यों तो जिस जेल की यह बात है उसका नाम मैं बता देता, पर मुश्किल यह है कि उसके साथ फिर दारोगा का नाम भी बताना पड़ेगा या आप खुद पता लगा लेंगे, और एक कहानी के नाम पर किसी को दुख देना मुझे ठीक नहीं जान पड़ता, फिर चाहे कहानी सच्ची ही क्यों न हो। इतना बता सकता हूँ कि बात सन चौंतीस की है, जब देश-भर की जेलें दूसरी बार खचाखचा भर रही थीं, और ए, बी,सी क्लासों में बँटकर, अलग-अलग दलों के बिल्ले लगाकर भी बहुत-से असन्तुष्ट आन्दोलक ‘सियासी’ के नाम से एक बिरादरी में शामिल होकर अपने दिन बिता रहे थे।
कहने को कह लीजिए कि वह हज़ारा की जेल थी, क्योंकि हज़ारा जेल पंजाब की शायद सबसे बड़ी जेल थी और सच को छिपाना ही तो उसे झूठ में नहीं, बड़प्पन में छिपाना ज़रा भला मालूम होता है। मैं हज़ारा जेल में नया-नया आया था। तब तक ‘बी’ क्लास लेकर लाहौर की जेल में सूने मगर आराम के दिन काटता रहा था; एक ओर सूनेपन से ऊबकर कुछ झगड़ा कर बैठा तो ‘सी’ क्लास हो गयी और तब मैं हरिपुर हज़ारा की जेल भेज दिया गया। मैंने सोचा कि चलो, आराम गया तो सूनापन भी जाएगा; जीवन में कुछ गति आएगी, हज़ारा की बड़ी जेल में कुछ रंगीनी तो होगी-कहीं अधिक स्याह रंग होंगे तो कहीं लाल-उजला-नौरंगी रंग भी तो उभरेगा ही! और इसमें मुझे निराश नहीं होना पड़ा। यों तो रंगीनी की मुझे सिर्फ़ आशा थी और स्याहपन का पक्का विश्वास, क्योंकि हज़ारा के नये दारोगा साहब, जिनकी बात सुन रहा हूँ, एक नम्बर ज़ालिम मशहूर थे। अटक जेल में मार्शल लॉ के पुराने क़ैदियों के साथ उन्होंने जो-जो ज्यादतियाँ की थीं, उसे पंजाब-भर की जेलों में लोग जानते थे, और उन्हीं के कारण दारोगा अमीचन्द अटकवाला हो गया था, यद्यपि उनकी बदौलत अब वह दारोगा से बढ़कर डिप्टी साहब हो गये और राय साहब का खिताब भी उन्हें मिल चुका था। यह भी सुना जाता है कि ब्रिटिश एम्पायर का आर्डर भी उन्हें शीघ्र मिलनेवाला है! इन्हीं दारोगा साहब की वजह से अटक जेल का भी आतंक सूबेभर में फैल गया था; जिसको अटक भेजा जाता था। वह समझ लेता कि उसे द्वीपान्तरित किये बग़ैर कालेपानी भेजा जा रहा है, और जो सुनता था, जान लेता था कि जिसे भेजा गया है, वह या बड़ा दबंग और खतरनाक सियासी क़ैदी है जिसके आत्माभिमान को सरकार जैसे भी हो तोड़ना चाहती है, या फिर कोई ऐसा दुष्ट और लाइलाज इख़लाक़ी जिसे सब सज़ाएँ देकर जेलवाले हार गये हों, यानी जो जेल के मुहावरे में ‘खलीफ़ा’ हो चुका हो। अटक जेल की जिन बारकों में खलीफ़ा को रखा जाता था, उनके बड़े हौलनाक वर्णन पंजाब की जेलों में प्रचलित थे और उनके प्रचार से दारोगा अमीचन्द का आतंक और भी बढ़ता जाता था।
