नियति का फेर

सुबह उठते ही फिर वही शोर शराबा सुनाई दिया। पड़ोस के घर में हीरा अपनी ९० वर्षीय माँ को भला बुरा सुना रहा था|
”आज फिर से लघुशंका बिस्तर में इतनी ठण्ड है, कौन धोएगा, कहाँ सूखेगा तुम्हे तो कुछ करना नहीं माँ बस बैठ के तमाशा भर देखना है, हमें तो पूरा दिन खटना होता है”
हीरा बराबर बोले जा रहा था। ये भी नहीं के माँ को कम से कम सूखे में तो कर देता आखिर इसी माँ ने ही सर्द की रात में खुद गीले को अपना कर इसे सूखे बिस्तर पर सुलाया था | माँ चुपचाप बिस्तर में पड़ी सब सुने जा रही थी क्या करती और कोई विकल्प भी तो नहीं था,बस अपनी किस्मत को कोसती रहती थी |
हीरा बराबर डांट, फटकार की बौछार किये जा रहा था कि, तभी अचानक से उसकी पत्नी की उससे भी बुलंद आवाज़ आयी …
ये लो संभालो अपनी माँ को मैंने कहा था कि, रात में इन्हें खाने को रोटी मत ही दो, लेकिन तुम्हारा मातृप्रेम जाग उठता है न, लो कर दी हैं दीर्घ शंका धोती में, पूरा गंध मचा के रख दी हैं, मेरे बस का नहीं है अब ये नरक साफ़ करना, तुमने खिलाया है तुम्ही धोओगे ले जाकर |
हीरा का क्रोध था के सातवें आसमान पर चला गया अब तो जो उचित वो भी जो नहीं वो भी खूब खरी खोटी सुनायी माँ को|
जैसे ही वह माँ के पास पहुँचा सफाई के लिए, माँ टूटे फूटे शब्दों में बोलीं- बेटा मैं बहुत देर से आवाज़ लगा रही थी तुम सब सोए हुए थे , मैंने नीचे उतरने की बहुत कोशिश करी थी पर उतर नहीं पाई और बिस्तर पर ही ….. कहते हुए सुबक सुबक के किसी बच्चे की तरह रो पड़ीं।
२ वर्ष पूर्व की बात है। हीरा की माँ लकवा से ग्रसित होने के बाद चलने फिरने में असमर्थ हो गयी थी | उन्हें उठने बैठने के लिए भी किसीके सहारे की ज़रूरत पड़ती थी |अब वह पूरी तरह बहू बेटे पर ही आश्रित हो चुकी थीं| एक पोता है, श्रेयश जो बड़े शहर में ऊँचे पद पर अधीनस्थ है। ऊँचा पद और बार बार के तबादले के चलते वह घर कम ही आता, पर दादी से उसे बड़ा स्नेह है दादी की तीमारदारी और ज़रूरत की चीजें वह वक्त से पहले ही पहुँचा दिया करता है| घर का सारा खर्चा भी लगभग उसी ने सम्भाल रखा है|
पर उमर भर अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभाने वाली सावित्री जी के ये दिन काटे नहीं कट रहे थे |दिन रात प्रभु से प्रार्थना करती कि, हाथ पैर से तो हीन कर ही दिया है जैसे तैसे अब ये साँसें भी ले लेते तो उद्धार हो जाता।

