इंदु की बेटी

Agyeya Indu Ki Beti

Agyeya Indu Ki Beti

जब गाड़ी खचाखच लदी होने के कारण मानो कराहती हुई स्टेशन से निकली, तब रामलाल ने एक लम्बी साँस लेकर अपना ध्यान उस प्राण ले लेनेवाली गर्मी, अपने पसीने से तर कपड़ों और साथ बैठे हुए नंगे बदनवाले गँवार के शरीर की बू से हटाकर फिर अपने सामने बैठी हुई अपनी पत्नी की ओर लगाया; और उसकी पुरानी कुढ़िन फिर जाग उठी।

रामलाल की शादी हुए दो बरस हो चले हैं। दो बरस में शादी का नयापन पुराना हो जाता है, तब गृहस्थी का सुख नयेपन के अलावा जो दूसरी चीज़ें होती हैं, उन्हीं पर निर्भर करता है। मातृत्व या पितृत्व की भावना, समान रुचियाँ, इकट्ठे बिताये हुए दिनों की स्मृतियाँ, एक-दूसरे को पहुँचाये गये, सुख-क्लेश की छाप-नयापन मिट जाने के बाद ये और ऐसी चीजें ही ईंटें होती हैं, जिनसे गृहस्थी की भीत खड़ी होती है। और रामलाल के जीवन में ये सब जैसे थे ही नहीं। उसके कोई सन्तान नहीं थी, जहाँ तक उसके दाम्पत्य जीवन के सुख-दुःख की उसे याद थी, ‘वहाँ तक उसे यही दीखता था कि उन्होंने एक-दूसरे को कुछ दिया है तो क्लेश ही दिया है। इससे आगे थोड़ी-बहुत मामूली सहूलियत एक-दूसरे के लिए पैदा की गयी है, लेकिन उसका शिथिल दिमाग उन चीज़ों को सुख कहने को तैयार नहीं है। उदाहरणतया वह कमाकर कुछ लाता रहा है, और स्त्री रोटी पकाकर देती रही है, कपड़े धोती रही है, झाड़ू लगाती रही है, चक्की भी पीसती रही है। क्या इन चीज़ों का नाम सुख है? क्या उसने शादी इसलिए की थी कि एक महरी उसे मिल जाये और वह खुद एक दिन से दूसरा दिन कर ले कि चख-चख में बच जाय और बस? क्या उसने बी.ए. तक पढ़ाई इसीलिए की थी हर महीने बीस-एक रुपल्लियाँ कमाकर इसके आगे लाकर पटक दिया करे कि ले, इस कबाड़-खाने को सँभाल और इस ढाबे को चलता रख! – इस गँवार को, अनपढ़, बेवकूफ़ औरत के आगे जो चक्की पीसने और झाड़ू लगाने से अधिक कुछ नहीं जानती और यह नहीं समझती कि एक पढ़े-लिखे आदमी की भूख दो वक्त की रोटी के अतिरिक्त कुछ और भी माँगती है!

उसकी खीझ एकाएक बढ़कर क्रोध बन गयी। स्त्री की ओर से आँख हटाकर वह सोचने लगा, इसका यह नाम किसने रखा? इन्दु! कैसा अच्छा नाम है – जाने किस बेवकूफ ने यह नाम इसे देकर डुबाया! और कुछ नहीं तो सुन्दर ही होती, रंग ही कुछ ठीक होता!

लेकिन जब यह पहले-पहल मेरे घर आयी थी, तब तो मुझे इतनी बुरी नहीं लगी थी! क्यों मैंने इसे कहा था कि मैं अपने जीवन का सारा, बोझ तुम्हें सौंपकर निश्चिन्त हो जाऊँगा – कैसे कह पाया था कि जो जीवन मुझसे अकेले चलाये नहीं चलता, वह तुम्हारा साथ पाकर चल जाएगा? पर मैं तब इसे जानता कब था – मैं तो समझता था कि—-रामलाल ने फिर एक तीखी दृष्टि से इन्दु की ओर देखा और फौरन आँखें हटा लीं। तत्काल ही उसे लगा कि यह अच्छा हुआ कि इन्दु ने वह दृष्टि नहीं देखी। उसमें कुछ उस अहीर का सा भाव था जो मंडी से एक हट्टी-कट्टी गाय खरीदकर लाये और घर आकर पाये कि वह दूध ही नहीं देती।

तभी गाड़ी की चाल फिर धीमी हो गयी। रामलाल अपने पड़ोसी गँवार की ओर देखकर सोच ही रहा था कि कौन-सी वीभत्स गाली हर स्टेशन पर खड़ी हो जानेवाली इस मनहूस गाड़ी को दे, कि तभी उसकी स्त्री ने बाहर झाँककर कहा, “स्टेशन आ गया!”

