पहले गाँवों में कुछ बनिया फेरी करने आते थे (आज भी आते हैं पर कम मात्रा में)। कोई छोटी-मोटी खाने की चीजें बेचता था तो कोई शृंगार के सामान या धनिया-मसाला आदि। ये लोग एक दउरी (एक पात्र) में इन सामानों को रखकर गाँव-गाँव घूमकर बेंचते थे। आज तो जमाना बदल गया है और गाँवों में भी कई सारी दुकानें खुल गई हैं और अगर कोई बाहर से बेंचने भी आता है तो ठेले पर सामान लेकर या साइकिल आदि पर बर्फ, आइसक्रीम आदि लेकर।
हाँ तो यह कहानी एक ऐसे ही बनिये से संबंध रखती है जो गाँव-गाँव घूमकर मूँगफली, गुड़धनिया, मसलपट्टी आदि बेंचता था। इस बनिए का नाम रामधन था। रामधन सूनी पगडंडियों, बड़े-बड़े बगीचों आदि से होकर एक गाँव से दूसरे गाँव जाता था। रामधन रोज सुबह-सुबह मूँगफली, गुड़धनिया आदि अपने दउरी (पात्र) में रखता और किसी दूसरे गाँव में निकल जाता। एक गाँव से दूसरे गाँव होते हुए मूँगफली, गुड़धनिया बेंचते हुए वह तिजहरिया या कभी-कभी शाम को अपने गाँव वापस आता। जब वह अपनी दउरी उठाए चलता और बीच-बीच में बोला करता, “ले गुड़धनिया, ले मूंगफली। ले मसलपट्टी, दाँत में सट्टी, लइका (बच्चा) खाई सयान हो जाई, बूढ़ खाई (खाएगा) जवान हो जाई।” उसकी इतनी बात सुनते ही बच्चे अपन-अपने घर की ओर भागते हुए यह चिल्लाते थे कि मसलपट्टीवाला आया, मूंगफलीवाला आया। और इसके साथ ही वे अपने घर में घुसकर छोटी-छोटी डलिया में या फाड़ आदि में धान, गेँहूँ आदि लेकर आते थे और मूंगफली, गुड़धनिया आदि खरीदकर खाते थे।
एकदिन की बात है। गरमी का मौसम था और दोपहर का समय। लू इतनी तेज चल रही थी कि लोग अपने घरों में ही दुबके थे। इसी समय रामधन अपने सिर पर दउरी उठाए हमारे गाँव से पास के गाँव में खेतों (मेंड़) से होकर चला। कहीं-कहीं तो इन मेंड़ों के दोनों तरफ दो-दो बिगहा (बिघा) केवल गन्ने के ही खेत रहते थे और अकेले इन मेड़ों से गुजरने में बहुत डर लगता था। कमजोर दिल आदमी तो अकेले या खर-खर दुपहरिया या शाम को इन मेंड़ों से गुजरना क्या उधर जाने की सोचकर ही धोती गीली कर देता था।
हमारे गाँव से वह पास के जिस गाँव में जा रहा था उसकी दूरी लगभग 1 कोस (3 किमी) है और बीच में एक बड़ी बारी (बगीचा- इसे हमलोग आज भी बड़की बारी के नाम से पुकारते हैं) भी पड़ती थी। यह बारी इतनी घनी थी कि दोपहर में भी इसमें अंधेरा जैसा माहौल रहता था। इस बगीचे में आम के पेड़ों की अधिकता थी पर इस बारी के बीच में एक बड़ा बरगद का पेड़ भी था।
