कलाकार की मुक्ति

मैं कोई कहानी नहीं कहता। कहानी कहने का मन भी नहीं होता, और सच पूछो तो मुझे कहानी कहना आता भी नहीं है। लेकिन जितना ही अधिक कहानी पढ़ता हूँ या सुनता हूँ उतना ही कौतूहल हुआ करता है कि कहानियाँ आखिर बनती कैसे हैं! फिर यह भी सोचने लगता हूँ कि अगर ऐसे न बनकर ऐसे बनतीं तो कैसा रहता? और यह प्रश्न हमेशा मुझे पुरानी या पौराणिक गाथाओं की ओर ले जाता है। कहते हैं कि पुराण-गाथाएँ सब सर्वदा सच होती है क्योंकि उनका सत्य काव्य-सत्य होता है, वस्तु-सत्य नहीं। उस प्रतीक सत्य को युग के परिवर्तन नहीं छू सकते।
लेकिन क्या प्रतीक सत्य भी बदलते नहीं? क्या सामूहिक अनुभव में कभी परिवर्तन नहीं आता? वृद्धि भी तो परिवर्तन है और अगर कवि ने अनुभव में कोई वृद्धि नहीं की तो उसकी संवेदना किस काम की?
यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते मानो एक नयी खिडक़ी खुल जाती है और पौराणिक गाथाओं के चरित-नायक नये वेश में दीखने लगते हैं। वह खिडक़ी मानो जीवन की रंगस्थली में खुलनेवाली एक खिडक़ी है, अभिनेता रंगमंच पर जिस रूप में आएँगे उससे कुछ पूर्व के सहज रूप में उन्हें इस खिडक़ी से देखा जा सकता है। या यह समझ लीजिए कि सूत्रधार उन्हें कोई आदेश न देकर रंगमंच पर छोड़ दे तो वे पात्र सहज भाव से जो अभिनय करेंगे वह हमें दीखने लगता है और कैसे मान लें कि सूत्रधार के निर्देश के बिना पात्र जिस रूप में सामने आते हैं-जीते हैं-यही अधिक सच्चा नहीं है?
शिप्र द्वीप के महान कलाकार पिंगमाल्य का नाम किसने नहीं सुना? कहते हैं कि सौन्दर्य की देवी अपरोदिता का वरदान उसे प्राप्त है-उसके हाथ में असुन्दर कुछ बन ही नहीं सकता। स्त्री-जातिमात्र से पिंगमाल्य को घृणा है लेकिन एक के बाद एक सैकड़ों स्त्री-मूर्तियाँ उसने निर्माण की है। प्रत्येक को देखकर दर्शक उसे उससे पहली निर्मित से अधिक सुन्दर बताते हैं और विस्मय से कहते हैं, ‘‘इस व्यक्ति के हाथ में न जाने कैसा जादू है। पत्थर भी इतना सजीव दीखता है कि जीवित व्यक्ति भी कदाचित् उसकी बराबरी न कर सके। कहीं देवी अपरोदिता प्रस्तर-मूर्तियों में जान डाल देतीं। देश-देशान्तर के वीर और राजा उस नारी के चरण चूमते जिसके अंग पिंगमाल्य की छेनी ने गढ़े हैं और जिसमें प्राण स्वयं देवी अपरोदिता ने फूँके हैं।’’
कभी कोई समर्थन में कहता, ‘‘हाँ, उस दिन पिंगमाल्य की कला पूर्ण सफल हो जाएगी, और उसके जीवन की साधना भी पूरी हो जाएगी-इससे बड़ी सिद्धि और क्या हो सकती है!’’
