बड़ी हवेली अब नाममात्र की बड़ी हवेली है, जहाँ रात दिन नौकर नौकरानियों और जन मजदूरों की भीड़ लगी रहती थी, वहाँ आज हवेली की बड़ी बहुरिया अपने हाथ से सूप में अनाज झटक रही है, इन हाथों में मेंहदी लगाकर ही गाँव की नाइन परिवार पलती थी। कहाँ गए वो दिन? बड़े भैया के मरने के बाद ही जैसे सब खेल खत्म हो गया। तीनों भाइयों ने लड़ाई झगड़ा शुरू किया। रेयती ने जमीन पर दावे करके दखल किया, फिर तीनों भाई गाँव छोड़कर शहर में जा बसे। रह गई अकेली बड़ी बहुरिया। कहाँ जाती बेचारी। भगवान बड़े आदमी को कष्ट देते हैं। नहीं तो एक घंटे की बीमारी में बड़े भैया क्यों मरते? बड़ी बहुरिया की देह से जेवर खींच छीनकर बँटवारे की लीला हुई थी, हरगोबिन ने देखी है द्रौपदी चीरहरण लीला। बनारसी साड़ी के तीन टुकड़े करके बँटवारा किया था, निर्दयी भाईयों ने, बेचारी बड़ी बहुरिया।

हरगोबिन बड़बड़ाते हुए जा रहा है- तो आज भी किसी को संवदिया की जरूरत पड़ सकती है। इस जमाने में जबकि गाँव-गाँव में डाकघर खुल गए हैं, संवदिया के मार्फत संवाद क्यों भेजेगा कोई? आज तो आदमी घर बैठे ही लंका तक खबर भेज सकता है और वहाँ का कुशल संवाद मँगा सकता है। फिर उसकी बुलाहट क्यों हुई है। हरगोबिन बड़ी हवेली की टूटी ड्योढ़ी पार कर अंदर गया, सदा के भाँति सूँघकर उसने वातावरण का पता लगाया। निश्चय ही कोई गुप्त समाचार ले जाना है। चाँद-सूरज को भी नहीं मालूम हो। परेवा पंछी तक न जाने।

हरगोबिनः- पाँव लागी बड़ी बहुरिया।

बड़ी बहुरिया पीढ़ा देती है, आँख के इशारे से चुपचाप बैठने को कहती है, बड़ी बहुरिया सूप से अनाज लेकर झटक रही है।

मोदिआइन:- उधार का सौदा याने में बड़ा मीठा लगता है और दाम देते समय मोदिआइन की बात कड़वी लगती है। मैं आज दाम लेकर ही उठूँगी।

बड़ी बहुरिया:- चुप

हरगोबिनः- मोदिआइन काकी, बाकी बकाया वसूलने का यह काबुली कायदा तो तुमने खूब सीखा है।

मोदिआइन:- चुप रह मुँहझौंसे, निमोछिये,

हरगोबिनः- क्या करूँ काकी, भगवान ने मूँछ दाढ़ी दी नहीं, न काबुली आगा साहब की तरह गुलजार दाढ़ी।

मोदिआइन:- फिर काबुल का नाम लिया तो जीभ पकड़कर खींच लूँगी।

हरगोबिनः- जीभ निकाल कर दिखलाता है ।

मोदिआइन गाली देती हुई चली जाती है।

5 साल पहले गुल मुहम्मद आगा उधार कपड़ा लगाने के लिए गाँव आता था और मोदिआइन के ओसारे में दुकान लगाकर बैठता था। आगा कपड़ा देते समय बहुत मीठा बोलता और वसूली के समय जोर -जुल्म से एक का दो वसूलता। एक बार कई उधार वालों ने मिलकर काबुली की ऐसी मरम्मत कर दी कि फिर लौटकर गाँव नहीं आया। लेकिन इसके बाद ही दुखनी मोदिआइन लाल मोदिआइन हो गई। काबुली क्या, काबुली बादाम से चिढ़ने लगी मोदिआइन, गाँव के नाचवाली ने नाच में काबुली का स्वाँग किया था। तुम अमारा मुलक जाएगा मोदिआइन? काबुली बादाम – पिस्ता अखरोट खिलाएगा।

बड़ी बहुरिया:- हरगोबिन भाई, तुमको एक संवाद ले जाना है। आज ही ।

बोलो, जाओगे न?