रामधन इस बगीचे में पहुँचकर अपनी दउरी को उतारकर एक पेड़ के नीचे रख दिया और सोचा कि थोड़ा सुस्ताने (आराम करने) के बाद आगे बढ़ता हूँ। वह वहीं एक पेड़ की थोड़ी ऊपर उठी जड़ को अपना तकिया बनाया और अपने गमछे को बिछा कर आराम करने लगा। उसको पता ही नहीं चला कि कब उसकी आँख लग गई (नींद आ गई)। अचानक उसे लगा कि बगीचे में कहीं बहुत तेज आँधी उठी है और डालियों आदि के टकराने से बहुत शोर हो रहा है। वह उठकर बैठ गया और डालियों की टकराहट वाली दिशा में देखा। अरे हाँ वह जहाँ सोया था वहाँ से कुछ ही दूरी पर दो पेड़ की डालियाँ बहुत तेजी से नीचे-ऊपर हो रही थीं और कभी-कभी इन डालियों के आपस में टकराहत से बहुत डरावनी आवाज भी होती थी। अगर कमजोर दिल आदमी अकेले में यह देख ले तो उसका दिल मुँह में आ जाए पर रामधान को तो यह आदत थी। वह मन ही मन सोंचा कि शायद भूत आपस में झगड़ा कर रहे हैं या कोई खेल खेल रहें हैं। वह डरनेवालों में से नहीं था वह वहीं लेटे-लेटे इन भूतों की लड़ाई का आनंद लेने लगा पर उसे कोई भूत दिखाई नहीं दे रहा था बस हवा ही उन पेड़ों के पास बहुत ही डरावनी और तीव्र बह रही थी।
रामधन के लिए भूतों की लड़ाई या खेल आम बात थी। उसे बराबर सुनसान रास्तों, झाड़ियों, घने-घने बगीचों आदि से होकर अकेले जाना पड़ता था अगर वह डरने लगे तो उसका धंधा ही चौपट हो जाए। उसका पाला बहुत बार भूत-प्रेत, चुड़ैलों आदि से पड़ा था पर किसी ने उसका कुछ नहीं बिगाड़ा था। वह अपने आप को बहुत बहादुर समझता था और इन भूत-प्रेतों को आम इंसान से ज्यादे तवज्जों नहीं देता था।
रामधन ने लेटे-लेटे ही अचानक देखा कि एक बड़ा ही भयंकर और विशालकाय प्रेत इस पेड़ से उस पेड़ पर क्रोधित होकर कूद रहा है और इसी कारण से उन दोनों पेड़ की डालियाँ बहुत वेग से चरर-मरर की आवाज करते हुए नीचे-ऊपर हो रही हैं। रामधन को और कुतुहल हुआ और अब वह और सतर्क होकर उस भूत को देखने लगा। अरे रामधन को लगा कि अभी तो यह प्रेत अकेले था अब यह दूसरा कहाँ से आ गया। अच्छा तो यह बात है. अब रामधन को सब समझ में आ गया। दरअसल बात यह थी कि यहाँ भूतों का खेल नहीं भयंकर झगड़ा चल रहा था। वह बड़ा भूत उस दूसरे भूत को पकड़ने की कोशिश कर रहा था पर कामयाब नहीं हो रहा था और इसी गुस्से में डालियों को भी तोड़-मरोड़ रहा था। अरे अब तो रामधन को और मजा आने लगा था क्योंकि भूतों की संख्या बढ़ती जा रही थी। अभी तक जो ये भूत अदृश्य थे अब एक-एक करके दृश्य होते जा रहे थे। और रामधन के लिए सबसे बड़ी बात यह थी कि आजतक उसका पाला जितने भूत-प्रेत, चुड़ैलों आदि से पड़ा था उनमें काफी समानता थी पर आज जो भूत-प्रेत एक-एक कर प्रकट हो रहे थे उनमें काफी असमानता थी। वे एक से बढ़कर एक विकराल थे। किसी-किसी की सूरत तो बहुत ही डरावनी थी। रामधन को एक ऐसी भूतनी भी दिखी जिसके दो सिर और तीन पैर थे। उसके नाक नहीं थे और उसकी आँख भी एक ही थी और वह भी मुँह के नीचे।
