गुड़िया मर गयी

गुड़िया मर गयी :
* रचना में आँसुओं का आधिक्य, स्याही की कमी है,
प्रभू! तू ही इस जहां में सबसे अधिक धनी है,
दे तो सबको समान जिंदगी की दौलत दे, अन्यथा-
तेरे ही बनाए बन्दों की एक स्याह सी जमीन है,
बसा घरौंदा इस पर उसी का जो किस्मत का धनी है,
न जाने क्यों?………
तुझ पर यकीन रखने वालों की,आँख में सदा नमी है।।
ये घटना छोटे से कस्बे के एक रेलवे स्टेशन की है, जो लगभग आज से लगभग ३० या ३२ वर्ष पूर्व घटित हुई होगी।


  "क्या  भयी  आज  भी  विलम्ब?     

ऐसा कब तक चलता रहेगा। अरे भई मैं स्टेशन अधीक्षक हूँ और यहाँ पोर्टर का काम कर रहा हूँ। आपकी जगह यदि लाल हरि झंडिया ही दिखाता रहूँगा तो अपना कार्य कब निपटाऊंगा महाशय?”
स्टेशन अधीक्षक श्री कंदर्प नारायण मिश्रा जी ने विलम्ब से आए पोर्टर धनीराम को हड़काते हुए कहा। धनीराम अपनी ढीठता और मिश्रा जी की सहजता का पूर्ण लाभ उठाते हुए, बेशर्मों की भाँति खिखियाता हुआ:-
“अब क्या है मिश्रा जी, एक तो सायकिल का टायर पञ्चर हो गया था, ऊपर से आप भी हड़काने लगे।” “अच्छा ठीक है ठीक है भयी, कम से कम बहाने तो नए ले आया करिए महानुभाव” …. मिश्रा जी तो पूर्व परिचित हैं, इस बहानेबाजी और रोज रोज की देरी से भी। इसलिए ज्यादा कुछ बोले बिना ही अपने कक्ष में चले गए……… तभी स्टेशन पर पैसेंजर ट्रेन आकर रुकती है।आने जाने वाले सभी यात्री अपनी-अपनी जगह हो लिए। सिवाय……एक यात्री के। वो यात्री प्लेटफार्म पर लगी बेंच के नीचे चुपचाप जाकर बैठ गया। तबसे कितनी ट्रेनें आयीं और गयीं लेकिन, वो यात्री वहीं उसी स्थान पर बिना हिले डुले स्थिर बना रहा। सुबह से दोपहर हो गयी स्टेशन के सभी कर्मचारी अपनी ड्यूटी के अनुरूप भोजन ग्रहण की तैयारी में लगे गए।
मिश्रा जी भी अपना डब्बा सहेजते हुए अपने सहकर्मचारी को भोजन के लिए आमंत्रित करते हैं। क्योंकि, अगली ट्रेन आने के मध्य काफी समय था अतः यही उचित समय भोजन करने के लिए मिलता था, आखिर मिश्रा जी को भी तो आदत थी सबको साथ लपेटकर भोजन ग्रहण करने की।
मिश्रा जी हाथ मुँह धोने प्लेटफार्म पर बनी पानी की टँकी की तरफ बढ़ते हैं तभी उनकी नजर बेंच के नीचे बैठे यात्री पर गयी।
पहले तो उन्होंने नजरअंदाज किया। नहीं माना मन नजदीक जाकर देखने का प्रयास किया तो सामने बेंच के पावे से सटकर दोनों हाथों के फंदे के मध्य, घुटनों को घेरे में लिए और घुटनो पर ही ठुड्डी के सहारे पूरे सर का भार दिए बैठी एक बालिका थी। रही होगी तकरीबन ११ या १२ वर्ष की। मैले बिखरे बाल, लग रहा था सदियों से इसे सँवारा ही न गया हो। उसके बगल ही उससे भी मैली एक गुड़िया रखी हुई थी।

” हे कौन है रे, और सुबह से यहाँ काहे बैठी है?”
