कैसांड्रा का अभिशाप

प्यासे खजूर के वृक्षों की छोटी-सी छाया उस कड़ाके की धूप में मानो सिकुड़ कर अपने-आपमें, या पेड़ के पैरों तले, छिपी जा रही है। अपनी उत्तप्त साँस से छटपटाते हुए वातावरण से दो-चार केना के फूलों की आभा एक तरलता, एक चिकनेपन का भ्रम उत्पन्न कर रही है, यद्यपि है सब ओर सूनापन, प्यासापन रुखाई…
उन केना के फूलों के पास ही, एक छींट के टुकड़े से अपने कन्धे ढँके हुए, मेरिया बैठी है। उससे कुछ ही दूर भूमि पर एक अखबार बिछाये उसकी छोटी बहन कार्मेन एक रूमाल काढ़ रही है। वे दोनों अपने-अपने ध्यान में मस्त हैं, किन्तु उनके ध्यान एक ही विषय को दो विभिन्न दृष्टियों से देख रहे हैं… यद्यपि वे स्वयं इस बात को नहीं जानतीं कि उनके विचार एक-दूसरे के कितने पास मँडरा रहे हैं – यद्यपि मेरिया उसे कभी स्वीकार नहीं करेगी, क्योंकि वह इसे अपने हृदय का गुप्ततम रहस्य समझती है…
कार्मेन की आँखें उसके हाथ के रूमाल पर लगी हुई हैं। वह उस पर लाल धागे से एक नाम काढ़ रही है, जो मेहंदी के रंग से उस पर लिखा हुआ है – मिगेल! नाम के चारों ओर एक बेल काढ़ी जा चुकी है और बेल के ऊपर एक लाल झंडा।
मेरिया अपने पास की किसी चीज़ को अपने चर्मचक्षुओं से भी नहीं देख रही है। केना के फूलों के आगे जो खजूर के दो-चार झुरमुट-से हैं, उनके आगे जो छोटे-छोटे नये गन्ने के खेत हैं, उनके भी पार कहीं जो स्पष्ट किन्तु अदृश्य सत्यताएँ हैं, उन्हीं पर उसकी आँखें गड़ी हैं…
वहाँ है तो बहुत-कुछ। वहाँ मार-काट है, हत्या है, भूख है, प्यास है, विद्रोह है, पर मेरिया उसे देख ही नहीं रही। वह तो वहाँ एक स्वप्न की छाया देख रही है। एक स्वप्न, जो टूट चुका है, किन्तु बिखरा नहीं, जो बद्ध हो चुका है, किन्तु मरा नहीं है…
वह मिगेल को याद कर रही है; मिगेल, जो जेल में बैठा है; मिगेल, जो…
पर क्या मन को उलझाने के लिए कोई स्पष्ट विचार आवश्यक ही है? क्या कवि कविता लिखने से पहले उसे लिखने के विचार में और उसके अनुकूल झुकाव में ही इतना तल्लीन नहीं हो सकता कि कविता की अभिव्यक्ति एक अकिंचन, आकस्मिक, द्वैतीयिक वस्तु हो जाये? तभी तो मेरिया भी उसकी याद में तल्लीन हो रही है, उसे याद ही नहीं कर रही, उसे याद करने की अवस्था में ही ऐसी खो गयी है कि वह याद सामने नहीं आती…
मेरिया और कार्मेन साधारणतया इस समय घर से बाहर नहीं बैठतीं। एक तो धूप-गर्मी, दूसरे विद्रोह के दिन, तीसरे घर का काम; और सबसे बड़ी, सबसे भयंकर बात यह कि उन दिनों में वेश्याएँ ही दिन-दहाड़े बाहर निकलती हैं या वे कुलवधुएँ जो भूख और दारिद्रय से पीड़ित होकर दिन में ही अपने-आपको बेच रही हैं – चोरी से नहीं, धोखे से नहीं, धर्मध्वजियों की कामलिप्सा से नहीं (इन सब सभ्यता के अलंकारों के लिए उन्हें कहाँ अवकाश?) किन्तु, केवल छः आने पैसे के लिए, जिसमें वे रोटी-भर खा सकें… मेरिया विधवा है, कार्मेन अविवाहिता, और दोनों ही अनाथिनी और दरिद्र, किन्तु वे अभी… वे अभी वहाँ तक नहीं पहुँचीं, वे अभी घर में बैठकर अपने टूटते अभिमान से लिपटककर रो सकती हैं, इसलिए किसी हद तक स्वाधीन हैं… आज वे बाहर बैठी हैं तो इसलिए कि आस-पास आने-जानेवालों को देख सकें, और आवश्यकता पड़ने पर पुकार सकें, क्योंकि आज वे अतिथि की प्रतीक्षा कर रही हैं…
दोनों ही उद्विग्न हैं, क्योंकि प्रतीक्षा का समय हो चुका है। पेड़ों की छाया अपना लघुतम रूप प्राप्त करके अब फिर हाथ-पैर फैलाने लगी है। शायद पेड़ों के चरणों में आसन पाने से निराश होकर उसी प्राची दिशा की ओर बढ़ने लगी है, जिससे सूर्य का उदय हुआ था – शायद इस भावना से कि जो सूर्य को काँख में दाबकर रख सकती है, वह क्या उसे आश्रय नहीं देगा? अतिथि के आने की बेला, बहुत देर हुए, हो चुकी है, पर मेरिया और कार्मेन दोनों अपने कामों, या कामों की निष्क्रियता में, ऐसी तन्मय दीख रही हैं कि दोनों ही एक-दूसरे को धोखा नहीं दे पातीं और व्यक्त हो जाती हैं।
कार्मेन कहती है, “बहन, देखो, यह ठीक बन रहा है? …तुम सोच क्या रही हो?”
