(अदन की वाटिका, तीसरे पहर का समय। एक बड़ा सांप अपना सिर फूलों की एक क्यारी में छिपाये हुए और अपने शरीर को एक वृक्ष की शाखाओं में लपेटे हुए पड़ा है। वृक्ष भलीभांति च़ चुका है, क्योंकि सृष्टि के दिन हमारे अनुमान से कहीं अधिक बड़े थे। सर्प उस व्यक्ति को नहीं दिखाई दे सकता जिसको उसकी विद्यमानता का ज्ञान नहीं है, क्योंकि उसके हरे और भूरे रंग के मेल से धोखा होता है। उसके निकट ही फूलों की क्यारी से एक ऊंची चट्टान दिखाई दे रही है। यह चट्टान और वृक्ष दोनों एक हरियाली के किनारे पर हैं, जिसमें एक हरिण का बच्चा मरा और सूखा हुआ पड़ा है और उसकी गर्दन टूट गई है। आदम अपने एक हाथ के सहारे चट्टान पर झुका हुआ मृत शरीर को भयभीत होकर देख रहा है, उसने अपनी बाईं ओर सर्प को नहीं देखा है। वह दाहिनी ओर मुड़ता है और घबराकर पुकारता है।)
आदम—हौआ, हौआ !
हौआ—क्या है, आदम ?
आदम—यहां आओ, शीघर कुछ हो गया है !
हौआ—(दौड़कर) क्या, कहां ? (आदम हरिण के बच्चे की ओर संकेत करता है) ओह ! (वह उसके पास जाती है और आदम को भी उसके साथ जाने का साहस होता है) उसकी आंखों को क्या हो गया?
आदम—केवल आंखें नहीं, यह देखो (उसको ठुकराता है।)
हौआ—अरे यह न करो, यह जागता क्यों नहीं ?
आदम—मालूम नहीं, सो नहीं रहा है।
हौआ—सो नहीं रहा है ?
आदम—देखा तो !
हौआ—(हरिण के बच्चे को हिलाने और उलटने की चेष्टा करते हुए) यह तो कठोर और ठंडा हो गया है !
आदम—कोई वस्तु इसको जगा नहीं सकती ?
हौआ—इसमें तो विचित्र गंध है, ओह ! (अपना हाथ झाड़ती है और उसके पास से हट जाती है) क्या तुमने इसको इसी दशा में पाया था ?
आदम—नहीं, अभी खेल रहा था कि ठोकर खाकर लड़खड़ाता हुआ गिर पड़ा, फिर वह हिला तक नहीं और इसकी गर्दन में कोई दोष हो गया है। (गर्दन उठाकर हौआ को दिखाने के लिए झुकता है।)
हौआ—मत छुओ, इसके पास से हट जाओ। (दोनों पीछे हट जाते हैं और थोड़ी दूर से उस लोथ पर ब़ती हुए घृणा से विचार करते हैं।)
हौआ—आदम !
आदम—हां।
हौआ—मान लो कि तुम ठोकर खाकर गिर पड़ो, तो क्या तुम भी इस तरह चले जाओगे ?
आदम—ओह ! (थर्रा जाता है और चट्टान पर बैठ जाता है।)
हौआ—(उसके पाश्र्व में बैठकर और उसके घुटनों को पकड़कर) तुमको इसका ध्यान रखना चाहिए, परतिज्ञा करो कि ध्यान रखोगे।
आदम—ध्यान रखने से लाभ क्या ? हमको यहां सदैव रहना है, देखती हो, सदैव के क्या अर्थ हैं। एकन-एक दिन मैं भी ठोकर खा जाऊंगा और गिर पडूंगा। मुमकिन है कल ही, और संभव है इतने दिनों बाद जितनी की इस बाग में पत्तियां हैं अथवा नदी के किनारे बालू के कण हैं। तात्पर्य यह कि मैं भूल जाउंगा और ठोकर खा जाउंगा।
हौआ—मैं भी।
आदम—(भीत होकर) नहीं नहीं ! मैं अकेला रह जाउंगा और सदा के लिए। तुम कभी अपने को इस विपत्ति में न डालना। तुम चला न करो, चुपचाप बैठी रहा करो; मैं तुम्हारी रक्षा करुंगा और जिस वस्तु की तुमको आवश्यकता होगी, स्वयं लाकर दूंगा।
हौआ—(कापंते हुए उसकी ओर से मुंह फेरकर और अपनी कुहनियों को पकड़कर) मैं इस तरह जल्द घबरा जाउंगी। इसके सिवाय तुम्हारा यह परिणाम हुआ, तो फिर मैं अकेली रह जाउंगी। उस समय बेकार बैठी न रह सकूंगी और अंत में मेरा भी वही परिणाम होगा।
आदम—और फिर ?
हौआ—फिर हम नहीं होंगे, केवल पशु, पक्षी और सर्प होंगे।
आदम—यह न होना चाहिए।
हौआ—हां, न होना चाहिए; किन्तु हो सकता है।
आदम—नहीं, कहता हूं कि नहीं होना चाहिए। मैं जानता हूं कि ऐसा नहीं होगा।
हौआ—हम दोनों जानते हैं, लेकिन कैसे जानते हैं ?
आदम—बाग में एक ‘शब्द’ है, जो मुझको बातें बताया करता है।
हौआ—बाग तो शब्दों से पूर्ण है, जो मेरे सिर में नएनए विचार लाते रहते हैं।
आदम—मेरे लिए केवल एक शब्द है जो मुझसे इतना निकट है मानो मेरे भीतर से आ रहा हो।
हौआ—आश्चर्य है कि मैं तो परत्येक वस्तु में शब्द सुनती हूं और तुम केवल एक शब्द अपने भीतर सुनते हो। मगर कुछ बातें ऐसी भी हैं जो शब्दों के द्वारा नहीं किन्तु मेरे भीतर से आती हैं। और यह विचार कि ‘मेरा कभी नाश नहीं’ मेरे भीतर से आया है।
आदम—लेकिन हम नष्ट हो जायेंगे। इस हरिण के बालक की भांति हम भी गिरेंगे और….(उठाकर घबराहट में इधरउधर टहलने लगता है) मैं इस विद्या का तेज नहीं सह सकता। मुझे इसकी आवश्यकता नहीं। मैं तुमसे कहता हूं कि ऐसा नहीं होना चाहिए। फिर भी यह नहीं जानता कि किस परकार रोकूं।
हौआ—मैं भी यही अनुभव करती हूं। आश्चर्य की बात है कि तुम इस परकार कह रहे हो। तुमको किसी दशा में कल नहीं ! तुम सदैव विचार बदलते रहते हो।
आदम—(डांटकर) यह क्यों कहती हो ? मैंने अपना विचार कब बदला है?