मिश्रा जी ने महज मानवता वश उससे प्रश्न किया। वो चुपचाप बैठी कोई उत्तर नहीं देती। पुनः मिश्रा जी:-” री लड़की कौन है तू, कहाँ जाना है, किसके साथ है तू?” पुनः कोई उत्तर नहीं। मिश्रा जी:- ” जाने कहाँ से आ जाते हैं मरने को यहाँ, न पता न ही ठिकाना। पूछो भी तो मुँह में दही जमाकर बैठ जाते हैं।”
झुंझलाते हुए हाथ मुँह धोने लगते हैं।तभी पीछे से उनकी पीठ पर जोर का प्रहार होता है।
मिश्रा जी दर्द से कराहते हुए:-
” अबे कौन है नालायक क्या खाया बे जो भीम की ताकत लगा कर अबूझ दुश्मनी निकाल रहा।” मिश्रा जी जैसे ही पलट कर देखते हैं स्तब्ध रह गए।
सामने वही अबोध, नाजुक बालिका थी जिसने मिश्रा जी जैसे सशक्त व्यक्तित्व के मुख से कराह निकलवा दी।
‌ मिश्रा जी के क्रोध की पराकाष्ठा ही थी कि, एक नजर उसके हुलिए पर गयी- मैला सा नंगे पैर तक झूलता घाघरा, ऊपर से किसी विद्यालय वर्दी की मैली बुशर्ट, पहने एक हाथ मे वो ही फटीचर गुड़िया उठाए , दाँत फाड़ती मिश्रा जी की दशा पर बड़ी प्रसन्न हो रही थी।

‌मिश्रा जी को समझते देर न लगी के इस पर क्रोध करना मतलब ईश्वर का अपमान करना था। क्योंकि जो अबोध, दुर्भाग्य का मारा है उससे कैसा रोष।
सहायक महतो जी ने आवाज लगाते हुए आ धमके:-
” क्या मिश्रा जी पूरा गंगा स्नान करके ही भोजन ग्रहण करने का विचार है क्या?” “अरे नहीं महतो जी ये बालिका….” बात को बीच के ही काटते हुए महतो जी:-
” अरे का मिश्रा जी आपौ कहाँ इस पगलिया के चक्कर मे पड़े हैं। अब चलिए भी……..” “अरे सुनो तो महतो जी….”
महतो जी लगभग घसीटते हुए मिश्रा जी भोजन के लिए ले गए कक्ष में।
मिश्र जी का मन नही लगा रहा था। महतो जी फिर भन्नाएंगे का संकोच करते हुए बोल ही पड़े:-
” महतो जी जरा देखिएगा तो बेचारी सुबह से बैठी है। जाने कुछ खायी पी भी है नहीं?” ” हमें पता था पंडित महाराज आपके हलक से निवाला नहीं उतरने वाला। जाओ खिलाओ, बनाओ स्टेशन को सराय…..” ” क्या महतो जी आप भी….।” कहकर मिश्रा जी खाने का डब्बा लेकर खड़े हो गए। “अरे दानी कर्ण महाराज जी पहिले अपना भोजन करिए फिर यहाँ से खिसकने की हिमाकत करिएगा।” अक्सर मिश्रा जी के सहृदयता के कारण उनके अधीनस्थ भी उन्हें हड़का लिया करते थे। सो आज्ञा का पालन करते हुए फटाफट भोजन करके,किनारे सहेजी साफ सुथरी रोटी उठाकर उस बालिका के पास जा पहुँचे। मिश्रा जी को देखते ही उसने फिर से दाँत फाड़ना शुरू कर दिया।
मिश्रा जी बड़े प्यार से :-” ऐ लड़की सुन, ले कुछ खा ले।”
उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी सिवाय हँसने के। ” खीस काहे काढ़े है लड़की,ले खा ले कुछ भूखी होगी। न खाके काहे हमें पाप का भागी बना रही।” मिश्रा जी ने उसके सामने रोटी का टुकड़ा छोड़कर पुनः अपने कक्ष में चले गए। मन नहीं मान रहा था सो बीच बीच मे जाकर उसको झाँक भी आते थे। थोड़े समय बाद उसने रोटी भी खायी और उसी पानी की टँकी पर जाकर अंजली भर पानी पीने लगी।मिश्रा जी की देखा देखी उसने भी हाथ मुँह धोया। अब उसके चेहरे की धूल थोड़ी हटी, तो बड़ी प्यारी सी मासूम सूरत निखर कर सामने आयी। उसे देख मिश्रा जी किसी भूखे को रोटी खिलाकर फूले नहीं समा रहे थे।
खैर पुण्य कल्याण के सुखानुभूति पश्चात पुनः अपने कार्य मे लग गए। रात्रि प्रहर जब घर जाने लगे तो एक बार ध्यान आया कि, कहाँ होगी वो बालिका?
