किसी गाँव में एक मालदार सेठ था. जितना मालदार उतना ही चतुर और कंजूस. एक दिन शाम के वक़्त सेठ को शौच जाने की जरूरत महसूस हुई. उस जमाने में घरों में शौचालय तो होते नहीं थे सो सेठ ने पानी से भरा लोटा लिया और चल दिया खेत की ओर.
रास्ते में कुछ दूरी पर एक पेड़ के नीचे दो चोर खड़े नजर आये. चोरों ने सोचा कि चलो इस सेठ का लोटा छीन लेते हैं. जैसे ही चोर धीरे-धीरे सेठ की ओर बढ़े, वह चोरों के मनसूबे को ताड़ गया और तुरंत पानी फेंककर लोटे की ओर देखता हुआ बोला – “अरे ! आज यह कमबख्त फूटा हुआ टीन का लोटा कैसे आ गया ! मैं तो हमेशा चांदी का लोटा लाया करता हूँ. अभी वापस जाकर चांदी वाला लोटा लेकर आना पड़ेगा वरना मेरा तो पेट ही साफ़ नहीं होगा.”
इतना कहकर सेठ वापस घर की ओर लौट दिया. चोरों ने भी सोचा सेठ को चांदी का लोटा लेकर आने दो तभी छीनेंगे. लेकिन सेठ एक बार जो घर की ओर गया तो फिर नहीं लौटा.
चोर समझ गए कि सेठ चालाकी से निकल गया. लेकिन उन्होंने भी ठान लिया कि आज तो इस सेठ को लूटकर ही रहेंगे. वे चुपचाप आकर सेठ के घर के दरवाजे के बाहर छिपकर खड़े हो गए. सेठ ने यह देखने के लिए कि बाहर चोर तो नहीं हैं, जरा सा दरवाजा खोलकर बाहर झाँका तो पहले से तैयार खड़े चोरो ने उसकी मूंछे पकड़ लीं.
सेठ ने तत्काल सेठानी को आवाज लगाईं – “अरी ओ सुशीला की माँ, जल्दी से सौ रुपये लाना, चोर जी ने मूँछ पकड़ ली है तो वे सौ रुपये लेकर ही छोड़ देंगे, अगर कहीं नाक पकड़ ली तो फिर दौ सौ से कम में नहीं छोड़ेंगे.”
चोरों ने सोचा, मूंछ पकड़ने की अपेक्षा नाक पकड़ना फायदे का सौदा है. उन्होंने तुरंत मूँछ छोड़कर नाक पकडनी चाही लेकिन इससे पहले ही सेठ ने बड़ी फुर्ती से मुँह अन्दर कर के दरवाजा बंद कर लिया.
फिर अन्दर से व्यंग्यपूर्वक चोरों से बोला – “मूर्खो, मैंने तुम्हें आठ आने का फूटा हुआ लोटा नहीं दिया तो दौ सौ रुपये क्या दूंगा … चुपचाप यहाँ से चले जाओ, यहाँ तुम्हारी दाल नहीं गलने वाली !!”
बेचारे चोर अपना सिर पीटते हुए चले गए.
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