हौआ—तुम कहते हो कि तुम्हारा नाश न होना चाहिए। लेकिन तुम्हीं इसकी शिकायत किया करते थे कि हमको यहां सदैव रहना है। किसीकिसी समय तुम घंटों मौन धारण किये हुए विचारा करते हो और मन ही मन में मुझ पर क्रोधित रहते हो। जब मैं पूछती हूं कि मैंने क्या किया है, तो तुम कहते हो कि तुम्हारे विषय में नहीं किन्तु अपने यहां सदैव रहने की विपत्ति पर ध्यान कर रहा था। परन्तु मैं समझती हूं कि जिस वस्तु को तुम विपत्ति कहते हो, वह, यहां सदैव मेरे साथ रहना है।
आदम—तुम यह क्यों विचारती हो ? नहीं, तुम भूल करती हो। (वह फिर मुग्ध होकर बैठ जाता है।) मूल विपत्ति तो सदैव अपने साथ रहना है। मैं तुमको चाहता हूं, परन्तु अपने को नहीं चाहता। मैं कुछ और होना चाहता हूं। इससे अच्छा मैं चाहता हूं कि मेरा बारंबार फिर से आरंभ होता रहे। जिस परकार सर्प केंचुल बदलता रहता है, उसी परकार मैं भी अपने को बदलता रहूं। मैं अपने से ऊब गया हूं। परन्तु मुझको किसी न किसी परकार सहन करना है। एक दिन या कई दिन के लिए ही क्यों किंतु सदैव के लिए यह एक भयभीत कर देने वाला विचार है। इसी पर मौन होकर विचार किया करता हूं और खेद करता हूं। क्या तुमने कभी इस पर विचार नहीं किया ?
हौआ—मैं अपने विषय में विचार नहीं करती। इससे क्या लाभ? मैं जो हूं, सो हूं। कोई वस्तु इसको बदल नहीं सकती। मैं तुम्हारे सम्बन्ध में विचार करती रहती हूं।
आदम—यह ठीक नहीं, तुम सदैव मेरी खोज में लगी रहती हो। तुमको सदैव यह जानने की चिन्ता रहती है कि मैं क्या करता रहता हूं। यह तो एक बार ज्ञात होता ही। इसकी जगह कि अपने को मेरे साथ लगाए रखो, तुमको यह यत्न करना चाहिए कि तुम्हारा एक अपना निजी अस्तित्व पृथक हो।
हौआ—मुझको तुम्हारा ध्यान रखना है। तुम सुस्त हो, मलिन रहते हो; अपना ध्यान नहीं रखते। परतिक्षण स्वप्न देखते रहते हो। यदि मैं अपने को तुम्हारे साथ लगाए न रखूं, तो तुम दूषित भोजन करने लगोगे और घृणा के योग्य हो जाओगे। इस पर मेरे इतने देखते रहने पर भी तुम किसी दिन मस्तक के बल गिर पड़ोगे और मृतक हो जाओगे।
आदम—मृतक ? यह कौनासा शब्द है ?
हौआ—(हरिण के बच्चे की ओर संकेत करके) इसकी भांति मैं इसको मृतक कहती हूं।
आदम—(उठकर बच्चे के पास जाते हुए) इसमें कोई अपिरय बात मालूम होती है।
हौआ—(आदम के पास जाते हुए) यह तो श्वेत छोटे कीड़ों के रूप में बदल रहा है।
आदम—इसको नदी में फेंक आओ। यह असह्य हो रहा है।
हौआ—मैं इसको स्पर्श करने का साहस नहीं कर सकती।
आदम—तो मैं ही फेंक आउं, यद्यपि मुझे इससे घृणा हो रही है। यह हवा में विषमय कर रहा है। (खुरों को अपने हाथ में लेकर शव को यथासंभव अपने शरीर से दूर लटकाये हुए उस ओर जाता है जिस ओर से हवा आई थी।)
हौआ—(उसकी ओर एक क्षण भर देखती रहती है, फिर घृणा की एक झिझक के साथ चट्टान पर बैठ जाती है और कुछ विचारने लगती है। सर्प का शरीर मनोहर नए रंगों से चमकता हुआ देख पड़ता है। वह पुष्पों की क्यारी से धीरे से अपना सिर उठाता है और हौआ के कान में एक अद्भुत मनोमुग्धकर किन्तु सुरीली ध्वनि में कहता है।)
सर्प—हौआ !
हौआ—कौन है ?
सर्प—मैं हूं ! तुमको अपना सुन्दर नवीन फण दिखाने आया हूं। देखो (सुन्दर बेल में अपना फण फैला देता है।)
हौआ—आहा ! किन्तु मुझको बोलना किसने सिखाया ?
सर्प—तुमने और आदम ने ! मैं घास में छिपकर तुम्हारी बातें सुना करता हूं।
हौआ—यह तेरी बड़ी बुद्धिमानी है।
सर्प—मैं इस मैदान के पशुओं में सबसे अधिक चतुर हूं।
हौआ—तेरा फण बहुत सुन्दर है (फण को थपथपाती है और सर्प को प्यार करती है) अच्छे सर्प ! क्या तू अपनी देवी माता हौआ को चाहता है ?
सर्प—मैं उसको पूजता हूं (हौआ की गर्दन को अपनी दोहरी जीभ से चाटता है।)
हौआ—(उसको प्यार करती हुई) हौआ के पिरय सर्प ! अब हौआ कभी अकेली न रहेगी। क्योंकि उसका सर्प बातें कर सकता है।
सर्प—बहुतसी वस्तुओं के विषय में मैं बातें कर सकता हूं। मैं बड़ा बुद्धिमान हूं। यह मैं ही था, जिसने तुम्हारे कान में धीरे से वह शब्द कह दिया था जो तुमको नहीं ज्ञात था—मृतक, मृत्यु, मरना।
हौआ—(कांपकर) इसकी याद क्यों दिलाता है ? मैं तेरा सुन्दर फण देखकर उसको भूल गई थी। तुमको अभागी वस्तुओं की याद नहीं दिलाना चाहिए।
सर्प—मृत्यु भाग्यहीन वस्तु नहीं, यदि तुमने उस पर विजय पाना सीख लिया है।
हौआ—मैं मृत्यु पर विजय कैसे पा सकती हूं ?