आस-पास न दिखायी देने पर “चली गयी होगी कहीं” के विचार से आस्वस्त होते हुए गृह प्रस्थान कर लिया।

दूसरे दिन समय के पक्के मिश्रा जी सुबह स्टेशन पर हाजिर थे। तभी उन्होंने देखा वो बालिका उसी बेंच के नीचे सो रही थी।
बड़ी दया, करुणा के साथ उस पर नजर डालते हुए ” बेचारी पता नहीं कौन है” कहकर निकल गए। पुनः दोपहर के भोजन में उसका भी हिस्सा लगाया और उसके पास रख आए। ये सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा।
एक दिन प्लेटफार्म के सफाई कर्मचारियों ने बताया कि:-
‌ ” बड़े साहब जी बड़ी स्वाभिमानी पगलेट है ये, कभी किसी का दिया नहीं खाती। बहुत लोग आते- जाते इसे बिस्कुट फल वगैरह पकड़ा जाते हैं। ये वो सब फेंक देती है। आप जो भी देते हैं बस उसी को खाकर दिन रात बिता देती है ये।” मिश्रा जी को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन दिनों छोटे स्टेशनों पर खाने पीने के स्टॉल भी नहीं हुआ करते थे, इसलिए मिश्रा जी अब घर से एक पैकेट बिस्कुट और डब्बे में खाने की मात्रा ज्यादा लाने लगे थे।
हाँ ये अलग बात थी कि, बदले में मिसराइन जी की अच्छी खासी लताड़ मिलती थी। फिर भी करुण हृदय तो सब कर्म बर्दाश्त कर लेता है। एक दिन बड़े ही प्यार से मिश्रा जी ने उसको पूछा:- “कहाँ से आयी है बिटिया? तेरे घर वाले कहाँ हैं।” मिश्र जी के स्नेह से गदगद हो उसने रेलवे पटरी पर उँगली से इशारा किया। “माँ है तेरी?” मिश्रा जी ने पूछा। वो कुछ भी बोल पाने में असमर्थ थी। सिवाय ” गुड़िया मम्मममग्ग्ग गी” ( गुड़िया मर गई ) के। मिश्रा जी के भली भाँति भान था कि, उसका कहने को अपना दुनियां में कोई भी नहीं होगा फिर भी अनायास ही उन्होंने ये प्रश्न कर लिया।
मिश्रा जी से अपनत्व व सहानुभूति पाकर वो भी खुश रहती।
अब तक तो वह मिश्रा जी से काफी घुलमिल गयी थी। वे अब उसको गुड़िया नाम से ही बुलाने लगे। मिश्रा जी भी उसके लिए हरसंभव मदद हेतु उपस्थित रहते किन्तु उतना ही जितना कि अपने ग्रह दशा शांत रखने के लिए गृह दशा शांति आवश्यक थी। अब तक तो गुड़िया के हुलिए में भी खासा परिवर्तन आ गया था। सफाई कर्मचारियों में सुशीला नामक महिला को मिन्नतें कर- करके मिश्रा जी ने गुड़िया को बाल सँवारना, कपड़े पहनना सिखवा दिया। अब वह अपनी क्षमता अनुरूप साफ सफाई का भी काम करने लगी। मिश्रा जी जब भी ड्यूटी पर आते उनके आगे दाँत दिखाती पहुँच जाती और अपने कपड़े से उनकी कुर्सी मेज साफ करने लगती।
दिन भर तो उसका यूँ ही निकल जाता। रात्रि के लिए भी मिश्रा जी ने पानी की टँकी के पीछे बड़े बरगद के पेड़ में सटाकर एक तिरपाल का टूकड़ा तनवा दिए। किनारे भी सहारा देते हुए उसके लिए एक सुरक्षित सर छुपाने के स्थान बनवा दिए। बहुत लोगों ने इसका विरोध भी किया किन्तु सबको वे मानवता का पाठ पढ़ाते हुए स्वीकृति ले ही लेते।
मिश्रा जी यदा कदा रात्रि ड्यूटी रहते तब तो उसकी सुरक्षा के लिए निश्चिंत रहते। लेकिन जब भी ड्यूटी किसी और कि लगती या बदलती अगले कर्मचारी को वे गुड़िया की जिम्मेदारी सौंपते जाते। ऐसे ही समय निकल गया और पूरा एक वर्ष बीत गया और पता भी न चला। गुड़िया भी यहाँ अपने घर जैसा अनुभव कर खुश रहती जिसका प्रमाण उसके चेहरे की मुस्कुराहट और उसके बदले हाव भाव से मिल जाता था।
