हमारी याद करके और अगर रोयी तो समझ लो हम उसी तरह फिर अशान्त हो उठेंगे जैसे अभी तक थे!…” फिर प्याला सुधा के होठों से लगाकर बोला, ”अच्छा सुधी, कभी तुम सुनो कि मैं उतना पवित्र नहीं रहा जितना कि हूँ तो तुम क्या करोगी? कभी मेरा व्यक्तित्व अगर बिगड़ गया, तब क्या होगा?”

”होगा क्या? मैं रोकने वाली कौन होती हूँ! मैं खुद ही क्या रोक पायी अपने को! लेकिन चन्दर, तुम ऐसे ही रहना। तुम्हें मेरे प्राणों की सौगन्ध है, तुम अपने को बिगाडऩा मत।”

चन्दर हँसा, ”नहीं सुधा, तुम्हारा प्यार मेरी ताकत है। मैं कभी गिर नहीं सकता जब तक तुम मेरी आत्मा में गुँथी हुई हो।”

तीसरे दिन शंकर बाबू आये और सुधा चन्दर के पैरों की धूल माथे पर लगाकर चली गयी…इस बार वह रोयी नहीं, शान्त थी जैसे वधस्थल पर जाता हुआ बेबस अपराधी।

जब तक आसमान में बादल रहते हैं तब तक झील में बादलों की छाँह रहती है। बादलों के खुल जाने के बाद कोई भी झील उनकी छाँह को सुरक्षित नहीं रख पाती। जब तक सुधा थी, चन्दर की जिंदगी का फिर एक बार उल्लास और उसकी ताकत लौट आयी थी, सुधा के जाते ही वह फिर सबकुछ खो बैठा। उसके मन में कोई स्थायित्व नहीं रहा। लगता था जैसे वह एक जलागार है जो बहुत गहरा है, लेकिन जिसमें हर चाँद, सूरज, सितारे और बादल की छाँह पड़ती है और उनके चले जाने के बाद फिर वह उनका प्रतिबिम्ब धो डालता है और बदलकर फिर वैसा ही हो जाता है। कोई भी चीज पानी को रँग नहीं पाती, उसे छू नहीं पाती, हाँ, लहरों में उनकी छाया का रूप विकृत हो जाता है।

चन्दर को चारों ओर की दुनिया सहज गुजरते हुए बादलों का निस्सार तमाशा-सी लग रही थी। कॉलेज की चहल-पहल, ढलती हुई बरसात का पानी, थीसिस और डिग्री, बर्टी का पागलपन और पम्मी के खत-ये सभी उसके सामने आते और सपनों की तरह गुजर जाते। कोई चीज उसके हृदय को छू न पाती। ऐसा लगता था कि चन्दर एक खोखला व्यक्ति है जिसमें सिर्फ एक सापेक्ष अन्त:करण मात्र है, कोई निरपेक्ष आत्मा नहीं और हृदय भी जैसे समाप्त हो गया था। एक जलहीन हल्के बादल की तरह वह हवा के हर झोंके पर तैर रहा था। लेकिन टिकता कभी भी नहीं था। उसकी भावनाएँ, उसका मन, उसकी आत्मा, उसके प्राण, उसका सबकुछ सो गया था और वह जैसे नींद में चल-फिर रहा था, नींद में सबकुछ कर रहा था। जाने के आठ-नौ रोज बाद सुधा का खत आया-

”मेरे भाग्य!

मैं इस बार तुम्हें जिस तरह छोड़ आयी हूँ उससे मुझे पल-भर को चैन नहीं मिलता। अपने को तो बेच चुकी, अपने मन के मोती को कीचड़ में फेंक चुकी, तुम्हारी रोशनी को ही देखकर कुछ सन्तोष है। मेरे दीपक, तुम बुझना मत। तुम्हें मेरे स्नेह की लाज है।