दारोगा अमीचन्द की एक और बात भी मशहूर थी! वह यह कि उनका चेहरा ऐसा रोबीला है कि मामूली क़ैदी तो उनकी शक्ल देखकर ही थर-थर काँप उठते, और कहीं किसी की ओर वह एक नज़र देख दें तो बस उसके औसान ख़ता हो जाएँ…
यों अमीचन्द डीलडौल के साधारण थे। क़द मँझला, पर अकड़कर चलते थे; शरीर कुछ भारी, पर चाल में कुछ ऐसा कटाव-छँटाव और फुर्ती कि जब वह परेड पर निरीक्षण के लिए आते तो क़ैदी मानो अकस्मात् ही आधा क़दम पीछे हट जाते…
अमीचन्द थे तो खत्री, पर अपनी घनी मूँछें ऐसी उमेठकर रखते थे कि ठाकुर ठकुराई भूल जाय। मोम लगाकर मूँछों की नोंक का कसाब कुछ ऐसा तीखा रखते थे, मानो तारकशी का काम करनेवाले किसी अच्छे कारीगर ने लोहे के तारों के लच्छे लेकर उन्हें बँटकर नोक दे दी हो… बात मशहूर थी कि दारोगा अपनी मूँछों को बँटते रहते हैं और तब तक सन्तुष्ट नहीं होते जब तक कि नींबू उठाकर मूँछों की नोक पर उसे भोंककर तसल्ली न कर लें कि नींबू उससे आर-पार छिद जाता है। मानो कोई जल्लाद रोज़ किसी को सूली पर चढ़ाकर देखा करे कि वह ठीक जमी है कि नहीं! लोग कहते ही तो थे, “दारोगा अमीचन्द! वह तो पूरा जल्लाद है… उसकी मूँछें नहीं देखीं तुमने?”
क़िस्सा कोताह, मैं जब हरिपुर पहुँचा तो दारोगा अमीचन्द वहाँ नये-नये तैनात होकर आये थे। उन दिनों हज़ारा जेल में बहुत-से अकाली क़ैदी थे; बहुत दिनों से जेलवालों से इनकी चल रही थी और सब जानते थे कि इन्हीं को ठीक करने के लिए अटक के जल्लाद को वहाँ भेजा गया है! और इस चुनौती को अकालियों ने तत्काल स्वीकार कर लिया। जेल में तो यह ऊब से बचने का एक उपाय है, फिर अकाली तो अकाली ठहरे!
यों बात कुछ नहीं थी। अकाली लोग सबेरे खाने पर बैठे तो किसी एक अकाली की दाल की बाटी में कंकड़ निकले। दाल में कंकड़ निकलना साधारण बात ही माननी होगी फिर जेल की दाल; मगर वह तो ठननी थी, कोई हीला चाहिए था। अकालियों ने खाना छोड़ दिया; कहा कि अब तो रोटी वे तब खाएँगे जब दारोगा अमीचन्द आकर मुआइना कर लें कि खाना किताब खराब है। और जब लड़ाई छिड़ ही गयी, तो फिर वाजिब और ग़ैरवाजिब को कौन पूछता है? लड़ाई में तो साधारण आदमी भी कुछ अनरीज़नेबल हो जाते हैं – फिर वाहे गुरु का खालसा! उन्होंने एक लम्बी सूची बनायी कि उनकी क्या-क्या शिकायतें या कह लीजिए माँगें हैं, और जब तक वे पूरी न हों वे जेल की डिसिप्लिन न मानेंगे… हर अकाली को आधा-आधा सेर दूध मिले, रात को उनकी कोठरियाँ खुली रहें, मशक़्क़त उन्हें न दी जाए, दाल की बजाय महापरशाद मिले। छोटी-बड़ी बीस-एक माँगें उनकी तैयार हो गयीं…