एक दिन सुबह जैसे ही मिश्रा जी स्टेशन पहुँचे, गुड़िया के कराहने के स्वर ने उन्हें विचलित कर दिया। वे भागकर उसके पास पहुँचे। गुड़िया की तो दशा ही बिगड़ी हुई थी। उसके चेहरे पर अथाह पीड़ा छलक रहा था और घाघरा रक्त से भीगा हुआ था। मिश्रा जी का स्वर सुनते ही गुड़िया कराहते रुदन करते हुए- ” गगगगुड़िया मम्मममग्ग गी( गुड़िया मर गयी) मिश्रा जी दहाड़ते हुए रात्रि शिफ्ट कर के घर जाने को तैयार श्रीवास्तव जी पर बिफर पड़े:- ” थू है श्रीवास्तव जी, आपसे उम्मीद न थी, कम से कम उम्र का लिहाज और प्रभु की लाठी का तो खयाल किया होता। ऐसी अमर्यादित हरकत शोभा देती है क्या भला?…”
मिश्रा जी बिना सोचे समझे गुड़िया के प्रति अपनी चिंता और भय को श्रीवास्तव जी पर उड़ेले जा रहे थे। ” अरे हुआ क्या मिश्रा जी बताइयेगा तो पहिले? बस बेफिजूल के आरोप लगाए जा रहे हैं।” ” क्या बताना है श्रीवास्तव जी, इतने भी अनजान तो न बनिए। देखिए इस बच्ची की क्या दुर्दशा बनी हुई है। बेचारी… ….रे जरा भी तरस नहीं आयी आपको?” श्रीवास्तव जी वास्तविकता से जब तक परिचित होते मिश्रा जी पूरी तरह उनकी आरती उतार चुके थे। ” होश में हो मिश्रा जी जरा दिमाग ठिकाने रखा करिए। कुछ भी कैसा भी लांछन लगाने से पहिले एक बार विचार तो कर लिया करिए कि, किसको और क्या बके जा रहे हैं।” ” जो भी है हमने आपको गुड़िया की हिफाजत का जिम्मा दिया था…….” मिश्रा जी की बात को बीच मे ही काटते हुए-
” ऐसा है न मिश्रा जी हम यहाँ सरकार की नौकरी करते हैं। ऐरे गैरे नत्थू खैरे की चाकरी नहीं। कृपा करके आप अपनी उदारता और भ्रष्ट मति कहीं और चलाइये।”
श्रीवास्तव जी ने अपने क्रोध का ज्वार बाँटते हुए वहाँ से चलता बने।
इतना हो हल्ला सुनकर सुशीला भी वहाँ आ गयी। मिश्रा जी ने सुशीला को कैसे भी करके गुड़िया को संभालने का अनुरोध करते हैं।
पहले तो सुशीला भी इन सबसे भाग रही थी लेकिन औरत होने के मर्म ने उसे रोक लिया।
करीब जाकर देखा तो बात ही कुछ और निकली: – “क्या साहेब नाहक ही सिरीवास्तव साहेब जी को चिल्लाए पड़े हैं आप। जैसा आप समझ रहे वैसा कुछ भी नहीं है।” ” फिर ये पीड़ा ये ……?” ” अरे साहेब जी, अऊरत होने का पहिला पायदान समझो। अब तो हर महीना ही इसको इस दरद से गुजरना पड़ेगा इसको।” ‌ मिश्रा जी श्रीवास्तव जी पर अनायास चिल्लाने व मिथ्या दोषारोपण हेतु तनिक शर्मिंदा भी थे। लेकिन उनकी चिन्ता और पीड़ा दोनों में वृद्धि हो गयी। अभी तक तो सुशीला को बोलकर उसकी मदद करवा दी।लेकिन आगे क्या? कब तक कोई बातों का मान रखेगा आखिर? फिर सबसे बड़ी समस्या अब ये थी कि, शीघ्र ही उनके तबादले के समय भी निकट था। जब तक तो वे वहाँ हैं, ठीक है उनके जाने के बाद……..? ‌ आखिर उसे साथ ले जाना भी तो सम्भव नहीं था । मिसराइन परोपकार समेत मिश्रा जी को घर के बाहर का रास्ता नपवा देतीं। समय भी पंख लगाकर उड़ता चला। पिछले तीन वर्षों से तो वे उसका संरक्षण करते रहे। लेकिन अब गुड़िया के प्रति उनकी चिंता बढ़ती जा रही थी कि, इसी बीच एक अच्छी खबर ने दस्तक दी। खबर ये थी कि, मिश्रा जी का अगला तबादला ज्यादा दूर नहीं बल्कि, अगले जिले में ही था।जिसकी दूरी वहां से मुश्किल से ३० मील ही था। मिश्रा जी के खुशी का ठिकाना न था क्योंकि एक ट्रेन से आना अगली ट्रेन से जाना वे गुड़िया को अभी भी पूर्ण संरक्षण दे सकते थे। फिर भी कष्ट तो था ही। जिस दिन यहाँ से उनकी बिदायी थी उस दिन गुड़िया गुमसुम सी न कुछ खाया न पिया था। आज उसका दाँत भी नहीं दिख रहा था। शायद मिश्रा जी के जाने का एहसास था उसे।
