बिरहा अहीरों का जातीय लोकगीत है। लोकगीतों में इसका स्थान उसी तरह महत्त्वपूर्ण है, जिस तरह संस्कृत में ‘द्विपदी’, प्राकृत में ‘गाथा’ और हिन्दी में ‘बरवै’ का है। यह दो कड़ियों की रचना है। जब एक पक्ष अपनी बात कह लेता है तो दूसरा पक्ष उसी छन्द में उत्तर देता है। मात्राओं की संख्या इसमें सीमित नहीं होतीं। गाने वाले की धुनकर मात्राएँ घट-बढ़ जाती हैं।
बिरहा की उत्पत्ति के सूत्र १९वीं शताब्दी के प्रारम्भ में मिलते हैं जब ब्रिटिश शासनकाल में ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन कर महानगरों में मजदूरी करने की प्रवृत्ति बढ़ गयी थी। ऐसे श्रमिकों को रोजी-रोटी के लिए लम्बी अवधि तक अपने घर-परिवार से दूर रहना पड़ता था। दिन भर के कठोर श्रम के बाद रात्रि में अपने विरह व्यथा को मिटाने के लिए छोटे-छोटे समूह में ये लोग बिरहा का ऊँचे स्वरों में गायन किया करते थे।
कालान्तर में लोक-रंजन-गीत के रूप में बिरहा का विकास हुआ। पर्वों-त्योहारों अथवा मांगलिक अवसरों पर ‘बिरहा’ गायन की परम्परा रही है। किसी विशेष पर्व पर मन्दिर के परिसरों में ‘बिरहा दंगल’ का प्रचलन भी है।
बिरहा गायन के आज दो प्रकार सुनने को मिलते हैं। पहले प्रकार को “खड़ी बिरहा” कहा जाता है और दूसरा रूप है मंचीय बिरहा। खड़ी बिरहा में वाद्यों की संगति नहीं होती, परन्तु गायक की लय एकदम पक्की होती है। पहले मुख्य गायक तार सप्तक के स्वरों में गीत का मुखड़ा आरम्भ करता है और फिर गायक दल उसमें सम्मिलित हो जाता है।
बिरहा के दंगली स्वरुप में गायकों की दो टोलियाँ होती हैं जो बारी-बारी से बिरहा गीतों का गायन करते हैं। ऐसी प्रस्तुतियों में गायक दल परस्पर सवाल-जवाब और एक दूसरे पर कटाक्ष भी करते हैं। इस प्रकार के गायन में आशुसर्जक लोक-गीतकार को प्रमुख स्थान मिलता है।
प्रारम्भ में बिरहा श्रम-मुक्त करने वाले लोकगीत के रूप में ही प्रचलित था। बिरहा गायन के आज दो प्रकार मिलते हैं[1]-
पहले प्रकार को “खड़ी बिरहा” कहा जाता है। गायकी के इस प्रकार में वाद्यों की संगति नहीं होती, परन्तु गायक की लय एकदम पक्की होती है। पहले मुख्य गायक तार सप्तक के स्वरों में गीत का मुखड़ा आरम्भ करता है और फिर गायक दल उसमें सम्मिलित हो जाता है।
बिरहा गायन का दूसरा रूप मंचीय है।
“न बिरहा की खेती करै, भैया, न बिरहा फरै डार। बिरहा बसलै हिरदया में हो, राम, जब तुम गैले तब गाव।”
‘बिरहा’ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में भोजपुरी बिरहा की उक्त पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं। यह मुख्य रूप से प्रेम और विरह की उपयुक्त व्यंजना के लिए सार्थक लोक छन्द है। विप्रलम्भ श्रृंगार को अधिकांश बिरहा में स्थान प्राप्त है। कहते हैं, इसका जन्म भोजपुर प्रदेश में हुआ। गड़रिये, पासी, धोबी, अहीर और अन्य चरवाह जातियाँ कभी-कभी होड़ बदकर रातभर बिरहा गाती हैं।
कुछ प्रसिद्ध बिरहा गायक
आदिगुरु बिहारी यादव (बिरहा के जनक माने जाते है , गाज़ीपुर 1837), ओमप्रकाश यादव (बिरहा बादशाह) ,गणेश यादव, पत्तू यादव, रामकिशुन यादव(कुड़वां, गाजीपुर), सुरेन्द्र यादव ,छेदी, पंचम, करिया, गोगा, मोलवी, मुंशी, मिठाई लाल यादव, खटाई, खरपत्तू, लालमन, सहदेव, अक्षयबर, बरसाती, सतीश चन्द्र यादव, रामाधार, जयमंगल, पतिराम, महावीर, रामलोचन, मेवा सोनकर, मुन्नीलाल, पलकधारी, बेचन सोनकर, रामसेवक सिंह, रामदुलार, रामाधार कहार, रामजतन मास्टर, जगन्नाथ आदि। बलेसर यादव (बालेश्वर यादव) हैदरअली, उजाला यादव, रामदेव यादव, (पद्मश्री)हीरालाल यादव , काशी एवम बुल्लु , विजयलाल यादव( बिरहा सम्राट) , दिनेश लाल यादव (निरहुआ) ,बाबू राम यादव (अम्बारी,आज़मगढ़)उदयराज यादव
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