रामलाल की कुढ़न फिर भभक उठी। भला यह भी कोई कहने की बात है? कौन गधा नहीं जानता कि स्टेशन आ रहा है? अब क्या यह भी सुनना होगा कि गाड़ी रुक गयी। गार्ड ने सीटी दी। हरी झंडी हिल रही है। गाड़ी चल पड़ी…

लेकिन मैं इस पर क्यों खीझता हूँ? इस बिचारी का दिमाग जहाँ तक जाएगा, वहीं तक की बात वह करेगी न! अब मैं उससे आशा करूँ कि इस समय वह मेघ-दूर मुझे सुनाने लग जाए और वह इस आशा को पूरा न करे तो क्या कसूर है?

लेकिन मैंने उसे कभी कुछ कहा है? चुपचाप सब सहता आया हूँ। एक भी कठोर शब्द उसके प्रति मेरे मुँह से निकला हो तो मेरी जबान खींच ले। आखिर पढ़-लिखकर इतनी भी तमीज न आयी तो पढ़ा क्या खाक? समझदार का काम है सहना। मैंने उससे प्यार से कभी बात नहीं की; लेकिन जो हृदय में नहीं है, उसका ढोंग करना नीचता है। क्रोध को दबाने का यह मतलब थोड़े ही है कि झूठ-मूठ का प्यार दिखाया जाये?

गाड़ी रुक गयी। इन्दु ने बाहर की ओर देखते-देखते कहा, “प्यास लगी है…”

रामलाल को वह स्वर अच्छा नहीं लगा। उसमें ज़रा भी तो आग्रह नहीं था कि हे मेरे स्वामी, मैं प्यासी हूँ, मुझे पानी पिला दो! सीधे शब्दों में कहा नहीं तो खैर, वह वहाँ तो ध्वनि भी नहीं है। ऐसा कहा है, जैसे मैं जता देती हूँ कि मैं प्यासी हूँ – आगे कोई पानी ला देगा तो मैं पी लूँगी। नहीं तो ऐसे भी काम चल जाएगा। इतनी उत्सुक? मैं किसके लिए हूँ कि पानी लाने के लिए कह सकूँ? फिर भी रामलाल ने लोटा उठाया, बाहर झाँका और यह देखकर कि गाड़ी के पिछले सिरे के पास प्लेटफार्म पर कुछ लोग धक्कमधक्का कर रहे हैं और एक-आध जो ज़रा अलग हैं, कान में टँगा हुआ जनेऊ उतार रहे हैं, वह उतरकर उधर को चल पड़ा।

वह मुझे ही कह देती कि पानी ला दो, तो क्या हो जाता? मैं जो कुछ बन पड़ता है, उसके लिए करता हूँ। अब अधिक नहीं कमा सकता तो क्या करूँ? गाँव में गुंजाइश ही इतनी है। अब शहर में शायद कुछ हो, पर शहर में खर्च भी होगा।

मैं खर्च की परवाह न करके उसे अपने साथ लिए जा रहा हूँ, और होता तो गाँव में छोड़ जाता, शहर में अकेला आदमी कहीं भी रह सकता है, पर गृहस्थी लेकर तो-और उसे इतना खयाल नहीं कि ठीक तरह बात ही करे-बात क्या करे, रोटी-पानी, पैसा माँग ही ले… क्या निकम्मेपन में भी अभिमान होता है?

रामलाल नल के निकट पहुँच गया।

गाड़ी ने सीटी दी और चल दी। रामलाल को यह नहीं सुनना पड़ा कि “हरी झंडी हिल रही है -गाड़ी चली” इन्दु ने कहा भी नहीं। गार्ड की सीटी हो जाने पर भी जब रामलाल नहीं पहुँचा, तब इन्दु खिड़की के बाहर उझककर उत्कंठा से उधर देखने लगी, जिधर वह गया था। गाड़ी चल पड़ी, तब उसकी उत्कंठा घोर व्यग्रता में बदल गयी। लेकिन तभी उसने देखा, एक हाथ में लोटा थामे रामलाल दौड़ रहा है। वह अपने डिब्बे तक तो नहीं पहुँच सकेगा, लेकिन पीछे के किसी डिब्बे में शायद बैठ गया।

