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किताबों का जादू

कुछ पढ़ते समय अनायास ही कुछ कमी सी महसूस होने लगी।लगा कुछ तो कमी खल रही है।कुछ तो है जो होना चाहिए था पर नहीं है।क्या है वो?

शब्दो की जादूगरी में कोई कमी नहीं महसूस होती।लेखकगण और लेखनी भी उत्तम है फिर ये क्या कमी है जिसके बिना सब खालीपन सा महसूस होता है।फिर लगा मन का विचलन होगा। फणीश्वरनाथ रेणु जी की आदिम रात्रि की महक मुझे बहुत ही पसंद है।सोचा वही पढ़कर देखु शायद सुकून मिले।कोशिश किया पर मन भटक गया।अगली नजर श्री लाल शुक्ल जी पर डाली ।उनके राग दरबारी का हर अध्याय माटी से जोड़ता है।मेरे लिए राजनीति जैसा अरुचिकर विषय को उन्होंने इतना रुचिकर कर दिया कि मुझे कभी उबन नहीं होती उसे पढ़कर भी।इस पुस्तक की समीक्षा पढ़कर दुविधा में था राजनैतिक विषय से मुझे कोई खास लगाव नहीं है।परंतु जैसे ही दो पाराग्राफ पर नजर फेरी शुक्ला जी का कायल हो गया “जैसे उस ट्रक का जन्म ही सड़को के ……..के लिए ही हुआ हो।पढा लिखा इंसान सुवर की लेंड न लीपने के काम आए न जलाने के ” आज भी अकेले में मुस्कुराने की वजह बन जाती है।जब भी अपनी शिक्षा का दर्प होता है।इस पंक्ति को याद आते ही सारा दर्प ऐसे शांत हो जाता है जैसे उफनते दूध में कुछ शीतल जल के छीटे मार दिए हो।कॉरपोरेट जगत में बॉस लोग जबभी घण्टो की बेतुकी बाते करते रहते है।ये पंक्तियां गुदगुदा जाती हैं।

कोशिश किया उसे भी पढ़ने की पर ढाक के वही तीन पात।बहुत कुछ खोया सा लग रहा था।कभी लैपटॉप पर तो कभी मोबाइल पर नई रचनाये भी देखी पर उस आनंद को नहीं पा सका जो कभी इन्हीं रचनाये पढ़ते समय महसूस होता था।

जब इसपर विचार किया तो मिल गयी वो चीज जो इतने समय से ढूंढे जा रहा था।वो था “किताबो का जादू” उसकी आत्मा उसकी खुशबू।

ये खुशबू ही तो वो कमी थी जिसकी वजह से आदिम रात्री की महक मात्र आदिम रात्रि बनकर रह गई थी।राग दरबारी की माटी की खुशबू बस माटी रह गयी बिना किसी खुशबू की।

याद आता है हर पुस्तक की अपनी एक खुशबू होती थी जिससे हम बचपन में उन्हें पहचान लेते थे।चाहे वो नागराज की कॉमिक्स हो या डायमंड के चाचा चौधरी हो।पिंकी की नई नटखट अदाएं हो या लोटपोट के मोटू पतलू।कोई उपन्यास हो या फिर राजन इकबाल की पॉकेट बुक।
किसी भी कॉमिक्स या कहानी और उपन्यास को पढ़ने से पहले ही हमें पता चल जाता था कितना आनन्द आने वाला है।उसकी रची बसीं खुसबू से हम रूबरू होने के बाद जब रचना पढ़ना आरंभ करतें तो यू प्रतीत होता मानो किसी कस्तूरी मृग के पीछे सम्मोहित होकर चले जा रहें हों और अंत पहुचने पर वह मृग हमारे हाथ लग जाता।

एक राज की बात और भी है।कुछ अलग तरह की खुशबू हमे महसूस होती थी पाठ्यपुस्तकों से जो कभी भी आकर्षक नहीं होतीं थीं।हमेशा ही उसकी खुशबू में मस्त होकर हम निद्रारानी की आगोश में चले जाते थें।

हाथ मे पकड़े एक विशेष आकर वजन और खुशबू के साथ जो माहौल बनता उसके बाद जो पठन पाठन का आनन्द आता उसकी बात ही निराली थी।

अब इन आधुनिक यंत्रो पर उन्हीं साहित्य को पढ़ने पर वो आनंद कहाँ?

Ravi KUMAR

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