जा चुकी ट्रेन को वो सर खुजाते घण्टों ताकती रही। क्या हुआ शायद उसे भी समझ नहीं आ रहा था। पूरे प्लेटफार्म पर इधर से उधर भटकती रही। पूरा दिन अपनी माँ को खोजते एक बच्चे की तरह वह आस लिए तकटकी लगाए रही। मिश्रा जी के सहेजने पर लोग उसे खाने को कुछ न कुछ दे देते थे। लेकिन पिछले दो दिन से उसने कुछ नहीं खाया सब वहीं पेड़ के नीचे रख कर बार- बार पटरी को दूर तलक झाँकती। थक कर फिर अपनी फटीचर गुड़िया के साथ आसरे में आकर सो जाती। दो दिन बाद मिश्रा जी का किसी कार्यवश स्टेशन आना हुआ।
उनके आने के पूर्व ही बिना किसी जानकारी के गुड़िया जोर से उछल- उछल कर ताली बजाती ठहाके लगा कर कर हँसने लगी।उसकी इस हरकत से सभी के मुख से यही निकलता- “पगलिया तो पगलिया ही है जाने कब रोए, जाने कब सोए, जाने कब हँसे……” कहते हुए बिना मुस्कुराए कोई न रहता। सबकी मुस्कुराहट आश्चर्य में तब तब्दील हो गयी जब सामने मिश्रा जी दिखे। तब सबको देर न लगी पगलिया की भवनाओं को समझते हुए।
ये कहना गलत न होगा कि, हर सप्ताहांत कोई न कोई बहाना करके मिश्रा जी आ जाते थे अपनी गुड़िया को मिलने और अपनी सामर्थ्य अनुसार उसके हित की वस्तुएँ भी लाकर उसके निवास में जमा कर देते। ऐसा करके मिश्रा जी को बड़ी सुखद अनुभूति हुआ करती थी।लगता था किसी जनम का छूटा हुआ रिश्ता मिल गया हो। लेकिन भलाई का जमाना और भले लोगों से तो दुनियां भी रिक्त है। किसी ने मिसराइन को के कान भर दिए कि, मिश्रा जी हर सप्ताहांत उस पगलिया को मिलने और उसके लिए खूब सारा सामान भी ले जाते। हैं। अब तो मिसराइन राशन पानी संग कर दीं मिश्रा जी पर चढ़ाई। अब मिश्रा जी केवल जरूरी काम के लिए ही पुराने स्टेशन जा पाते थे। लेकिन टेलीफोन द्वारा गुड़िया का हाल समाचार बराबर लेते रहते। यूँ ही समय गुजरता रहा। सभी लोग अपने – अपने खाते का लिखा जीवन व्यतीत करते रहे।
लेकिन गुड़िया अब पहले से चुपचाप रहने लगी थी। फिर से वही मैले- कुचैले कपड़ो में लिपटी पुरानी गुड़िया बन गयी थी।स्टेशन पर दिन भर बैठी रहती, तमाम यात्रियों की आवाजाही होती रहती। उनमें से कोई कुछ खाने पीने या फिर अन्य वस्तुएँ देता तब भी न लेती। केवल कर्मचारियों का उसमें भी विशेषतयः सुशीला का दिया खा पी लेती। और चुपमारकर मिश्रा जी द्वारा बनवाए गए तिरपाल के आसरे में जाकर सो जाती। एक दिन रात्रि गुड़िया की चीखती और दर्द भरी कराह सबने सुनी लेकिन कोई भी जाकर देखना उचित नहीं समझ कि, उसे हुआ क्या है? सुबह जब सुशीला आयी तो उसने रोजाना की भाँति सामने गुड़िया को न पाकर उसके आसरे में देखने गयी। बेतहाशा, निढाल पड़ी गुड़िया बदन पर वस्त्र के नाम पर हैवानियत और क्रूरता थी। किसी भी संवेदनशील प्राणी की आत्मा चीत्कार उठती उसकी दशा देखकर लेकिन उस कुकर्मी का पाषाण हृदय न पसीजा। सुशीला ने उसे सम्भालना चाहा लेकिन पहले से ही अपनी सुधि बुधी न रखने वाली गुड़िया अब अपने आसरे में ही सिमट कर रह गयी। मिश्रा जी को देखकर जो भी उसके स्वर फूटते थे अब बस वो हर रात्रि चीखों में तब्दील हो गयी थी। विडंबना तो ये थी कि, किसी को भी कोई परवाह नहीं थी उन चीखों की। होती भी क्यों भला कौन सी वो समझदार या किसी की रिश्तेदार थी। मात्र एक असहाय लड़की ही तो थी। जिसे शायद अपनी पीड़ा का कारण भी ज्ञात नहीं था। के आखिर उसकी चीख निकल ही क्यों रही है। फिर भला कोई और कैसे उसे समझता या रोकता-टोकता………..