सर्प—एक दूसरी वस्तु के द्वारा, जिसको उत्पत्ति कहते हैं।
हौआ—(उच्चारण की चेष्टा करते हुए) उ….त्….प….त्ति।
सर्प—हां, उत्पत्ति।
हौआ—उत्पत्ति क्या है ?
सर्प—सर्प कभी मरना नहीं, तुम किसी दिन देखोगी कि मैं इस सुन्दर केंचुल से एक नया सर्पर बनकर, और इससे अधिक सुन्दर केंचुल लेकर बाहर निकल आऊंगा। यही उत्पत्ति है।
हौआ—मैं ऐसा देख चुकी हूं। बड़े आश्चर्य की बात है।
सर्प—मैं बड़ा चतुर हूं, जब तुम और आदम बातें करते हो तो मैं तुमको ‘क्यों’ कहते हुए सुनता हूं। परति समय क्यों तुम नेत्रों से वस्तुओं को देखती हो और कहती हो ‘क्यों’ ? मैं स्वप्न में देखता हूं और कहता हूं ‘क्यों नहीं ?’ मैंने ‘मृतक’ शब्द को अपने आप बनाया है, जिसका तात्पर्य मेरी पुरानी केंचुल है, जिसको मैंने अपनी नवीनता के समय उतारकर फेंक दिया। इस नवीन को मैं उत्पन्न होना कहता हूं।
हौआ—‘उत्पत्ति’ एक सुन्दर शब्द है।
सर्प—क्यों नहीं ? मेरी भांति बारबार उत्पन्न होओ और सदैव नवीन और सुन्दर बनी रहो ?
हौआ—मैं ? इसलिए कि ऐसा होता नहीं, और क्यों नहीं।
सर्प—किन्तु वह ‘तो कैसे’ हुआ ‘क्यों नहीं ?’ तो नहीं हुआ। बताओ ‘क्यों नहीं ?’
हौआ—पर मैं इसको पसंद नहीं करुंगी। फिर से नया बन जाना अच्छी बात है। किन्तु मेरा पुराना चोला पृथ्वी पर बिल्कुल मेरी भांति पड़ा रहेगा और आदम उसको पीछे हटते हुए देखेगा और—
सर्प—नहीं, इसकी आवश्यकता नहीं, एक दूसरी उत्पत्ति भी है।
हौआ—दूसरी उत्पत्ति !
सर्प—सुनो, तुमको एक भारी गुप्तभेद बताता हूं। मैं बड़ा बुद्धिमान हूं। मैं विचारता रहता हूं। मैं संकल्प का पक्का हूं और जिस वस्तु की मुझको आवश्यकता होती है, उसको पराप्त कर लेता हूं। मैं अपने संकल्प से काम लेता रहा हूं और मैंने विचित्रविचित्र वस्तुएं खाई हैं; पत्थर सेब, जिनको खाते हुए तुम भयभीत होती हो।
हौआ—तुम्हारा यह साहस !
सर्प—मुझे परत्येक बात का साहस हुआ और अन्त में मुझे ऐसा ंग ज्ञात हो गया जिससे अपने जीवन का भाग अपने शरीर के भीतर सुरक्षित रख सकूं।
हौआ—जीवन किसे कहते हैं ?
सर्प—वह वस्तु जो मृतक और सजीव हरिण के बालक में अन्तर करती हो।
हौआ—कैसे सुन्दर शब्द हैं और कैसी आश्चर्यजनक वस्तु है। ‘जीवन’ सब शब्दों में सबसे पिरय शब्द है।
सर्प—हां जीवन ही पर विचार और चिन्ता करने से मैंने करामात दिखाने की शक्ति पराप्त की है।
हौआ—करामात ? फिर एक नवीन शब्द ?
सर्प—करामात उस असंभव बात को कहते हैं, जो साधारणतः नहीं हो सकती, परन्तु हो जाती है।
हौआ—मुझे कोई करामात बताओ, तो तुमने की हो।
सर्प—मैंने अपने जीवन का एक भाग अपने शरीर में एकत्रित किया और उसको एक घर में बन्द किया जो उन पत्थरों से बना था जिनको मैंने खाया था।
हौआ—उससे क्या लाभ हुआ ?
सर्प—मैंने उस छोटे से घर को धूप दिखाई और सूर्य की उष्णता में रख दिया। वह फट गया और उससे एक छोटा सर्प निकल आया, जो परतिदिन ब़ता गया, यहां तक कि मेरे बराबर हो गया। यही थी दूसरी उत्पत्ति।
हौआ—ओहो ! यह तो असीम आश्चर्यजनक है। यह तो मेरे भीतर भी चेष्टा कर रही है, और मुझको घायल किए डालती है।
सर्प—उसने मुझे लगभग फाड़ डाला था, किन्तु इस पर भी मैं जीवित हूं और फिर अपने चोले को फाड़कर अपने को इसी परकार उत्पन्न कर सकता हूं। अदन में लगभग इतने सर्प हो जायेंगे, जितने कि मेरे शरीर पर चट्टे हैं। उस समय मृत्यु कुछ न कर सकेगी। यह सर्प और वह सर्प मरते रहेंगे, परन्तु सर्प शेष ही रहेगा।
हौआ—परन्तु सर्प के अतिरिक्त हम सब कभी न कभी मर जायेंगे और तब कुछ और शेष न रहेगा, सर्वत्र सर्प ही सर्प रह जायेंगे।
सर्प—यह न होना चाहिए। हौआ मैं तुमको पूजता हूं, मेरे पूजन करने के लिए कोई न कोई वस्तु होनी चाहिए, जो तुम्हारी भांति मुझसे नितांत भिन्न हो। कोई वस्तु सर्प से उत्तम अवश्य होनी चाहिए।
हौआ—हां, यह न होना चाहिए, आदम का नाश न हो। तुम बड़े बुद्धिमान हो। बताओ क्या करुं ?
