वह लोक कथाएँ

Vidhvansh

Vidhvansh

विक्रमाजीत नाम के एक राजा थे। वह बड़े न्यायी थे। उनके न्याय की प्रशंसा दूर-दूर तक फैली थी। एक बार देवताओं के राजा इंद्र ने विक्रमाीत की परीक्षा लेनी चाही, क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं ऐसा न हो कि अपनी न्यायप्रियता के कारण राजा विक्रमाजीत उनका पद छीन लें। इसके लिए उनहोंने आदमी के तीन कटे हुए सिर भेजकर कहला भेजा कि यदि राजा इनका मूल्य बतला सकेंगे तो उनके राज में सब जगह सोने की वर्षा होगी। यदि न बता सके तो गाज गिरेगी ओर राज्य में आदमियों का भयंकर संहार होगा। राजा ने दरबार में तीनों सिर रखते हुए सारे दरबारी पंडितों से कहा, “आप लोग इन सिरों का मूल्य बतलाइये।” पर कोई भी उनका मूल्य न बतला सका, क्योंकि तीनों सिर देखने में एक समान थे और एक ही आदमी के जान पड़ते थे। उनमें राई बराबर भी फर्क न था। सारे सभासद् मौन थे। राज-दरबार में सन्नाटा छाया हुआ था, सब एक-दूसरे का मुंह ताक रहे थे। पंडितों का यह हाल देखकर राजा चिंतित हुए। उन्होंने पुरोहित को बुलाकर कहा, “तुम्हें तीन दिन की छुटटी दी जाती है। जो तुम इन तीन दिनों में इनका मूल्य बता सकोगे तो मुंहमांगा पुरस्कार दिया जायगा, नहीं तो फांसी पर लटका दिये जाओगे।”

दो दिन तक पुरोहितजी ने बहुत सोचा, परंतु वह किसी भी फैसले पर न पहुंच। तब तीसरा दिन शुरु हुआ, तो वह बहुत व्याकुल हो उठे। खाना-पीना सब भूल गये। चिंता के मारे चद्दरओढ़कर लेटे रहे। पंडिताइन से न रहा गया। वह उनके पास गई और चद्दर खींचकर कहने लगी, “आप आज यों कैसे पड़े हैं ? चलिये, उठिये, नहाइये, खाइये।”पंडित ने उन तीनों सिरो का सब किस्सा पंडिताइन को कह सुनाया। सुनते ही पंडिताइन होश-हवास भूल गई, बड़े भारी संकट में पड़ गयी। मन में कहने लगी-हे भगवान, अब मैं क्या करूं ? कहां जाऊं ? कुछ भी समझ में नहीं आता। उसने सोचा कि कल तो पंडित को फांसी हो ही जायगी, तो मैं पहले ही क्यों न प्राण त्याग दूं? पंडित की मौत अपनी आंखों से देखने से तो अच्छा है। यह सोचकर मरने की ठान आधी रात के समय पंडिताइन शहर से बाहर तालाब की ओर चली।

इधर पार्वती ने भगवान शंकर से कहा कि एक सती के ऊपर संकट आ पड़ा है, कुछ करना चाहिए।

शंकर भगवानने कहा, “यह संसार है। यहां पर यह सब होता ही रहता है। तुम किस-किसकी चिंता करोगी ?” पर पार्वती ने एक न मानी। कहा, “नहीं, कोई-न-कोई उपाय तो करना ही होगा।” शंकर भगवान् ने कहा, “अगर तुम नहीं मानती हो तो चलो।” दोनों सियार और सियारिन का भेष बनाकर तालाब की मेड़ पर पहुंचे, जहां पंडिताइन तालाब में डूबकर मरने को आई थी। पंडिताइन जब तालाब की मेड़ के पास पहुंची तो उसने सुना कि एक सियार पागल की तरह जोर-जोर से हंस रहा है। कभी वह हंसता है और कभी “हूके-हुके, हुवा-हुआ” करता है। सियार की यह दशा देखकर सियारिन ने पूछा, “आज तुम पागल हो गये हो क्या? क्यों बेमतलब इस तरह हंस रहे हो ?” सियार बालो, “अरे, तू नहीं जानती। अब खूब खाने को मिलेगा, ,खूब खायेंगे और मोटे-ताजे हो जायेंगे।” सियारिन ने कहा, “कैसी बातें करते हो? कुछ समझ में नहीं आती; जो कुछ समझूं तो विश्वास करूं।” सियार ने कहा, “राजा इन्द्र ने राजा विक्रमाजीत के यहां तीन सिर भेजे हैं और यह शर्त रखी है जो राजा उनका मोल बता सकेगा तो राज्य भर में सोना बरसेगा; जो न बता सकेगा तो गाजें गिरेंगी। तो सुनो, सिरों का मूल्य तो कोई बता न सकेगा कि सोना बरसेगा। अब राज्य में हर जगह गाज ही गिरेगी। खूब आदमी मरेंगे। हम खूब खायेंगे और मोटे होंगे।” इतना कहकर सियार फिर “हुके-हुके, हुवा-हुआ” कहकर हंसने लगा। सियाररिन ने पूछा, “क्या तुम इन सिरों का मूल्य जानते हो ? ” सियार बोला, “जानता तो हूं, किंतु बतलाऊंगा नहीं, क्योंकि यद ि किसी ने सुन लिया तो सारा खेल ही बिगड़ जायगा।” सियारिन बोली, “तब तो तुम कुछ नहीं जानते, व्यर्थ ही डींग मारते हो। यहां आधी रात कौन बैठा है, जो तुम्हारी बात सुन लेगा और भेद खुल जायगा!” सियार को ताव आ गया। वह बोला, “तू तो मरा विश्वास ही नहीं करती ! अच्छा तो सुन, तीनों सिरों का मूल्य मैं बतलाता हूं। तीनों सिरों में एक सिर ऐसा है कि यदि सोने की सलाई लेकर उसके कान में से डालें और चारों ओर हिलाने-डुलाने से सलाई मुंह से न निकले तो उसका मूल्य अमूल्य है। दूसरे सिर में सलाई डालकर चारों ओर हिलाने-डुलाने से यदि मुंह से निकल जाय तो उसका मूल्य दस हजार रुपया है। तीसरा सिर लेकर उसके कान से सलाई डालने पर यदि वह मुंह, नाक, आंख सब जगह से पार हो जाय तो उसका मूल्य है, दो कौड़ी।” पंडिताइन यह सब सुन रही थी। चुपचाप दबे पांच घर की ओर चल पड़ी।

पंडिताइन खुशी-खुशी घर पहुंची। पंडित अब भी मंह पर चादर डाले पहले के समान चिंता में डूब पड़े थे। पंडिताइन ने चादर उठाई और कहा, “पड़े-पड़े क्या करते हो? चलो उठो, नहाओ-खाओ। क्यों व्यर्थ चिंता करते हो ! मैं बतमाऊंगी उन सिरों का मूल्य।”

सवेरा होते-होते पंडित उठे तो देखा, दरवाजे पर राजा का सिपाही खड़ा है। पंडित ने ठाठ के साथ सिपाही को फटकारते हुए कहा, “सवेरा नहीं होने पाया और बुलाने आ गये ! जाओ, राजा साहब से कह देना कि नहा लें, पूजा-पाठ कर लें, खा-पी-लें, तब आयंगे।” सिपाही चला गया। पंडित आराम से नहाये-धोये, पूरा-पाठ और भोजन किया, फिर पंडिताइन से भेद पूछकर राज-दरबार कीओर चले। पंडित ने पहुंचते ही कहा, “राजन, मंगवाइये वे तीनों सिर कहां हैं ?”

राजा ने तीनों सिर मंगवा दिये। पंडित ने उन्हे चारों ओर इधर-उधर उलट-पलटकर देखा और कहा, “एक सोने की सलाई मंगवा दीजिये।” सलाई मंगवायी गई। पंडित ने एक सिर को उठाकर उसके कान में सलाई डाली। चारों ओर हिलाई-धुलाई, पर वहकहीं से न निकली। पंडित कहने लगा, “यह आदमी बड़ा गंभीर है, इसका भेद नहीं मिलता। देखिये महाराज, इसका मूल्य अमूल्य है।” फिर दूसरा उठाकर उसके कान में सलाई डाली। हिलाई-डुलाई तो सलाई उसके मुंह से निकल आई। वह कहने लगा, “आदमी कानका कुछ कच्चा है, जो कान से सुनता है, वह मुंह से कह डालता है। लिखिये, महाराज, इसका मूल्य दस हजार रूपया।” पंडित ने तीसरा सिर उठाया, उसके कान से सलाई डालते ही उसके मुंह, नाक, आंख सभी जगह से पार हो गई।

उसने मुंह बनाकर कहा, “अरे, यह आदमी किसी काम का नहीं। यह कोई भेद नहीं छिपा सकता। लिखिये, महाराज, इकस मूल्य दो कौड़ी। ऐसे कान के कच्चे तथा चुगलखोर आदमी का मूल्य दो कौड़ी भी बहुत है।”

पंडित का उत्तर सुनकर राजा प्रसन्न हुआ। उसने पंडित को बहुत-सा धन, हीरा-जवाहारात देकर विदा किया।

इधर राजा ने तीनों सिरों का मूल्य लिखकर राजा इन्द्र के दरबार में भिजवा दिया। इंद्र प्रसन्न हुए। सारे राज्य में सोना बरसा। प्रजा खुशहाल हो गयी।

गढ़वाल की लोककथा

फयूंली / गोविन्द चातक

पहाड़ की चोटी पर, खेतों की मेड़ों पर, एक पीला फूल होता है। लोग उसे ‘फयूंली’ कहते हैं।

कहीं एक घना जंगल था। उस जंगल में एक ताल था और उस ताल के पास नरी-जैसी एक वन-कन्या रहती थी। उसका नाम था फयूंली।

कोसों तक वहां आदमी का नाम न था। वह अकेली थी, बस उसके पास वनके जीव-जन्तु और पक्षी रहते थे। वे उसके भाई-बहन थे-बस प्यार से पाले-पोसे हुए। यही उसका कुटुम्ब था। वह उन सबकी अपनी-जैसी थी। हिरनी उसके गीतों में अपने को भूल जाती थी। फूल उसे घेरकर हंसते थे, हरी-भरी दूब उसके पैरों के नीचे बिछ जाती और भोर के पंछी उसे जगाने को चहचहा उठते थे। वहउनसबकी प्यारी थी।