हरगोबिनः- कहाँ?

बड़ी बहुरिया:- डबडबाई आँखों से मेरी माँ के पास।

हरगोबिनः- कहिए क्या संवाद है?

बड़ी बहुरिया रोती है

हरगोबिनः- बड़ी बहुरिया दिल को कड़ा कीजिए।

बड़ी बहुरियाः- और कितना कड़ा करूँ दिल? माँ से कहना मै। भाई -भाभियों की नौकरी करके पेट पालूँगी, बच्चों के जूठन खाकर एक कोने में पड़ी रहूँगी। हरगोबिन भाई ! माँ से कहना, भगवान ने आँखें फेर ली, लेकिन मेरी माँ तो है, कहना माँ मुझे यहाँ से नहीं ले जाएगी तो मैं किसी दिन गले में घड़ा बाँधकर पोखरे में डूब मरूँगी, बथुआ साग खाकर कबतक जीउँ। किसलिए, किसके लिए? किसके भरोसे यहाँ रहूँगी? एक नौकर था, वह भी कल भाग गया। गाय खूँटे में बँधी भूखी प्यासी हिकर रही है। मैं किसके लिए इतना दुःख झेलूँ।

हरगोबिनः- देवर देवरानियाँ भी कितने बेदर्द हैं, ठीक अगहनी धान के समय बाल बच्चों को लेकर शहर से आएँगे। दस पन्द्रह दिनों में कर्ज उधार की ढेरी लगाकर , वापस जाते समय दो दो मन के हिसाब से चावल चूड़ा ले जाएँगे। फिर आम के मौसम में आकर हाजिर। कच्चा आम तोड़कर बोरियों में बंद करके ले जाएँगे। फिर उलटकर कभी नहीं देखते , राक्षस हैं सब। कर्ज उधार अब कोई देते नहीं, एक पेट तो कुत्ता भी पालता है, लेकिन मैं? माँ से कहना—-?

बड़ी बहुरिया:- आँचल के खूँट से एक गंदा नोट निकाल कर बोली

पूरा राह खर्चा भी नहीं जुटा सकी । आने का खर्चा भी माँ से माँग लेना। उम्मीद है भैया तुम्हारे साथ ही आवेंगे।

हरगोबिनः- बड़ी बहुरिया, राह खर्च देने की जरूरत नहीं । मैं इंतजाम कर लूँगा।

बड़ी बहुरिया:- तुम कहाँ से इंतजाम करोगे?

हरगोबिनः- मैं आज दस बजे की गाड़ी से ही जा रहा हूँ

बड़ी बहुरिया:- नोट को हाथ में रखी है, भाव शून्य दृष्टि से

मैं तुम्हारी राह देखती रहूँगी।

संवदिया अर्थात् संवाद वाहक। संवाद पहुँचाने का काम सभी नहीं कर सकते। आदमी भगवान के घर से ही संवदिया बनकर आता है। संवाद के प्रत्येक शब्द को याद रखना, जिस सुर और स्वर में संवाद सुनाया गया है, ठीक उसी ठंग से सुनाना सहज काम नहीं। गाँव के लोगों की गलत धारणा है कि निठल्ला, कामचोर, पेटू आदमी ही संवदिया का का करता है। न आगे नाथ , न पीछे पगहा। बिना मजदूरी लिए ही जो गाँव -गाँव सँवाद पहुँचाए, उसको और क्या कहेंगे? औरतों का गुलाम। जरा सी मीठी सुनकर ही नशे में आ जाए ऐसे मर्द को भी भला क्या कहेंगे? किन्तु गाँव में कौन, ऐसा है जिसके घर की माँ- बहू- बेटी का संवाद हरगोबिन ने नहीं पहँचाया है। लेकिन ऐसा संवाद पहली बार ले जा रहा है वह।

रेलगाड़ी में चढ़कर हरगोबिन जा रहा है, पार्श्व से गीत बज रहा है,

पैया पड़ दाढ़ी धरूँ,

हमरी संवाद ले ले जाहू रे संवदिया या या,

हरगोबिन:- यात्री से क्यों भाई साहब, थाना बिंहपुर में डाकगाड़ी रूकती है या नहीं?