पिंगमाल्य सुनता और व्यंग्य से मुस्करा देता। जीवित सौन्दर्य कब तक पाषाण के सौन्दर्य की बराबरी कर सकता है! जीवन में गति है, ठीक है; लेकिन गति स्थानान्तर के बिना भी हो सकती है-बल्कि वह तो सच्ची गति है। कला की लयमयता-प्रवहमान रेखा का आवर्तन और विर्वतन-यह निश्चल सेतु जो निरन्तर भूमि को अन्तरिक्ष से मिलाता चलता है-जिस पर से हम क्षण में कई बार आकाश को छूकर लौट आ सकते हैं-वही तो गति है! नहीं तो सुन्दरियाँ पिंगमाल्य ने अमथ्य के उद्यानों में बहुत देखी थीं-उन्हीं की विलासिता और अनाचारिता के कारण तो उसे स्त्री-जाति से घृणा हो गयी थी… उसे भी कभी लगता कि जब वह मूर्ति बनाता है तो देवी अपरोदिता उसके निकट अदृश्य खड़ी रहती है-देवी की छाया-स्पर्श ही उसके हाथों को प्रेरित करता है, देवी का यह ध्यान ही उसकी मन:शक्ति को एकाग्र करता है। कभी वह मूर्ति बनाते-बनाते अपरोदिता के अनेक रूपों का ध्यान करता चलता-काम की जननी, विनोद की रानी, लीला-विलास की स्वामिनी, रूप की देवी…
एक दिन साँझ को पिंगमाल्य तन्मय भाव से अपनी बनायी हुई एक नयी मूर्ति को देख रहा था। मूर्ति पूरी हो चुकी थी और एक बार उस पर ओप भी दिया जा चुका था। लेकिन उसे प्रदर्शित करने से पहले साँझ के रंजित प्रकाश में वह स्थिर भाव से देख लेना चाहता था। वह प्रकाश प्रस्तर को जीवित त्वचा की सी क्रान्ति दे देता है, दर्शक उससे और अधिक प्रभावित होता है, लेकिन कलाकार उसमें कहीं कोई कोर-कसर रह गयी हो तो उसे भी देख लेता है।
किन्तु कहीं कोई कमी नहीं थी, पिंगमाल्य मुग्ध भाव से उसे देखता हुआ मूर्ति को सम्बोधन करके कुछ कहने ही जा रहा था कि सहसा कक्ष में एक नया प्रकाश भर गया जो साँझ के प्रकाश से भिन्न था। उसकी चकित आँखों के सामने प्रकट होकर देवी अपरोदिता ने कहा, ‘‘पिंगमाल्य, मैं तुम्हारी साधना से प्रसन्न हूँ। आजतक कोई मूर्तिकार अपनी कला से मेरे सच्चे रूप के इतना निकट नहीं आ सका है, जितना तुम। मैं सौन्दर्य की पारमिता हूँ। बोलो, तुम क्या चाहते हो-तुम्हारी कौन-सी अपूर्ण, अव्यक्त इच्छा है?’’
पिंगमाल्य अपलक उसे देखता हुआ किसी तरह कह सका, ‘‘देवि, मेरी तो कोई इच्छा नहीं है। मुझमें कोई अतृप्ति नहीं है।’’
‘‘तो ऐसे ही सही,’’ देवी तनिक मुस्करायी, ‘‘मेरी अतिरिक्त अनुकम्पा ही सही। तुम अभी मूर्ति से कुछ कहने जा रहे थे मेरे वरदान से अब मूर्ति ही तुम्हें पुकारेगी-’’
रोमांचित पिंगमाल्य ने अचकचाते हुए कहा, ‘‘देवि…’’
‘‘और उसके उपरान्त…’’ देवी ने और भी रहस्यपूर्ण भाव से मुस्कराकर कहा, ‘‘पर उसके अनन्तर जो होगा वह तुम स्वयं देखना, पिंगमाल्य! मैं मूर्ति को नहीं, तुम्हें भी नया जीवन दे रही हूँ-और मैं आनन्द की देवी हूँ!’’