वह बहुत खुश थी। सुन्दर भी थी। उसके चेहरे पर चांद उतर आया था। उसके गालों में गुलाब खिले थे। उसके बालों पर घटाएं घिरी थीं। ताल के पानी की तरह उसकी जवानी भरती जा रही थी। उस रूप को न किसी ने आंखों से देखा था, न हाथों से छुआ था।

उस धरती पर कभी आदमी की काली छाया न पड़ी थी। पाप के हाथों ने कभी फूलों की पवित्रता को मैला न किया था। इसीलिए जिन्दगी में कहीं लोभ न था, शोक न था। सब ओर शांति और पवित्रता थी। फयूंली निडर होरक वनों में घूमती, कुंजों में पेड़ों के नये पत्ते बिछाकर लेटती, लेटकर पंछियों के सुर में अपना सुर मिलाती, फिर फूलों की माला बनाती और नदियों की कल-कल के साथ नाचने लगती। थी तो अकेली, पर उसकी जिन्दगी अकेली न थी।

एक दिन वह यों ही बैठी थी। पास ही झरझर करता एक पहाड़ी झरना बह रहा था वहां एक बड़े पत्थर का सहारा लिए वह जलमें पैर डाले एक हिरन के बच्चे को दुलार रही थी। आंखें पानी की उठती तरंगों पर लगी थीं, पर मन न जाने किस मनसूबे पर चांदनी-सा मुस्करा रहा था। तभी किसी के आने की आहट हुई। हिरनका बच्चा डर से चौंका। फयूली नेमुड़कर देखा तो एक राजकुमार खड़ा था। कमलके फल जैसा कोमल और हिमालय की बरफ जैसा गोरा। फयूंली ने आज तक किसी आदमी को नहीं देखा था। उसे देखकर वह चांद-सी शरमा गई, फूल-सी कुम्हला गई। राजकुमार प्यासा था। मन उसका पानी में था, पर फयूली को देखते ही वह पानी पीला भूल गया। फयूंली अलग सरक गयी। राजकुमार ने अंजुलि बनायी और पानी पीने लगा। पानी पिया तो फयूंली ने राजकुमार से पूछा, “शिकार करने आये हो ?”

राजकुमार ने कहा, “हां।”

फयूंली बोली, “तो आप चले जाइये। यह मेरा आश्रम है। यहां सब जीव-जन्तु मेरे भाई-बहन हैं। यहां कोई किसी को नहीं मारता। सब एक-दूसरे को प्यार से गले लगाते हैं।”

राजकुमार हंसा। बोला, “मैं भी नहीं मारूंगा। यहां खेल-खेल में चला आया था। खैर, न शिकार मिला, न अब शिकार करने की इच्छा है। इतनी दूर भटक गया हूं कि…..”

इतना कहकर राजकुमार चुप हो गया। फिर कुछ समय के लिए कोई कोई किसी से नहीं बोला। फयूंली ने आंखों की कोर से उसे फिर एक बार देखा। वह सोच न पाई कि आगे उससे क्या कहे, क्या पूछे, पर न जाने वह क्यों उसे अच्छा लगा।

यों ही उसके मुख से निकल पड़ा, “आप थके हैं। आराम कर लीजिये।”

राजकुमार एक पत्थर के ऊपर बैठ गया। संध्या हाने लगी थी। आसमान लाल हुआ। वन में लौटते हुए पश-पक्षियों का कोलाहल गूंज उठा। देखते-ही-देखते फयूली के सामने कंद-मूल और जंगली फलों का ढेर लग गया। यह रोज की ही बात थी। रोज ही तो वन के पशु-पक्षी-उसके वे भाई-बहन-उसके लिए फल-फूल लेकर आते थे। वह उन सबकी रानी जो थी।

राजकुमार ने यह देखा तो बाला, “वनदेवी, तुम धन्य हो! कितना सुख है यहां ! कितना अपनापन है ! काश, मैं यहां रह पाता !”

फयूंली ने टोका, “बड़ों के मुंह से छोटी बातें शोभा नहीं देतीं। तुम यहां रहकर क्या करोगे ? राजकुमार को वनों से कया लेना-देना। उन्हें तो अपनेमहल चाहिए, बड़े-बड़े शहर चाहिए, जहां उन्हें राज करना होता है।”

राजकुमारने कहा, “जंगल में ही मंगल है, तुम भी तो राज ही कर रही हो यहां।”

फयूंली मुस्करा उठी। बोली, “नहीं।”

अंधेरा हो चुका था। फयूंली ने राजकुमार का फूलों से अभिनन्दन किया ओर फिर वह अपनी गुफा में चली गई। राजकुमार भी पेड़ के नीचे लेट गया।

सांझ का अस्त होता सूरज फिर सुबह को पहाड़ की चोटी पर आ झांका। राजकुमार जागा तो उसे घर का ख्याल आया। वह उदास हा उठा। फयूंली उसके प्राणों में खिलनेको आकुल हो उठी। अब उसका जाने का जी नहीं कर रहा था। सुबह कलेवा लेकर फयूंली आई तो राजकुमार मन की बात न रोक सका, बाला, “एक बात कहना चाहता हूं। सुनोगी ?”

फयूंली ने पूछा, “क्या ?”

राजकुमार कुछ झिझका, पर हिम्मत करके बोला, “मेरे साथ चलोगी ? मैं तुम्हें राजरानी बनाकर पूजूंगा।”

फयूंली ने कहा, “नहीं, रानी बनकर मैं क्या करूंगी।”

राजकुमार ने कहा, “मैं तुम्हें प्यार करता हूं। तुम्हारे बिना जी नहीं कसता।”

फयूंली ने जवाब दिया, “पर वहां यह वन, ये पेड़, ये फूल, ये नदियां और ये पक्षी नहीं होंगे।”

राजकुमार ने कहा, “वहां इससे भी अच्छी-अच्छी चीजें हैं। मेरे राजमहल में हर तरह से सुख से रहोगी। यहां वन में क्या रखा है !”

फयूंली ने कहा, “आदमी ने अपने लिए एक बनावटी जिन्दगी बना रखी है। उसे मैं सुख नहीं मानती।”

राजकुमार इसका क्या जवाब देता ! फयूंली ने सोचा-इतनी सुंदरता, इतना प्यार, सचमुच मुझे आदमियों के बीच कहां मिलेगा ? आदमी एक-दूसरे को सुखी बनाने के लिए संगठित जरूर हुआ है, पर वही सहंगठन उसके दु:खों का कारण भी है। आज मैं अकेली हूं, पर मेरे दिल में डाह नहीं है, कसक नहीं है। पर वहां? वहां इतना खुलापन कहां होगा।

पर उसके भीतर बैठा कोई उससे कुछ और भीकह रहा था। आखिर नारी को सुहाग भी तो चाहिए। यौवन में लालसा हाती ही है।

वह एकदम कांप उठी; पर अंत में उसकी भावना उसे राजकुमार के साथ खींच ले ही गई।उसने राजकुमार की बात मान ली।

फिर क्या था ! वे दोनों उसी दिन चल पड़े। पशु-पक्षी आये। सबने उन्हें विदा दी। उनकी आंखों में आंसू थे।

राजकुमार उसे लेकर अपने राज्य में पहुंचा। दानों बेहद खुश थे। वह अब रानी थी। राजकुमार उसे प्रणों से ज्यादा प्यार करता था। वहां वन से भी ज्यादा सुख था। राजमहल में भला किस बात की कमी हो सकती थी ! खाने के लिए तरह-तरह के भोजन थे, सेवा के लिए दासियां ओर दिल बहलाने कि लिए नर्तकियां। यही नहीं, दिखाने के लिए ऐश्वर्य और जताने के लिए अधिकार था।

दिन बीतते गये। सुबह का सूरज शाम को ढलता रहा। कई दिनों तक उसके भाई-बहन उसे याद करते रहे। पर वही तो गई थी, बाकी जो जहां था, वहीं था। कुछ दिन बाद पंछी पहले की तरह बोलने लगे, फूल फूलने लगे।

पर एक दिन फयूंली को लगा, जैसे उसके जीवन की उमंग खो गई हो।

राजमहल में हीरे ओर मोतियों की चमक जरूर थी, पर न फूलों का-सा भोलापन ,था और न पंछियों की-सी पवित्रता थी। अब राजमहलकी दीवारें जैसे उसकी सांस घोटे दे रही थीं।उसे लगता, जैसे वह वनउसे पुकार रहा है। अब उसके पास उसके भाई-बहन कहां थे? आदमी थे, डाह थी, लोभ था, लालच था। पर वह तो निर्मल प्यार की भूखी थी।

फिर उस जीवन में उसके लिए कोई रस न रहा। वह उदास रहने लगी। उसे एकांत अच्छा लगने लगा। राजकुमार नेउसे खुश करने की लाख कोशिशें कीं, पर उसका कुम्हलाया मन हरा न हो सका। कुछ दिन में उसकी तबीयत खराब हो गई और वह बिस्तर पर जा पड़ी।

थोड़ी ही दिनों में उसका चमकता चेहरा पीला पड़ गया। वह मुरझा गई। किसी पौधे को एक जगह से उखाड़कर दूसरी जगह लगा देने की कोशिश बेकार गई। उसके जीने की अब कोई आशा न रही।

एक दिन उसने राजकुमार से कहा, “मैं अब नहीं जीऊंगी। मेरी एक आखिरी चाह है। पूरी करोगे?”