एक दिन हीरा सपत्निक किसी रिश्तेदार के यहाँ माँ को इसी हालत में अकेला छोड़ कर चला गया। हीरा की पत्नी सफाई के चलते सावित्री जी की खटिया घर के बाहर टिन की छप्पर के नीचे ही लगाती थी| आज भी यही किया बस जाते वक्त उनकी सुरक्षा के हेतु एक और खटिया उनके सिराहने पर लगा दी थी ताकि कोई कुत्ता बिल्ली करीब न आए|
सावत्री जी का दुर्भाग्य कहें या इत्तेफाक ,उसी दिन अचानक रात में जोर की आँधी आयी जिसका वेग वास्तव में भयंकर था। इस आंधी ने सावित्री जी के सर की फूस से बनी छत भी उड़ा के दूर फेंक दी| जाने क्या हुआ और कैसे पता नहीं? पर सुबह वह सड़क के किनारे राहगीरों को बेहोश पड़ी मिलीं| आस पास वाले खबर लगते ही उन्हें उठाकर अपने घर ले गये| उनकी उचित तीमारदारी की | और उनके पोते को फोन करके बुलवा लिया|
पोते ने जब दादी की ये हालत देखी तो बहुत दुखी हुआ| अपने माँ पिता जी के इस कृत्य से वह बहुत ही आहत हुआ।
सावित्री जी ने जैसे ही अपने पोते को देखा उनके चेहरे पर एक सुकून सा नज़र आया, मानो उन्हें अब किसी से कोई शिकायत न थी बस सिराहने बैठे पोते की गोद में अपना सर रख लीं, और सर पर फिरते पोते के स्नेह भरे हांथों के सहारे अपनी आँखें मूँद लीं| जैसे इसी गोद का इन्तजार था उन्हें स्वयं को इस काया से मुक्ति दिलाने के लिए|
सावित्री जी नहीं रही…; ये खबर सुनके हीरा और उनकी पत्नी भागे हुए आये,और घड़ियाली आंसू बेटे के सामने निकालने लगे| पहले से ही आहत हुआ बेटा उन्हें फूटी आँख भी न देख पाया और ये बोलकर वहाँ से चले जाने के लिए कहा कि, अब उन्हें दादी को छूने तो क्या उनके लिए आंसू भी बहाने का हक नहीं है और साथ में यही उम्मीद अपने बेटे के लिए भी साथ लेते हुए जाएं|
वक्त पंख लगा के उड़ता गया किन्तु पदचिन्ह भी साथ में छोड़ता गया| अब हीरा के दिन पहाड़ जैसे कट रहे थे| हीरा टीबी रोग से ग्रसित हो चुका था। लोग उसके पास बैठना भी पसंद नहीं करते थे। यहाँ तक कि, उसकी पत्नी भी उससे सौतेला व्यवहार करने लगी।रोटी तक भी उसे दूर से फेंक कर देती थी। घर की किसी भी वस्तु को छूने न देती और यदि इत्तेफाक से छू भी गया तो वह उसे दसियों बार पानी से धोती पोंछती। साथ में झिड़कती अलग से ।
हीरा की आँखों में पश्चाताप के आँसू भर आते। वह उन दिनों को याद करता जब छोटा था तो उसे खाज हो गया था सबने माँ को हिदायत दी थी कि, सावधानी बरतें और हीरा से साफ सफाई के साथ उचित दूरी बना के रखे । पर माँ ने सबकी बातों को नजरअंदाज करते हुए हीरा को पल भर भी खुद से अलग नहीं किया बल्कि उसका मानना था कि हीरा जितना उनके करीब रहेगा उतनी ही जल्दी स्वस्थ होगा।
दादी का अंतिम संस्कार करने के बाद श्रेयस तो अपने गंतव्य को चला गया था।अपनी गृहस्थी भी अपने हिसाब से वहीं जमा ली, उसने दुबारा अपने घर मुड़कर देखने की कोशिश भी नहीं की| हाँ बस इतना ज़रूर करता कि, हर महीने अपने माँ बाप को खर्चा और आवश्यक सामग्री भर भिजवा दिया करता था, वह स्वंय कभी घर की ओर मुड़कर नहीं देखा।
किन्तु उसे जब पिता की अवस्था का भान हुआ और माँ द्वारा उचित व्यवहार न किये जाने के चलते वह हीरा को अपने पास ले आया। क्योंकि , वह उनकी तरह बेरहम और इंसानियत से हीन नहीं था। उचित इलाज और बेहतर तीमारदारी से हीरा स्वस्थ होने लगा था। बेटे और बहू ने सेवा में कोई कमी न छोड़ी । उन्होंने पिता के प्रति अपने कर्तव्यों का पूर्ण निर्वहन किया । पर आत्मग्लानि से भरा हीरा अपने ही बच्चों से नजर बचाता रहता। उसके मन मे यही खयाल आता के काश माँ एक बार आ जाती और वह स्वयं द्वारा किये कृत्यों की एक बार माफी भर माँग लेता । किंतु अब यह कत्तई सम्भव न था ।।

Ravi KUMAR

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