मेरी जिंदगी का नरक फिर मेरे अंगों में भिदना शुरू हो गया है। तुम कहते हो कि जैसे हो निबाह करना चाहिए। तुम कहते हो कि अगर मैंने उनसे निबाह नहीं किया तो यह तुम्हारे प्यार का अपमान होगा। ठीक है, मैं अपने लिए नहीं, तुम्हारे लिए निबाह करूँगी, लेकिन मैं कैसे सँभालूँ अपने को? दिल और दिमाग बेबस हो रहे हैं, नफरत से मेरा खून उबला जा रहा है। कभी-कभी जब तुम्हारी सूरत सामने होती है तो जैसे अपना सुख-दुख भूल जाती हूँ, लेकिन अब तो जिंदगी का तूफान जाने कितना तेज होता जा रहा है कि लगता है तुम्हें भी मुझसे खींचकर अलग कर देगा।

लेकिन तुम्हें अपने देवत्व की कसम है, तुम मुझे अब अपने हृदय से दूर न करना। तुम नहीं जानते कि तुम्हारी याद के ही सहारे मैं यह नरक झेलने में समर्थ हूँ। तुम मुझे कहीं छिपा लो-मैं क्या करूँ, मेरा अंग-अंग मुझ पर व्यंग्य कर रहा है, आँखों की नींद खत्म है। पाँवों में इतना तीखा दर्द है कि कुछ कह नहीं सकती। उठते-बैठते चक्कर आने लगा है। कभी-कभी बदन काँपने लगता है। आज वह बरेली गये हैं तो लगता है मैं आदमी हूँ। तभी तुम्हें लिख भी रही हूँ। तुम दुखी मत होना। चाहती थी कि तुम्हें न लिखूँ लेकिन बिना लिखे मन नहीं मानता। मेरे अपने! तुमने तो यही सोचकर यहाँ भेजा था कि इससे अच्छा लड़का नहीं मिलेगा। लेकिन कौन जानता था कि फूल में कीड़े भी होंगे।

अच्छा, अब माँजी नीचे बुला रही हैं…चलती हूँ…देखो अपने किसी खत में इन सब बातों का जिक्र मत करना! और इसे फाड़कर फेंक देना।

तुम्हारी अभागिन-सुधी।”

चन्दर को खत मिला तो एक बार जैसे उसकी मूर्च्छा टूट गयी। उसने खत लिया और बिनती को बुलाया। बिनती हाथ में साग और डलिया लिये आयी और पास बैठ गयी। चन्दर ने वह खत बिनती को दे दिया। बिनती ने पढ़ा और चन्दर को वापस दे दिया और चुपचाप तरकारी काटने लगी।

वह उठा और चुपचाप अपने कमरे में चला गया। थोड़ी देर बाद बिनती चाय लेकर आयी और चाय रखकर बोली, ”आप दीदी को कब खत लिख रहे हैं?”

”मैं नहीं लिखूँगा!” चन्दर बोला।

”क्यों?”

”क्या लिखूँ बिनती, कुछ समझ में नहीं आता!” कुछ झल्लाकर चन्दर ने कहा। बिनती चुपचाप बैठ गयी। थोड़ी देर बाद चन्दर बड़े मुलायम स्वर में बोला, ”बिनती, एक दिन तुमने कहा था कि मैं देवता हूँ, तुम्हें मुझ पर गर्व है। आज भी तुम्हें मुझ पर गर्व है?”

