Categories: कविताएं

बहुरुपिया

दुनिया दूषती है 

हँसती है 

उँगलियाँ उठा कहती है … 

कहकहे कसती है – 

राम रे राम! 

क्या पहरावा है 

क्या चाल-ढाल 

सबड़-झबड़ 

आल-जाल-बाल 

हाल में लिया है भेख? 

जटा या केश? 

जनाना-ना-मर्दाना 

या जन ……. 

अ… खा… हा… हा.. ही.. ही… 

मर्द रे मर्द 

दूषती है दुनिया 

मानो दुनिया मेरी बीवी 

हो-पहरावे-ओढ़ावे 

चाल-ढाल 

उसकी रुचि, पसंद के अनुसार 

या रुचि का 

सजाया-सँवारा पुतुल मात्र, 

मैं 

मेरा पुरुष 

बहुरूपिया।

Ravi KUMAR

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Ravi KUMAR

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