एक हल्के-से स्पर्श से मूर्ति को छूती हुई देवी उसी प्रकार सहसा अन्तर्धान हो गयी, जिस प्रकार वह प्रकट हुई थी।
लेकिन देवी के साथ जो आलोक प्रकट हुआ था, वह नहीं बुझा। वह मूर्ति के आसपास पुंजित हो आया।
एक अलौकिक मधुर कंठ ने कहा, ‘‘मेरे निर्माता-मेरे स्वामी!’’ और पिंगमाल्य ने देखा कि मूर्ति पीठिका से उतरकर उसके आगे झुक गयी है।
पिंगमाल्य काँपने लगा। उसके दर्शकों ने अधिक-से-अधिक अतिरंजित जो कल्पना की थी वह तो सत्य हो आयी है। विश्व का सबसे सुन्दर रूप सजीव होकर उसके सम्मुख खड़ा है, और उसका है। रूप भोग्य है, नारी भी…
मूर्ति ने आगे बढक़र पिंगमाल्य की भुजाओं पर हाथ रखा और अत्यन्त कोमल दबाव से उसे अपनी ओर खींचने लगी।
यह मूर्ति नहीं, नारी है। संसार की सुन्दरतम नारी, जिसे स्वयं अपरोदिता ने उसे दिया है। देवी जो गढ़ती है उससे परे सौन्दर्य नहीं है; जो देती है उससे परे आनन्द नहीं है। पिंगमाल्य के आगे सीमाहीन आनन्द का मार्ग खुला है।
जैसे किसी ने उसे तमाचा मार दिया है, ऐसे सहसा पिंगमाल्य दो कदम पीछे हट गया। स्वर को यथासम्भव सम और अविकल बनाने का प्रयास करते हुए उसने कहा, ‘‘तुम यहाँ बैठो।’’
रूपसी पुन: उसी पीठिका पर बैठ गयी, जिस पर से वह उतरी थी। उसके चेहरे की ईषत् स्मित कक्ष में चाँदनी बिखरेनी लगी।
दूसरे दिन पिंगमाल्य का कक्ष नहीं खुला। लोगों को विस्मय तो हुआ, लेकिन उन्होंने मान लिया कलाकार किसी नयी रचना में व्यस्त होगा। सायंकाल जब धूप फिर पहले दिन की भाँति कक्ष के भीतर वायुमंडल को रंजित करती हुई पड़ने लगी तब देवी अपरोदिता ने प्रकट होकर देखा कि पिंगमाल्य अपलक वहीं-का-वहीं खड़ा है और रूपसी जड़वत् पीठिका पर बैठी है। इस अप्रत्याशित दृश्य को देखकर देवी ने कहा, ‘‘यह क्या देखती हूँ, पिंगमाल्य? मैंने तो तुम्हें अतुलनीय सुख का वरदान दिया था?’’
पिंगमाल्य ने मानो सहसा जागकर कहा, ‘‘देवी, यह आपने क्या किया?’’
‘‘क्यों?’’
‘‘मेरी जो कला अमर और अजर थी, उसे आप ने जरा-मरण के नियमों के अधीन कर दिया! मैंने तो सुख-भोग नहीं माँगा-मैं तो यही जानता आया कि कला का आनन्द चिरन्तन है।’’
देवी हँसने लगी, ‘‘भोले पिंगमाल्य! लेकिन कलाकार सभी भोले होते हैं। तुम यह नहीं जानते कि तुम क्या माँग रहे हो-या कि क्या तुम्हें मिला है जिसे तुम खो रहे हो। किन्तु तुम चाहते हो तो और विचार करके देख लो। मैं तुम्हारी मूर्ति को फिर जड़वत् किये जाती हूँ। लेकिन रात को तुम उसे पुकारोगे और उत्तर न पाकर अधीर हो उठोगे। कल मैं आकर पूछूँगी-तुम चाहोगे तो कल मैं इसमें फिर प्राण डाल दूँगी। मेरे वरदान वैकल्पिक नहीं होते। लेकिन तुम मेरे विशेष प्रिय हो, क्योंकि तुम रूपस्रष्टा हो।’’
देवी फिर अन्तर्धान हो गयी। उसके साथ ही कक्ष का आलोक भी बुझ गया। पिंगमाल्य ने लपककर मूर्ति को छूकर देखा, वह मूर्ति ही थी, सुन्दर ओपयुक्त, किन्तु शीतल और निष्प्राण।