रामधन अब उठकर बैठ चुका था और अब भूतों के लड़ने की प्रक्रिया भी बहुत तेज हो चुकी थी। भूत एक दूसरे के जान के प्यासे हो गए थे। इन भूतों की लड़ाई में कई डालियाँ भी टूट चुकी थीं और उस बगीचे में बवंडर उठ गया था। अंत में रामधन ने देखा कि एक विकराल बड़े भूत ने एक कमजोर भूत को पकड़ लिया है और बेतहासा उसे मारे जा रहा है। अब धीरे-धीरे करके भूत अदृश्य भी होते जा रहे थे। अब वहाँ वही केवल तीन टांगवाली भूतनी ही बची थी और वह भयंकर विकराल भूत।
अब रामधन भी उठा क्योंकि इन भूतों की लड़ाई में लगभग उसके 1 घंटे निकल चुके थे। रामधन ने ज्यों ही अपनी दउरी उठाना चाहा वह उठ ही नहीं रही थी। रामधन को लगा कि अचानक यह दउरी इतनी भारी क्यों हो गई? उसने दुबारा कोशिश की और फिर तिबारा पर दउरी उठी नहीं, वह पसीने से पूरा नहा गया और किसी अनिष्ठ की आशंका से काँप गया। उसने मन ही मन हनुमान जी नाम लिया पर आज उसे क्या हो गया। वह समझ नहीं पा रहा था। आजतक तो वह कभी डरा नहीं था पर आज उसे डर सताने लगा। उसके पूरे शरीर में एक कंपकंपी-सी उठ रही थी और उसके सारे रोएँ तीर-जैसे एकदम खड़े हो गए थे।
अचानक उसे उस बगीचे में किसी के चलने की आवाज सुनाई दी। ऐसा लग रहा था कि कोई मदमस्त हाथी की चाल से उसके तरफ बढ़ रहा है। रामधन को कुछ दिख तो नहीं रहा था पर ऐसा लग रहा था कि कोई उसकी ओर बढ़ रहा है। उसके पैरों के नीचे आकर सूखी पत्तियाँ चरर-मरर कर रही थीं। अब रामधन ने थोड़ा हिम्मत से काम लिया और भागना उचित नहीं समझा। उसने मन ही मन सोचा कि आज जो कुछ भी हो जाए पर वह यहाँ से भागेगा नहीं। अचानक उस दैत्याकार अदृश्य प्राणी के चलने की आवाज थम गई। अब रामधन थोड़ा और हिम्मत करके चिल्लाया, “कौन है? कौन है? जो कोई भी है…सामने क्यों नहीं आता है?”
अब सब कुछ स्पष्ट था क्योंकि एक विकराल भूत (शायद यह वही था जो दूसरे भूत को मार रहा था) रामधन के पास दृश्य हुआ पर एकदम शांत भाव से। अब वह गुस्से में नहीं लग रहा था। रामधन ने थूक घोंटकर कहा, “कौन हो तुम और क्या चाहते हो? क्यों……मुझे…..परेशाना कर रहे हो…..मैं डरता नहींsssssssss।” वह विकराल भूत बोला, “डरो मत! मैं तुम्हें डराने भी नहीं आया हूँ। मैं यहां का राजा हूँ राजा और मेरे रहते किसी के डरने की आवश्यकता नहीं। अगर कोई डराने की कोशिश करेगा तो वही हस्र करूँगा जो उस कलमुनिया भूत का किया।” अब रामधन का डर थोड़ा कम हुआ और उसने उस भूत से पूछ बैठा, “क्या किया था उस कलमुनिया भूत ने?” वह विकराल भूत हँसा और कहा, “वह कलमुनिया काफी दिनों से इस ललमुनिया (तीनटंगरी) को सता रहा था। मैंने उसे कई बार चेतावनी दी पर समझा ही नहीं और हद तो आज तब हो गई जब उसने कुछ भूत-प्रेतों को एकत्र करके मुझपर हमला कर दिया। सबको मारा मैंने और दौड़ा-दौड़कर मारा।”