सर्प—सोचो, संकल्प करो, मिट्टी खाओ, श्वेत ष्पााण को चाटो; इस सेब को खाओ जिससे तुम भयभीत होती हो, सूर्य तुमको जीवन देगा।
हौआ—सूर्य पर मुझको भरोसा नहीं। मैं स्वयं ही जीवन दूंगी। मैं अपने शरीर को चीर कर दूसरा आदम निकालूंगी। चाहे ऐसा करने में मेरे शरीर के टुकड़ेटुकड़े क्यों न हो जायं !
सर्प—अवश्य साहस करो। परत्येक बात संभव है, परत्येक बात सुनो। मैं बू़ा हूं। आदम और हौआ से भी बू़ा हूं। मुझे अब तक ‘ललस’* याद है, जो आदम और हौआ से पहले थी। जिस परकार मैं तुमको पिरय हूं, इसी परकार उसको भी था। वह अकेली थी, उसके संग कोई पुरुष न था। जिस परकार हरिण के बच्चे को गिरा हुआ देखकर तुमने मृत्यु देख ली, इसी परकार उसने भी देख लिया था, तब उसको ध्यान हुआ कि नये सिरे से उत्पन्न होने का और मेरी भांति अपने को बदलने का कोई उपाय निकालना चाहिए। उसका संकल्प बलवान था। वह परयत्न करती रही और जितनी इस वाटिका के वृक्ष में पत्तियां हैं, उनसे भी अधिक महीनों तक वह संकल्प करती रही। उसकी पीड़ा भयानक थी। उसके क्रन्दन ने अदन का निद्रा से शून्य कर दिया था। उसने कहा—अब ऐसा न होना चाहिए। नये सिरे से जीवन का भार असह्य है। उनके लिए यह क्लेश अत्यन्त अधिक है और जब उसने अपना शरीर बदला, तो एक ललस न थीं, वरन दो थीं; एक तुम्हारी भांति, दूसरी आदम की भांति। एक हौआ थी, दूसरा आदम।
हौआ—पर उसने अपने को दो में क्यों विभाजित किया और क्यों हमको एक दूसरे से विभिन्न बनाया ?
सर्प—कहता तो हूं कि यह परिश्रम एक के सहन करने से बहुत अधिक है। इसमें दो को सम्मिलित रहना चाहिए।
हौआ—क्या तुम्हारा यह तात्पर्य है कि मेरे साथ आदम को भी इस कष्ट में सम्मिलित होना पड़ेगा ? नहीं, वह नहीं सम्मिलित होगा। वह इस परिश्रम को सहन नहीं कर सकता और न शरीर पर कोई कष्ट उठा सकता है।
सर्प—इसकी आवश्यकता नहीं, इसके लिए कोई परिश्रम न होगा। वह स्वयं सम्मिलित होने के लिए तुमसे परार्थना करेगा। वह अपनी इच्छा के द्वारा तुम्हारे वश में होगा।
हौआ—तब तो मैं जरूर करुंगी, लेकिन कैसे ? ललस ने इस चमत्कार को कैसे किया था ?
सर्प—उसने ध्यान किया।
हौआ—‘ध्यान किया’ क्या वस्तु है ?
सर्प—उसने मुझसे एक ऐसी घटना की चित्ताकर्षक कथा का वर्णन किया, जो एक ऐसी ललस पर कभी नहीं बीती और कभी नहीं थी। ललस को उस समय तक यह नहीं ज्ञात था कि ‘ध्यान’, उत्पन्न करने का आरम्भ होता है। तुम भी, जिस वस्तु की तुमको इच्छा हो, उसका ध्यान करो, उसका संकल्प करो, और अन्त में जिस वस्तु का संकल्प करोगी उसे उत्पन्न कर लोगी।
हौआ—केवल ‘नास्ति’ से मैं किस परकार कोई वस्तु पैदा कर सकती हूं ?
सर्प—परत्येक वस्तु ‘नास्ति’ ही से उत्पन्न हुई होगी। अपने पुट्ठों पर मांस को देखो, यह सदैव वहां नहीं था। जब मैंने परथम बार तुमको देखा तो तुम वृक्ष पर नहीं च़ सकती थीं, परन्तु तुम संकल्प और परयत्न करती रहो, और तुम्हारे संकल्प ने केवल ‘नास्ति’ से तुम्हारी बाहुओं पर मांस का यह लोथड़ा पैदा कर दिया था। यहां तक कि तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो गई और तुम एक हाथ के बल अपने को खींचकर वृक्ष की उस डाल पर बैठ जाने के योग्य हो गई जो तुम्हारे सिर से उंची थी।
हौआ—वह तो अभ्यास था।
सर्प—अभ्यास से वस्तुएं घिस जाती हैं, ब़ती नहीं। तुम्हारे केश हवा में तरंगें ले रहे हैं जैसे खिंचकर ब़ जाने का परयत्न कर रहे हों, परंतु अभ्यास करने पर भी वह ब़ नहीं पाते केवल इसीलिए कि तुमने संकल्प नहीं किया है। जब ललस ने कुछ ध्यान किया था, उसको मौन भाषा में (क्योंकि उस समय तक शब्द नहीं थे) मुझसे वर्णन किया, तो मैंने उसे सम्मति दी कि उसने इच्छा करो, फिर संकल्प करो, और हमको यह देखकर आश्चर्य हुआ कि जिस वस्तु की उसने इच्छा की थी, और संकल्प किया था, वह उसके संकल्प की गति से अपने आप उसके भीतर उत्पन्न हो गई। तब मैंने भी संकल्प किया कि अपने को बदल कर एक के बदले दो बना लूं। और बहुत दिनों बाद यह चमत्कार परकट हुआ। मैं अपने पुराने चोले से बाहर निकला। इस रूप में एक दूसरा सर्प मुझसे लिपटा हुआ था। और अब उत्पन्न करने के लिए दो ध्यान हैं, दो इच्छाएं हैं, और दो संकल्प हैं।
हौआ—इच्छा करना, ध्यान करना, संकल्प करना, उत्पन्न करना, यह तो बड़ी लम्बी कहानी है। मुझे इसके लिए कोई एक शब्द बता। तू तो शब्दों का पारदर्शी है।
सर्प—जनना, इससे दोनों तात्पर्य हैं। ध्यान करके आरम्भ करना और उत्पत्ति पर समाप्त कर देना।
हौआ—मुझको इस कहानी के लिए कोई एक शब्द बता जिसका ललस ने ध्यान किया और जिसको तुझसे मौन भाषा में वर्णन किया। वही कहानी जो ऐसी अद्भुत थी कि सत्य नहीं हो सकती थी और फिर भी सत्य हो गई।
सर्प—एक शेर।
हौआ—ललस मेरी कौन थी ? अब इसके लिए कोई शब्द बता।
सर्प—वह तुम्हारी माता थी।
हौआ—और आदम की भी ?