राजकुमार ने कहा, “जरूर।”

फयूंली ने लम्बी सांस लेते हुए कहा, “कभी अगर शिकार को जाओ तो मेरे वन के उन भाई-बहनों को मत मारना और जब मैं मर जाऊं तो मुझे पहाड़ की उसी चोटी पर गाड़ देना, जहां वे रहते हैं।”

इसके बाद, उसके प्राण पखेरू उड़ गये।

राजकुमार ने उसे उसी पहाड़ की चोटी पर गाड़कर उसकी आखिरी इच्छा पूरी की। वन के पशु-पक्षियों ने-उसके उन भाई-बहनों ने-सुना तो बड़े दु:खी हुए। हवा ने सिसकी भरी, फल गिर गये और लताएं कुम्हला उठीं। राजकुमार मन मसोसकर रह गया।

आदमी ही मरते हैं। धरती सदा अमर है। एक ओर पेड़ सूखता है, दूसरी ओर अंकुर फूटते हैं। इसी का नाम जिन्दगी है। कुछ दिन बाद फिर प्राणों की एक सिसकी सुनाई दी। पहाड़ की चोटी पर, जहां फयूंली गाड़ दी गई थी, वहां पर एक पौधा और उस पर एक सुन्दर-सा फूल उग आया और लोग उसे फयूंली कहने लगे।

ब्रज की लोककथाएं

चतुरी चमार / यशपाल जैन

किसी गांव में एक चमार रहता था। वह बड़ा ही चतुर था। इसीलिए सब उसे ‘चतुरी चमार’ कहा करते थे। घर में वह और उसकी स्त्री थी। उनकी गुजर-बसर जैसे-तैसे होती थी, इससे वे लोग हैरान रहते थे। एक दिन चतुरी ने सोचा कि गांव में रहकर तो उनकी हालत सुधरने से रही, तब क्यों न वह कुछ दिन के लिए शहर चला जाय और वहां से थोड़ी कमाई कर लाय ? स्त्री से सलाह की तो उसने भी जाने कीह अनुमति दे दी। वह शहर पहंच गया।

मेहनती तो वह था ही। सूझबूझ भी उसमें खूब थी। कुछ ही दिनों में उसने सौ रुपये कमा लिये। इसके बाद वह गांव को रवाना हो गया। रास्ते में घना जंगल पड़ता था। जंगल में डाकू रहते थे। चतुरी ने मन-ही-मन कहा कि वह रुपये ले जायगा तो डाकू छीन लेंगे। उसने उपाय खोजा। एक घोड़ी खरीदी ओर कुछ रुपये उसकी पूंछ में बांधकर चल दिया। देखते-देखते डाकुओं ने उसे घेरा। बोले, “बड़ी कमाई करके लाया है चतुरिया। ला, निकाल रुपये।”

चतुरी ने कहा, “रुपये मेरे पास कहां ैं, जो थे उससे यह घोड़ी खरीद लाया हूं। इस घोड़ी की बड़ी करामात है। मुझे यह रोज पचास रुपये देती है।” इतना कहकर उसने मारा पूंछ में डंडा कि खन-खन करके पचास रुपये निकल पड़े।

डछाकुओं का सरदार बोला, “सुन भाई, यह घोड़ी तुमने कितने में खरीदी है?” चतुरी ने कहा, “क्यों ? उससे तुम्हें क्या ?”

वह बोला, “हमें रुपये नहीं चाहिए। यह घोड़ी दे दो।”

“नहीं,” चतुरी ने गम्भीरता से कहा, “मैं ऐसा नहीं कर सकता, मेरी रोजी की आमदनी बंद हो जायेगी।”

सरदार बोला, “ये ले, घोड़ी के लिए सौ रुपये।”

चतुरी ने और आग्रह करना ठीक नहीं समझा। रुपये लेकर घोड़ी उन्हें दे दी और गांव की ओर चल पड़ा। घर आकर सारा किस्सा अपनी स्त्री को सुना दिया। उसने कहा, “हो-न-हो, दो-चार दिन में डाकू यहां आये बिना नहीं रहेंगे। हमें तैयार रहना चाहिए।”

अगले दिन वह खरगोश के दो एक-से बच्चे ले आया। एक उसने स्त्री को दिया। बोला, “मैं रात को बाहर की कोठरी में बैठ जाया करूंगा। जैसे ही डाकू आयें, इस खरगोश के बच्चे को यह कहकर छोड़ देना कि जा, चतुरी को लिवा ला। आगे मैं संभाल लूंगा।”

डाकुओं का सरदार घोड़ी को लेकर अपने घर गया और रात को आंगन में खड़ा करके पूंछ मे डंडा मारा और बोला, “ला, रुपये।” रुपये कहां से आते? उसने कस-कसकर कई डंडे पहले तो पूंछ में मारे, फिर कमर में। घोड़ी ने लीद कर दी, पर रुपये नहीं दिये। सरदार समझ गया कि चतुरी ने बदमाशी की है, पर उसने अपने साथियों से कुछ भी नहीं कहा। घोड़ी दूसरे के यहां गई, तीसारे के यहां गई, उसकी खूब मरम्मत हुई, पर रपये बेचारी कहां से देती? चतुरी ने उन्हें मूर्ख बना दिया, ेकिन इस बात को अपने साथी से कहे तो कैसे? उसकीं हंसाई जो होगी। आखिर पांचवें डाकू के यहां जाकर घोड़ी ने दम तोड़ दिया। तब भेद खुला।

फिर सारे डाकू मिलकर एक रात को चतुरी के घर पहुंच गये। दरवाजा खटखआया। चतुरी की घरवाली नेखोल दिया। सरदार ने पूछा, “कहां है चतुरी का बच्चा?”

स्त्री बोली, “वह खेत पर गये हैं। आप लोग बैठें। मैं अभी बुला देती हूं।”

इतना कहकर उसने खरगोश के बच्चे को हाथ में लेकर दरवाजे के बाहर छोड़ दिया और बोली, “जा रे चतुरी को फौरन लिवा ला।”

क्षण भर बाद ही डाकुओं ने देखा कि चतुरी खरगोश के बच्च्े को हाथ में लिए चला आ रहा है। आते ही बोला, “आप लोगों ने मझे बलाया है। इसके पहुंचते ही मैं चला आया। वाह रे खरगोश! ”

डाकू गुस्से में भरकर आये थे, पर खरगोश को देखते ही उनका गुस्सा काफूर हो गया। सरदार ने अचरज में भरकर पूछा, “यह तुम्हारे पास पहुंचा कैसे ?”

चतुरी बोला, “यही तो इसकी तारीफ है। मैं सातवें आसमान पर होऊं, तो वहां से भी लिवा ला सकता है।”

सरदार ने कहा, “चतुरी, यह खरगोश हमें दे दे। हमलोग इधर-उधर घूमते रहते हैं और हमारी घरवाली परेशान रहती है। वह इसे भेजकर हमें बुलवा लिया करेगी।”

दूसरा डाकू बोला, “तूने हमारे साथ बड़ा धोखा किया है। रुपये ले आया और ऐसी घोड़ी दे आया कि जिसने एक पैसा भी नहीं दिया और मर गई। खैर, जो हुआ सो हुआ। अब यह खरगोश दे।”

चतुरी ने बहुत मना किया तो सरदार ने सौ रुपये निकाले। बोला, “यह ले। ला, दे खरगोश को।”

चतुरी ने रुपये ले लिये और खरगोश दे दिया।

डाकू चले गये। चतुरी ने आगे के लिए फिर एक चाल सोची। उधर डाकुओं के सरदार ने खरगोश को घर ले जाकर अपनी स्त्री को दिया ओर उससे कह दियाकि जब खाना तैयार हो जाय तो इसे भेज देना। और वह बाहर चला गया। दोस्तों के बीच बैठा रहा। राह देखते-देखते आधी रात हो गई, पर खरगोश नहीं आया, तो वह झल्लाकर घर पहुंचा और स्त्री पर उबल पड़ा। स्त्री ने कहा, “तुम नाहक नाराज होते हो। मैंने तो घंटों पहले खरगोश को भेज दिया था।”

सरदार समझ गया कि यह चतुरीकी शैतानी है। वे लोग तीसरे दिन रात को फिर चतुरी के घर पहुंच गये।

उन्हें देखते ही चतुरी ने अपनी स्त्री से कहा, “इनके रुपये लाकर दे दे।”

स्त्री बोली, “मैं नहीं देती।”

“नहीं देती ?” चतुरी गरजा और उसने कुल्हाड़ी उठाकर अपनी स्त्री पर वार किया। स्त्री लहुलुहान होकर धरती पर गिर पड़ी और आंखें मुंद गईं। डाकू दंग रह गये। उन्होंने कहा, “अरे चतुरी, तूने यह क्या कर डाला ?”

चतुरी बोला, “तुम लोग चिंता न करो। यह तो हम लोगों की रोज की बात है। मैं इसे अभी जिंदा किये देता हूं।”

इतना कहकर वह अंदर गया और वहां से एक सारंगी उठा लाया। जैसे ही उसे बजाया कि स्त्री उठ खड़ी हुई।

चतुरी ने उसे पहले से ही सिखा रखा था ओर खून दिखाने के लिए वैसा रंग तैयार कर लिया था। नाटक को असली समझकर डाकुओं का सरदार चकित रह गया। उसने कहा, “चतुरी भैया, यह सारंगी तू हमें दे दे।”

चतुरी ने बहुत आना-कानी की तो सरदार ने सौ रुपये निकाल कर दसे और दे दिये और सारंगी लेकर वे चले गये। घर पहुंचते ही सरदार ने स्त्री को फटकारा और स्त्री कुछ तेज हो गई तो उसने आव देखा न ताव, कुल्हाड़ी लेकर गर्दन अलग कर दी। फिर सारंगी लेकर बैठ गया। बजाते-बजाते सारंगी के तार टूट गये, लेकिन स्त्री ने आंखें नहीं खोलीं। सरदार अपनी मूर्खता पर सिर धुनकर रह गया। पर अपनी बेवकूफी की बात उसने किसी को बताई नहीं और एक के बाद एक सारी स्त्रियों के सिर कट गये।

भेद खुला तो डाकुओं का पारा आसमान पर चढ़ गया। वे फौरन चतुरी के घर पहुंचे और उसे पकड़कर एक बोरी में बंद कर नदी में डुबोने ले चले। रात भर चलकर सवेरे वेएक मंदिर पर पहुंचे। थोड़ी दूर पर दी थी। उन्होंने बोरी को मंदिर पर रख दिया और और सब निबटने चले गये।

उनके जाते ही चतुरी चिल्लाया, “मुझे नहीं करनी। मुझे नहीं करनी।” संयोग से उसी समय एक ग्वाला अपी गाय-भैंस लेकर आया। उसने आवाज सुनी तो बोरी के पास गया। बोला “क्या बात है ?” चतुरी ने कहा, “क्या बताऊं। राजा के लोग मेरे पीछे पड़े है। कि राजकुमारी से विवाह कर लू। लेकिन में कैसे करूं, लड़की कानी है। ये लोग मुझे पकड़कर ब्याह करने ले जा रहे हैं।”

ग्वाला बोला, “भेया, ब्याह नहीं होता । मैं इसके लिए तैयार हूं।”

इतना कहकर ग्वाले ने झटपट बोरी को खोलकर चतुरी को बाहर निकाल दिया और स्वयं बंद हो गया। चतुरी उसकी गाय-भैंस लेकर नौ-दी-ग्यारह हो गया।

थोड़ी देर में डाकू आये और बोरी ले जाकर उन्होंने नदी में पटक दी। उन्हें संतोष हो गया कि चतुरी से उनका पीछा छूट गया, लेकिन लौटे तो रास्ते में देखते क्या हैं कि चतुरी सामने है। उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। पास आकर चतुरी से पूछा, “क्या बे, तू यहां कैसे ?”