रामधन ने अपनी जान बचाने के लिए उस भूत की चमचागीरी में उसकी बहुत प्रशंसा की और बोला, “तो क्या अब मैं जाऊँ?” “हाँ जाओ, पर जाते-जाते कुछ तो खिला दो, बहुत भूख लगी है और थक भी गया हूँ।”, उस विकराल भूत ने कहा। रामधन ने उस भूत से अपना पीछा छुड़ाने के लिए थोड़ा गुड़धनिया निकालकर उसे दे दिया। गुड़धनिया खाते ही वह भूत रामधन से विनीत भाव में बोला कि थोड़ा और दो ना, बहुत ही अच्छा है। मैं भी बचपन में बहुत गुड़धनिया खाता था। रामधन ने कहा कि नहीं-नहीं, अब नहीं मिलेगा, सब तूँ ही खा जाओगे तो मैं बेचूंगा क्या? भूत ने कहा कि बोलो कितना हुआ, मैं ही खरीद लेता हूँ। रामधन को अब थोड़ी लालच आ गई क्योंकि उसने सुन रखा था कि इन भूत-प्रेतों के पास अपार संपत्ति होती है अगर किसी पर प्रसन्न हो गए तो मालामाल कर देते हैं।
अब रामधन ने दउरी में से थोड़ा और गुड़धनिया निकालकर उस भूत की ओर बढ़ाते हुए बोला कि अब पैसा दो तो यह दउरी का पूरा सामान तूझे दे दूँगा। भूत ने उसके हाथ से गुड़धनिया ले लिया और खाते-खाते बोला कि मेरे पीछे-पीछे आओ। अब तो रामधन एकदम निडर होकर अपनी दउरी को उठाया और उस भूत के पीछे-पीछे चल दिया। वह भूत रामधन को लेकर उस बगीचे में एकदम उत्तर की ओर पहुँचा। यह उस बगीचे का एकदम उत्तरी छोर था। इस उत्तरी छोर पर एक जगह एक थोड़ा उठा हुआ टिला था और वहीं पास में मूँज आदि और एक छोटा नीम का पेड़ था। उस नीम के थोड़ा आगे एक छोटा-सा पलास का पेड़ा था।
उस विकराल भूत ने रामधन से कहा कि इस पलास के पेड़ के नीचे खोदो। रामधन ने कहा कि मेरे पास कुछ खोदने के लिए तो है ही नहीं। तुम्हीं खोदो। रामधन की बात सुनकर वह भूत आगे बढ़ा और देखते ही देखते वह और विकराल हो गया। उसके नख खुर्पो की तरह बड़े हो गए थे और इन्हीं नखों से वह उस पलास के पेड़ के नीचे लगा खोदने। खोदने का काम ज्यों ही खतम हुआ त्योंही रामधन ने उस गड्ढे में झाँककर देखा। उसे उस गड्ढे में एक बटुला दिखाई दिया। अब तो वह बिना कुछ सोचे-समझे उस गड्ढे में प्रवेश करके उस बटुले को बाहर निकाला। बटुला बहुत भारी था। उसने बटुले के मुख पर से ज्योंकि ढक्कन हटाया उसकी आँखें खुली की खुली रह गईं क्योंकि बटुले में पुराने चाँदी के सिक्के थे। वह बहुत प्रसन्न हुआ और अपने दउरी में का सारा सामान वहीं गिरा दिया और भूत को बोला कि सब खा जाओ। भूत खाने पर टूट पड़ा और इधर रामधन ने उस बटुले का सारा माल अपने दउरी में रखा और उसे ढँककर तेजी से अपने गाँव की ओर चल पड़ा।
गाँव में पहुँचने के एक ही हप्ते बाद ऐसा लगा कि रामधन की लाटरी लग गई हो। उसने अपने मढ़ई के स्थान पर लिंटर बनवाना शुरू किया और धीरे-धीरे करके मूँगफली और गुड़धनिया बेंचने का धंधा बंद कर दिया।
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