सर्प—हां।
हौआ—(उठकर) मैं जाती हूं और आदम से जनने के लिए कहती हूं।
सर्प—(ठट्ठा मारकर हंसता है) !
हौआ—(व्याकुल होकर और चौंककर) कैसी घृणा पैदा करने वाला शब्द है! तुमको हो क्या हो गया है ? इससे पहले किसी के मुंह से ऐसा शब्द नहीं निकला।
सर्प—आदम नहीं जन सकता।
हौआ—क्यों ?
सर्प—ललस ने इसको ऐसा ध्यान नहीं किया। वह ध्यान कर सकता है, इच्छा कर सकता है, संकल्प कर सकता है। वह अपने जीवन को समेट कर एक नई रचना के लिए सुरक्षित रख सकता है। वह सब कुछ उत्पन्न कर सकता है, सिवास एक वस्तु के, और वह एक वस्तु उसकी अपनी वस्तु है।
हौआ—ललस ने उसको वंचित क्यों रखा ?
सर्प—इसलिए कि यदि वह ऐसा कर सकता, तो उसको हौआ की आवश्यकता न होती।
हौआ—ठीक है, तो जनना मुझको होगा।
सर्प—हां इसी के द्वारा उसका तुमसे सम्बन्ध है।
हौआ—और मेरा उससे।
सर्प—हां ! उस समय तक, जब तक कि तुम दूसरा आदम न उत्पन्न कर लो।
हौआ—मुझे इसका तो ध्यान ही न था। तू बहुत बड़ा है। किन्तु यदि में दूसरी हौआ पैदा करुं, तो सम्भव है कि वह इसकी ओर झुक जाय और मेरे बिना रह सके। मैं तो कोई हौआ उत्पन्न नहीं करुंगी, केवल आदम ही आदम उत्पन्न करुंगी।
सर्प—हौआ के बिना आदम अपने जीवन को नित नया न कर सकेंगे। कभी न कभी तुम हरिण के बच्चे की तरह मर जाओगी और फिर नए आदम बिना हौआ के उत्पन्न करने में असमर्थ रहेंगे। तुम ऐसे परिणाम का ध्यान तो कर सकती हो, किन्तु इसकी कामना नहीं कर सकतीं; इसलिए संकल्प नहीं कर सकतीं, अतएव केवल आदम ही आदम उत्पन्न नहीं कर सकतीं।
हौआ—यदि हरिण के बालक की भांति मुझको मर जाना है, तो जो शेष है, वह भी क्यों न मर जाय ? मुझे इसकी चिन्ता नहीं।
सर्प—जीवन को रुकना नहीं चाहिए। यह सबसे पहली बात है। यह कहना अज्ञानता है कि तुमको चिन्ता नहीं। तुमको अवश्य चिन्ता है। यही चिन्ता है जो तुम्हारे ध्यान को उत्तेजित करेगी, तुम्हारी इच्छा को भड़काएगी, तुम्हारे संकल्प को अटल बनायेगी और अन्त में केवल नास्ति से उत्पत्ति करेगी।
हौआ—(सोचते हुए) केवल नास्ति जैसी तो कोई वस्तु नहीं हो सकती। बाग भरा हुआ है। रिक्त नहीं है।
सर्प—मैंने इस पर भली भांति ध्यान नहीं किया था, यह एक बलवान विचार है। हां, केवल नास्ति जैसी कोई वस्तु नहीं। निस्सन्देह ऐसी वस्तुएं हैं जिनको हम देखते नहीं। गिरगिट भी हवा खाता है।
हौआ—मैंने एक और बात विचारी है। मैं उसको आदम से कहूंगी (पुकारते हुए) आदम ! आओ ! आओ !
आदम का शब्द—ओ ! ओ !
हौआ—इससे वह परसन्न होगा और उसके कुम्हलाए हुए पीड़ित चित्त की चिकित्सा हो जायगी।
सर्प—उससे अभी कुछ न कहो, मैंने तुमको भारी भेद नहीं बताया है।
हौआ—अब और क्या बताना है ? यह चमत्कार मेरा कार्य है।
सर्प—नहीं, उसको भी इच्छा और संकल्प करना है। परन्तु उसको अपनी इच्छा और संकल्प तुमको दे देना होगा।
हौआ—कैसे ?
सर्प—यही तो बड़ा गुप्त भेद है। चुप, वह आ रहा है।
आदम—(लौटते हुए) क्या वाटिका में हमारे शब्द और उस ‘शब्द’ के अतिरिक्त कोई और शब्द भी है ? मैंने एक नवीन शब्द सुना था।
हौआ—(उठती है और दौड़कर उसके निकट जाती है) तनिक विचार करो आदम ! हमारे सर्प ने हमारी बातें सुनसुनकर बोलना सीख लिया है।
आदम—(परसन्न होकर) सचमुच ? (वह उसके निकट से होकर पत्थर के पास जाता है और सर्प को प्यार करता है।)
सर्प—(प्यार से उत्तर देता है) हां, सचमुच, पिरय आदम !
