निरपेक्ष प्रेम

निरपेक्ष प्रेम

एक समय की बात है कि एक बूढ़ा अपनी बुढ़िया के साथ रहता था ।

अब एक रोज़ बुड्ढ़े ने अपनी बीबी से कहा : “उठ री, बुढ़िया, चल, जरा आटे के कुठार को खुरच कर आनाज के कुठार को झाड़-बुहार कर थोड़ा सा आटा निकाल और एक गुलगुला बना दे ।”

बुढ़िया ने बत्तख़ का एक पंख लेकर आटे के कुठार को खुरचा और अनाज के कुठार को झाड़ा-बुहारा और किसी तरह दो मुट्ठी आटा निकाला ।

मलाई उसमें डाल कर
गूंथ-गूंथ कर बना,
गोल-गोल गुलगुला,
घी में सेंक-भून कर
खस्ता और भुरभूरा ।

ठंड़ा करने के लिए
खिड़की में धरा गया;
मैं नहीं हूँ बेबकूफ
वहाँ से मैं लुढ़क चला ।
बाबा को नहीं मिला,
दादी को नहीं मिला,
ओ मियां ख़रगोश राम,
तुम को भी नहीं मिला !”

और ख़रगोश पलक भी न मार पाया कि गुलगुला लुढ़कता हुआ आगे निकल गया ।
वह लुढ़कता गया, लुढ़कता गया । रास्ते में मिला एक भेड़िया ।
“गुलगुले आ गुलगुले मैं तुझे खा जाऊंगा, भेड़िये ने कहा ।
“नहीं, नहीं, भूरे भेड़िये, मुझे न खाओ। मैं तुम्हें एक गाना सुनाये देता हूँ :

मैं हूँ गोल गुलगुला,
खस्ता और भुरभुरा
आटे के कुठार को
खुरच, खुरच, खुरच कर
अनाज के कुठार को,
झाड़ कर, बुहार कर,
जितना आटा मिल सका,
मलाई में उसे डाल कर,
गूंथ-गूथ कर बना,
गोल-गोल गुलगुला ।

घी में सेंक-भून कर
खस्ता और भुरभुरा ।
ठंडा करने के लिए
खिड़की में धरा गया;
मैं नहीं हूँ बेबकूफ
वहाँ से में लुढ़क चला ।
बाबा को नहीं मिला,
दादी को नहीं मिला,
न मिला ख़रगोश को
सुनो सुनो रे भेड़िये ।
तुम को भी नहीं मिला ।

और भेड़िया पलक भी न मार पाया कि गुलगुला लुढ़कता हुआ आगे निकल गया ।
वह लुढ़कता गया, लुढ़कता गया । रास्ते में मिला एक रीछ ।
“गुलगुले, ओ गुलगुले, मैं तुझे खा जाऊँगा,” रीछ ने कहा ।
अरे जा रे, टेढ़े-मेढ़े पाँववाले, तू क्या खायेगा मुझे ।

मैं हूँ गोल गुलगुला,
खस्ता और भुरभुरा
आटे के कुठार को
खुरच, खुरच, खुरच कर
अनाज के कुठार को,
झाड़ कर, बुहार कर,
जितना आटा मिल सका,
मलाई में उसे डाल कर,
गूंथ-गूथ कर बना,
गोल-गोल गुलगुला ।

घी में सेंक-भून कर
खस्ता और भुरभुरा ।
ठंडा करने के लिए
खिड़की में धारा गया;
मैं नहीं हूँ बेबकूफ
वहाँ से में लुढ़क चला ।
बाबा को नहीं मिला,
दादी को नहीं मिला,
न मिला ख़रगोश को
भेड़िये को नहीं मिला ।
सुनो, रे रीछ राम तुम !
तुमको भी नहीं मिला !”

और रीछ पलक भी न मार पाया कि गुलगुला लुढ़कता हुआ आगे निकल गया ।
लुढ़कता गया, लुढ़कता गया । रास्ते में मिली एक लोमड़ी ।
“गुलगुले, ओ गुलगुले, तुम कहाँ लुढ़कते जा रहे हो ?”
गुलगुले, ओ गुलगुले, मुझे एक गीत सुनाओ !” और गुलगुला गाने लगा :

“मैं हूँ गोल गुलगुला,
खस्ता और भुरभुरा
आटे के कुठार को
खुरच, खुरच, खुरच कर
अनाज के कुठार को,
झाड़ कर, बुहार कर,
जितना आटा मिल सका,
मलाई में उसे डाल कर,
गूंथ-गूथ कर बना,
गोल-गोल गुलगुला ।

घी में सेंक-भून कर
खस्ता और भुरभुरा ।
ठंडा करने के लिए
खिड़की में धारा गया;
मैं नहीं हूँ बेबकूफ
वहाँ से में लुढ़क चला ।
बाबा को नहीं मिला,
दादी को नहीं मिला,
न मिला ख़रगोश को
भेड़िये को नहीं मिला
रीछ को भी न मिला ।
ओ सुनो तो, लोमड़ी !
तुम को भी नहीं मिला !”

और लोमड़ी बोली :
“वाह ! कितना सुन्दर गीत है ! पर क्या करूँ, मुझे ठीक तरह सुनाई नहीं देता । मेरी नाक पर चढ़ जाओ, प्यारे गुलगुले, और जरा ज़ोर से गाओ; तब शायद मैं सुन पाऊं !”
सो गुलगुला उछल कर लोमड़ी की नाक पर जा बैठा और वह गीत जरा ज़ोर से गाने लगा ।
लेकिन लोमड़ी बोली :
“गुलगुले प्यारे ज़रा मेरी जबान पर बैठ कर अपना गीत आख़िरी बार गाओ ।”
गुलगुला फुदक कर लोमड़ी की ज़बान पर बैठा और खट से लोमड़ी का मुँह बंद हो गया और वह गुलगुले को खा गयी ।

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