लोककथा भाग 18

एक बाघ जंगल में रखे हुये शिकारी के पिंजरे में फंस गया और निकलने के लिये छटपटाने लगा. बहुत कोशिश करने के बाद भी वह उस पिजड़े से निकल नहीं पाया ।बहुत हाथ पैर मार कर जब बाघ परेशान हो गया तब शांति से किसी की प्रतीक्षा करने लगा कि कोई उस राह निकले और बाघ उससे मदद मांगे।

थोड़ी देर बाद उस स्थान से एक गरीब ब्राह्मण गुज़रा. बाघ ने बड़े दयनीय स्वर में ब्राह्मण को पुकार कर प्रार्थना की कि उसे पिंजरे से निकाल दे. ब्राह्मण ने कहा कि यदि मैं तुम्हें पिंजरे से निकाल दूंगा तो सबसे पहले तुम मुझे ही खा जाओगे. इस पर बाघ ने कहा कि यदि तुम मुझे पिंजरे के बाहर निकालोगे तो यह मुझ पर तुम्हारा बहुत बड़ा एहसान होगा. मैं जीवन भर इसे नहीं भूलूंगा. मैं तुम्हें कैसे खा सकता हूँ? मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि तुम्हे कुछ नहीं कहूँगा. 

ब्राह्मण को अभी भी उसकी बात पर संदेह था सो वह वहां से जाने लगा. इस पर बाघ जोर जोर से रोने लगा. बाघ का यह रूप देख कर अंततः ब्राह्मण का मन पसीज गया. उसने पिंजरे का द्वार खोल दिया. बाघ बाहर निकल आया.पिंजरे से बाहर आते ही बाघ का असली रूप सामने आ गया. उसने ब्राह्मण से कहा कि मैं देखता हूँ कि मुझे कौन रोकता है. मैं सबसे पहले तुम्हें ही खाऊंगा. वैसे भी मैं पिंजरे में काफी देर से बंद था इसलिए मुझे बड़ी भूख लगी है. 

ब्राह्मण ने उसे उसके वचन की याद दिलाई. बाघ ने उसकी बात की खिल्ली उड़ाते हुये कहा कि तू मूर्ख है जो तूने मेरी बात पर यकीन कर लिया. मैं अगर ऐसे ही वचन देता रहूँगा तो भूखा मर जाऊँगा.जब ब्राहमण ने देखा कि बाघ पर किसी बात का कोई असर नहीं हो रहा तो हार कर उसने उसके सामने एक शर्त रखी. शर्त के अनुसार ब्राह्मण ने कहा कि वह सामने आने वाली तीन चीजों से पूछना चाहता है कि 

सबसे पहले एक पीपल का पेड़ दिखा. उसने पेड़ से सब घटना कह सुनाई. पेड़ ने कहा कि मैं भी सब यात्रियों को कड़ी धूप में छाया देता हूँ, लेकिन इस पर भी यात्री अपने पशुओं को मेरे पत्ते तोड़ कर खिला देते हैं, मेरी छाल पर अपना नाम गोद देते हैं. मुझे पानी तक नहीं देते. अतः जो हो रहा है उसे स्वीकार कर लो.

आगे उसे एक भैंस दिखाई दी. उसने भैंस को अपना दुखड़ा सुनाया. भैंस ने उससे कहा कि संसार का दस्तूर ही ऐसा है. मैं भी जब तक दूध देती रही मुझे हरी दूब और खल-चरी खिलाते रहे. अब मैं दूध नहीं देती तो मुझे पानी निकालने के काम पर लगा दिया गया है और खाने के लिये भी रूझा-सुखा ही दिया जाता है. इसलिये जो नियति है उसे स्वीकार कर लेना चाहिये.यही बात उसने अपने सामने आई सड़क से भी कही. सड़क ने भी अपनी सेवा भावना का ज़िक्र किया और कहा कि मानव अपने स्वार्थवश मेरा ध्यान नहीं रखता.

इसी कारण हर समय मेरी दुर्दशा बनी रहती है. तुम भी अब अपनी होनी को स्वीकार कर लो.तीन जगह विचार विमर्श करने के बाद ब्राह्मण दुखी मन से बाघ की देखने लगा. अब उसे विश्वास हो गया था कि उसके बचने का कोई उपाय नहीं है और बाघ उसे खा जायेगा. इसी उधेड़-बन में वह खड़ा था कि एक सियार ने उससे पूछा, “भाई तुम क्यों उदास हो? क्या तुम्हारे ऊपर कोई पहाड़ टूट पड़ा है. ऐसा लगता है जैसे किसी मछली को जल से बाहर फेंक दिया गया हो.