”पहले से ज्यादा!” बिनती बोली।

”अच्छा, ताज्जुब है!” चन्दर बोला, ”अगर तुम जानती कि आजकल कभी-कभी मैं क्या सोचता हूँ तो तुम्हें ताज्जुब होता! तुम जानती तो, सुधा के इस खत से मुझे जरा-सा भी दुख नहीं हुआ, सिर्फ झल्लाहट ही हुई है। मैं सोच रहा था कि क्यों सुधा इतना स्वाँग भरती है दुख और अंतर्द्वंद्व का! किस लड़की को यह सब पसन्द नहीं? किस लड़की के प्यार में शरीर का अंश नहीं होता? लाख प्रतिभाशालिनी लड़कियाँ हों लेकिन अगर वे किसी को प्यार करेंगी तो उसे अपनी प्रतिभा नहीं देंगी, अपना शरीर ही देंगी और यदि वह अस्वीकार कर लिया जाय तो शायद प्रतिहिंसा से तड़प भी उठेंगी। अब तो मुझे ऐसा लगने लगा कि सेक्स ही प्यार है, प्यार का मुख्य अंश है, बाकी सभी कुछ उसकी तैयारी है, उसके लिए एक समुचित वातावरण और विश्वास का निर्माण करना है…जाने क्यों मुझे इस सबसे बहुत नफरत होती जाती है। अभी तक मैं सेक्स और प्यार को दो चीजें समझता था, प्यार पर विश्वास करता था, सेक्स से नफरत, अब मुझे दोनों ही एक चीजें लगती हैं और जाने कैसे अरुचि-सी हो गयी है इस जिंदगी से। तुम्हारी क्या राय है, बिनती?”

”मेरी? अरे, हम बे-पढ़े-लिखे आदमी, हम क्या आपसे बात करेंगे! लेकिन एक बात है। ज्यादा पढऩा-लिखना अच्छा नहीं होता।”

”क्यों?” चन्दर ने पूछा।

”पढ़ने-लिखने से ही आप और दीदी जाने क्या-क्या सोचते हैं! हमने देहात में देखा है कि वहाँ लड़कियाँ समझती हैं कि उन्हें क्या करना है। इसलिए कभी इन सब बातों पर अपना मन नहीं बिगाड़तीं। बल्कि मैंने तो देखा है सभी शादी के बाद मोटी होकर आती हैं। और दीदी अब छोटी-सी नहीं कि ऐसी उनकी तबीयत खराब हो जाय। यह सब मन में घुटने का नतीजा है। जब यह होना ही है तो क्यों दीदी दु:खी होती हैं? उन्हें तो और मोटी होना चाहिए।” बिनती बोली।

इस समस्या का इतना सरल समाधान सुनकर चन्दर को हँसी आ गयी।

”अब तुम ससुराल जा रही हो। मोटी होकर आना!”

”धत्, आप तो मजाक करने लगे!”

”लेकिन बिनती, तुम इस मामले में बड़ी विद्वान मालूम देती हो। अभी तक यह विद्वत्ता कहाँ छिपा रखी थी?”

”नहीं, आप मजाक न बनाइए तो मैं सच बताऊँ कि देहाती लड़कियाँ शहर की लड़कियों से ज्यादा होशियार होती हैं इन सब मामलों में।”

”सच?” चन्दर ने पूछा। वह गाँव की जिंदगी को बेहद निरीह समझता था।

”हाँ और क्या? वहाँ इतना दुराव, इतना गोपन नहीं है। सभी कुछ उनके जीवन का उन्मुक्त है। और ब्याह के पहले ही वहाँ लड़कियाँ सबकुछ…”

”अरे नहीं!” चन्दर ने बेहद ताज्जुब से कहा।

”लो यकीन नहीं होता आपको? मुझे कैसे मालूम हुआ इतना। मैं आपसे कुछ नहीं छिपाती, वहाँ तो सब लोग इसे इतना स्वाभाविक समझते हैं जितना खाना-पीना, हँसना-बोलना। बस लड़कियाँ इस बात में सचेत रहती हैं कि किसी मुसीबत में न फँसें!”

चन्दर चुपचाप बैठ चाय पीता रहा। आज तक वह जिंदगी को कितना पवित्र मानता रहा था लेकिन जिंदगी कुछ और ही है। जिंदगी अब भी वह है जो सृष्टि के आरम्भ में थी…और दुनिया कितनी चालाक है! कितनी भुलावा देती है! अन्दर से मन में जहर छिपाकर भी होठों पर कैसी अमृतमयी मुसकान झलकाती रहती है! यह बिनती जो इतनी शान्त, संयत और भोली लगती थी, इसमें भी सभी गुन भरे हैं। इस दुनिया में? चन्दर ने जिंदगी को परखने में कितना बड़ा धोखा खाया है।…जिंदगी यह है-मांसलता और प्यास और उसके साथ-साथ अपने को छिपाने की कला।

वह बैठा-बैठा सोचता रहा। सहसा उसने पूछा-

”बिनती, तुम भी देहात में रही हो और सुधा भी। तुम लोगों की जिंदगी में वह सब कभी आया?”