उधर दारोगा भी अपना लोहा मनवाने को उतावले थे, उन्होंने कहलवा दिया कि क़ैदी क़ैदी हैं, उन्हें कोई फ़रियाद करनी हो तो परेड के दिन कर सकते हैं; धौंस कोई नहीं मानेगा और डिसिप्लिन न मानने पर सख़्त कार्रवाई की जाएगी।
बात बढ़ती ही गयी! अकालियों को एक पर एक सज़ाएँ मिलने लगीं। धीरे-धीरे मामला जेल से बाहर फैलने लगा, और क्रमशः सूबे में यह बात फैल गयी कि अमीचन्द अटकवाला हज़ारा में नयी लड़ाई ले रहा है अकालियों से; अगर बात ने और तूल पकड़ा तो शायद लोग अमीचन्द न कहकर हज़ारेवाला कहने लगेंगे। दारोगा अमीचन्द ख़ुश थे। उनका छोटा-सा शरीर कुछ और भी अकड़कर चलता; पैन्ट की क्रीज कुछ और भी कटार की धार-सी तीखी नज़र आती, और मूँछों की ऐंठन तो ऐसी मानो नींबू तो क्या, अगर बिल्लौर की गोलियाँ भी होंगी तो बिंध जाएँगी।
लेकिन बात फैलने के कुछ ऐसे ही असर हुए जिनके लिए दारोगा तैयार नहीं थे। सूबे-भर में उनका जो दबदबा था, जिसकी वज़ह से उन्हें इन्स्पेक्टर जनरल भी जानते थे, उसका एक पहलू यह भी था कि एक महीना हो गया और अभी तक दारोगा अमीचन्द भी क़ैदियों का विद्रोह कुचल नहीं पाए। तब या तो वह काम में ढील देने लगे हैं, यह फिर मामला ही कुछ संगीन है, हड़ताल की नहीं बलवे का है! इन्स्पेक्टर जनरल ने तय किया कि वह मुआइना के लिए आवेंगे, और जेल को सूचना दे दी गयी।
हम लोगों को यह बात तत्काल नहीं मालूम हुई। बल्कि हमसे छिपाने की खास वजह थी। दारोगा साहब ने सोचा कि जहाँ मुआइना एक मुसीबत है वहाँ एक मौक़ा भी है। अगर आई.जी. के आने पर वह उन्हें यह सूचित कर सकें कि बलवा उन्होंने शान्त कर दिया है, तो उनकी सफलता दूनी होगी और उसका रौब भी सीधे आई.जी. पर काफ़ी पड़ेगा-आमने-सामने की बात और होती है और किसी जिले से आयी हुई रिपोर्ट की बात और। मगर बलवा दबे, तो न! जुल्म तो उन्होंने बहुत कर लिये, अकालियों पर कोई असर नहीं हुआ। मानो गैंडे की पीठ पर कोड़े पड़ रहे हों-सौ पड़ें तो क्या और हज़ार पड़ें तो क्या!
सहसा ऐलान हुआ कि सवेरे परेड होगी, और डिप्टी साहब अकालियों के वार्ड में जावेंगे। अकाली क़ैदी तैयार हो गये कि शायद कोई नया अत्याचार होने वाला है।
मगर परेड में जाकर डिप्टी साहब ने कहा, “तुम लोग अभी झगड़ा करके थके नहीं? क्या फ़ायदा है और… जेल तो जेल है, यहाँ तो कानून मान के रहना पड़ेगा-क्यों मुसीबत उठाते हो?” उनकी नज़र क़तार पर फिरती हुई एक जगह रुक गयी।
जिस पर रुकी, उसने उत्तर दिया, “मुसीबत तो ऐसे भी है, वैसे भी, फिर क्यों न अकड़कर रहा जाय?”
डिप्टी साहब की आँखें दबे गुस्से से छोटी-छोटी हो आयीं। मगर उन्होंने समस्वर में कहा, “अच्छा, चलो, तुम लोगों ने बहुत दिखा लिया कि तुम अकाली हो; और मैं भी अटकवाला दारोगा अमीचन्द हूँ। अब काम की बात करो – तुम लोग क्या चाहते हो?”