विचार करके और क्या देखना है? वह रूप का स्रष्टा है, रूप का दास होकर रहना वह नहीं चाहता। मूर्ति सजीव होकर प्रेय हो जाए, यह कलाकार की विजय भी हो सकती है, लेकिन कला की निश्चय ही वह हार है।…पिंगमाल्य ने एक बार फिर मूर्ति को स्पर्श करके देखा। कल देवी फिर प्रकट होगी और इस मूर्ति में प्राण डाल देगी आज जो पिंगमाल्य की कला है, कल वह एक किंवदन्ती बन जाएगी। लोग कहेंगे कि इतना बड़ा कलाकार पहले कभी नहीं हुआ, और यही प्रशंसा का अपवाद भविष्य के लिए उसके पैरों की बेडिय़ाँ बन जाएगा… किन्तु कल…
चौंककर पिंगमाल्य ने एक बार फिर मूर्ति को छुआ और मूर्ति की दोनों बाँहें अपनी मुट्ठियों में जकड़ लीं। कल… उसकी मु_ियों की पकड़ धीरे-धीरे शिथिल हो गयी। आज वह मूर्ति है, पिंगमाल्य की गढ़ी हुई अद्वितीय सुन्दर मूर्ति, कल यह एक नारी हो जाएगी-अपरोदिता से उपहार में मिली हुई अद्वितीय सुन्दर नारी। पिंगमाल्य ने भुजाओं को पकड़ कर मूर्ति को ऊँचा उठा लिया और सहसा बड़े जोर से नीचे पटक दिया।
मूर्ति चूर-चूर हो गयी।
अब वह कल नहीं आएगा। पिंगमाल्य की कला जरा-मरण के नियमों के अधीन नहीं होगी। कला उसकी श्रेय ही रहेगी, प्रेय होने का डर अब नहीं है।
किन्तु अपरोदिता? क्या देवी का कोप उसे सहना होगा? क्या उसने सौन्दर्य की देवी की अवज्ञा कर दी है! और इसीलिए अब उसकी रूप-कल्पी प्रतिभा नष्ट हो जाएगी?
किन्तु अवज्ञा कैसी? देवी ने स्वयं उसे विकल्प का अधिकार दिया है।
पिंगमाल्य धरती पर बैठ गया और अनमने भाव से मूर्ति के टुकड़ों को अँगुलियों से धीरे-धीरे इधर-उधर करने लगा।
क्या देवी अब भी छायावत् उसकी कोहनी के पीछे रहेगी और उसकी अँगुलियों को प्रेरित करती रहेगी? या कि वह उदासीन हो जाएगी? क्या वह-क्या वह आज के कला साधना में अकेला हो गया है?
पिंगमाल्य अवष्टि-सा उठकर खड़ा हो गया। एक दुर्दान्त साहसपूर्ण भाव उसके मन में उदित हुआ और शब्दों में बँध आया। कला-साधना में अकेला होना ही तो साधक होना है। वह अकेला नहीं हुआ है, वह मुक्त हो गया है।
वह आसक्ति से मुक्त हो गया है और वह देवी से भी मुक्त हो गया है।
कथा है कि पिंगमाल्य ने उस मूर्ति से जिसमें देवी ने प्राण डाले थे, विवाह कर लिया था और उससे एक सन्तान भी उत्पन्न की थी, जिसने अनन्तर प्रपोष नाम का नगर बसाया। किन्तु वास्तव में पिंगमाल्य की पत्नी शिलोद्भवा नहीं थी। बन्धनमुक्त हो जाने के बाद पिंगमाल्य ने पाया कि वह घृणा से भी मुक्त हो गया है। और उसने एक शीलवन्ती कन्या से विवाह किया। भग्न मूर्ति के खंड उसने बहुत दिनों तक अपनी मुक्ति की स्मृति में सँभाल रखे। मूर्ति के लुप्त हो जाने का वास्तविक इतिहास किसी को पता नहीं चला। देवी ने भी पिंगमाल्य के लिए व्यस्त होना आवश्यक समझा। क्योंकि कला-साधना की एक दूसरी देवी है, और निष्ठावान गृहस्थ जीवन की देवी उससे भी भिन्न है।
और पिंगमाल्य की वास्तविक कला-सृष्टि इसके बाद ही हुई। उसकी कीर्ति जिन मूर्तियों पर आधारित है वे सब इस घटना के बाद ही निर्मित हुईं।
कहानी मैं नहीं कहता। लेकिन मुझे कुतूहल होता है कि कहानियाँ आखिर बनती कैसे हैं? पुराण-गाथाओं के प्रतीक सत्य क्या कभी बदलते नहीं? क्या सामूहिक अनुभव में अभी कोई वृद्धि नहीं होती? क्या कलाकार की संवेदना ने किसी नये सत्य का संस्पर्श नहीं पाया?

Ravi KUMAR

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