बिनती क्षण-भर चुप रही, फिर बोली, ”क्यों, क्या नफरत करोगे सुनकर!”

”नहीं बिनती, जितनी नफरत और अरुचि दिल में आ गयी है उससे ज्यादा आ सकती है भला! बताना चाहो तो बता दो। अब मैं जिंदगी को समझना चाहता हूँ, वास्तविकता के स्तर पर!” चन्दर ने गम्भीरता से पूछा।

”मैंने आपसे कुछ नहीं छिपाया, न अब छिपाऊँगी। पता नहीं क्यों दीदी से भी ज्यादा आप पर विश्वास जमता जा रहा है। सुधा दीदी की जिंदगी में तो यह सब नहीं आ पाया। वे बड़ी विचित्र-सी थीं। सबसे अलग रहती थीं और पढ़तीं और कमल के पोखरे में फूल तोड़ती थीं, बस! मेरी जिंदगी में…”

चन्दर ने चाय का प्याला खिसका दिया। जाने किस भाव से उसने बिनती के चेहरे की ओर देखा। वह शान्त थी, निर्विकार थी और बिना किसी हिचक के कहती जा रही थी।

चन्दर चुप था। बिनती ने अपने पाँवों से चन्दर के पाँवों की उँगलियाँ दबाते हुए पूछा, ”क्या सोच रहे हैं आप? सुन रहे हैं आप?”

”जाने दो, मैं नहीं सुनूँगा। लेकिन तुम मुझ पर इतना विश्वास क्यों करती हो?” चन्दर ने पूछा।

”जाने क्यों? यहाँ आकर मैंने दीदी के साथ आपका व्यवहार देखा। फिर पम्मी वाली घटना हुई। मेरे तन-मन में एक विचित्र-सी श्रद्धा आपके लिए छा गयी। जाने कैसी अरुचि मेरे मन में दुनिया के लिए थी, आपको देखकर मैं फिर स्वस्थ हो गयी।”

”ताज्जुब है! तुम्हारे मन की अरुचि दूर हो गयी दुनिया के प्रति और मेरे मन की अरुचि बढ़ गयी। कैसे अन्तर्विरोध होते हैं मन की प्रतिक्रियाओं में! एक बात पूछूँ, बिनती! तुम मेरे इतने समीप रही हो। सैकड़ों बार ऐसा हुआ होगा जो मेरे विषय में तुम्हारे मन में शंका पैदा कर देता, तुम सैकड़ों बार मेरे सिर को अपने वक्ष पर रखकर मुझे सान्त्वना दे चुकी हो। तुम मुझे बहुत प्यारी हो, लेकिन तुम जानती हो मैं तुम्हें प्यार नहीं करता हूँ, फिर यह सब क्या है, क्यों है?”

बिनती चुप रही-”पता नहीं क्यों है? मुझे इसमें कभी कोई पाप नहीं दिखा और कभी दिखा भी तो मन ने कहा कि आप इतने पवित्र हैं, आपका चरित्र इतना ऊँचा है कि मेरा पाप भी आपको छूकर पवित्र हो जाएगा।”

”लेकिन बिनती…”

”बस?” बिनती ने चन्दर को टोककर कहा, ”इससे अधिक आप कुछ मत पूछिए, मैं हाथ जोड़ती हूँ!”

