बहुत पुरानी बात है, सुंगंधा नगरी में सुचिंतन नाम का एक राजा राज करता था । यथा नाम तथा रूप, सुंगंधा नगरी धन – धान्य तथा प्राकृतिक सोंदर्य से परिपूर्ण थी । राजा सुचिंतन भी वीर, दानी, दयालु और धर्मपरायण था । उसका यश दूर – दूर तक फैला हुआ था ।
एक दिन एक नरपिशाचिनी सुंगंधा नगरी से होकर गुजर रही थी । सुंगंधा नगरी की सुन्दरता पर मुग्ध हो उसने वही अपना घर बसाने का निश्चय किया । अब वह तरह – तरह के रूप बदल कर नगर में विचरण करने लगी । कभी बाल छद्म वेश में वह बालकों के साथ खेलती तो कभी सुंदर स्त्री के छद्म वेश में नगर की अन्य स्त्रियों के साथ पानी भरने जाती ।
उसने कुछ दिन ऐसे ही छद्म वेश और छद्मनाम नाम से नगर में अपनी पहचान बना ली । उसने अपनी मायावी ताकत से अपना घर और परिवार खड़ा कर लिया । सबका विश्वास जीत लेने के बाद उसने अपना काम करना शुरू किया ।
अब नरपिशाचिनी प्रतिदिन एक बालक का भक्षण करने लगी । धीरे – धीरे बालकों के गायब होने का समाचार जब महाराज तक पहुँचा तो उन्होंने सैनिकों की एक टुकड़ी इसकी खोजबीन करने के लिए लगा दी ।
सैनिकों ने दिनरात भाग – दौड़ करके पर्वत, नदियाँ, वन, गुफाएं और नगर सब खोज डाले, किन्तु उन्हें कहीं भी लापता बच्चों की कोई निशानी तक नहीं मिली । थकहार कर वह महाराज के समक्ष उपस्थित हुये ।
समस्या की गंभीरता को देखते हुये महाराज ने सम्पूर्ण नगर में घोषणा करवा दी कि कोई भी नगरवासी अपने बच्चों को बाहर ना निकलने दे । यह घोषणा होते ही सम्पूर्ण नगर में प्रत्येक घर के द्वार बंद रहने लगे ।
अब नरपिशाचिनी के आहार में कमी आई । वह प्रतिदिन भोजन की ताक में निकलती, किन्तु एक भी बालक उसे यहाँ – वहाँ नहीं दिखाई देता था । अब वह किसी अच्छे अवसर की तलाश में भूखी रहने लगी ।
राजा सुचिंतन ने इस भारी विपदा से निपटने के लिए नगर के सभी बुद्धिमान विद्वानों की सभा बुलाई । सबने बहुत विचार – विमर्श किया, किन्तु किसी के पास कोई कारगार योजना नहीं थी । सब चुप्पी साधे बैठे थे । अचानक एक बुढा आदमी दौड़ते हुये सभा में प्रविष्ट हुआ और महाराज से बोला – महाराज की आज्ञा हो तो मेरे पास एक योजना है !
महाराज सुचिंतन सहमति जताते हुये – “कहो, क्या योजना है ?”
बुढा आदमी बोला – महाराज ! यदि हम किसी निश्चित स्थान पर कुछ बच्चों को अकेला छोड़कर अज्ञात रूप से उनकी निगरानी करें तो वह बाल भक्षक जरुर पकड़ा जायेगा ।
महाराज को बूढ़े की बात पसंद आ गई, किन्तु कोई भी अपने बच्चों को अकेला छोड़ने को तैयार न था । अंततः महाराज ने अपनी प्रजा का हित देखते हुये स्वयं अपने बेटे राजकुमार चंचल को अकेला नगर से बाहर छोड़ने का आदेश दे दिया ।
जैसा नाम वैसे लक्षण ! राजकुमार चंचल राजमहल से निकलते ही दौड़ने लगा । जिसे देखता उसका अनुकरण करने लगता । बिचारे सैनिक भी राजकुमार का पीछा करते – करते थक गए ।
बहुत दौड़ने के कारण उनका गला प्यास से सुखा जा रहा था । अतः वे एक कुएं से पानी पिने के लिए रुक गये । राजकुमार तो पहली बार बाहर निकला था । अतः नगर की सुन्दरता को निहारते – निहारते दौड़ता चला जा रहा था ।
संयोग से सामने से नरपिशाचिनी आ रही थी । राजकुमार को अपनी ओर आता देख पिशाचिनी के मुंह में पानी आ गया । बड़े दिनों से जल रही क्षुधा की आग के शांत होने की कल्पना कर पिशाचिनी बड़ी खुश हो रही थी ।
किसी को आसपास ना देख पिशाचिनी ने राजकुमार को कुछ खिलौने दिए । राजकुमार ने और खिलौने मांगे तो पिशाचिनी ने उसे अपने साथ चलने को कहा । राजकुमार उस सुंदरी का छद्म वेश धारी पिशाचिनी के साथ चल दिए । किसी अनजान औरत के साथ राजकुमार को जाता देख सैनिकों ने उनका पीछा किया, किन्तु कुछ ही दूर जाने के बाद पिशाचिनी अपनी मायावी शक्ति से गायब हो गई ।
पिशाचिनी ने अपने घर पहुँच राजकुमार को चूल्हे के पास बिठा दिया । आग सुलगा, लकड़ियाँ डाल वह मांस पकाने का बर्तन लेने चली गई । इधर राजकुमार स्वभाव से चंचल था । उसने एक जली हुई लकड़ी उठाई और दे मारी छत पर, दूसरी जलती लकड़ी उठाई और लकड़ियों के बड़े गठ्ठर पर फेंक दी । अब तीसरी लकड़ी लेकर वह बर्तन धो रही पिशाचिनी के पीछे जा खड़ा हो गया ।
तब पिशाचिनी अपने असली रूप में बैठी थी । जैसे ही उसने राजकुमार की और देखा, डरते हुये राजकुमार ने वह जलती लकड़ी उसके सिर पर दे मारी । पिशाचिनी का सिर जलने लगा । हडबडाहट में उसने पानी का घड़ा भी फोड़ दिया । अब घर में कहीं पानी नहीं और पूरा घर जल रहा था ।
इधर सैनिकों को एक छत से धुआं उठता दिखाई दिया । सैनिक तुरंत दौड़कर वहाँ गये तो पागलों की तरह दौडती हुई एक पिशाचिनी के सामने राजकुमार चंचल को खड़ा देखा । उन्होंने तुरंत पिशाचिनी को बंदी बना लिया ।
इस तरह राजा की कर्त्तव्य परायणता और राजकुमार की चंचलता ने सम्पूर्ण प्रजा को उस पिशाचिनी के आतंक से मुक्त कर दिया ।
हर देश का राजा यदि राजा सुचिंतन की तरह कर्तव्य परायण हो जाये तो वहाँ की प्रजा कभी दुखों से पीड़ित नहीं हो सकती ।
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