वह बोला, आप लोगों ने मुझे नदी में उथले पानी में डाला, इसलिए गाय-भैंस ही मेरे हाथ पड़ी, अगर गहरे पानी में डाला होता तो हीरे-जवाहरात मिलते।”

हीरे-जवाहरात का नाम सुनकर सरदार के मुंह में पानी भर आया। बोला, “भैया चतुरी, तू हमें ले चल और हीरे-जवाहरात दिलवा दे।”

चतुरी तो यह चाहता ही था। वव उन्हें लेकर नदी पर गया। बोला, “देखो, जितनी देर पानी में रहोगे, उतना ही लाभ होगा। तुम सब एक-एक भारी पत्थर गले में बांध लो।”

लोभी क्या नहीं कर सकता ! उन्होंने अपने गलों में पत्थर बांध लिये और एक कतार में खड़े हो गये। चतुरी ने एक-एक को धक्का देकर नदी में गिरा दिया।

सारे डाकुओं से हमेशा के लिए छुटकारा पाकर चतुरी चमार गाय-भैंस लेकर खुशी-खुशी घर लौटा और अपनी स्त्री के साथ आनन्द से रहने लगा।

सिंहल द्वीप की पदिमनी / आदर्श कुमारी

किसी जंगल में एकसुन्दर बगीचा था। उसमें बहुत-सी परियां रहती थीं। एक रात को वे उड़नखटोले में बैठकर सैर के लिए निकलीं। उड़ते-उड़ते वे एक राजा के महल की छत से होकर गुजरीं। गरमी के दिन थे, चांदनी रात थी। राजकुमार अपनी छत पर गहरी नींद में सो रहा था। परियों की रानी की निगाह इस राजकुमार पर पड़ी तो उसका दिल डोल गया। उसके जी में आया कि राजकुमार को चुपचाप उठाकर उड़ा ले जाय, परंतु उसे पृथ्वीलोक का कोई अनुभव नहीं था, इसलिए उसने ऐसा नहीं किया। वह राजकुमार को बड़ी देर तक निहारती रही। उसक साथवाली परियों ने अपनी रानी की यह हालत भांप ली। वे मजाक करती हुई बोलीं, “रानीजी, आदमियों की दुनिया से मोह नहीं करना चाहिए। चलो, अब लौट चलें। अगर जी नहीं भरा तो कल हम आपको यही ले आयंगी।”

परी रानी मुस्करा उठी। बोली, “अच्छा, चलो। मैंने कब मना किया ? लगता है, जिसने मेरे मन को मोह लिया है, उसने तुम पर भी जादू कर दिया है।”

परियां यह सुनकर खिलखिलाकर हंस पड़ीं और राजकुमार की प्रशंसा करती हुईं अपने देश को लौट गईं।

सवेरे जब राजकुमार सोकर उठा तो उसके शरीर में बड़ी ताजगी थी। वह सोचता कि हिमालय की चोटी पर पहुंच जाऊं या एक छलांग में समुन्दर को लांघ जाऊं। तभ वजीर ने आकर उसे खबर दी कि राजा की हालत बड़ी खराब है और वह आखिरी सांस ले रहे हैं। राजकुमार की खुशी काफूर हो गयी। वह तुरंत वहां पहुंच गया। राजा ने आंखें खोलीं और राजकुमार के सिर पर हाथ रखता हुआ बोला, “बेआ, वजीर साहब तुम्हारे पिता के ही समान हैं। तुम सदा उनकी बात का ख्याल रखना।”

इतना कहते-कहते राजा की आंखें सदा के लिए मुंद गयीं। राजकुमार फूट-फूटकर रोने लगा। राजा की मृत्यु पर सारे नगर ने शोक मनाया। कहने को तो राजकुमार अब राजा हो गया था, पर अपने पिता की आज्ञानुसार वह कोई भी काम वजीर की राय के बिना नहीं करता था।

एक दिन वजीर राजकुमार को महल के कमरे दिखाने ले गया। उसने सब कमरे खोल-खोलकर दिखा दिये, लेकिन एक कमरा नहीं दिखाया। राजकुमार ने बहुत जिद की, पर वजीर कैसे भी राजी न हुआ। वजीर का लड़का भी उस समय साथ था। वह राजकुमार का बड़ा गरा मित्र था। उसने वजीर से कहा, ‘पिताजी, राजपाट, महल और बाग-बगीचे सब इन्हीं के तो हैं आप इन्हें रोकते क्यों हैं ?”

वजीर ने कहा, “बेटा, तुम ठीक कहते हो। सब कुछ इन्हीं का है, लेकिन मंहाराज ने मरते समय मुझे हुक्म दिया था कि इस कमरे में राजकुमार को मत ले जाना। अगर मैं ऐसा करूंगा तो राज को बड़ा बुरा लगेगा।”

वजीर का लड़का थोड़ी देर तक सोचता रहा। फिर बोला, “लेकिन पिताजी, अब तो राजकुमार ही हमारे महाराज है। उनकी बात मानना हम सबके लिए जरूरी है। अगर आप राजा के दु:ख का इतना ध्यान रखते हैं तो हमारे इन राजा के दु:ख का भी तो ध्यान रखिये ओर दरवाजा खोल दीजिये। राजकुमार को दुखी देखकर हमारे राजा को भी शांति नहीं मिलेगी।”

वजीर ने ज्यादा हठ करना ठीक न समझ और चाबी अपने बेटे के हाथपर रख दी। ताला खोलकर तीनों अंदर पहुंचे। कमरा बड़ा संदर था। छत पर तरह-तरह के कीमती झाड़-फानूस लटक रहे थे और फर्श पर मखमल के गलीचे बिछे हुए थे। दीवार पर सुंदर-सुंदर स्त्रियों की तस्वीरें लगी थीं। यकायक राजकुमार की निगाह एक बड़ी सुंदर युवती की तस्वीर पर पड़ी। उसने वजीर से पूछा कि यह किसकी है? वजीर को जिसका डर था, वही हुआ। उसे बताना ही पड़ा कि वह सिंहलद्वीप की पदिमनी की है। राजकुमार उसकी सुन्दरता पर ऐसा मोहित हुआ कि उसी दिन उसने वजीर से कहा, “मैं पदिमनी से ही ब्याह करूंगा। जबतक पदिमी मुझे नहीं मिलेग, मैं राज के काम में हाथ नहीं लगाऊंगा।”

वजीर हैरान होकर बोला, “राजकुमार, सिहंलद्वीप पहुंचना आसान काम नहीं है। वह साम समुन्दर पार है। वहां भी जाओ तो शादी करना तो दूर, उससे भेंट करन भी असम्भव है। उसकी तलाश में जो भी गया, लौटकर नहीं आया। फिर ऐसे अनहोने काम में हाथ डालने की सलाह मैं आपको कैसे दे सकता हूं?”

पर राजकुमार अपनी बात पर अड़ा रहा। वजीर का लड़का उसका साथ देने को तैयार हो गया। वे दोनों घोड़े पर सवार होकर चल दिये। चलते-चलते दिन डूब गया। वे एक बाग में पहुंचे और अपने-अपने घोड़े खोल दिये। हाथ-मुंह धोकर कुछ खाया-पिया। वे थके हुए तो थे ही, चादर बिछाकर लेट गये। कुछ देर के बाद ही गहरी नींद में सो गये। आंख खुली और चलने को हुए तो देखते कया हैं कि बाग का फाटक बंद हो गया है और वहां कोई खोलने वाल नहीं है।

बगीचे के बीचों-बीच संगमरमर का एक चबूतरा था। आधी रात पर वहां कालीन बिछाये गये, फूलों और इत्र की सुगंधि चारों ओर फैलने लगी। फिर चबूतरे पर एक सोने का सिंहासन रख दिया गया। कुछ ही देर में घर-घर करता हुआ एक उड़नखटोला वहां उतरा। उसके चारों पायों को एक-एक परी पकड़े हुए थी और उस पर उनकी रानी विराजमान थीं। चारों परियों ने अपनी रानी को सहारा देकर नीचे उतारा और रत्नजड़ित सोने के सिंहासन पर बिठा दिया। परीरानी ने इधर-उधर देखा और अपनी सखियों से कहा, “वह देखो, पेड़ के नीचे चादर बिछाये दो आदमी सो रहे हैं। उनमें से एक वही राजकुमार है। उसे तुरंत मेरे सामने लाओ।”

हुक्म करने की देर थी कि परियां सोते हुए राजकुमार को अपनी रानी के सामने ले आईं। राजकुमार की आंख खुल गई और वह परियों कीजगमगाहट से चकाचौंध हो गया। परियों को अपने आगे-पीछे देखकर उसे बड़ा डर लगा और हाथ जोड़कर बोला, “मुझे जाने दीजिये।”

परी रानी ने मुस्कराते हुए कहा, “राजकुमार, अब तुम कहीं नहीं जा सकते। तुम्हें मुझसे विवाह करना होगा।”

राजकुमार बड़ी मुसीबत में पड़ गया। बाला, “परी रानी, मैं क्षमा चाहता हूं। मैं सिंहलद्वीप की पदिमनी की तलाश में निकला हूं। इस समय मै। विवाह नहीं कर सकता।”

