राजा सुशर्मा अपने दरबारियों के हर प्रश्न का जवाब देते थे ।
एक बार एक व्यक्ति ने दरबार में उनसे पूछा , ‘ राजन , मनुष्य के जीवन में भक्ति और सेवा में किसका महत्व ज्यादा है ? ‘ उस समय वह उस प्रश्न का जवाब नहीं दे पाए लेकिन वह इस बारे में लगातार सोचते रहे । कुछ समय बाद राजा शिकार के लिए जंगल की ओर निकले लेकिन उन्होने किसी को साथ में नहीं लिया । घने जंगल में वह रास्ता भटक गए । शाम हो गयी । प्यास से उनका बुरा हाल ले गया था ।
काफी देर भटकने के बाद उन्हें एक कुटिया दिखाई पड़ी । वह किसी संत की कुटिया थी ।
राजा किसी तरह कुटिया तक पहुंचे और ‘ पानी – पानी ‘ कहते हुए मूर्छित हो गए । कुटिया में संत समाधि में लीन थे । राजा के शब्द संत के कानों में गयी
“पानी – पानी “की पुकार सुनने से संत की समाधि भंग हो गयी । वह अपना आसन छोड़ राजा के पास गए और उन्हें पानी पिलाया । पानी पीकर राजा की चेतना लौट आयी ।
राजा पिलाकर को जब पता चला कि संत समाधिस्थ थे तो उन्होने कहा ‘ मुनिवर मेरी वजहसे आपके ध्यान में खलल पड़ा । मैं दोषी हूं । मुझे प्रायश्चित करना होगा । ‘ संत ने कहा – ‘ राजन आप दोषी नहीं हैं इसलिए प्रायश्चित करने का प्रश्न ही नहीं है ।
प्यासा पानी मांगता है और प्यास बुझाने वाला पानी देता है । आपने अपना कर्म किया है और मैंने अपना । यदि आप पानी की पुकार नहीं करते तो आपका जीवन खतरे में पड़ जाता और यदि मैं समाधि छेड़कर आपको पानी नहीं पिलाता , तब भी आपका जीवन खतरे में पड़ता । आपको पानी पिलाकर जो संतुष्टि मिल रही , वह कभी समाधि की अवस्था में भी नहीं मिलती, भक्ति और सेवा दोनों ही मोक्ष के रास्ते हैं , लेकिन यदि आप आज प्यासे रह जाते तो मेरी अब तक की सारी साधना व्यर्थ हो जाती ।
राजा को उत्तर मिल गया कि सेवा का महत्त्व भक्ति से अधिक है ।
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