और, मेरिया बिना उसके प्रश्न का उत्तर दिये ही स्वयं पूछती है, “हाँ, कार्मेन, तू तो कम्यूनिस्ट है न पक्की?”
“मैं जो हूँ सो हूँ, तुम यह बताओ कि तुम सोच क्या रही थीं?”
“मैं? मैं क्या सोचूँगी? तू ही तो अपने झंडे में इतनी तल्लीन हो रही है कि कुछ बात नहीं करती।”
“मैं झंडे में, और तुम इस नाम में, क्यों न?” – कहकर कार्मेन शरारत से हँसती है।
“चुप शैतान!’ – हँसकर मेरिया एकाएक गम्भीर हो जाती है…
और कार्मेन भी चुप रहती है, कभी-कभी बीच-बीच में कनखियों से उसकी ओर देखकर कुछ कहने को होती है, पर कहती नहीं।
गन्ने के खेत के इधर एक व्यक्ति आता दीख रहा है। मेरिया स्थिर उत्कंठा से देखने लगी है। कार्मेन ने उधर नहीं देखा, किन्तु किसी अलौकिक बुद्धि से वह भी अनुभव कर रही है कि उसकी बहन व्यग्रता से कुछ देख रही है और वह भी एक तनी हुई प्रतीक्षा-सी में अपना काम कर रही है…
जब वह व्यक्ति पास आ गया, तो मेरिया ने उठकर हाथ से उसे इशारा किया और कार्मेन से बोली, “कार्मेन, तू भीतर जा। मैं बात करके आऊँगी।”
कार्मेन एक बार मानो कहने को हुई, “मैं भी रह जाऊँ?” फिर उस वाक्य को एक चितवन में ही उलझाकर चली गयी।
“कहो, सेबेस्टिन, मिलने को क्यों कहला भेजा था?”
“तुम्हारे लिए समाचार लाया हूँ। कोई सुनता तो नहीं?”
“नहीं।”
“फिर भी, धीरे-धीरे कहूँ। मिगेल का समाचार है।”
मेरिया चुप। उसके चेहरे पर उत्कंठा भी नहीं दीखती।
“वह मैटांज़ास की जेल में है।”
“यह तो मैं भी जानती हूँ।”
सेबेस्टिन स्वर और भी धीमा करके बोला, “वह वहाँ से निकलकर अमरीका जाने का प्रबन्ध कर रहा है।”
मेरिया फिर चुप। पर, अब की उत्कंठा नहीं छिपती।
‘उसे धन की ज़रूरत।”
“फिर?”
सेबेस्टिन सन्दिग्ध स्वर में बोला, “यही मैं सोच रहा हूँ। मेरा जो हाल है, सो देखती हो-अभी तीन दिन से रोटी नहीं खायी और तुमसे भी कुछ कह नहीं सकता। और, और यहाँ कौन बच रहा है – सभी भूखे मर रहे हैं। माँगू किससे?”
मेरिया थोड़ी देर चुप रही। फिर बोली, “कितना धन चाहिए?”
सेबेस्टिन ने एक बार तीव्र दृष्टि से उसकी ओर देखा, फिर कहा, “क्या करोगी पूछकर-बहुत!”
“फिर भी कितना?”
“लाओगी कहाँ से? अगर सौ डालर चाहिए तो?”
“सौ चाहिए?”
तनिक विस्मय से, “अगर दो सौ डालर चाहिए – तीन सौ?”
“तीन सौ डालर चाहिए?”
अब विस्मय को छिपाकर उदासीनता दिखाते हुए, नहीं, चाहिए तो इससे भी अधिक – कम-से-कम पाँच सौ डालर खर्च होंगे। बड़ी जोखिम का काम है… पर इन बातों से क्या लाभ? हो तो कुछ सकता ही नहीं… तुम पूछती क्यों हो?”
