बहुत पुरानी बात है। एक गॉंव में देवदत्त नामक एक वैद्य था। वह बीमारियॉं दूर करने में प्रवीण था, लेकिन बड़ा लालची था। गरीबों के प्रति उसके मन में ज़रा भी दया न थी। इलाज़ कराने जो भी उसके पास पहुँचता, उस से कसकर रुपये ऐंठ लेता।

इसलिए लोग इलाज़ कराने के लिए उसके पास जाने में डर जाते थे। मगर उस गॉंव के बीस-पच्चीस कोस की दूरी तक कोई दूसरा वैद्य न था। इसलिए लोग लाचार थे।
लोगों को चूसकर धन कमाने पर भी देवदत्त का लालच दूर न हुआ। उलटे उसका लालच बढ़ता ही गया।

उसी गॉंव में रामनाथ नामक एक अमीर था। वह बड़ा दयालु था। भरसक दूसरों की मदद किया करता था। इसलिए लोग रामनाथ की बड़ी इज्ज़त करते थे। देवदत्त को लगता उसकी इज्ज़त मिटी जा रही है। उसने रामनाथ को नीचा दिखाने के कई प्रयत्न किये, परंतु असफल रहा।

मगर एक बार गंगादास को अच्छा मौक़ा मिला। रामनाथ का इकलौता बेटा अचानक बीमार पड़ गया। लड़के की बड़ी बुरी हालत थी। लाचार होकर रामनाथ ने गंगादास को लड़के का इलाज़ करने के लिए बुला भेजा। गंगादास ने आकर लड़के की जांच की! फिर गहरी सॉंस लेकर बोला – ‘‘महाशय, यह ज़हरीली बीमारी है। इसका इलाज़ बड़ी मेहनत का तथा ख़र्चीला है।’’ रामनाथ ने गंगादास के हाथ पकड़कर कहा-‘‘गंगादासजी, आप जानते ही हैं कि यह मेरा इकलौता बेटा है। चाहे जितनी भी मेहनत का क्यों न हो, आप को इस लड़के को बचाना ही होगा। जो भी खर्च होगा, उसे उठाने में मैं हाथ नहीं खींचूँगा।’’ गंगादास ने झूठी सहानुभूति दिखाते हुए कहा-‘‘रामनाथजी, मैं आपके स्वभाव को जानता हूँ। इसलिए मैं पूरी मेहनत करने को तैयार हूँ। लेकिन इसके इलाज़ के लिए महाघृत यानी एक सौ ग्यारह साल पुराना घी चाहिये अथवा स्वर्ण श्यामक तैयार करना होगा। इसके लिए एक मन भर सोना चाहिये।’’

वैद्य के मुँह से यह बात सुनकर रामनाथ का कलेजा कॉंप उठा। गंगादास की दुष्टता उसे मालूम हो गयी। फिर भी रामनाथ ने विनयपूर्वक कहा – ‘‘महाशय, मैं अपनी सारी जायदाद बेच डालूँ, तब भी मन-भर सोना नहीं मिलेगा। आप कोई और रास्ता ढूँढ़ निकालिये।’’

‘‘इस बीमारी का कोई दूसरा इलाज़ नहीं है। फिर आप की मर्ज़ी! आप ही निर्णय कर लीजिये, आप अपने लड़के की जान बचाना चाहेंगे या अपनी जायदाद।’’ गंगादास ने स्पष्टता के साथ कहा। रामनाथ जानता था कि गंगादास के सामने गिड़गिड़ाने से कोई फ़ायदा नहीं है। उसका दिल पत्थर का है। इसलिए भगवान पर भरोसा रख कर मन भर सोना देने की मॉंग रामनाथ ने मान ली।

इलाज़ के पीछे रामनाथ की सारी जायदाद स्वाहा हो गयी। गंगादास ने ऐसा अभिनय किया, मानों इलाज़ करने में बड़ी मेहनत उठा रहा हो! लड़का चंगा हो गया और चलने-फिरने भी लगा। गंगादास ने रामनाथ के साथ जो अन्याय किया था, उसकी कल्पना मात्र से उसका दिल जल उठा। उसने निर्णय किया कि इसका बदला लेकर गंगादास की आँखें खुलवानी हैं। वरना गंगादास अपने लालच के कारण और अनेक परिवारों को तबाह कर डालेगा। कुछ दिन बाद रामनाथ अपनी पत्नी और पुत्र को लेकर गॉंव छोड़कर कहीं चला गया। गॉंव में यह अफ़वाह उड़ गयी कि रामनाथ गंगादास से बदला लेना चाहता है और मौक़ा पाकर वह गंगादास का घर लूट लेगा। यह अफ़वाह उड़ानेवाला व्यक्ति रामनाथ का एक विश्वासपात्र किसान ही था। अफ़वाह सुनकर गंगादास घबरा गया, क्योंकि उसका गॉंव बहुत ही छोटा था और उसमें गंगादास की मदद करनेवाला एक भी व्यक्ति न था। रात भर सोचकर गंगादास एक निर्णय पर पहुँचा। वह यह था कि उसके पास जो कुछ सोना और धन है, उसे शहर में ले जाकर सरकारी खज़ाने में छिपा रखे। अपने दो विश्वासपात्र नौकरों को साथ ले सारा सोना व रुपये लेकर गंगादास सवेरे ही शहर के लिए रवाना हुआ। एक पहाड़ी मोड़ को पार करते ही चोरों ने गंगादास को घेर लिया। गंगादास घबरा उठा। वह चोरों का सामना करने की हालत में न था। कुल मिलाकर बीस चोर थे। चोरों ने गंगादास को एक पहाड़ी गुफ़ा में बंदी बना दिया। लेकिन उन लोगों ने गंगादास के सोने व रुपयों को नहीं छीना।