चन्दर चुप हो गया।

चन्दर जितना सुलझाने का प्रयास कर रहा था, चीजें उतनी ही उलझती जा रही थीं। सुधा ने जिंदगी का एक पक्ष चन्दर के सामने रखा था। बिनती उसे दूसरी दुनिया में खींच लायी। कौन सच है, कौन झूठ? वह किसका तिरस्कार करे, किसको स्वीकार करे। अगर सुधा गलती पर है तो चन्दर का जिम्मा है, चन्दर ने सुधा की हत्या की है…लेकिन कितनी भिन्न हैं दोनों बहनें! बिनती कितनी व्यावहारिक, कितनी यथार्थ, संयत और सुधा कितनी आदर्श, कितनी कल्पनामयी, कितनी सूक्ष्म, कितनी ऊँची, कितनी सुकुमार और पवित्र।

जीवन की समस्याओं के अन्तर्विरोधों में जब आदमी दोनों पक्षों को समझ लेता है तब उसके मन में एक ठहराव आ जाता है। वह भावना से ऊपर उठकर स्वच्छ बौद्धिक धरातल पर जिंदगी को समझने की कोशिश करने लगता है। चन्दर अब भावना से हटकर जिंदगी को समझने की कोशिश करने लगा था। वह अब भावना से डरता था। भावना के तूफान में इतनी ठोकरें खाकर अब उसने बुद्धि की शरण ली थी और एक पलायनवादी की तरह भावना से भाग कर बुद्धि की एकांगिता में छिप गया था। कभी भावुकता से नफरत करता था, अब वह भावना से ही नफरत करने लगा था। इस नफरत का भोग सुधा और बिनती दोनों को ही भुगतना पड़ा। सुधा को उसने एक भी खत नहीं लिखा और बिनती से एक दिन भी ठीक से बातें नहीं की।

जब भावना और सौन्दर्य के उपासक को बुद्धि और वास्तविकता की ठेस लगती है तब वह सहसा कटुता और व्यंग्य से उबल उठता है। इस वक्त चन्दर का मन भी कुछ ऐसा ही हो गया था। जाने कितने जहरीले काँटे उसकी वाणी में उग आये थे, जिन्हें वह कभी भी किसी को चुभाने से बाज नहीं आता था। एक निर्मम निरपेक्षता से वह अपने जीवन की सीमा में आने वाले हर व्यक्ति को कटुता के जहर से अभिषिक्त करता चलता था। सुधा को वह कुछ लिख नहीं सकता था। पम्मी यहाँ थी नहीं, ले-देकर बची अकेली बिनती जिसे इन जहरीले वाणों का शिकार होना पड़ रहा था। सितम्बर बीत रहा था और अब वह गाँव जाने की तैयारी कर रही थी। डॉक्टर साहब ने दिसम्बर तक की छुट्टी ली थी और वे भी गाँव जाने वाले थे। शादी के महीने-भर पहले से उनका जाना जरूरी था।

चन्दर खुश नहीं था, नाराज नहीं था। एक स्वर्गभ्रष्ट देवदूत जिसे पिशाचों ने खरीद लिया हो, उन्हीं की तरह वह जिंदगी के सुख-दु:ख को ठोकर मारता हुआ किनारे खड़ा सभी पर हँस रहा था। खास तौर से नारी पर उसके मन का सारा जहर बिखरने लगा था और उसमें उसे यह भी अकसर ध्यान नहीं रहता था कि वह किससे क्या बात कर रहा है। बिनती सबकुछ चुपचाप सहती जा रही थी, बिनती को सुधा की तरह रोना नहीं आता था; न उसकी चन्दर इतनी परवा ही करता था जितनी सुधा की। दोनों में बातें भी बहुत कम होती थीं, लेकिन बिनती मन-ही-मन दु:खी थी। वह क्या करे! एक दिन उसने चन्दर के पैर पकड़कर बहुत अनुनय से कहा-”आपको यह क्या होता जा रहा है? अगर आप ऐसे ही करेंगे तो हम दीदी को लिख देंगे!”

चन्दर बड़ी भयावनी हँसी हँसा-”दीदी को क्या लिखोगी? मुझे अब उसकी परवा नहीं। वह दिन गये, बिनती! बहुत बन लिये हम।”

”हाँ, चन्दर बाबू, आप लड़की होते तो समझते!”