इन्दु ने देखा कि रामलाल ने एक डिब्बे के दरवाजे पर आकर हैंडल पकड़ लिया है और उसी के सहारे दौड़ रहा है, लेकिन गाड़ी की गति तेज होने के कारण अभी चढ़ नहीं पाया। कहीं वह रह गये तब? क्षण-भर के लिए एक चित्र उसके आगे दौड़ गया, परदेस में वह अकेली, पास पैसा नहीं, और उससे टिकट तलब किया जा रहा है और वह नहीं जानती कि पति को कैसे सूचित करे कि वह कहाँ है। लेकिन क्षण-भर में ही इस डर का स्थान एक दूसरे डर ने ले लिया। कहीं वह उस तेज चलती हुई गाड़ी पर सवार होने के लिए कूदे और…यह डर उससे नहीं सहा गया। वह जितना बाहर झुक सकती थी, झुककर रामलाल को देखने लगी, उसके पैरों की गति को देखने लगी… और उसके मन में यह होने लगा कि क्यों उसने पति से प्यास की बात कही, यदि कुछ देर बैठी रहती तो मर न जाती…

एकाएक रामलाल गाड़ी के कुछ निकट आकर कूदा। इन्दु ज़रा और झुकी कि देखे, वह सवार हो गया कि नहीं और निश्चिन्त हो जाये। उसने देखा- अन्धकार – कुछ डुबता-सा – एक टीस – जाँघ और कन्धे में जैसे भीषण आग – फिर एक -दूसरे प्रकार का अन्धकार।…

गाड़ी मानो विवश क्रोध से चिचियाती हुई रुकी कि अनुभूतियों से बँधे हुए इस क्षुद्र चेतन संसार की एक घटना के लिए किसी ने चेन खींचकर उस जड़, निरीह और इसलिए अडिग शक्ति को क्यों रोक दिया है।

गाड़ी के रुकने का कारण समझ में उतरने से पहले ही रामलाल ने डिब्बे तक आकर देख लिया कि इन्दु उसमें नहीं है।

रेल का पहिया जाँघ और कन्धे पर से निकल गया था। एक आँख भी जाने क्यों बन्द होकर सूज आयी थी – बाहर कोई चोट दीख नहीं रही थी, और केश लहू में सनकर जटा-से हो गये थे।

रामलाल ने पास आकर देखा और रह गया! ऐसा बेबस, पत्थर रह गया कि हाथ का एक लोटा भी गिरना भूल गया।

थोड़ी देर बाद जब ज़रा काँपकर इन्दु की एक आँख खुली और बिना किसी की ओर देखे ही स्थिर हो गयी और क्षीण स्वर ने कहा, “मैं चली”, तब रामलाल को नहीं लगा कि वे दो शब्द विज्ञप्ति के तौर पर कहे गये हैं, उसे लगा कि उनमें खास कुछ है, जैसे वह किसी विशेष व्यक्ति को कहे गये हैं, और उनमें अनुमति माँगने का-सा भाव है…

उसने एकाएक चाहा कि बढ़कर लोटा इन्दु के मुँह से छुआ दे, लेकिन लोटे का ध्यान आते ही वह उसके हाथ से छूटकर गिर गया।

रामलाल उस आँख की ओर देखता रहा, लेकिन फिर वह झिपी नहीं। गाड़ी चली गयी। थोड़ी देर बाद एक डॉक्टर ने आकर एक बार शरीर की ओर देखा, एक बार रामलाल की ओर, एक बार फिर उस खुली आँख की ओर, और फिर धीरे से पल्ला खींचकर इन्दु का मुँह ढक दिया।

गाड़ी ज़रा सी देर रुककर चली गयी थी। दुनिया जरा भी नहीं रुकी। गाड़ी आदमी की बनायी हुई थी, दुनिया को बनाने वाला ईश्वर है।

बीस साल हो गये। घिरती रात में हरेक स्टेशन पर रुकनेवाली एक गाड़ी के सेकंड क्लास डिब्बे में रामलाल लेटा हुआ था। वह कलकत्ते से रुपया कमाकर लौट रहा था। आज उसके मन में गाड़ी पर खीझ नहीं थी – आज वह यात्रा पर जा नहीं रहा था, लौट रहा था। और वह थका हुआ था।

एक छोटे स्टेशन पर वह एकाएक भड़भड़ाकर उठ बैठा। बाहर झाँककर देखा, कहीं कोई कुली नहीं था। वह स्वयं बिस्तर और बैग बाहर रखने लगा। तभी, स्टेशन के पाइंटमैन ने आकर कहा, “बाबूजी, कहाँ जाइएगा?” छोटे स्टेशनों पर लाइनमैन और पाइंटमैन ही मौके-बे-मौके कुली का काम कर देते हैं। रामलाल ने कहा,”यहीं एक तरफ करके रख दो।”

“और कुछ सामान नहीं है?”