दुःखद, बेहद दुःखद…….. इधर मिश्रा जी जब भी स्टेशन पर टेलीफोन करते तो पता चलता सब ठीक है। फिर भी वे अपनी बढ़ती चिंता के कारण खुद ही उसे देखने आए गए। उसकी दशा देख स्टेशन कर्मचारियों पर बिफर पड़े। पुनः ड्यूटी पर सजग श्रीवास्तव जी से उनकी खासी बहस हो गयी।
कर्मचारियों का भी कहना था कि, यदि उन्हें इसकी इतनी ही चिंता है तो ले जावें अपने साथ।
लेकिन सत्य तो यही था कि वे चाहकर भी उसे नहीं ले जा सकते थे। मिसराइन उनकी दानवीरता के नाम पहले ही बहुत कुछ अभद्रता कर चुकी थीं। पुनः मिश्रा जी द्रवित हृदय धड़ पड़े- “अरे इतनी तो मानवता रख लेते आपलोग कि, कम से कम किसी की करुण पुकार पर तो पसीज जाते।” ” मिश्रा जी ये आपका घर नहीं स्टेशन है अच्छे बुरे हजारों लोगों को आना जाना रहता है किस किसको हम जाँचते रहें।” श्रीवास्तव जी ने अकड़ते हुए कहा। ” जांचना अलग बात है महोदय, लेकिन किसी अबोध को सरंक्षण कैसे किया जा सकता है यहां उपस्थित तकरीबन सभी ज्ञानियों को पता है। बाकी अब आप लोगो से क्या ही उम्मीद की जा सकती है।” मिश्रा जी की आवाज कान में पड़ते ही गुड़िया आज इतने दिनों बाद बाहर दिखी। मिश्रा जी को देखते ही वो बिफर कर रो पड़ी। मिश्रा जी की नम आँखों से उसके सर पर हाथ फेरते हैं। लेकिन इस बार गुड़िया बहुत कमजोर लेकिन शरीर से तन्दरुस्त लग रही थी। मिश्रा जी भी आयु का तकाजा मान नजरअंदाज कर गए। और सुशीला को बुलवाकर कुछ दिन उसकी देखभाल करने का आग्रह करते हैं। साथ अगली बार कुछ प्रबन्ध करके उसे साथ ले जाने की भी बात करते हैं। ये कहकर कि, कुछ नहीं तो यहाँ की भाँति उस स्टेशन पर तो इसकी व्यवस्था कर ही लेंगे। कम से कम मेरी नियुक्ति वाले स्टेशन पर तो ये सुरक्षित रहेगी।
मिश्रा जी के जाते ही गुड़िया अपने आसरे में चली गयी और फिर वही चुप्पी। इधर सुशीला को भी गुड़िया में पर्याप्त तब्दीली नजर आने लगी। विशेष करके उसका पेट दिनों दिन बढ़ता जा रहा था। तनते वस्त्रों की सिलाई ने आखिर सब कुछ बयाँ कर ही दिया। सुशीला की पारखी नजर भी समझते देर न करी, अबोध पर हुए कुकर्म ने अपनी हैवानियत के अंश ने पावन, पवित्र गुड़िया का गर्भ, जिसमें पाप का भार पैर पसार चुका था।
इसकी खबर सुशीला ने जल्द से जल्द मिश्रा जी को पहुँचवा दी। मिश्रा जी सुनते ही गुड़िया को देखने आते हैं। ” हे प्रभू, तनिक भी दया न आयी तुम्हें इस बच्ची पर, जो खुद का बोझ नही। उठा पा रही वो किसी और को कैसे झेल पाएगी।”
सहृदय मिश्रा जी की आँखे भर आयीं। तभी सुशीला भी आ जाती है। ” सुशील क्या इसका कोई इलाज नहीं हो सकता?” मेरा कहने का मतलब है जैसे……?” ” समझ रहे हैं मिश्रा जी पर मेरे अनुभव से दिन अधिक चढ़ चुका है अब कौनो चारा नहीं।” ” ठीक है कोई बात नहीं, मैंने अभी वहाँ कोई प्रबन्ध नहीं किया है, कुछ अलग ही उलझनों में व्यस्त था। फिर वहाँ का परिवेश भी खासा समझ नही आया। फिर भी जल्द ही कुछ करके इसे ले जाता हूँ।” ” क्या मिश्रा जी इतनी मानवता तो हममें भी है। आपके साथ इतने वर्षों कार्य किया है तनिक आपकी अच्छाईयां तो हमें भी मिलनी स्वाभाविक ही हैं।