ब्राह्मण ने जो हुआ था उसे कह सुनाया. “यह तो बहुत गड़बड़ हो गयी!” सियार के मुंह से निकला, जब ब्राह्मण की बात खत्म हुई, “क्या आप मुझे एक बार फिर से सारी घटना बताने का कष्ट करेंगे ताकि मैं इसे ठीक से समझ सकूँ.” ब्राह्मण ने पुनः सारी बात दोहराई लेकिन सियार ने सिर हिला कर बताया कि उसे अब भी कुछ समझ नहीं आया. “यह बड़ी अजीब सी बात है,” उसने अफ़सोस जताते हुये कहा, “ऐसा लगता है कि आप जो एक कान से बोलते हैं वह दूसरे कान से निकल जाता है! चलिए चलते हैं जहां यह सब वारदात हुई. हो सकता है वहां पहुँच कर मैं कुछ समझ सकूँ और कोई सलाह दे सकूँ.” 

सो, वे दोनों पिंजरे के पास वापिस आये. बाघ वहां अपने दांत और पंजे तेज कर रहा था और ब्राह्मण का इंतज़ार कर रहा था. “तुमने बहुत देर लगा दी?” बाघ दहाड़ा, “मगर अब हमें अपना भोजन शुरू करना चाहिये.” “हमें?” उस दुखी ब्राह्मण ने सोचा. उसकी टांगें डर के मारे कांप रही थीं, “बात करने का कितना बढ़िया तरीका है यह!”“मुझे सिर्फ पांच मिनट दीजिये, महाराज!” उसने विनय पूर्वक कहा, “ताकि मैं यहाँ आये हुये सियार को सारी बात समझा सकूँ, उसे समझने में थोड़ा वक़्त लगता है. 

बाघ ने उसकी बात मान ली. अब ब्राहमण ने नये सिरे से सारी दास्तान इस प्रकार सुनानी शुरू कर दी जिससे कोई बात छूट न जाये. वह इसे अधिक से अधिक लम्बा खींचना चाहता था.“ओह, मेरी खोपड़ी को भी न जाने क्या हो गया है?” सियार सकपकाते हुये और अपने पंजे झटकते हुये बोला, “जरा मुझे समझने दो कि यह सब कैसे हुआ? आप पिंजरे के अन्दर थे, और बाघ महाराज टहलते हुये

आये … ?”“ओफ़्फ़ो!” बाघ ने बीच में टोकते हुये कहा, “तुम भी कैसे मूर्ख हो? पिंजरे के अन्दर मैं था.”“हाँ, अब समझ में आ गया,” सियार ने नकली डर से कांपते हुये कहा, “हाँ! तो मैं पिंजरे के अन्दर था – न – नहीं मैं नहीं – हे भगवान, ये मुझे क्या हो रहा है? चलो देखता हूँ ! बाघ महाराज ब्राह्मण के अन्दर थे, और पिंजरा टहलता हुआ वहाँ आया — नहीं यह भी नहीं, खैर जाने दीजिये, — आप अपना खाना शुरू करें, लगता है मुझे कुछ समझ में नहीं आएगा!”“अरे, तुम्हें क्यों नहीं समझ में आएगा?” बाघ ने सियार की बेवकूफ़ी पर झुंझलाते हुये बात को आगे बढ़ाया, “मैं तुम्हें समझाता हूँ! इधर देखो – मैं बाघ हूँ –“

“जी हाँ, महाराज!””और ये वो ब्राह्मण है –“ “जी हाँ, महाराज!”“और वह रहा पिजरा – “ “ जी हाँ, महाराज!”“ और मैं पिंजरे के अन्दर था – बात समझ में आयी?” “हां s- न- नहीं- मुझे क्षमा करें, महाराज -“ “तो फिर — ?” बाघ अधीर होते हुये गुर्राया.“कृपया, महाराज! आप पिंजरे के अन्दर कैसे गये?”“कैसे?? जैसे आम तौर पर होता है!! और कैसे??”“ओह, मैं क्या करूँ. मेरा तो सर चकरा रहा है. आप रुष्ट न हों, महाराज, मगर आम तौर पर यह कैसे होता है?”इस पर बाघ का संयम जाता रहा और सियार को समझाने के लिये वह पिंजरे में घुस कर चिल्लाया, “इस तरह !! …… आशा है अब तुम्हें सारी बात समझ में आ गई होगी?” “बिलकुल!!” सियार ने हँसते हुये कहा. उसने बड़ी सफाई से पिजरे का द्वार बंद करते हुये कहा, “अगर आप बुरा न मानें तो मैं ये कहना चाहूँगा कि अब सारा मामला समझ में आ गया है.”ब्राह्मण ने सियार का आभार प्रगट किया और अपने रास्ते पर अग्रसर हो गया. 

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Ravi KUMAR

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