”सब समझता हूँ मैं, कैसा दोहरा नाटक खेलती हैं लड़कियाँ! इधर अपराध करना, उधर मुखबिरी करना।”

बिनती चुप हो गयी। एक दिन जब चन्दर कॉलेज से आया तो उसके सिर में दर्द हो रहा था। वह आकर चुपचाप लेट गया। बिनती ने आकर पूछा तो बोला, ”क्यों, क्यों मैं बतलाऊँ कि क्या है, तुम मिटा दोगी?”

बिनती ने चन्दर के सिर पर हाथ रखकर कहा, ”चन्दर, तुम्हें क्या होता जा रहा है? देखो कैसी हड्डियाँ निकल आयी हैं इधर। इस तरह अपने को मिटाने से क्या फायदा?”

”मिटाने से?” चन्दर उठकर बैठ गया-”मैं मिटाऊँगा अपने को लड़कियों के लिए? छिह, तुम लोग अपने को क्या समझती हो? क्या है तुम लोगों में सिवा एक नशीली मांसलता के? इसके लिए मैं अपने को मिटाऊँगा?”

बिनती ने चन्दर को फिर लिटा दिया।

”इस तरह अपने को धोखा देने से क्या फायदा, चन्दर बाबू? मैं जानती हूँ दीदी के न होने से आपकी जिंदगी में कितना बड़ा अभाव है। लेकिन…”

”दीदी के न होने पर? क्या मतलब है तुम्हारा?”

”मेरा मतलब आप खूब समझते हैं। मैं जानती हूँ, दीदी होतीं तो आप इस तरह न मिटाते अपने को। मैं जानती हूँ दीदी के लिए आपके मन में क्या था?” बिनती ने सिर में तेल डालते हुए कहा।

”दीदी के लिए क्या था?” चन्दर हँसा, बड़ी विचित्र हँसी-”दीदी के लिए मेरे मन में एक आदर्शवादी भावुकता थी जो अधकचरे मन की उपज थी, एक ऐसी भावना थी जिसके औचित्य पर ही मुझे विश्वास नहीं, वह एक सनक थी।”

”सनक!” बिनती थोड़ी देर तक चुपचाप सिर में तेल ठोंकती रही। फिर बोली, ”अपनी साँसों से बनायी देवमूर्ति पर इस तरह लात तो न मारिए। आपको शोभा नहीं देता!” बिनती की आँख में आँसू आ गये, ”कितनी अभागी हैं दीदी!”

चन्दर एकटक बिनती की ओर देखता रहा और फिर बोला, ”मैं अब पागल हो जाऊँगा, बिनती!”

”मैं आपको पागल नहीं होने दूँगी। मैं आपको छोडक़र नहीं जाऊँगी।”

”मुझे छोडक़र नहीं जाओगी!” चन्दर फिर हँसा-”जाइए आप! अब आप श्रीमती बिनती होने वाली हैं। आपका ब्याह होगा। मैं पागल हो रहा हूँ, इससे क्या हुआ? इन सब बातों से दुनिया नहीं रुकती, शहनाइयाँ नहीं बंद होतीं, बन्दनवार नहीं तोड़े जाते!”

”मैं नहीं जाऊँगी चन्दर अभी, तुम मुझे नहीं जानते। तुम्हारी इतनी ताड़ना और व्यंग्य सहकर भी तुम्हारे पास रही, अब दुनिया-भर की लांछना और व्यंग्य सहकर तुम्हारे पास रह सकती हूँ।” बिनती ने तीखे स्वर में कहा।

”क्यों? तुम्हारे रहने से क्या होगा? तुम सुधा नहीं हो। तुम सुधा नहीं हो सकती! जो सुधा है मेरी जिंदगी में, वह कोई नहीं हो सकता। समझीं? और मुझ पर एहसान मत जताओ! मैं मर जाऊँ, मैं पागल हो जाऊँ, किसी का साझा! क्यों तुम मुझ पर इतना अधिकार समझने लगीं-अपनी सेवा के बल पर? मैं इसकी रत्ती-भर परवा नहीं करता। जाओ, यहाँ से!” और उसने बिनती को धकेल दिया, तेल की शीशी उठाकर बाहर फेंक दी।

बिनती रोती हुई चली गयी। चन्दर उठा और कपड़े पहनकर बाहर चल दिया, ”हूँ, ये लड़कियाँ समझती हैं अहसान कर रही हैं मुझ पर!”