परी ने कहा, “भोले राजकुमार, सिंहलद्वीप की पदिमनी तक आदमी की पहुंच सम्भव नहीं है। वह दैवी शक्ति के बिना कभी नहीं मिल सकती। अगर तुम मुझसे विवाह कर लोगे तो मैं तुम्हें ऐसी चीज दूंगी, जिससे सिंहलद्वीप कीपदिमनी तुम्हें आसानी से मिल जायेगी।”

राजकुमार यह सुनकर बड़ा खुश हुआ और बोला, “परी रानी, मैं तुमसे जरूर शादी करूंगा, पर तुम्हें मेरी एक बात माननी होगी। मैं जब पदिमनी को लेकर लौटूंगा तभी तुम्हें अपने साथ ले जा सकूंगा। मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि मेरी इस बात में कोई हेर-फेर नहीं होगी।”

परी ने प्रसन्न होकर अपनी अंगूठी उतारी और राजकुमार की उंगली में पहनाती हुई बोली, “यह अंगूठी जबतक तुम्हारे पास रहेगी कोई भी विपत्ति तुम्हारे ऊपर असार न करेगी। इसके पास रहने से तुम्हारे ऊपर किसी का जादू-टोना नहीं चल सकेगा।”

अंगूठी देकर परी रानी आकाश में उड़ गई। राजकुमार वजीर के लड़के के पा आकर सो गया। सवेरे उन दोनों ने देखा कि बगीचे का फाटक खुला हुआ है। वे दोनों घोड़ों पर सवार होकर चल दिये। पदिमनी से मिलने की राजकुमार को ऐसी उतावली थी कि वह इतना तेज चला कि वजीर का लड़का उससे बिछुड़ गया। चलते-चलते राजकुमार एक ऐसे शहर में पहुंचा, जहां हर दरवाजे पर तलवारें-ही-तलवारें टंगी हुई थीं। एक दरवाजे पर उसने एक बुढ़िया को बैठे हुए देखा। उसे बड़े जोर की प्यास लगी थी। पानी पीने के लिए वह बुढ़िया के पास पहुंच गया। बुढ़िया झूठ-मूठ का लाड़ दिखाती हुई बोली, “हाय बेटा ! तू बड़े दिनों के बाद दिखाई दिया है। तू तो मुझे पहचान भी नहीं रहा। भूल गया अपनी बुआ को ?”

यह कहते-कहते उसने राजकुमार को ह्रदय से लगा लिया और चुपचाप उसकी अंगूठी उतार ली। इसके बाद उसने राजकुमार को मक्खी बनाकर दीवार से चिपका दिया।

उधर वजीर के लड़के को राजकुमारी की तलाश में भटकते-भटकते बहुत दिन निकल गये। अंत में उसे एक उपाय सूझा। वह परी रानी के बगीचे में पहुंचा और रात को एक पेड़ पर चढ़ गया। आधी-रात को परी रानी उसी चबूतरे पर उतरी। वह वजीर के लड़के की विपदा को समझ गई। उसने उसे सामने बुलाकर कहा, “यहां से सौ योजना की दूरी पर एक जंगल है। उसने उसे सामने बुलाकर कहा, “यहां से सौ योजन की दूरी पर एक जंगल है। उसमें तरह-तरह के हिंसक पशु रहते हैं। वहां ताड़ के पेड़ पर एक पिंजड़ा टंगा हुआ है। उसमें एक तोता बैठा है। उस तोते में उस जादूगरनी को जान है, जिसने तुम्हारे राजकुमार को मक्खी बनाकर अपने घर में दीवार से चिपका रक्खा है।

वजीर के लड़के ने पूछा, “इतनी दूर मैं कैसे पहुंच सकता हूं?”

परी रानी ने वजीर के लड़केको अपने कान की बाली उतारकर दीऔर कहा कि इसको पास रखने से तुम सौ योजन एक घंटे में तय कर लोगे। इसमें एक सिफत यह भी है कि तुम सबको देख सकोगे औरत तुम्हें कोई नहीं देख पायगा। इस प्रकार तोते के पिंजड़े तक पहुंचने में तुम्हें कोई कठिनाई नहीं होगी और तोते को मारना तुम्हारे बांये हाथ का खेल होगा।

वजीर का लड़का बाली लेकर खुशी-खुशी जंगल की ओर चल दिया। पेड़ के पास पहुंचकर उसने पिंजड़ा उतारा ओर तोते की गर्दन मरोड़ डाली। इधर तोते का मरना था कि जादूगरनी का भी अंत हो गया। वजीर का लड़का वहां से जादूगरनी के घर पहुंचा। जरदूगरनी की उंगली से जैसे ही उसने अंगूठी खींची कि राजकुमार मक्खी से फिर आदमी बन गया। वजीर के लड़के से मिलकर राजकुमार खुशी के मारे उछल पड़ा। वजीर के लड़के ने राजकुमार को सारा किस्सा कह सुनाया।

अब दोनों साथ-साथ पदिमनी से मिलने चल दिये। चलते-चलते वे बहुत थक गये थे। रात भर के लिए वे एक सराय में रुक गये। राजकुमार सो रहा था। उधर से विमान में बैठकर महादेव-पार्वती निकले। दोनों बातचीत करते चले जा रहे थे। यकायक महादेवजी ने कहा, “पार्वती, इस नगर की राजकुमारी बहुत सुंदर और गुणवती है। राजा उसकी शादी एक काने राजकुमार के साथ कर रहा है। अगर ब्याह हो गया तो जनमभर राजकुमारी को काने के साथ रहना पड़ेगा। मैं इसी सोच में हूं कि इस सुन्दरी को काने से कैसे छुटकारा दिलाऊं ?”

पार्वतीजी ने नीचे सोये हुए राजकुमार की ओर इशारा करते हुए कहा, “देखिये जरा नीचे की ओर, कितना संदर राजकुमार है! विमानउतारिये और राजकुमार को लेकर वर की जगह पहुंचा दीजिये।”

महादेवजी को यह युक्ति जंच गई। उन्होंने ऐसा ही किया। राजकुमार की शादी उस राजकुमारी से हो गयी। विदा के समय राजकुमार बड़े चक्कर में पड़ा। विवाह करने के बाद लौटते समय मैं तुम्हें साथ ले जाऊंगा। इस समय तो तुम मुझे जाने दो।”

राजकुमारी को राजकुमार पर विश्वास होगया। उसने उसेदो बाल दिये। एक सफेद ओर एक काला। राजकुमारी ने कहा कि काला बाल जलाओगे तो काला हो जायेगा और सारी इच्छाएं पूरी कर देगा।

राजकुमार बाल पाकर बड़ा खुश हुआ और राजकुमारी को लौटने का भरोसा देकर सिंहलद्वीप की ओर चल पड़ा। पहले उसने काला बाल जलाया। बाल के जलाने की देर थी कि काला दैत्य राजकुमार के आगे आ खड़ा हुआ। राजकुमार पहले तो बहुत डरा, पर वह जानता था कि वह दैत्य उसका सेवक है। उसने हुक्म दिया, “जाओ, वजीर के लड़के को मेरे पास ले आओ।”

काला दैत्य उसी क्षण वजीर के लड़के को राजकुमार के पास ले आया। फिर बोला, “और कोई आज्ञा ?”

राजकुमार ने कहा, “हम दोनों को पदिमनी के महल में पहुंचा दो।”

कहने की देर थी कि वे पदिमी के महल के फाटक पर आ गये। वहां एक ह्रष्ट-पुष्ट संतरी पहरा दे रहा था। उसने अंदर नहीं जाने दिया। राजकुमार ने फिर काला बाल जलाया। दैत्य हाजिर हो गया। राजकुमार के हुक्म देते ही काले दैत्यों की पलटन आ गई। उन्होंने रानी पदिमनी के सिपाहियों को बात-की-बात में मौत के घाट उतार दिया। इसके बाद दैत्य गायग हो गये।

राजकुमार और वजीर का लड़का महल में घुसे। राजकुमार ने सफेद बाल जलाया। सफेद देव आ गया। राजकुमार ने उससे कहा, “मैं पदिमनी से विवाह करना चाहता हूं। बारात सजाकर लाओ।”

जरा-सी देर में देव अपने साथ एक बड़ी शानदार बारात सजा कर ले आया। पदिमनी के पिता ने जब देखा कि कोई राजकुमार पदिमनी को शान-शौकत से ब्याहने आया है और इतना शक्तिशाली है कि उसने उसकी सारी सेना नष्ट कर डाली है तो उसने चूं तक न की। राजकुमार का ब्याह पदिमनी से हो गया।

अब राजकुमार पदिमनी को लेकर अपने घर की ओर रवाना हो गया। रास्ते में से उसने उस राजकुमारी को अपने साथ लिया, जिसने उसे बाल दिये थे। इसके बाद परी रानी के बगीचे में आया। रात को सब वहीं ठहरे। आधी-रात को परी रानी आई। राजकुमार उसे देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ और बोला, “यह तुम्हारी ही कृपा का फल है। जो मैं पदिमनी को लेकर यहां अच्छी तरह लौट आया। यह दूसरी राजकुमारी भी तुम्हारी तरह मुसीबत में मेरी सहायक हुई है। तुम इसे छोटी बहन समझकर खूब प्यार से रखना।”

परीरानी गदगद कंठ से बाली, “राजकुमार, तुम्हारी खुशी में मेरी खुशी है। पदिमनी के कारण ही हम दोनों को तुम्हारे जैसा सुंदर राजकुमार मिला है। पदिमनी आज से पटरानी हुई और हम दोनों उसकी छोटी बहनें।”

वे सब उड़नखटोले में बैठकर राजकुमार के देश में आ गयीं। नगर भर में खूब आनन्द मनाया गया और धूमधाम के साथ राजकुमार की तीनों रानियों के साथ सवारी निकाली गई।

मगध की लोककथा

खंजड़ी की खनक / भगवानचंद्र विनोद

सांझ हो गई थी। पंछी पंख फैलाये तेजी से अपने-अपेन घोंसलों की ओर लौट रहे थे। जंगली पशु दिन भर शिकार की तलाश में भटकने के बाद किसी जलाश्य में पानी पीकर लौटने लगे। लेकिन सेमल के गाछ के नीचे खड़ी एक हिरनी न हिली, न डुली। उसके चेहरे पर उदासी का भाव था। गुमसुम होकर वह डूबते हुए सूरज की लाली को देख रही थी। सेमल के गाछ पर बिखरने वाली लाली से फूल और भी लाल हो रहे थे।

हिरनी को उदास देखकर हिरन उसके पास आया। अपनी बड़ी-बड़ी आंखों से उसे देखकर बाला, “क्यों, आज तुम्हें क्या हो गया है ? मैं देख रहा हमं कि तुम आज सवेरे से ही इस गाछ के नीचे गुमसुम खड़ी हो ?”