यात्री:- कुढ़कर थाना बिंहपुर में सभी गाड़ियाँ रूकती है।

कटिहार जंक्शन में हरगोबिन उतर जाता है। स्टेशन में अलाउन्स होता है कि थाना बिंहपुर, खगड़िया और बरौनी जाने वाले यात्री तीन नंबर प्लेटफार्म पर चले जाएँ। गाड़ी लगी हुई है।

बिंहपुर स्टेशन में उतरता है।

हरगोबिनः- मन ही मन इस पगडंडी से बड़ी बहुरिया अपने मैके लौट जाएगी, गाँव छोड़कर चली आवेगी। फिर कभी नहीं जाएगी। तब गाँव में क्या रह जाएगा? गाँव की लक्ष्मी ही गाँव छोड़कर चली आवेगी। किस मुँह से वह ऐसा संवाद सुनाएगा, कैसे कहेगा बड़ी बहुरिया बथुआ साग खाकर गुजर कर रही है, सुनने वाले हरगोबन के गाँव का नाम सुनकर थूकेंगे

कैसा गाँव है जहाँ लक्ष्मी जैसी बहुरिया दुःख भोग रही है।

आदमी 1ः- जलालगढ़ का संवदिया आया है। न जाने क्या संवाद लेकर आया है?

आदमी2ः- राम राम भाई ! कहो, कुशल समाचार ठीक है न?

हरगोबिन:- राग राग भैया जी, भगवान की दया से सब आनंदी है।

आदमी1ः- उधर पानी बूँदी पड़ा है?

हरगोबिन:- हाँ खूबेच बरसा हुआ है।

रामकिशन:- दीदी कैसी है?

हरगोबिन:- भगवान की दया से सब राजी खुशी है।

रामकिशन:- आओ घर में बैठते हैं।

हरगोबिन:- माता पाँव लागी माय जी।

माता:- चिरंजीव रहो बेटा, कहो बेटा क्या समाचार है?

हरगोबिन:- माय जी आपके आशीर्वाद से सब ठीक है।

माता:- कोई संवाद?

हरगोबिन:- एं! संवाद? जी संवाद तो कोई नहीं। मै। कल सिरसिया गाँव आया था,सोचा कि एक बार चलकर आप लोगों का दर्शन कर लूँ।

माता:- तो तुम कोई संवाद लेकर नहीं आए हो?

हरगोबिन:- जी नहीं , कोई संवाद नहीं। ऐसे बड़ी बहुरिया ने कहा है कि यदि छुट्टी हुई तो दशहरा के दिन गंगाजी के मेले में आकर माँ से भेंट मुलाकात कर जाउँगी।—- छुट्टी कैसे मिले । गृहस्थी बड़ी बहुरिया के उपर ही है।

माता:- मैं तो बबुआ से कह रही थी कि जाकर दीदी को लिवा लाओ, यही रहेंगी। वहाँ अब क्या रह गया है? जमीन जायदाद तो सब चली गई। तीनों देवर अब शहर में आकर बस गए हैं। कोई खोज खबर भी नहीं लेते। मेरी बेटी अकेली —-।

हरगोबिन:- नहीं मायजी! जमीन जायदाद अभी भी कुछ कम नहीं। जो है , वही बहुत है, टूट गई है, तो आखिर बड़ी हवेली ही है, स्वाँग नहीं है, यह बात ठीक है, मगर, बड़ी बहुरिया का तो संसार गाँव ही परिवार है। हमारे गाँव की लक्ष्मी है बड़ी बहुरिया। गाँव की लक्ष्मी गाँव को छोड़कर शहर कैसे जाएगी? यों देवर लोग हर बार लेकर जाने की जिद करते हैं।

माता:- जलपान लाकर पहले थोड़ा जलपान कर लो बबुआ।

हरगोबिन:- मन में सोचता है भात , दाल, तीन किस्म की भाजी, घी, पापड, अचार। बड़ी बहुरिया बथुआ साग उबालकर खा रही होगी।

माता:- क्यों बबुआ खाते क्यों नहीं?