बिनती के जाने की तैयारी हो गयी थी और लिया-दिया जाने वाला सारा सामान पैक हो रहा था। डॉक्टर साहब भी महीने-भर की छुट्ट लेकर साथ जा रहे थे। उस दिन की घटना के बाद फिर बिनती चन्दर से बिल्कुल ही नहीं बोली थी। चन्दर भी कभी नहीं बोला।

ये लोग कार पर जाने वाले थे। सारा सामान पीछे-आगे लादा जाने वाला था। डॉक्टर साहब कार लेकर बाजार गये थे। चन्दर उनका होल्डॉल सँभाल रहा था। बिनती आयी और बोली, ”मैं आपसे बातें कर सकती हूँ?”

”हाँ, हाँ! तुम उस दिन की बात का बुरा मान गयीं! अमूमन लड़कियाँ सच्ची बात का बुरा मान जाती हैं! बोलो, क्या बात है?” चन्दर ने इस तरह कहा जैसे कुछ हुआ ही न हो।

बिनती की आँख में आँसू थे, ”चन्दर, आज मैं जा रही हूँ!”

”हाँ, यह तो मालूम है, उसी का इन्तजाम कर रहा हूँ!”

”पता नहीं मैंने क्या अपराध किया चन्दर कि तुम्हारा स्नेह खो बैठी। ऐसा ही था चन्दर तो आते ही आते इतना स्नेह तुमने दिया ही क्यों था?…मैं तुमसे कभी भी दीदी का स्थान नहीं माँग रही थी…तुमने मुझे गलत क्यों समझा?”

”नहीं, बिनती! मैं अब स्नेह इत्यादि पसन्द नहीं करता हूँ। पूर्ण परिपक्व मनुष्य हूँ और ये सब भावनाएँ अब अच्छी नहीं लगतीं मुझे। स्नेह वगैरह की दुनिया अब मुझे बड़ी उथली लगती है!”

”तभी चन्दर! इतने दिन मैंने रोते-रोते बिताये। तुमने एक बार पूछा भी नहीं। जिंदगी में सिवा दीदी और तुम्हारे, कौन था? तुमने मेरे आँसुओं की परवा नहीं की। तुम्हें कसूर नहीं देती; कसूर मेरा ही होगा, चन्दर!”

”नहीं, कसूर की बात नहीं बिनती! औरतों के रोने की कहाँ तक परवा की जाए, वे कुत्ते, बिल्ली तक के लिए उतने ही दु:ख से रोती हैं।”

”खैर, चन्दर! ईश्वर करे तुम जीवन-भर इतने मजबूत रहो। मैंने अगर कभी तुम्हारे लिए कुछ किया, वैसे किया भी क्या, लेकिन अगर कुछ भी किया तो सिर्फ इसलिए कि मेरे मन की जाने कितनी ममता तुमने जीत ली, या मैं हमेशा इस बात के लिए पागल रहती थी कि तुम्हें जरा-सी भी ठेस न पहुँचे, मैं क्या कर डालूँ तुम्हारे लिए। तुमने, तुम्हारे व्यक्तित्व ने मुझे जादू में बाँध लिया था। तुम मुझसे कुछ भी करने के लिए कहते तो मैं हिचक नहीं सकती थी-लेकिन खैर, तुम्हें मेरी जरूरत नहीं थी। तुम पर भार हो उठती थी मैं। मैंने अपने को खींच लिया, अब कभी तुम्हारे जीवन में आने का साहस नहीं करूँगी। यह भी कैसे कहूँ कि कभी तुम्हें मेरी जरूरत पड़ेगी। मैं जानती हूँ कि तुम्हारे तूफानी व्यक्तित्व के सामने मैं बहुत तुच्छ हूँ, तिनके से भी तुच्छ। लेकिन आज जा रही हूँ, अब कभी यहाँ आने का साहस न करूँगी। लेकिन क्या चलते वक्त आशीर्वाद भी न दोगे? कुछ आगे का रास्ता न बताओगे?”