हिरनी चुप रही। कुछ नहीं बाली। उसकी सागर-सी गहरी आंखों में आज सूनापन था। हिरन की बात सुनते ही उस सूनेपन को आंसुओं की बूंदों ने भर दिया। पिुर वे आंसू ढुलक पड़े। हिरन विचलित हो उठा। अपनी प्रियतमा की आंखों में आंसू उसने आज पहली बार देखे थे। न जाने किस आशंका से उसका ह्रदय कांप उठा। उसने देखा, हिरनी फटी हुई आंखों से अब भी देख रही है। उसकी सांस की गति बढ़ गई है। उसके पैर कांप रहे हैं।

हिरन ने स्पर्श से अपनी हिरनी को दुलारा। फिर पूछा, “क्या हो गया है तुम्हें? क्या तुम्हारी चारागाह सूख गया है। या किसी जंगली जानवर का डर है?

बोलो, तुम्हारी उदासी और तुम्हारा मौर मेरे दिल को चीरे डालरहा है।”

हिरनी के होठों में थोड़ा-सा कम्पन हुआ।

फिर वह साहस बटोरकर बोली, “सुना है, इस देश के राजा के याहां राजकुमारी का जन्म-दिन मनाया जानेवाला है। बड़े-बड़े राजाओं को निमंत्रण भेजे गये हैं। कल बड़ा भारी उत्सव होगा। और….और……इस अवसर पर तरह-तरह के पकवानबनेंगे……..जिसके लिए तुम्हारा…………..

वह बात पूरी किये बिना बिलख उठी। आंखों से आंसुओं की धार बहने लगी। चारों ओर अंधेरा छा गया। बेचारा हिरन क्या कहे !

एक क्षण तक वह मौन रहा। फिर धीरज के साथ उसने कहा, “अरी पगली, इतनी-सी छोटी बात के लिए तू दु:खी होती है ! ऐसे अच्छे अवसर पर अगर मूझे बलिदान होना पड़ा तो यह मेरा कितना बड़ा सौभाग्य होगा ! राजा के जंगल में रहने वाले हम सब उन्हीं के तो सेवक हैं। इस बहानेमैं उनके ऋण के बोझ से छूट जाऊंगा। मुझे स्वर्ग मिलेगा। अखिर एक दिन मरना तो है ही ! किसी शिकारी के तीर से मरने की बजाय राजा के बेटे के लिए बलिदान होना कहीं अच्छा है।”

हिरनी फफक-फफक कर रो पड़ी। रोते-रोते बोली, “मेरे प्राणनाथ, मेरी दुनिया सूनी मत करो। तुम्हारे बिना कैसे जीऊंगी? मैंने तुम्हें अपनी आंखों से कभी ओझल नहीं होने दिया। मेरे लिए….बस मेरे लिए….ऐसा मत करा।”

“तू बड़ी रासमझ हैं !” हिरन ने प्यार से फिर समझाना चाहा।

“ठीक है, मैं नासमझ हूं।” हिरनी नेकहा, “लेकिन अपने प्राणों से बढ़कर प्यारे देवता को मैं कहीं नहीं जाने दूंगी। एक बार, बस एक बार, मेरी बात मान लो। हम इसीसमय इस राज्य को छोड़कर किसी दूसरे जंगल में भाग चलें। इतनी दूर चलें….कि जहां और कोई न हो….।”

हिरनी सारी रात इससे विनय करती रही, लेकिन हिरन नहीं माना। एक ओर प्यार था, दूसरी ओर कर्तव्य, उनके बीच उसे फैसला करना था। उसकी निगाह में कर्तव्य का महत्व अधिक था, तभी तो वह अपने प्यार की बलि चढ़ा रहा था।

दोनों एक-दूसरे का सहारा लिए, सेमलकी छाया में, बैठे रहे। आंखें बंद थी। सन्नाटा इतना छाया था कि दिल की धड़कनें साफ सुनाई देती थीं।

सूखे पत्तों की खड़खड़ाहट से अचानक जंगल जाग उठा। दोनों ने चौंककर देखा। पूरब में सूरज की लाली मुस्करा रही थी और दो बधिक नगी तलवारें लिये खड़े थे।

घबराकर हिरनी ने आंखें बंद कर लीं। उसके ह्रदय की धड़कन बढ़ गयी। मारे पीड़ा के वह छटपटा उठी। जब उसने आंखें खोलकर देखा तो न वहां बधिक थे और न उसका प्राणों से प्यारा हिरन।

तभी आसमान में लाली ओर अधिक व्याप्त हो गयी। उसे लगा, जैसे उसके हिरन का लहू बहकर चारों तरफ फैल गया हो।

हिरनी के दिल बड़ा धक्का लगा। वह बेसुध हो गयी। दिन-भर अचेत पड़ी रही। शाम को उसकी चेतना पल-भर के लिए लौटी। तब न लालिमा थी, न रोशनी। चारों तरफ भयानक सूनापन और अंधेरा छाया था।

हिरनी ने किसी तरह साहस जुटाया। वह उठी और भारी पैरों से राजमहल की ओर चल दी। चलते-चलते वह महल में पहुंची। तबतक राजमहल में जन्म-महोत्सव समाप्त हो चुका था। महारानी अपने छोटे राजकुमार को गोद में लिये बैठी थी। हिरनी ने उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम किया और कातर स्वर में विनती की, “महारानी जी ! मैं आपके राज्य कीएक अभागिनी हिरनी हूं। आज के महोत्सव में मेरे प्राणाथ का वध किया गया है। उससे आपकी रसोई की शोभा बढ़ी, मेहमानों का आदर-सत्कार हुआ, यह सब ठीक है; किंतु मेरा तो सुहाग ही लुट गया। अब मेरा कोई नहीं रहा। मैं अनाथ हो गई….।”

उसकी आंखों से आंसू बहने लगे, पर धीरज धर कर वह फिर बाली, “महारानीजी! अब एक मेरी आपसे विनती है। आप कृपा कर मेरे हिरनकी खाल मुझे दे दें। मैंने उसे अपनी आंखों से कभी ओझल नहीं होने दिया। उस खाल को मैं उस सेमल के गाछ पर टांग दूंगी और दूर से देख-देखकर समझ लिया करूंगी कि मेरा हिरन मरा नहीं, जीवित है। महारानीजी ! वह मेरे सुहाग की निशानी है।”

लेकिन महारानी ने हिरनी की प्रार्थना स्वीकार नहीं की। उन्होंने कहा, “उस खाल की तो मैं खंजड़ी बनवाऊंगी और उसे बजा-बजाकर मेरा बेटा खेला करेगा।”

हिरनी का ह्रदय टूक-टूक हो गया। उसकी आशा की धुंधली ज्योति हवा के एक झोंके से बुझ गयी। निराश और भारी मन से वह जंगल को पुन: लौट आयी।

उसके बाद जब भी राजमहल में खंजड़ी खनकती तो हिरनी एक क्षण के लिए बेसुध हो जाती है। वह उस खनक को सुन-सुनकर घंटों आंसू बहाती रहती है।

निमाड़ की लोककथाएं

वार्ताकार और हुंकारा देनेवाला / शिवनारायण उपाध्याय

एक गांव में एक वार्ता कहनेवाला रहता था। उसे लम्बी वार्ता कहने का शौक था। लेकिन कोई हुंकारा देने वाला नहीं मिल रहा था। इसलिए उसने सोचा कि परदेश में चलना चाहिए, शायद वहां कोई मिल जाये।

चलते-चलते वर्षों बीत गये। कई गांवों ओर नगरों की यात्रा की, पर कोई हुंकारा देनेवाला नहीं मिला।

लाचार हो वह एक छोटे-से गांव के बाहर नीम की ठण्डी छांव देखकर उसके नीचे विश्राम करने बैठ गया। इतने में वहां से एक आदमी निकला और उसने पूछा, “क्यों भई, तुम कौन हो ? क्या काम करते हो ?”

उसने कहा, “मैं वार्ताकार हूं और लम्बी वार्ता कहना मेरा काम है। लेकिन वार्ता सुनाऊं तो किसे ? कोई हुंकारा देनेवाला नहीं मिल रहा है।”

उस आदमीने कहा, “वाह भाई वाह! तुम खूब मिले ! मैं सिर्फ हुंकारा देने का काम करता हूं और वर्षों से एक ऐसे आसदमी को खोज रहा हूं, जो लम्बी वार्ता कह सके। आज तुम मिल गये तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं है।”

इस तरह एक-दूसरे को पाकर दोनों बड़े प्रसन्न हुए। फिर उन्होंने स्नान किया, भोजन किया ओर भगवान का ध्ययान करके वार्ताकार ने अपनी लम्बी वार्ता कहनी शुरू की। दिन, महीने और वर्ष-पर-वर्ष बीतते गये, लेकिन न वार्ता खत्म हुई और न हुंकारे।

कुछ दिनो बाद लोगों ने देखा कि उस जगह दो हडिडयों के ढांचे पड़े हुए हैं। लोगों की कुछ समझ में नहीं आ रहा था। वे उन्हों कोई चमत्कारी संत समझकर प्रणाम कर लौट जाते थे।

उधर वार्ताकार और हुंकारा देनेवाले की पत्नियां अपने-अपने पतियों के घर लौटने की राह देखते-देखते निराश हो गईं। वे दानों पतिव्रता थीं। इसलिए उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और पतियों की खोज में चल दीं। संयोग की बात, दोनों उसी पेड़ के नीचे पहुंचीं, जहां हडिडयों के दो ढांचे पड़े हुए थे। एक ने दूसरी से पूछा, “क्यों बहन, तुम्हारे पति क्या काम करते थे ?”