हरगोबिन:- माय जी पेट भर जलपान जो कर लिया है।

माता:- अरे जवान आदमी तो पाँच बार जलपान करके भी एक थाल भोजन खाता है।

हरगोबिन ने कुछ नहीं खाया, खाया नहीं गया। संवदिया डटकर खाता है और अफरकर सोता है, किन्तु हरगोबिन को नींद नहीं आ रही है। यह उसने क्या किया? वह किसलिए आया था? वह झूठ क्यों बोला? नहीं नहीं सुबह उठते ही माता को बड़ी बहुरिया का सही संवाद सुना देगा, अक्षर अक्षर मायजी आपकी एकलौती बेटी कष्ट में है, आज ही किसी को भेजकर बुला लीजिए। नहीं तो वह सचमुच कुछ कर बैठेगी। आखिर किसके लिए वह इतना सहेगी? बड़ी बहुरिया ने कहा है, भाभी के बच्चों के जूठन खाकर वह एक कोने में पड़ी रहेगी। रात भर हरगोबिन को नींद नहीं आई। आँखों के सामने बड़ी बहुरिया बैठी रही – सिसकती , आँसू पोंछती हुई। सुबह उठकर उसने दिल कड़ा किया। वह संवदिया है। उसका काम है सही सही संवाद पहुँचाना, वह बड़ी बहुरिया का संवाद सुनाने के लिए माता के पास जा बैठा।

माता:- क्या है बबुआ? कुछ कहोगे?

हरगोबिन:- मायजी मुझे इसी गाड़ी से वापस जाना होगा। कई दिन हो गये।

माता:- अरे इतनी जल्दी क्या है एकाध दिन रहकर मेहमानी कर लो।

हरगोबिन:- नहीं मायजी इस बार आज्ञा दीजिए। दशहरा पर मैं भी बड़ी बहुरिया के साथ आउँगा। तब डटकर पंद्रह दिनों तक मेहमानी करूँगा।

माता:- ऐसी जल्दी थी तो आए ही क्यों, सोचा था बिटिया के लिए दही चूड़ा भेजूँगी। सो दही तो आज नहीं हो सकेगा, आज थोड़ा चूड़ा बासमती धान का लेते जाओ।

रामकिशन:- क्यों भाई राह खर्च तो है?

स्टेशन पर पहुँचकर हरगोबिन ने हिसाब किया। उसके पास जितने पैसे हैं, उससे कटिहार तक टिकट ही वह खरीद सकेगा और यदि चौअन्नी नकली साबित हुई तो सौमपुर तक ही। बिना टिकट के वह स्टेशन भी नहीं जा सकेगा। डर के मारे उसकी देह का आधा खून भी सूख जाएगा।

गाड़ी बैठते ही उसकी हालत अजीब हो गई। वह कहाँ आया था?

क्या करके जा रहा है? बड़ी बहुरिया को क्या जवाब देगा?

सूरदास:- नेहरा का सुख सपन भ्ये अब ,

देश पिया को डोलिया चली ई ई ई

भाई रोओ मति , यहि करम गति।

पांच बजे भोर कटिहार पहुँचा। जलालगढ़ जाने के लिए उसके पास पैसे नहीं है, वह पैदल ही जायेगा। बोलो बजरंगबली की जय कहते हुए वह जलालगढ़ पहुँच गया। थका हारा बेहोशी की हालत में पहुँचा।

बड़ी बहुरिया:- हरगोबिन भाई आ गए। हरगोबिन भाई क्या हुआ तुमको?

हरगोबिन:- बड़ी बहुरिया? बड़ी बहुरिया?

बड़ी बहुरिया:-हरगोबिन भाई अब जी कैसा है, लो एक घूँट दूध और पी लो। मुँह खोलो हाँ पी जाओ। पीओ।

हरगोबिन होश में आया। बड़ी बहुरिया दूध पिला रही है। हरगोबिन बडी बहुरिया के पाँव पकड़ लिया।

हरगोबिनः- बड़ी बहुरिया , मुझे माफ करो, मैं तुम्हारा संवाद नहीं कह सका। तुम गाँव छोड़कर मत जाओ। तुमको कष्ट नहीं होने दूँगा। मैं

तुम्हारा बेटा ! बड़ी बहुरिया, तुम मेरी माँ, सारे गाँव की माँ हो, मैं अब निठल्ला नहीं रहूँगा, तुम्हारा सब काम करूँगा,। बोलो बड़ी माँ तुम गाँव छोड़कर चली तो नहीं जाओगी? बोलो—–।

बड़ी बहुरिया गर्म दूध में एक मुट्ठी बासमती चूड़ा डालकर भसकने लगी। संवाद भेजने के बाद से ही वह अपनी गलती पर पछता रही थी।

Ravi KUMAR

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