इसलिए उसे आश्चर्य भी हुआ। उसने गुफ़ा के बाहर पहरा देनेवाले चोर को बुलाकर पूछा – ‘‘देखो भाई, मेरे पास थोड़े से रुपये हैं। इन्हें लेकर मुझे छोड़ दो न?’’

‘‘हमारे नेता की ऐसी आज्ञा नहीं है।’’ चोर ने लापरवाही से उत्तर दिया।

‘‘अच्छा, यह तो बताओ कि मुझे खाना-पानी दोगे या भूखों मार डालोगे?’’ गंगादास ने पूछा?

‘‘उसकी क़ीमत दोगे तो जो चाहे सो ला देता हूँ।’’ चोर ने जवाब दिया।

‘‘कितने रुपये चाहिये?’’ गंगादास ने पूछा।

‘‘खाने के लिए एक लाख रुपये और पानी के लिए पचास हज़ार।’’ चोर ने उत्तर दिया। गंगादास चौंक पड़ा। ‘‘अरे खाने के लिए लाख रुपये? यह कैसा अन्याय है? यह तो सरासर दगा है।’’ गंगादास ने दांत मींचते हुए कहा। ‘‘मैं नहीं जानता कि यह न्याय है या अन्याय! बस उनकी क़ीमत यही है। आप ही फ़ैसला कीजिये कि आपको खाना चाहिये या रुपये चाहिये।’’ चोर ने लापरवाही से उत्तर दिया।

गंगादास ने दो दिन बिना खाना-पानी के बिता दिये। उसे लगा कि उसने रामनाथ के साथ जो धोखा किया था, उसके दण्ड स्वरूप ईश्वर ने ऐसी सज़ा दी है। भूख सता रही थी। आँखों के सामने अंधेरा फैलता जा रहा था। उसने सोचा कि बिना अन्न-जल के उसके मर जाने पर वह सारा धन चोरों के हाथ लग जायेगा, इससे अच्छा यह है कि थोड़ा खा-पीकर जान बचा ले।

चोर को बुलाकर गंगादास ने अपनी स्वीकृति दी। दो सप्ताह भी पूरे न हो पाये थे कि गंगादास के सारे रुपये व सोना ख़त्म हो गये। अब एक कंवल खाना और अंजुली भर पानी के लिए उसे तड़पने की नौबत आ गई। यह सोचकर उसकी आँखों में आँसू आ गये।

इस पर गंगादास ने चोरों के सरदार को बुला भेजा और उसे प्रणाम करते हुए प्रार्थनापूर्वक खाना मॉंगा। ‘‘गंगादास, जिस व़क्त तुमने रामनाथ की जायदाद हड़प ली और गॉंव के लोगों को चूस लिया, तब उन लोगों ने भी ऐसी ही यातनाएँ भोगी थीं। क्या तुम उनकी हालत समझ नहीं पाये?’’ चोरों के सरदार ने पूछा।

उसके कंठ को पहचान कर गंगादास ने कहा – ‘‘रामनाथ, मुझे क्षमा कर दो। धन के लालच ने मुझे अन्धा बना दिया था। लालच में पड़कर मैंने तुम सबको लूट लिया। सारे गॉंववालों को तंग किया। उनकी लाचारी से लाभ उठाया और वैद्य धर्म के विपरीत कर्म किया आज तुमने मेरी आँखें खोल दीं। अभी अभी मुझे प्राणों का मूल्य मालूम हो रहा है।’’ ये शब्द कहते हुए गंगादास फूट-फूटकर रो पड़ा। रामनाथ गंगादास को समझा-बुझाकर अपने गॉंव में ले गया। इसके बाद गंगादास बड़ा परोपकारी बन गया।

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