“बाकी ब्रेक में है, आगे जाएगा।”

“अच्छा।”

गाड़ी चली गयी। बूढ़े पाइंटमैन ने सामान स्टेशन के अन्दर ठीक से रख दिया। रामलाल बेंच पर बैठ गया। स्टेशन के एक कोने में एक बड़ा लैम्प जल रहा था, उसकी ओर पीठ करके जाने क्या सोचने लग गया, भूल गया कि कोई उसके पास खड़ा है।

बूढ़े ने पूछा, “बाबूजी, कैसे आना हुआ?” ऐसा बढ़िया सूट-बूट पहननेवाला आदमी उसने उस स्टेशन पर पहले नहीं देखा था।

‘यों ही।”

“ठहरिएगा?”

“नहीं। अगली गाड़ी कब जाती है?”

“कल सवेरे। उसमें जाइएगा?”

“हाँ।”

“इस वक्त बाहर जाइएगा?”

“नहीं।”

“लेकिन यहाँ तो वेटिंग रूम नहीं है-”

“यहीं बेंच पर बैठा रहूँगा।”

बूढ़ा मन में सोचने लगा, यह अजब आदमी है, जो बिना वजह रात-भर यहाँ ठिठुरेगा और सवेरे चला जाएगा! पर अब रामलाल प्रश्न पूछने लगा-

“तुम यहाँ कबसे हो?”

“अजी, क्या बताऊँ-सारी उमर यहीं कटी है।”

“अच्छा! तुम्हारे होते यहाँ कोई दुर्घटना हुई?”

“नहीं-” कहकर बूढ़ा रुक गया। फिर कहने लगा, “हाँ, एक बार एक औरत रेल के नीचे आकर कट गयी थी, उधर प्लेटफार्म से ज़रा आगे।”

“हूँ।” रामलाल के स्वर में जैसे अरुचि थी, लेकिन बूढ़े अपने आप ही उस घटना का वर्णन करने लगा।

“कहते हैं, उसका आदमी यहाँ पानी लेने के लिए उतरा था, इतनी देर में गाड़ी चल पड़ी। वह बैठने के लिए गाड़ी के साथ दौड़ रहा था, औरत झाँककर बाहर देख रही थी कि बैठ गया या नहीं, तभी बाहर गिर पड़ी और कट गयी।”

“हूँ।”

थोड़ी देर बाद बूढ़े ने फिर कहा – “बाबूजी, औरत जात भी कैसी होती है! भला वह गाड़ी से रह जाता तो कौन बड़ी बात थी! दूसरी में आ जाता। लेकिन औरत का दिल कैसे मान जाये”

रामलाल ने जेब से चार आने पैसे निकालकर उसे देते हुए संक्षेप में कहा – “जाओ।”

“बाबूजी”

रामलाल ने टाँगें बेंच पर फैलाते हुए कहा, “मैं सोऊँगा।”

बूढ़ा चला गया। जाता हुआ स्टेशन का एकमात्र लैम्प भी बुझा गया – अब उसकी कोई ज़रूरत नहीं थी।

रामलाल उठकर प्लेटफार्म पर टहलने लगा और सोचने लगा…

उसने पानी नहीं माँगा था, लेकिन अगर मैंने ही कह दिया होता कि मैं अभी लाये देता हूँ पानी, तो – तो-

आदमी जब चाहता है जीवन के बीस वर्षों को बीस मिनट – बस सेकेंड में जी डालना; और वह बीस सेकेंड भी ऐसे जो आज के नहीं हैं, बीस वर्ष पहले के हैं, मर चुके हैं, तब उसकी आत्मा का अकेलापन कहा नहीं जा सकता, अँधेरे में ही कुछ अनुभव किया जा सकता है…

रामलाल स्टेशन का प्लेटफार्म पार करके रेल की पटरी के साथ हो लिया। एक सौ दस कदम चलकर वह रुका और पटरी की ओर देखने लगा। उसे लगा, पटरी के नीचे लकड़ी के स्लीपरों पर जैसे खून के पुराने धब्बे हैं। वह पटरी के पास ही बैठ गया। लेकिन बीस वर्ष में तो स्लीपर कई बार बदल चुकते हैं। ये धब्बे खून के हैं, या तेल के?