अभी वहां आप हर समय तो रहेंगे नहीं, फिर यहाँ तो मैं भी हूँ। इस समय तो किसी जनानी की इसको सख्त जरूरत है। सो अभी इसे यहीं रहने दीजिए। फिर बाद में ले जाइएगा।” “हाँ सही कह रही हो बहन, कृपा करके इसका खयाल रखना ईश्वर तुम्हारा सदैव कल्याण करेगा।” मिश्रा जी सुशीला को कुछ धनराशि देकर वापस चले जाते हैं। सुशीला मानव व स्त्री धर्म बखूबी निभा रही थी। एक सुबह जैसे ही वह स्टेशन पर आयी गुड़िया के चीखने का स्वर उसे विचलित कर गया। भाग कर देखा तो पाया कि, चारों तरफ रक्त कण बिखरे पड़े हैं। ऐसा लग रहा था मानो गुड़िया छटपटाहट में ऊपर से नीचे पूरा रक्त स्नान कर ली हो। बड़ी तरस आ रही थी उसको देख कर, सुशीला भी प्रभु को याद करती हुई-
“का प्रभु जी न दुआ, न दारू…..कैसी लीला रचते आपौ। जाने कहाँ की सहनशीलता दे दिए हो इस पगलेट को……..” तभी सुशीला ने देखा कि गुड़िया एक कोने में बैठकर कुछ देख देखकर डरी हुई दुबकी बैठी थी। सिसकियों के साथ रोती, चिल्लाती उँगली से कुछ संकेत कर रही थी- ” गुड़िया मम्मममग्ग गी…” जब सुशीला ने दूसरे कोने में देखा तो एक सुन्दर सा नवजात सुन्न सा पड़ा हुआ था। जिसे देखकर गुड़िया डर रही थी। ये कोई और नहीं बल्कि गुड़िया की ममता व ईश्वर प्रदत्त स्त्रियों की सबसे अनुपम भेंट थी। सुशीला ने उस नवजात को उठाया और गुड़िया के करीब ले आयी,गुड़िया उसे देख डर से भाग रही थी। ज्यों ही सुशीला ने उसका हाथ नवजात के ऊपर रखा सुन्न हुआ नवजात जोर जोर से रोने लगा।
गुड़िया को भी उसे देख कर अच्छा लगा। उसने निर्छल ममता भीगे आँचल में नवजात को छुपा लिया। उस दिन से गुड़िया का एक अलग ही रूप सामने आया। ये कुदरत की अनमोल भेंट ही थी कि, जिसे स्वयं के अस्तित्व का भी एहसास नहीं वो अन्य अस्तिव को पाल पोस रही थी। सुशीला ने उसे मिश्रा जी के दिए रुपयों से उस बच्चे की आवश्यक वस्तुएँ भी लाकर दे दी। गुड़िया में न जाने इतनी समझ कैसे आ गयी वो बच्चे का इतना ध्यान रखने लगी थी कि, कोई सामान्य माँ भी न रख पाती। उसके पीछे उसने हँसना सीख लिया।
बच्चे की इतनी सुरक्षा व चिंता करती कि, उसके आसरे तक कोई जानवर या पक्षी भी फटक जाए तो छड़ी लेकर मारने के लिए दौड़ती थी। पूरा दिन बच्चे को सीने से लगाए रखती। अब तो उसे भी जीवन का एक उद्देश्य मिल गया था, जिसके सहारे ही सही खूबसूरत जीवन के रंग उसने भी देख लिए।

इस प्रकार पूरे एक महीने का समय व्यतीत हो गया। मिश्रा जी की अतिव्यस्तता अब तक यहाँ आने में बाधक बनी रही। फिर भी सुशीला से गुड़िया की कुशल समाचार पाकर आश्वस्त रहते।
एक दिन मिश्रा जी के पास सुशीला का टेलिफोन सन्देश आता है कि, गुड़िया की हालत ठीक नहीं है। वो सबको पत्थर फेंके कर मार रही है। किसी की बात भी नहीं सुन रही यहां तक कि सुशीला की भी। जिसके चलते यहाँ भी लोगों ने उसके साथ बदसलूकी की है। खबर मिलते ही मिश्रा जी गुड़िया को मिलने के लिए तैयार होने लगे। पहले से ही तमतमाई मिसराइन बरस पड़ी मिश्रा जी पर- ” अरे बौरा गए हो का मिश्रा जी। आखिर कौन सी हूर है वो पगलिया जिसका रूप सौंदर्य आपको दीवानों की भाँति खींचता रहता है।