हौआ—मुझको इससे भी अधिक आश्चर्यजनक बातें कहनी हैं। आदम अब हमको सदैव रहने की आवश्यकता नहीं।
आदम—(आवेश में सर्प का सर छोड़ देता है) क्या ! हौआ इस विषय में मुझसे खेल न करो। ईश्वर करे, किसी दिन हमारी समाप्ति हो जाती और इस भांति कि मानो नहीं हुआ। ईश्वर करे मैं सदैव रहने की विपत्ति से छुटकारा पाउं। ईश्वर करे इस वाटिका का संवारना किसी दूसरे माली के सुपुर्द हो जाय। और जो संरक्षक उस ‘शब्द’ की ओर से नियुक्त किया गया है, वह स्वतंत्र हो जाय। ईश्वर करे कि स्वप्न और शान्ति जो परतिदिन मुझको यह सब कुछ सहन करने के योग्य बनाए हुए है कुछ काल में अक्षय निद्रा और शान्ति हो जाय। बस किसीन-किसी परकार से समाप्ति होनी चाहिए। मुझमें इतनी शक्ति नहीं कि ‘सदैवता’ को सहन कर सकूं।
सर्प—तुमको आगामी गरीष्म तक भी रहने की आवश्यकता नहीं और फिर भी कोई समाप्ति नहीं होगी।
आदम—यह नहीं हो सकता।
सर्प—हो सकता है।
हौआ—और होगा।
सर्प—हो चुका है। मुझको मार डालो और कल वाटिका में तुम दूसरा सर्प देखोगे, तुम्हारे हाथ में जितनी उंगलियां हैं उनसे भी अधिक सर्प तुमको मिलेंगे।
हौआ—मैं दूसरा आदम और हौआ उत्पन्न करुंगी।
आदम—मैंने कह दिया कि कहानियां न ग़ो। यह नहीं हो सकता।
सर्प—मुझे स्मरण है, जब तुम आप ही एक ऐसी वस्तु थे, जो नहीं हो सकती थी, किंतु फिर भी तुम हो।
आदम—(आश्चर्यपूर्ण होकर) यह तो सच होगा। (पत्थर पर बैठ जाता है।)
सर्प—मैं उस भेद को हौआ से कह दूंगी और वह तुमको बता देगी।
आदम—(शीघरता से सर्प की ओर मुड़ता है और उस दशा में उसका पैर किसी तीक्ष्ण वस्तु पर पड़ जाता है) ओह !
हौआ—क्या हुआ ?
आदम—कांटा है, परत्येक स्थान पर कांटे हैं। वाटिका को सुहावनी बनाने के लिए इनको सदैव साफ करतेकरते थक गया।
सर्प—कांटे शीर्घ नहीं ब़ते। अभी बहुत समय तक वाटिका उनसे भर नहीं सकेगी। उस समय तक नहीं भर सकेगी जब तक कि तुम अपना बोझ उतारकर सदैव के लिए सोने न चले जाओगे। तुम इसके वास्ते क्यों दुखित हो ? नवीन आदम को अपने लिए अपना स्थान आप ही साफ करने दो !
आदम—यह सत्य है, तू अपना भेद हमको बता दे। देखो हौआ! सदैव के लिए यदि रहना न पड़े, तो कैसा उत्तम हो।
हौआ—(व्याकुलता के साथ भूमि पर बैठकर घास उखाड़ते हुए) पुरुष की यही दशा है। यह जानते हुए कि हमको सदैव के लिए नहीं रहना है, इस परकार बातें करने लगे मानो आज ही हमारी समाप्ति होने वाली है ! तुमको इन भयानक वस्तुओं को साफ करना है। नहीं तो जब कभी अज्ञानता में हम पैर उठायेंगे, तो घायल हो जायंगे।
आदम—हां, साफ तो अवश्य करना है, परन्तु थोड़ा ही। कल मैं इन सबको साफ कर डालूंगा।
सर्प—(ठट्ठा मारकर हंसता है) !!!
आदम—यह अद्भुत कोलाहल है, मुझे सुहावना लगता है।
हौआ—मुझको तो अच्छा नहीं लगता। तू किसलिए चिल्लाता है?
सर्प—आदम ने एक नई वस्तु निकाली है अर्थात ‘कल’। अब जब कि शेष रहने का बोझ तुम्हारे सिर से उठ गया है, तुम नित नई वस्तुएं निकाला करोगे।
आदम—शेष रहना ? यह क्या है ?
सर्प—यह मेरा शब्द है जिससे तात्पर्य सदैव के लिए जीवित रहना है।
हौआ—सर्प ने ‘होने’ के लिए एक सुन्दर शब्द बनाया है, ‘जीवन’।
आदम—मेरे लिए कोई ऐसा सुन्दर शब्द बता दे जिससे ‘कल’ काम करना अभिपररेत हो, क्योंकि सम्भवतः यह एक भारी और पवित्र आविष्कार है।
सर्प—टालना।
आदम—अत्यन्त पिरय शब्द है। ईश्वर करे मैं भी सर्प कीसी बोली पाए होता।
सर्प—यह भी हो सकता है, परत्येक बात सम्भव है।
आदम—(अचानक भय से चौंक पड़ता है) अरे !
हौआ—मेरी शान्ति ! जीवन से मेरा छुटकारा !
सर्प—‘मृत्यु’ ! इसके लिए यह शब्द है।
आदम—टालने से क्या भय है।
हौआ—क्या भय है ?
आदम—यदि मृत्यु को कल पर टाल दूं, तो मैं कभी नहीं मरुंगा। ‘कल’ कोई दिन नहीं, और न हो सकता है।
सर्प—मैं बड़ा बुद्धिमान हूं; परन्तु मनुष्य विचार में मुझसे भी अधिक गम्भीर है। स्त्री जानती है ‘केवल नास्ति’ कोई वस्तु नहीं। पुरुष जानता है कि ‘कल’ कोई दिन नहीं। मैं इनको पूजता हूं, ठीक करता हूं।
आदम—यदि मृत्यु को पाना है, तो मुझको कोई सच्चा दिन नियत करना चाहिए, कल नहीं। मुझको कब मरना चाहिए ?
हौआ—जब मैं दूसरा आदम उत्पन्न कर लूं, तो तुम मर जाना। मगर नहीं, तुम्हारा जब जी चाहे मर जाओ। (वह उठती है और आदम के पीछे से निरपेक्ष भाव से टहलती हुई वृक्ष के पास जाती है और उसके सहारे खड़ी होकर सर्प की गर्दन को थपथपाती है।)
आदम—फिर भी कोई शीघरता नहीं है।
हौआ—विदित होता है, कि तुम इसको ‘कल’ पर टालोगे।
आदम—और तुम ? क्या तुम दूसरी हौआ उत्पन्न करते ही मर जाओगी ?
हौआ—मैं क्यों मरुं ? क्या तुम मुझसे छुटकारा पाना चाहते हो? अभी तुम चाहते थे कि मैं चुपचाप बैठी रहूं और चला न करुं, जिससे कहीं हरिण के बच्चे की भांति ठोकर खाकर मर न जाउं और अब तुमको मेरी परवाह नहीं।
आदम—अब इसमें इतनी हानि नहीं है।
हौआ—(सर्प से क्रोध में) यह मृत्यु जिसको वाटिका में ले आया है, एक विपत्ति है। वह चाहता है कि मैं मर जाउं।
सर्प—(आदम से) क्या तुम चाहते हो कि वह मर जाय ?