दो-तीन क़ैदियों ने कहा,”हमारी माँगें आपको मालूम हैं, उन्हें पूरा कर दो, बस।”
“पूरी शर्तें तो खुदा की भी नहीं मानी जातीं; तुम लोग आपस में सोच-विचार कर तै कर लो, और पाँच आदमियों का डेपुटेशन मेरे दफ़्तर में भेज दो, मैं विचार करके फैसला करूँगा।”
डिप्टी साहब चले गये। परेड बरखास्त हो गयी… उनकी मूँछों की चमकीली काली ऐंठन अकालियों के दिल में सूई-सी चुभती रही, पर उन्होंने पाँचों पंचों को चुनकर बातचीत चलाने का काम उन्हें सौंप दिया।
मसल मशहूर है, ‘एक खालसा सवा लाख’। फिर पाँच पंचों में अगर पच्चीस मत हो गये तो क्या अचम्भा। बड़ी देर चखचख चली। कुछ की राय थी कि दारोगा सीधे रास्ते पर आ रहा है, यानी माँगों में और नयी माँगें जोड़कर जाना चाहिए। किसी का ख़याल था कि नहीं, समझौता करना चाहता है तो कुछ रियायत तो होनी ही चाहिए! बीच में कई तरह के मत थे। फिर यह भी सवाल था कि रियायत हो तो किस या किन शर्तों पर, इसके बारे में भी मतभेद था।
अन्त में एक बुजुर्ग ने कहा, “भाइयो, मेरी बात मानो तो मैं एक सलाह दूँ!”
सबने पूछा, “क्या?”
“वह यह कि हम लोग अपनी सब माँगें वापस ले लें; दारोगा से कहें कि जाओ, हमने तुम्हें बख्शा। जो सुलह करने आवे उससे बनिये की तरह मोल-तोल नहीं करना चाहिए।”
सब लोग अचकचाकर बूढ़े सरदार की ओर देखने लगे। क्या महीने-भर का सब संघर्ष व्यर्थ जाएगा? जितनी सज़ाएँ, जितने अपमान उन्होंने सहे थे, एक बार उनकी आँखों के आगे दौड़ गये। एक ने कहा भी, “आपसे इसकी तवक्को नहीं थी।”
बूढ़े ने अविचलित भाव से कहा, “सिर्फ़ एक बात हम अपनी तरफ़ से रखें।”
“वह क्या?”
“वह यह कि हमारा दरोगा से कोई झगड़ा नहीं है; मगर वह भी हम पर हेकड़ी जताना छोड़ दे। बस एक बार वह हमारे सामने अपनी मूँछें नीची कर लें; फिर हम उसके सब क़ायदे-कानून मान लेंगे।”
बात बिलकुल अप्रत्याशित थी। सब थोड़ी देर चुप रहे। फिर किसी ने कहा, “हमको तो बात नहीं जँचती-लड़ाई को बीच में नहीं छोड़ना चाहिए। दारोगा का क्या है, कल को फिर मुकर जाय तो सारी तकलीफ़ें फिर शुरू से उठानी पड़ें-”
बूढ़े ने कहा, “वह बात तो शर्तें मनवाने पर भी हो सकती है – आज मान ले, कल मुकर जाय तो फिर भूख-हड़ताल हो।”
“मगर लड़ाई बीच में छोड़ना तो खालसे का काम नहीं।”
“पर सरन आए दुश्मन को दबाना भी तो ठीक नहीं। मैं तो कहता हूँ कि एक बार आज़माकर तो देखो।”
अन्त में बात मान ली गयी। पाँच का भी डेपुटेशन नहीं गया, केवल बूढ़ा सरदार अकेला भेजा गया। दफ़्तर में जाकर उसने कहा, “डिप्टी साहब, आप सुलह करना चाहते हैं तो हम भी राज़ी हैं। हम अपनी सब माँगें वापस लेते हैं।”
डिप्टी साहब ने कुछ अचम्भे में, मगर अपनी खुशी को भी छिपाते हुए कहा, “क्या? वैसे चाहिए यही; जो काम लड़कर नहीं होता वह दबकर रहने से होता है। तुम राय साहब अमीचन्द को जानते नहीं। मैं क़ानून-वानून की परवाह नहीं करता। मैं चाहूँ तो तुम्हारी बैरक में पीपे के पीपे घी के भिजवा दूँ – चन्दन के बाग़ लगवा दूँ – हाँ, चन्दन के बाग़!”