रामलाल ने चारों ओर देखा। वही स्थान है – वही स्थान है। आस-पास के दृश्य अधिक उसका मन गवाही देता है।

और रामलाल घुटनों पर सिर टेककर, आँखें बन्द करके पुराने दृश्यों को जिलाता है। वह कठोर एकाग्रता से उस दृश्य को सामने लाना चाहता है – नहीं, सामने आने से रोकना चाहता है – नहीं, वह कुछ भी नहीं चाहता, वह नहीं जानता कि वह क्या चाहता है या नहीं चाहता है। उसने अपने आपको एक प्रेत को समर्पित कर दिया है। जीवन में उससे खिंचे रहने का यही एक प्रायश्चित्त उसके पास है। और इस समय स्वयं मिट्टी होकर, स्वयं प्रेत होकर, वह मानो उससे एक हो लेना चाहता है, उससे कुछ आदेश पा लेना चाहता है…

जाने कितनी बार वह चौंकता है। सामने कहीं से रोने की आवाज़ आ रही है – एक औरत के रोने की। रामलाल उठकर चारों ओर देखता है, कहीं कुछ नहीं दीखता। आवाज़ निरन्तर आती है। रामलाल आवाज़ की ओर चल पड़ता है – जो स्टेशन से परे की ओर है…

इन्दु कभी रोयी थी? उसे याद नहीं आता। लेकिन यह कौन है जो रो रहा है? और इस आवाज़ में यह कशिश क्यों है…

“कौन है?”

कोई उत्तर नहीं मिलता। दो-चार क़दम चलकर रामलाल कोमल स्वर में फिर पूछता है, “कौन रोता है?” रेल की पटरी के पास से कोई उठता है। रामलाल देखता है। किसी गाढ़े रंग के आवरण में बिलकुल लिपटी हुई एक स्त्री। उसे पास आता देखकर जल्दी से एक ओर को चल देती है और क्षण-भर में झुरमुट की ओट हो जाती है। रामलाल पीछा भी करता है, लेकिन अन्धकार में पीछा करना व्यर्थ है – कुछ दीखता ही नहीं।

रामलाल पटरी की ओर लौटकर वह स्थान खोजता है, जहाँ वह बैठी थी। क्या यहीं पर? नहीं, शायद थोड़ा और आगे। यहाँ पर? नहीं, थोड़ा और आगे।

उसका पैरा किसी गुदगुदी चीज़ से टकराता है। वह झुककर टटोलता है – एक कपड़े की पोटली। बैठकर खोलने लगता है। पोटली चीख उठती है। काँपते हाथों से उठकर वह देखता है, पोटली एक छोटा-सा शिशु है जिसे उसने जगा दिया है।

वह शिशु को गोद में लेकर थपथपाता हुए स्टेशन लौट आता है और बेंच पर बैठ जाता है। घड़ी देखता है, तीन बजे हैं। पाँच बजे गाड़ी मिलेगी। अपने ओवर कोट से वह बच्चे को ढँक लेता है-दो घंटे के लिए इतना प्रबन्ध काफ़ी है। गाड़ी में बिस्तर खोला जा सकेगा…

रामलाल ने अपने गाँव में एक पक्का मकान बनवा दिया है और उसी में रहता है। साथ रहती है वह पायी हुई शिशु कन्या जिसका नाम उसने इन्दुकला रखा है, और उसकी आया, जो दिन-भर उसे गाड़ी में फिराया करती है।

गाँव के लोग कहते हैं, कि रामलाल पागल है। पैसे वाले भी पागल होते हैं। और इन्दु जहाँ-जहाँ जाती है, वे उँगली उठाकर कहते हैं – “‘वह देखो, उस पागल बूढ़े की बेटी।” इसमें बड़ा गूढ़ व्यंग्य होता है, क्योंकि वे जानते हैं कि बूढ़ा रामलाल किसी के पाप का बोझ ढो रहा है। लेकिन रामलाल को किसी की परवाह नहीं है, वह निर्द्वन्द्व है। उसके हृदय में विश्वास है । वह खूब जानता है कि उसकी क्षमाशीला इन्दु ने स्वयं प्रकट होकर अपने स्नेहपूर्ण अनुकम्पा के चिह्न स्वरूप अपना अंश और प्रतिरूप वह बेटी उसे भेंट की थी।

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