उसने कहा, “वे वार्ताकार थे और उन्हें लम्बी वार्ता कहने का शौक था। वे ऐसे आदमी की खोज में थे, जो सालों तक हंकारा देता रहे।”

दूसरी ने कहा, “मेरे पति हुंकारा देने वाले थे और ऐसे वार्ताकार की खोज में थे, जो लम्बी वार्ता कहे।”

दोनों ने सोचा, हो न हो, ये दोनों ढांचे हमारे पतियों के होने चाहिए। लेकिन उनमें से कौन-सा ढांचा वार्ताकार का था और कौन-सा हुंकारे वाले का, यह जानना मुश्किल था। तब दोनों ने तपस्या शुरू कर दी, वर्षों बीत गये। इस बीच एक संत वहां से निकले। उन्होंने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर कहा, ‘हे देवियो ! यदि तुम भगवान से प्रार्थना करके इन पर गंगा-जल छिड़को तो तुम्हारे पति तुम्हें मिल सकते हैं।”

तुरतं ही एक स्त्री ने भगवान से प्रर्थना की, “भगवान, यदि मैं सती होऊं तो मेरे पति वार्ता प्रारंभ कर दें।” ओर उसने उन ढांचों पर गंगा-जल छिड़का किएक ढांचे में हलचल हुई और उसने वार्ता कहना प्रारंभ कर दिया। फिर दूसरी स्त्री ने प्रार्थना की, “हे भगवान यदि मैं सती होऊं तो मेरे पति हुंकारा देने प्रारंभ कर दें।” और उसने ढांचे पर जल छिड़का। तुरंत दूसरे ढांचे में हलचल हुई और उसने हुंकारा देना प्रारंभ कर दिया।

तब से आज तक वार्ताएं चल रही हैं और हुंकारों की आवाज भी बराबर आती रहती हैं।

सेवा का फल / रामनारायण उपाध्याय

छोटे-से गणपति महाराज थे। उन्होंने एक पुड़िया में चावल लिया, एक में शक्कर ली, सीम में दूध लिया और सबके यहां गये। बोले, “कोई मुझे खीर बना दो।”

किसी ने कहा, मेरा बच्चा रोता है; किसी ने कहा, मैं स्नान कर रहा हूं; किसी ने कहा, मैं दही बिलो रही हूं।

एक ने कहा, “तुम लौंदाबाई के घर चले जाओ। वे तुम्हें खार बना देंगी।”

वे लौंदाबाई के घर गये। बोले, “बहन, मुझे खीर बना दो।”

उसने बड़े प्यार से कहा, “हां-हां, लाओ, मैं बनाये देती हूं।”

उसने कड़छी में दूध डाला, चावल डाले, शक्कर डाली और खर बनाने लगी तो कड़छी भर गई। तपेले में डाली तो तपेला भर गया, चरवे में डाली तो चरवा भर गया। एक-एक कर सब बर्तन भर गये। वह बड़े सोच में पड़ी कि अब क्या करूं ?

गणपति महाराज ने कहा, “अगर तुम्हें किन्हीं को भोजन कराना हो तो उन्हें निमंत्रण दे आओ।”

वह खीर को ढककर निमंत्रण देने गई। लौटकर देखा तो पांचों पकवान बन गये।

उसने सबको पेट भरकर भोजन कराया। लोग आश्चर्यचकित रह गये। पूछा, “क्यों बहन, यह कैसे हुआ ?”

उसने कहा, “मैंने तो कुछ नहीं किया। सिर्फ अपने घर आये अतिथि को भगवान समझकर सेवा की, यह उसी का फल था। जो भी अपने द्वार आए अतिथि की सेवा करेगा, अपना काम छोड़कर उसका काम पहले करेगा, उस पर गणपति महाराज प्रसन्न होंगे।

बड़ा कौन? / अज्ञात

भूख, प्यास, नींद और आशा चार बहनें थीं। एक बार उनमें लड़ाई हो गई। लड़ती-झगड़ती वे राजा के पास पहुंचीं।

एक ने कहा, “मैं बड़ी हूं।” दूसरी ने कहा, ” मैं बड़ी हूं।” तीसरी ने कहा, “मैं बड़ी हूं।” चौथी ने कहा, “मैं बड़ी हूं।” सबसे पहले राजा ने भूख से पूछा, “क्यों बहन, तुम कैसे बड़ी हो ?”

भूख बोली, “मैं इसलिए बड़ी हूं, क्योंकि मेरे कारण ही घर में चूल्हे जलते हैं, पांचों पकवान बनते हैं और वे जब मुझे थाल सजाकर देते हैं, तब मैं खाती हूं, नहीं तो खाऊं ही नहीं।”

राजा ने अपने कर्मचारियों से कहा, “जाओ, राज्य भर में मुनादी करा दो कि कोई अपने घर में चूल्हे न जलाये, पांचों पकवान न बनाये, थाल न सजाये, भूख लगेगी तो भूख कहां जायगी ?”

सारा दिन बीता, आधी रात बीती। भूख को भूख लगी। उसने यहां खोजा, वहां खोजा; लेकिन खाने को कहीं नहीं मिला। लाचार होकर वह घर में पड़े बासी टुकड़े खाने लगी।

प्यास ने यह देखा, तो वह दौड़ी-दौड़ी राजा के पास पहुंची। बोली, “राजा! राजा ! भूख हार गई। वह बासी टुकड़े खा रही है। देखिए, बड़ी तो मैं हूं।” राजा ने पूछा, तुम कैसे बड़ी हो ?

प्यास बोली, “मैं बड़ी हूं क्योंकि मेरे कारण ही लोग कुएं, तालाब बनवाते हैं, बढ़िया बर्तानों में भरकर पानी रखते हैं और वे जब मुझे गिलास भरकर देते हैं, तब मैं उसे पीती हूं, नहीं तो पीऊं ही नहीं।”

राजा ने अपने कर्मचारियों से कहा, “जाओ, राज्य में मुनादी करा दो कि कोई भीअपने घर में पानी भरकर नहीं रखे, किसी का गिलास भरकर पानी न दे। कुएं-तालाबों पर पहरे बैठा दो। प्यास को प्यास लगेगी तो जायगी कहां?”

सारा दिन बीता, आधी रात बीती। प्यास को प्यास लगी। वह यहां दौड़ी। वहां दौड़, लेकिन पानी की कहां एक बूंद न मिली। लाचार वह एक डबरे पर झुककर पानी पीने लगी।

नींद नेदेखा तो वह दौड़ी-दौड़ी राजा के पास पहुंची बोली, “राजा ! राजा ! प्यास हार गई। वह डबरे का पानी पी रही है। सच, बड़ी तो मैं हूं।”

राजा ने पूछा, “तुम कैसे बड़ी हो?”

नींद बोली, “मैं ऐसे बड़ी हूं कि लोग मेरे लिए पलंग बिछवाते हैं, उस पर बिस्तर डलवाते हैं और जब मुझे बिस्तर बिछाकर देते हैं तब मैं सोती हूं, नहीं तो सोऊं ही नहीं।

राजा ने अपने कर्मचारियों से कहा, “जाओ, राज्य भर में यह मुनादी करा दो कोई पलंग न बनवाये, उस पर गद्दे न डलवाये ओर न बिस्तर बिछा कर रखे। नींद को नींद आयेगी तो वह जायगी कहां ?”

सारा दिन बीता। आधी रात बीती। नींद को नींद आने लगी।उसने यहां ढूंढा, वहां ढूंढा, लेकिन बिस्तर कहीं नहीं मिला। लाचार वह ऊबड़-खाबड़ धरती पर सो गई।

आशा ने देखा तो वह दौड़ी-दौड़ी राजा के पा पहुंची। बोली, “राजा ! राजा ! नींद हार गयी। वह ऊबड़-खाबड़ धरती पर सोई है। वास्तव में भूख, प्यास और नींद, इन तीनों में मैं बड़ी हूं।”

राजा नेपूछा, “तुम कैसे बड़ी हो ?”

आशा बोली, “मैं ऐसे बड़ी हूं कि लोग मेरी खातिर ही काम करते हैं। नौकरी-धन्धा, मेहनत और मजदूरी करते हैं। परेशानियां उठाते हैं। लेकिन आशाके दीप को बुझने नहीं देते।”

राजा ने अपने कर्मचारियों से कहा, “जाओ, राज्य में मुनादी करा दो। कोई काम न करे, नौकरी न करे। धंधा, मेहनत और मजदूरी न करे और आशा का दीप न जलाये। आशा को आश जागेगी तो वह जायेगी कहां?”

सारा दिन बीता। आधी रात बीती। आशा को आश जगी। वह यहां गयी, वहां गयी। लेकिन चारों ओर अंधेरा छाया हुआ था। सिर्फ एक कुम्हार टिमटिमाते दीपक के प्रकाश में काम कर रहा था। वह वहां जाकर टिक गयी।

और राजा ने देखा, उसका सोने का दिया, रुपये की बाती तथा कंचन का महल बन गया।

जैसे उसकी आशा पूरी हुई, वैसे सबकी हो।

सरैसा की लोककथा

सोने का चूहा / नागेश्वर सिंह ‘शशीन्द्र’

सरैसा के नरहन मोखा जनपद में एक व्यापारी रहता था। उसे जुआ खेलने की लत थी। एक बार वह जुए में अपनी सारी सम्पत्ति हार गया। इससे उसे इतना दु:ख हुआ कि एक दिन वह मर गया। उसकी पत्नी गर्भवती थी। कुछ दिनों बाद उसने एक लड़के को जन्म दिया। उन दिनों उसके घर में बेहद तंगी थी।

व्यापारी की पत्नी ने अपने इकलौते बेटे को जैस-तैसे पाला। जब लड़का पांच साल का हुआ तो वह अपने पुत्र के साथ पति के एक धनिक मित्र कीशरण में चली गयी। वहां वह बारह वर्ष तक रही। एकदिन अवसरपाकर लड़के की मां ने पति के मित्र से प्रार्थना की कि सेठजी, मेरे पुत्र को कुछ पढ़ा-लिख देते तो वह अपने पांवों पर खड़ा हो जाता। लड़के की मां क प्रार्थना पर सेठ ने एक अध्यापक रख दिया। उसने उसे कुछ पढ़ना-लिखना और हिसाब-किताब सिखा दिया।