“हमारी दरख़ास्त सिर्फ़ इतनी है कि आप हमारे सामने एक बार अपनी मूँछें नीची कर लें।”
“क्या?” दारोगा साहब की त्योरियाँ चढ़ गयीं। मगर, सामने शायद आई.जी. के दौरे का प्रोग्राम रखा था, तुरन्त ही सँभलकर बोले, “तुम जा सकते हो, तुम्हारी दरख़ास्त पर ग़ौर करूँगा।”
दूसरे दिन सवेरे-सवेरे, जब पौ फटने के बाद जमादार ताले खड़का कर देखकर “सब अच्छा!” चिल्लाकर अभी गये ही थे – बारकों की कोठरियों के दरवाज़े अभी खुले नहीं थे – दारोगा अमीचन्द सहसा अकालियों की बारक के फाटक पर पहुँचे। चारों ओर सन्नाटा था; दारोगा के साथ कोई अमला नहीं था, यहाँ तक कि चाभियाँ लिये चीफ़ हेडवार्डर भी नहीं। फाटक पर खड़े होते ही अकालियों के पंच भीतर उनके समाने आ गये।
दारोगा ने कहा, “तुम लोगों की दरख़ास्त पर हमने विचार कर लिया। हमें-तुम्हें आखिर साथ रहना है-न तुम जेल छोड़कर भागे जा रहे हो, न हमीं सर्विस छोड़कर जा रहे हैं। फिर हेकड़ी की क्या बात? आपस में तो खींचतान होती ही रहती है, उससे कोई छोटा थोड़े ही हो जाता है! कभी हमने दबा लिया, तुम दब गये; कभी तुमने ज़ोर मारा तो हमने पैंतरा बदल लिया। कभी हमने तुम्हारी गर्दन नाप ली, कभी तुम्हारे सामने हमने मूँछें नीची कर लीं-” कहते-कहते उन्होंने हाथ उठाया, अँगूठे और उँगली से मूँछों की नोंकें दबायीं और गालों पर उन्हें मलते हुए नीचे को मोड़ दिया। ऐंठन के बल तो भला क्या मिटते, पर मोम तो था ही, मूँछों के दायें-बायें दोंनों गुच्छ ऐसे हो गये मानो फुलचुही-सी बहुत छोटी मगर काली चिड़िया कीड़ा-वीड़ा पकड़ने का चोंच झुकाये हो। दारोगा ने कहा, “लो – इससे कुछ आता-जाता थोड़े ही है! बस, अब हमारी सुलह; मैं अभी जमादार को भेजता हूँ कि बारक खोल दे-”
कहते-कहते वह लौट पड़े। अहाते के फाटक तक पहुँचने के पहले ही उन्होंने मुँछें फिर ऐंठ कर पूर्ववत् कर ली थीं, एक हल्की-सी मुस्कान ओठों के कोनों को उभार कर मूँछों की ऐंठन को और बल दे रही थी। मन-ही-मन दारोगा साहब अपनी पीठ ठोंक रहे थे-किस सफ़ाई से हँसी-हँसी में उन्होंने सारी बात ही उड़ा दी-शर्त भी पूरी हो गयी, कुछ बिगड़ा भी नहीं; तीन दिन बाद आकर आई. जी. देखेगा कि जेल में बिलकुल शान्ति है, राय साहब अमीचन्द के दबदबे के मुताबिक ही सब काम क़ायदे से और मुस्तैदी से हो रहा है। जब परेड लगेगी और दूसरे क़ैदियों की तरह अकाली भी क़तार बाँध कर खड़े होंगे, यह आई. जी. को उनके सामने गुज़रते हुए कहेंगे कि इन लोगों का मामला अब ‘सेटल’ हो गया है और सब जेल की डिसिप्लिन मान रहे हैं, तब कितनी बड़ी विजय का क्षण होगा वह…
उधर अकालियों की बारक में कुछ क़ैदी बूढ़े सरदार की ओर एकटक देख रहे थे। उनकी आँखों में प्रश्न था-क्या यही बात थी, बस? इसमें कहाँ था कि विजय का सुख, या कि समझौते की सी शान्ति! दारोगा अमीचन्द तो उन्हें बनाकर चला गया-