मुखे पता नहीं क्या की आप वहाँ जाकर क्या…….. मिसराइन की बात पूरी भी न हुई कि, मिश्रा जी का हाथ उठ गया। लेकिन स्वयं को सहेजते हुए उन्होंने उसी हाथ को पास बैठी ग्यारह वर्षीय पुत्री के सर पर फेरते हुए बिना कुछ बोले घर से निकल गए। स्टेशन पहुँच कर देखा तो उनके द्वारा बनवाया गया गुड़िया का नन्हा आसरा उजाड़ दिया गया था। वो स्थान अब एकदम साफ सुथरा था। वहां कुछ भी नहीं था। आसपास कहीं भी गुड़िया का भी आता पता नहीं था। लोगो से पता चला कि वो यहाँ से कहीं और जा चुकी है।
क्योंकि, सभी को पत्थर फेंक कर मारती थी तो यात्रियों को भी खास दिक्कत होने लगी थी। जिसके चलते सबने मिलकर उसे वहाँ से भगा दिया था। साथ ही मिश्रा जी को बहु उलहनाएँ मिलती कि, उन्हीं की सर चढ़ाई पगलिया है। तभी सुशीला भी वहाँ आ गयी। उसके बाद तो बड़ी हृदयविदारक वास्तविकता सामने आयी। सुशीला ने बताया कि, उसका बच्चा महीने भर का हो गया था। अथाह स्नेह के साथ वो उसको लालन पालन कर रही थी। लेकिन बदकिस्मती की मार में यहाँ भी उसका पीछा नहीं छोड़ा। कोई निर्दयी उसके बच्चे को ही चुरा ले गया। उस दिन से उसके करीब जो भी दिखता उसे वो पत्थर व डंडे से मारती थी। जिसके बदले में लोगों ने भी उसे निर्दयता पीट दिया था। यहाँ तक कि, पीछे पेड़ से बंधा तिरपाल भी खोलकर फेंक दिया और उसे यहाँ से भगा दिया। फिर भी वो रोज उसी जगह आकर अपने बच्चे को तरसती नरज ढूँढती रहती है। तभी लोगों के मध्य हल्ला सुनायी दिया, भगाओ,, भगाओ, आ गयी, मारो……. भीड़ को चीरकर मिश्रा जी ने उत्सुकता से देखा तो पाया वो गुड़िया ही थी। जिसे लोग भगा रहे थे। वो बेहद कमजोर हो चुकी थी। इतनी मैली कुचैली कि उसे पहचानना मुश्किल हो रहा था। उसने हाथ में ईंट का आधा टुकड़ा पकड़ा हुआ था। मिश्रा जी को देखते ही उसके हाथ से ईंट का टुकड़ा नीचे गिर गया। इतने दिनों का मर्म उसकी बेबस आँखों से छलक गया।वो वहीं धड़ाम से बैठ गयी। मिश्रा जी भागकर उसके पास पहुँचते हैं। एक पिता की भाँति उसे अपनी गोद में समा लेते हैं। गुड़िया पिता का आश्रय पाते ही फफक कर रोते हुए इतना ही बोली :- ” गुड़िया मम्ममग्गग गी” मिश्रा जी उसके सर पर हाथ फेरते हुए:-” शांत हो जा गुड़िया।”
वो सच में शांत हो गयी। आँखें भी शान्त और साँसे भी…….
मिश्रा जी के आंखों से टपटप आँसू उसके चेहरे पर गिरते जिसे, अपने हाथों से पोछते हुए – “आज सच में गुड़िया मर गयी और इंसानियत भी।” उन्होंने गुड़िया को अपनी गोद मे उठा लिया और भीड़ की तरफ देखते हुए।
” आखिर इतनी निर्दयता क्यों?जो पत्थर, डंडे गुड़िया को आप सबने उपहार स्वरूप दिए हैं। काश की वही उपहार उस कुकर्मी और धरती के सबसे बड़े पापी को, उस बच्चा चोर को दिए होते तो आज एक मासूम, हर जुल्म सहकर भी यूँ निर्दयता की बलि न चढ़ती……” मिश्रा जी का दर्द उनकी आँखों से बह चला, और सभी को सम्बोधित करते हुए- “जिस किसी को भी इंसानियत की अंत्येष्टि में शामिल होना है तो उसका स्वागत है।” कहकर गुड़िया को गोद में संभालते हुए उसकी अंत्येष्टि हेतु चल पड़े…………..
समाप्त
* अंकिता सिंह “रिनी”🙏

Ravi KUMAR

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