एक दिन की बात है कि वह लड़का सेठ के दरवाजे पर बैठा चुपचाप कुछ सोच रहा था। आगे क्या होगा, इस चिंता में उसकी आंखें गीली हो गईं। उसी समय उसकी मां भी वहां आ गई। मां ने आंचल से बेटे का मुंह पोंछते हुए कहा, “बेटा, तुम रोते कयों हो? तुम व्यापारी के लड़के हो। इसलिए कोई छोटा-मोटा धंधा शुरू कर दो। पास के मोहल्ले में एक सेठ रहता है, जो दीन-दुखी लड़कों को व्यापार में पूंजी लगाने के लिए बिना ब्याज के पैसा उधार दे देता है। तुम उनके पास जाओ और उनसे कुछ रुपया ले आओ।˝

सवेरा होते ही लड़का सेठ के पास गया। जिस समय वह उसकी गद्दी पर पहुंचा, वह किसी लड़के को डांटते हुए समझा रहा था कि तुम इस तरह अपने जीवन में मुछ नहीं कर सकोगे। जो आदमी मेहनत नहीं करता, वह भी कोई आदमी है ! बिना उद्योग किये तुम सुखी नहीं रह सकोगे। तुम्हारा जीवन बेकार चला जायगा। उद्यम के बिना किसी का मनोरथ आज तक पूरा नहीं हुआ है। देखते हो, सामने जो मरा चूहा पड़ा है, किसी योग्य और कर्मठ व्यापारी का बेटा उसे बेचकर भी पैसा बना सकता है। सामने जो मिटटी और कोयला है, उससे वह सोना बना सकता है। चूल्हे की राख से वह लाख बना सकता है। मैंने तुम्हें इतने रुपये दिये और तुम खाली हाथ लौटकर और रुपये मांगने आये हो। यहां से चले जाओ। तुम में काम करने की शक्ति नहीं है। तुम अपने प्रति भी ईमानदार नहीं हो।

इस लड़के ने जब दोनों के बीच की बातचीत सुनी तो उसने सेठ से कहा, “सेठजी, मैं इस मरे हुए चूहे को आपसे पूंजी के रूप में उधार ले जाना चाहता हूं।˝

यह कहकर वह लड़का वहां रुका नहीं, बल्कि उसमरे चूहे को पूंछ के सहारे उठाकर वहां से चला गया। सेठ ने उस लड़के का परिचय जानने के लिए अपने मुनीम को उसकी खोज में भेजा। पर वह लड़का तो नगर की भीड़ में खो गया था।

लौटकर मुनीम ने सेठ को इस बात की सूचना दी तो उसे बड़ी चिंता हुई। उसने अपने मुनीम से कहा, “मुनीम जी, वह लड़का बड़ा होनहार है। एक दिन वह अवश्य लखपति बनेगा। अगर मैं उसकी कुछ मदद कर सकता तो मुझे बड़ी खुशी होती।˝

उसे मरे चूहे को आखिर कौन लेतो? एक बनिये के बेटे ने अपनी बिल्ली के शिकार के लिए उसे कुछ पैसे देकर खरीद लिया। लड़के ने उन पैसों से कुछ चने और एक घड़ा खरीदा। फिर उस घड़े में जल भरकर नगर के चौराहे पर एक पेड़ के नचे बैठ गया। उस रास्ते से गुजरने वाले लोगों को वह बड़ी नम्रता से कुछ चने देकर जल पिलाता । लड़के की उस सेवा से खुश होकर वे उसे कुछ पैसे दे देते।

लकड़ी काटने के काम से बढ़ई लोग भी उसी रास्ते से गुजरते थे। वे लोग भी वहां पानी पीते और उस लड़के को बदले में लकड़ियां दे जाते। इस तरह वहां लकड़ियों का ढेर लग गया। एक दिन लकड़ी के एक व्यापारी के हाथ उस लड़के ने सारी लकड़ियां बेच दीं। लकड़ी की उस पूंजी से उसने कुछ और चने खरीदे।

वह पहले की तरह राहगीरों को चने खिलाकर पानी पिलाता रहा और बदले में पैसे और लकड़ी पाता रहा। धीरे-धीरे उसकी पूंजी बढ़ने लगी। जब उसके पास कुछ ज्यादा पैसा हो गया तो वह लकड़ियां भी खरीदने लगा। उनके बेचने पर उसे बड़ा लाभ हुआ।

लेकिन वर्षा ऋतु के आने से लकड़ियों का धंधा मंद पड़ने लगा। लोग पानी भी कम पीने लगे। तब उस लड़के ने चौराहे पर जमा लकड़ियों को लेकर बाजार में बेच दिया और उसी पूंजी से वहां उसने एक दुकान खोलदी। थोड़े ही दिनों में उसकी दुकान चल पड़ी। रोज के काम में आनेवाली सभी चीजें उस दुकान पर सस्ते दामों में मिल जाती थीं। लड़का कुछ ही दिनों में बड़ा व्यापारी बनगया। उसने वहीं अपने लिए एक मकान बनवा लिया। उसमें वह अपनी मां के साथ अच्छी तरह से रहने लगा।

एक दिन जब वह अपनी दुकान पर बैठा था, उसे अचानक उस सेठ की याद आ गई, जिसके यहां से वह मरा हुआ चूहा लाया था। उसने उसके ऋण से मुक्त होने के लिए सोने का चूहा बनवाया और उसे साथ लेकर सेठ के यहां गया। उसने सेठ से कहा, “सेठजी, आपके चूहे ने मुझे लखपति बना दिया है। मेरे जीवन की धारा ही बदल दी है।˝

सेठ उस घटना को भूल गये थे। जब लड़के ने सारी कहानी सुनाई तो उस पर वह इतने मुग्ध हो गये कि उन्होंने उसे अपने पास गद्दी पर बैठा लिया। बाद में अपनी लड़की का विवाह उसके साथ कर दिया।

कांगड़ा की लोककथा

करम का फल / मनोहरलाल

एक लड़की थी। वह बड़ी सुन्दर थी, शरीर उसका पतला था। रंग गोरा था। मुखड़ा गोल था। बड़ी-बड़ी आंखें कटी हुई अम्बियों जैसी थीं। लम्बे-लम्बे काले-काले बाल थे। वह बड़ा मीठा बोलती थी। धीरे-धीरे वह बड़ी हो गई। उसके पिता ने कुल के पुरोहित तथा नाई से वर की खोज करने को कहा, उन दानों ने मिलकर एक वर तलाश किया। न लड़की ने होनेवाले दूल्हे को देखा, न दूल्हे ने होनेवाली दुल्हन को।

धूम-धाम से उनका विवाह हो गया। जब पहली बार लड़की ने पति को देखा तो उसकी काली-कलूटी सूरत को देखकर वह बड़ी दु:खी हुई। इसके विपरीत लड़का सुन्दर लड़की को देखकर फूला न समाया।

रात होती तो लड़की की सास दूध औटाकर उसमें गुड़ या शक्कर मिलाकर बहू को कटोरा थमा देती और कहती, “जा, अपने लाड़े (पति) को पिला आ।˝ वह कटोरा हाथ में लेकर, पकत के पास जाती और बिना कुछ बोले चुपचाप खड़ी हो जाती। उसका पति दूध का कटोरा लेलेता और पी जाता। इस तरह कई दिन बीत गये। हर रोज ऐसे ही होता। एक दिन उसका पति सोचने लगा, आखिर यह बोलती क्यों नहीं। उसने निश्चय किया कि आज इसे बुलवाये बिना मानूंगा नहीं। जबतक यह कहेगी नहीं कि लो दूध पी लो, मैं इसके हाथ से कटोरा नहीं लूंगा।

उस दिन रात को जब वह दूध लेकर उसके पास खड़ी हुई तो वह चुपचाप लेटा रहा। उसने कटोरा नहीं थामा। पत्नी भी कटोरे को हाथ में पकड़े खड़ी रही, कुछ बोली नहीं। बेचारी सारी रात खड़ी रही, मगर उसने मुंह नहीं खोला। उस हठीले आदमी ने भी दूध का कटोरा नहीं लिया।

सुबह होने को हुई तो पति नेसोचा, इस बेचारी ने मेरे लिए कितना कष्ट सहा है। यह मेरे साथ रहकर प्रसन्न नहीं है। इसे अपने पास रखना इसके साथ घोर अन्याय करना है।

इसके बाद वह उसे उसके पीहर छोड़ आया। बेचारी वहां भी प्रसन्न कैसे रहती ! वह मन-मन ही कुढ़ती। वह घुटकर मरने लगी। उसे कोई बीमारी न थी। वह बाहर से एकदम ठीक लगती थी। माता-पिता को उसके विचित्र रोग की चिंता होने लगी। वे बहुत-से वैद्यों और ज्योतिषियों के पास गये, पर किसी की समझ में उसका रोग नही आया।

अंत में एक बड़े ज्योतिषी ने लड़की के रंग-रूप और चाल-ढाल को देखकर असली बात जानली। उसने उसके हाथ की रेखाएं देखीं। ज्योतिषी ने बताया, “बेटी! पिछले जन्म में तूने जैसे कर्म किये थे, तुझे ठीक वैसा ही फल मिल रहा है। इसमें नतेरा दोष है, न तेरे पति का। तेरे पति ने पिछले जन्म में सफेद मोतियों का दानकिया था और तूने ढेर सारे काले उड़द मांगने वालों की झोलियों में डाले थे। सफेद मोतियों के दानके फल से तेरे पति को सुंदर पत्नी मिली है और तुझे उड़दों जैसा काला-कलूटा आदमी मिला है।

“ऐसी हालत में तेरे लिए यही अच्छा है कि तू अपने पति के घर चली जा और मन में किसी भी प्रकार की बुरी भावना लाये बिना उसी से सांतोष कर, जो तुझे मिला है, ओर आगे के लिए खूब अच्छे-अच्छे काम कर। उसका फल तुझे अगले जन्म में अवश्य मिलेगा।”

ज्योतिषी की बात उस लड़की की समझ में आ गई और वह खुश होकर अपने पति के पास चली गई। वे लोग आंनंद से रहने लगे।

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