आदम—नहीं, मरना मुझको है, हौआ को मुझसे पहले नहीं मरना चाहिए; मैं अकेला रह जाउंगा।
हौआ—तुम दूसरी हौआ पाओगे।
आदम—यह तो ठीक है। परन्तु असम्भव है कि वह ठीक तुम्हारी जैसी न हो। और हो नहीं सकती, इसको तो मैं भलीभांति अनुभव कर रहा हूं। उसकी वह स्मृतियां न होंगी। वह क्या होगी, मैं उसके लिए एक शब्द चाहता हूं।
सर्प—अजनबी।
आदम—हां यह एक अच्छा और ठोस शब्द है। ‘अजनबी।’
हौआ—जब नवीन आदम और नवीन हौआ होंगी, तो हम अजनबियों की वाटिका में होंगे। हमको एक दूसरे की आवश्यकता है। (तुरन्त आदम के पीछे आ जाती है और उसके मुख को अपनी ओर उठाती है) आदम, इस बात को कभी न भूलना। कदापि न भूलना।
आदम—मैं क्यों भूलूंगा ? मैंने तो इसको सोचा है।
हौआ—मैंने भी एक बात सोची है। हरिण का बच्चा ठोकर खाकर गिर पड़ा और मर गया, परन्तु तुम चुपचाप मेरे पीछे आ सकते हो और (वह अचानक उसके कंधों को धक्का देती है और उसको मुंह के बल केल देती है) मुझको इस परकार केल सकते हो कि मैं मर जाउं। यदि मेरे पास यह तर्क न होता कि तुम मेरी मृत्यु की चेष्टा नहीं करोगे, तो मैं सोचने का साहस न करती।
आदम—(मारे भय के वृक्ष पर च़ने लगता है) तुम्हारी मृत्यु की चेष्टा ! कैसा भयानक विचार है !
सर्प—मार डालना, मार डालना, मार डालना, यह शब्द है।
हौआ—नवीन आदम और हौआ हमको मार डालेंगे। मैं उनको नहीं उत्पन्न करुंगी। (वह चट्टान पर बैठ जाती है और आदम को नीचे खींचकर अपने पाश्र्व में कर लेती है और अपने दाहिने हाथ से उसको पकड़े रहती है।)
सर्प—तुमको उत्पन्न करना होगा; क्योंकि यदि नहीं उत्पन्न करोगी, तो समाप्ति हो जायगी।
आदम—नहीं, वह हमको मार डालेंगे। वह हमारी भांति अनुभव करेंगे। कोई वस्तु उसको रोकेगी। वाटिका का ‘शब्द’ जिस तरह हमको बताता है, उसी तरह उनको भी बताएगा कि मार डालना नहीं चाहिए।
सर्प—बाग का ‘शब्द’ तुम्हारा अपना शब्द है।
आदम—है भी और नहीं भी। वह मुझसे बड़ा है और मैं उसका एक भाग हूं।
हौआ—वाटिका का ‘शब्द’ मुझे तो तुमको मार डालने से नहीं रोकता। फिर भी मैं यह नहीं चाहती कि तुम मुझसे पहले मरो। इसके लिए मुझे किसी शब्द की आवश्यकता नहीं।
आदम—(उसकी गर्दन में बाहें डालकर और परभावित होकर) नहीं, नहीं, बिना किसी शब्द के भी यह एक खुली हुई बात है, कोई न कोई ऐसी वस्तु है जो हमको एक दूसरे से संबन्धित किये हुए है, जिसके लिए कोई शब्द नहीं है।
सर्प—परेम ! परेम ! परेम!
आदम—यह तो एक इतनी बड़ी वस्तु के लिए बहुत छोटासा शब्द है।
सर्प—(ठट्ठा मारकर हंसता है।)
हौआ—(अधीरता से सर्प की ओर मुड़कर) फिर वही हृदय खुरचने वाला शब्द ! इसको बन्द कर। तू क्यों ऐसा करता है ?
सर्प—संभव है, ‘परेम’ लगभग अत्यंत छोटी सी वस्तु के लिए बहुत बड़ा शब्द हो जाय, परन्तु जब तक यह छोटा है, उस समय तक वह अत्यंत मधुर होगा।
आदम—(ध्यान करते हुए) तू मुझे हैरान कर रहा है, मेरी पुरानी विपत्ति यद्यपि भारी थी परंतु सीधीसादी थी। जिन अद्भुत वस्तुओं का तू वादा कर रहा है, वह मुझे मृत्यु जैसी दिव्य विभूति देने से पहले मेरे अस्तित्व को उलझा सकती है। मैं अविनाशी जीवन के भार से व्याकुल था, परन्तु मेरा चित्त मलिन नहीं था। यदि मुझको यह ज्ञात नहीं था कि मैं हौआ से परेम करता हूं, तो यह भी ज्ञात न था कि संभव है वह मेरा परेम छोड़ दे और किसी दूसरे आदम से परेम करने लगे। क्या तू इस विद्या के लिए कोई शब्द बता सकता है ?
सर्प—ईर्षा ! ईर्षा ! ईर्षा !
आदम—कैसा भयानक शब्द है ?
हौआ—(आदम को हिलाते हुए) बहुत सोचना नहीं चाहिए। तुम बहुत सोचा करते हो !
आदम—(क्रोध में) सोचने से विरत कैसे रह सकता हूं, जब मुझे सन्देह हो गया है। संदेह से परत्येक वस्तु अच्छी है। जीवन संदिग्ध हो गया है, परेम सन्दिग्ध है, क्या इस नवीन विपत्ति के लिए तेरे पास कोई शब्द है ?
सर्प—भय, भय, भय।
आदम—इसकी चिकित्सा भी तेरे पास है ?
सर्प—आशा, आशा, आशा।
आदम—आशा क्या है ?
सर्प—जब तुमको स्थिरता का ज्ञान नहीं, तुमको यह ज्ञान भी नहीं कि स्थिर बीते हुए से अधिक रुचिक नहीं होगा। इसी को आशा कहते हैं।
आदम—इससे मुझे धीरज नहीं होता। मेरे भीतर भय आशा की अपेक्षा अधिक बलवान है। मुझे निश्चय की आवश्यकता है। (धमकाता हुआ उठता है।) यह वस्तु मुझे दे, नहीं तो जब तुझको सोता हुआ पाउंगा, तो मार डालूंगा।
हौआ—(सर्प के आसपास अपनी बाहें डालकर) मेरा सुन्दर सर्प, अरे नहीं ! यह भयानक विचार तुम्हारे चित्त में कैसे आ सकता है ?
