भले घर की औरतें

माननीय धुरेन्द्र जी के यहाँ बेटे के ब्याह की धूम थी। घर के भीतर हो या बाहर हर जगह जबरदस्त रौनक लगी हुई थी। इस रौनक और धुरेन्द्र जी के रुतबे में बहुगुणा वृद्धि करते हुए उनके दरवाजे पर शानदार चमचमाते मंच पर चन्द किशोरियों का नृत्य अलग ही शमा बाँधे हुए था। क्या प्रौढ़, क्या वृद्ध और क्या युवा सब के सब उन किशोरियों का नृत्य देख कर विह्वल हुए जा रहे थे। साथ ही उन पर बड़ी ही बेफिक्री से हजारों के नोट उड़ाए जा रहे थे।

इतना सब कुछ चहल पहल लेकिन क्या मजाल कि, उन नृत्यांगनाओं के अतिरिक्त कोई भी अन्य महिला वहाँ उपस्थित होती।

इतने में धुरेन्द्र जी के रिश्तेदारी में आयी हुई नववधू दरवाजे पर सजी महफ़िल से आकर्षित होकर वहीं दालान में खड़ी होकर इस रंगारंग कार्यक्रम का नजारा लेने लगी।
उसने शायद पहली बार ऐसा मंजर देखा था। उसे बड़ा अजीब लग रहा था जब अपनी बेटी से भी कम आयु की नृत्यांगना के ठुमकों पर लोग नोट उड़ा रहे थे।

तभी धुरेन्द्र जी वहाँ से गुजरते हैं और जोर से अपनी पत्नी को सम्बोधित करते हुए दहाड़ते हैं, अरे किसी ने इसे बताया नहीं क्या……? ये कोई कायदा होता है क्या भला…..? जाने किस देश से आई है कि, इसे इतना भी नहीं पता कि, ऐसे पुरुषों की सभा में ताक झाँक करना ये भले घर की औरतों को शोभा नहीं देता। औरत हैं तो मर्यादा में रहें…….

धुरेन्द्र जी लगातार दहाड़े जा रहे थे।
सहमी नववधू विचारों के प्रश्नवाचक घेरे में घिर गयी और मर्यादा के अदृश्य बन्धन में जकड़ कर स्वयं के ही प्रश्नों के जाल में कसमसाने लगी।
भला कौन सी औरत को ये सब पर्दे में रखने को आतुर है..?
आखिर जिसके नृत्य के लिए सारा पुरुष समाज पगलाया हुआ है वो भी तो एक औरत ही है…?

Ravi KUMAR

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