बिनती ने झुककर चन्दर के पैर पकड़ लिये और सिसक-सिसककर रोने लगी। चन्दर ने बिनती को उठाया और पास की कुर्सी पर बिठा दिया और सिर पर हाथ रखकर बोला, ”आशीर्वाद देवताओं से माँगा जाता है। मैं अब प्रेत हो चुका हूँ, बिनती!”

चन्दर अब एकान्त चाहता था और वह चन्दर को मिल गया था। पूरा घर खाली, एक महराजिन, माली और नौकर। और सारे घर में सिर्फ सन्नाटा और उस सन्नाटे का प्रेत चन्दर। चन्दर चाहे जितना टूट जाये, चाहे जितना बिखर जाये, लेकिन चन्दर हारने वाला नहीं था। वह हार भी जाये लेकिन हार स्वीकार करना उसे नहीं आता था। उसके मन में अब सन्नाटा था, अपने मन के पूजागृह में स्थापित सुधा की पावन, प्रांजल देवमूर्ति को उसने कठोरता से उठाकर बाहर फेंक दिया था। मन्दिर की मूर्तिमयी पवित्रता, बिनती को अपमानित कर दिया था और मन्दिर के पूजा-उपकरणों को, अपने जीवन के आदर्शों और मानदंडों को उसने चूर-चूर कर डाला था, और बुतशिकन विजेता की तरह क्रूरता से हँसते हुए मन्दिर के भग्नावशेषों पर कदम रखकर चल रहा था। उसका मन टूटा हुआ खँडहर था जिसके उजाड़, बेछत कमरों में चमगादड़ बसेरा करते हैं और जिसके ध्वंसावशेषों पर गिरगिट पहरा देते हैं। काश कि कोई उन खँडहरों की ईंटें उलटकर देखता तो हर पत्थर के नीचे पूजा-मन्त्र सिसकते हुए मिलते, हर धूल की पर्त में घंटियों की बेहोश ध्वनियाँ मिलतीं, हर कदम पर मुरझाये हुए पूजा के फूल मिलते और हर शाम-सवेरे भग्न देवमूर्ति का करुण रुदन दीवारों पर सिर पटकता हुआ मिलता…लेकिन चन्दर ऐसा-वैसा दुश्मन नहीं था। उसने मन्दिर को चूर-चूर कर उस पर अपने गर्व का पहरा लगा दिया था कि कभी भी कोई उस पर खँडहर के अवशेष कुरेदकर पुराने विश्वास, पुरानी अनुभूतियाँ, पुरानी पूजाएँ फिर से न जगा दे। बुतशिकन तो मन्दिर तोडऩे के बाद सारा शहर जला देता है, ताकि शहर वाले फिर उस मन्दिर को न बना पाएँ-ऐसा था चन्दर। अपने मन को सुनसान कर लेने के बाद उसने अपनी जिंदगी, अपना रहन-सहन, अपना मकान और अपना वातावरण भी सुनसान कर लिया था। अगहन आ गया था, लेकिन उसके चारों ओर जेठ की दुपहरी से भी भयानक सन्नाटा था।

बिनती जब से गयी उसने कोई खत नहीं भेजा था। सुधा के भी पत्र बन्द हो चुके थे। पम्मी के दो खत आये। पम्मी आजकल दिल्ली घूम रही थी, लेकिन चन्दर ने पम्मी को कोई जवाब नहीं दिया। अकेला…अकेला…बिल्कुल अकेला…सहारा मरुस्थल की नीरस भयावनी शान्ति और वह भी जब तक कि काँपता हुआ लाल सूरज बालू के क्षितिज पर अपनी आखिरी साँसें तोड़ रहा हो और बालू के टीलों की अधमरी छायाएँ लहरदार बालू पर धीरे-धीरे रेंग रही हों।

बिनती के ब्याह को पन्द्रह दिन रह गये थे कि सुधा का एक पत्र आया…

”मेरे देवता, मेरे नयन, मेरे पंथ, मेरे प्रकाश!

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