आदम—भय मुझसे परत्येक कार्य करा सकता है। सर्प ही ने मुझको भय दिया, अब उससे कह दो कि मुझको विश्वास दे नहीं तो मेरी ओर से भय लेकर जावे।
सर्प—भविष्य को अपने संकल्प से बांध लो और परतीज्ञा कर लो।
आदम—परतिज्ञा क्या ?
सर्प—अपनी मृत्यु के लिए एक दिन नियत करो और उस दिन मर जाने का संकल्प कर लो। फिर मृत्यु संदिग्ध न रहेगी, वरन निश्चित हो जायगी। फिर हौआ यह संकल्प कर ले कि वह तुम्हारे मर जाने तक तुमसे परेम करेगी। इस परकार परेम संदिग्ध नहीं रहेगा।
आदम—हां, यह तो बड़ी अच्छी बात है। इससे भविष्य बंध जायगा।
हौआ—(अपरसन्न होकर सर्प की ओर से मुंह फेरकर) परन्तु इससे आशा विनष्ट हो जायगी।
आदम—(क्रोध से) चुप रहो, आशा निकृष्ट वस्तु है, परसन्नता बुरी वस्तु है; विश्वास मंगलमय वस्तु है।
सर्प—‘बुरी’ किसको कहते हैं ? तुमने एक नया शब्द निकाला है।
आदम—जिस वस्तु से मैं डरता हूं, वह बुरी वस्तु है। अच्छा हौआ! सुनो, और सांप तू भी सुन, जिससे तुम दोनों मेरी परतिज्ञा को याद रखो। मैं चारों ऋतुओं के एक सहस्त्र चक्र तक जीवित रहूंगा।
सर्प—वर्ष, वर्ष।
आदम—मैं एक सहस्त्र वर्ष तक जीवित रहूंगा, उसके बाद नहीं रहूंगा। मैं मर जाउंगा और शांति पराप्त करुंगा और उस समय तक हौआ के सिवाय किसी दूसरी स्त्री से परेम नहीं करुंगा।
हौआ—और यदि आदम अपनी परतिज्ञा पर दृ़ रहेगा, तो मैं भी उसकी मृत्यु तक किसी दूसरे पुरुष से परेम नहीं करुंगी।
सर्प—तुम दोनों ने विवाह का आविष्कार किया है। आदम तुम्हारा पति है, जो किसी दूसरी स्त्री के लिए नहीं हो सकता, और तुम उसकी पत्नी हो, जो किसी दूसरे पुरुष के लिए नहीं हो सकती।
आदम—(स्वभावतः हौआ की ओर हाथ ब़ाते हुए) पति और पत्नी !
हौआ—(अपना हाथ उसके हाथ में देते हुए) पत्नी और पति!
सर्प—(ठट्ठा मारकर हंसता है !)
हौआ—(आदम को अपने से अलग करके) मैंने यह कह दिया कि यह मनहूस कोलाहल न कर।
आदम—उसकी बात न सुन। कोलाहल मुझे भला लगता है। इससे मेरा हृदय हल्का होता है। तू बड़ा परसन्नचित्त सर्प है, पर तूने अभी कोई परतिज्ञा नहीं की। तू क्या परतिज्ञा करता है ?
सर्प—मैं कोई परतिज्ञा नहीं करता। मैं अवसर से लाभ उठाता हूं।
आदम—अवसर ? इसका क्या अर्थ ?
सर्प—इसका अर्थ यह है कि मुझको विश्वास से इतना ही भय है जितना तुमको संदेह से, अर्थात सिवाय संदेह के कोई वस्तु विश्वसनीय नहीं। यदि मैं भविष्य को बांध लूं, तो अपने संकल्प को बांध लूंगा, और जब संकल्प को बांध लूंगा तो उत्पत्ति में रुकावट आरम्भ हो जायगी।
हौआ—उत्पत्ति में रुकावट न होनी चाहिए। मैंने कह दिया कि मैं उत्पन्न करुंगी, यदि ऐसा करने में मुझे अपने को खण्डखण्ड भी कर देना पड़े !
आदम—तुम दोनों चुप रहो, मैं भविष्य को अवश्य बांधूंगा। मैं भय से अवश्य स्वतंत्र होउंगा (हौआ से) हम अपनीअपनी परतिज्ञा कर चुके, यदि तुमको उत्पन्न करना है, तो तुम इस परतिज्ञा की सीमा के भीतर उत्पन्न करो। अब सर्प की बातें अधिक न सुनो। (हौआ के केश पकड़कर खींचता है।)
हौआ—छोड़ मूर्ख ! अभी इसने मुझको अपना भेद नहीं बताया है।
आदम—(उसको छोड़कर) हां ठीक है, मूर्ख किसको कहते हैं?
हौआ—मैं नहीं जानती, यह शब्द आपसे-आप आ गया। जब तुम भूल जाते हो और विचारने लगते हो और भय से पराजित हो जाते हो, उस समय तुम जो कुछ होते हो, वही मूर्ख है। आओ सर्प की बातें सुनें।
आदम—नहीं, मुझे भय लगता है, जब वह बोलता है, तो ऐसा परतीत होता है कि भूमि मेरे पैरों के नीेचे बैठ रही है। क्या तुम उसकी बातें सुनने के लिए ठहरोगी ?
(सर्प ठट्ठा मारकर हंसता है।)
आदम—(खिलकर) इस शब्द से भय दूर हो जाता है। क्या कौतूहल है, सर्प और स्त्री आपस में भेद की बातें करने जा रहे हैं। (हंसता है और धीरेधीरे चला जाता है। यह इसकी पहली हंसी थी।)
हौआ—अब भेद बता, भेद ! (चट्टान पर बैठ जाती है और सर्प के कंठ में भुजाएं डाल देती है। सर्प होंठ के नीचे कुछ कहने लगता है। हौआ का मुख अत्यंत रोचकता से चमकने लगता है। उसकी रोचकता ब़ती जाती है। यहां तक कि फिर उसके स्थान पर अत्यधिक घृणा के चिह्न परकट हो जाते हैं और वह अपना मुख अपने हाथों से छिपा लेती है।)
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