कहानी तो इतनी ही है। लेकिन बात इससे आगे भी है। दारोगा अभी ड्योढ़ी तक नहीं पहुँचे होंगे कि दूर दूसरी सियासी बारक में हमें खबर मिल गयी, दारोगा अमीचन्द ने अकालियों के सामने मूँछें नीची कर लीं। और ताले खुलने से पहले जेल के साढ़े छः हजार क़ैदियों को पता लग गया था कि दारोगा अमीचन्द अटकवाले ने अकालियों के सामने मूँछें नीची कर लीं। दूसरे दिन आई. जी. के दौरे का ऐलान हुआ और तैयारी की परेड हुई; राय साहब अमीचन्द क़तार देखते हुए गुज़र रहे थे कि एक क़ैदी ने हाथ उठाकर नाक के दोनों ओर अँगूठा और उँगली जमा कर धीरे-धीरे ओठों के कोनों तक खींचे, जैसे कोई पसीना पोंछने के लिए करे; और उसकी इस हरकत पर सारी परेड के चेहरों पर एक मुस्कान दौड़ गयी।
राय साहब अमीचन्द ने सहसा कड़े पड़कर रूखे स्वर में पूछा, “क्या है?” जिसे सुनकर अटक के खलीफ़ाओं की रूहें काँप जातीं। किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया। केवल कुछ आगे एक दूसरी जगह एक क़ैदी ने वैसी ही हरकत की, और अब की बार हँसी भी स्पष्ट हो गयी।
दारोगा साहब बड़ा कड़ा चेहरा बनाये जल्दी से मुआइना समाप्त कर चले गये।
लेकिन तीसरे दिन जब आई.जी. आये और परेड की बिलकुल सीधी क़तारों के सामने से गुज़रने लगे तो कई क़ैदियों ने एक साथ नाक के आस-पास पसीना पोंछा, और एक चौड़ी रुपहली हँसी कई क़तारों के चेहरे खिला गयी।
आई.जी. ने पूछा “राय साहब अमीचन्द, क्या बात है – आपकी जेल की डिस्प्लिन बड़ी ढीली है-”
राय साहब ने डूबते-से स्वर में कहा, “सर, इस मामले पर दफ़्तर में – मुझे कुछ कानफ़िडेंशल” – और रह गये।
आई.जी. ने कहा, “हूँ।” फिर मानो यह ध्यान करके कि राय साहब के अनुशासन को पुष्ट करना चाहिए, उन्होंने फिर, “आफ़ कोर्स! वहीं बातें होंगी।”
आई.जी. के जाने के एक हफ़्ते बाद दारोगा अमीचन्द की बदली का आर्डर आ गया, क्योंकि हज़ारा जेल की डिसिप्लिन बिगड़ रही थी। उन्हें मुल्तान भेजा गया। पर वे वहाँ पहुँचे तो क़ैदियों को पहले से खबर थी-वह राय साहब अमीचन्द अटकवाले की नहीं, उस दारोगा की प्रतीक्षा कर रहे थे जिसने हज़ारा में क़ैदियों के आगे मूँछें नीची कर ली थीं। जल्दी ही वहाँ से उनकी बदली हुई; पर जहाँ भी वह गये, उनकी कीर्ति उनसे पहले पहुँची, और क़ैदियों का अनुशासन उनसे नहीं बन पड़ा। अन्त में डिप्टी से फिर दारोगा होकर वह एक छोटी जिला-जेल के इनचार्ज बनाए गये, मगर पंजाब-भर में ऐसी कोई जेल नहीं थी जिसे मूँछों वाला क़िस्सा न मालूम हो। हारकर दारोगा साहब ने रिटायर किये जाने की दरख़ास्त दी, और दारोगा के पद से ही पेंशन लेकर चले गये।
मैं जब जेल से छूटकर आया, तब वह सर्विस छोड़ गये थे। कहाँ, किस उपेक्षित कोने में उन्हें मुँह छिपाने लायक़ जगह मिली, यह पता नहीं। क़ैदियों के लिए चन्दन के बाग़ तो क्या, अपने लिए बबूल की छाँह भी बेचारे पा सके या नहीं, नहीं मालूम। जेलों के खलीफा भी बड़ी जल्दी उनका नाम तक भूल गये। लेकिन आज भी अगर कोई नये इकबारे क़ैदी से भी पूछें तो वह मुस्कराकर सिर हिला देगा कि हाँ, उसे उस दरोगा की बात मालूम है जिसने क़ैदियों के सामने मूँछें नीची कर ली थीं।
(मेरठ, मार्च 1938)
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