मेरिया चुप है। उसके मुख पर अनेक भाव आते हैं और जाते हैं। सेबेस्टिन उन्हें पढ़ नहीं पाता और सोचता है – यह औरत बड़ी गहरी मालूम पड़ती है, मुझसे बहुत-कुछ छिपाये हुए है, जिसका मैं अनुमान भी नहीं कर पाता…
मेरिया एकाएक बोली, “यहाँ कोई बैंकर है? कोई अमरीकन?”
“हाँ, है तो। क्यों?”
“गिरवी रखेंगे?”
“क्या? शायद कोई खरी चीज़ हो तो रख लें – पर आज-कल गिरवी से बेचना अच्छा, क्योंकि मिलेगा बहुत थोड़ा। पर क्या तुम गिरवी रखना चाहती हो? अभी तो तुम्हारा खर्च चलता होगा?”
मेरिया ने उत्तर नहीं दिया, कुछ देर सोचने के बाद पूछा, “उसे निकालने में कितने दिन लगेंगे?”
“दिन क्या? प्रबन्ध तो है, धन भिजवाते ही वह निकल जाएगा।”
“यहाँ से मैटांज़ास भिजवाओगे?”
“प्रबन्ध करनेवाले यही हैं। उन्हीं को देना होगा। उनके पास धन पहुँचते ही वे कर लेंगे, ऐसा मुझसे कहा है।” सेबेस्टिन ने एक दबी हुई अनिच्छा-सी से कहा, मानो अधिक रहस्य खोलना न चाहता हो।
“हूँ!”
मेरिया फिर किसी सोच में पड़ गयी। थोड़ी देर बाद उसने उतरे हुए चेहरे से फीके स्वर में कहा, “शायद मैं पाँच सौ डालर का प्रबन्ध कर सकूँ। तुम-रात को आना!”
“तुम! पाँच सौ डालर!”
“हाँ! मेरा विश्वास है कि कर सकूँगी! पर निश्चय नहीं कह सकती – तुम रात को आना।”
“पर-”
“अभी जाओ, रात को आना। अभी बस, अभी बस! मैं कुछ सोचना चाहती हूँ – मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं है।” कहकर मेरिया मुड़कर घर की ओर चली।
अच्छा, “मैं जाता हूँ, विदा!” कहकर सेबेस्टिन चलने लगा, किन्तु जब मेरिया अन्दर चली गयी, तब वह रूककर उसकी ओर देखकर बोला, “मेरिया, तुम्हारे पास इतना धन कैसे? यह तो अँधेरे में तीर लग गया है।”
फिर, धीरे-धीरे उसके मुख पर विस्मय या आग्रह का भाव मिट गया, उसका स्थान लिया एक लज्जा सा विक्षोभ के भाव ने। पर जब सेबेस्टिन फिर गन्ने के खेत की ओर चला, तब वह भाव मिट गया था – तब वह था पहले-सा ही शान्ति-प्राय, किंचित विस्मित…
खजूरों की लम्बी छाया, अब ठीक केना की क्यारी पर छा रही थी; मानो अनन्त पथ पर चलते हुए भी, उसके तरल चिकनेपन के भ्रम में पड़कर थोड़ी देर के लिए प्यासी छाया अपनी आँखें ही ठंडी कर रही हो…

2
अब वे दिन नहीं रहे, जब मेरिया की गिनती सैकड़ों से आरम्भ होती थी – वे भी नहीं, जब वह अकेली इकाई को इकाई समझने लगी थी… अब तो, यदि डालर इकाई है तो उसकी गिनती सेंट से आरम्भ हो जाती है और सेंट ही में सम्पूर्ण हो जाती है। और, वह देगी पाँच सौ डालर – अपनी गिनती की असंख्य सम्पत्ति!
मेरिया के माँ-बाप, सेंटियागो के पहाड़ी प्रदेश में बड़े ज़मींदार थे। यद्यपि उनकी समृद्धि को बीते वर्षों हुए जान पड़ते हैं, तथापि मेरिया को कभी-कभी यह विचार आता है, अभी कल ही तो वे दिन थे।
हवाना शहर के आसपास, देहात में, मेरिया के पिता की बहुत-सी ज़मीन थी-जिसमें गन्ने बोये जाते थे; किन्तु कुछ वर्षों से, जब से अमरीका के चीनी के व्यापारियों और मज़दूरों तक ने क्यूबा से चीनी के आयात का विरोध किया और देशभक्ति की आड़ लेकर लड़ने को तत्पर हुए, जब से अमरीकन सरकार ने उनका मान रखने के लिए और अपनी छूँछी जातिभक्ति या देशभक्ति की शान रखने के लिए, क्यूबा से आनेवाली चीनी के आयात पर कर बढ़ा दिया, तब से धीरे-धीरे उनकी ज़मीन घटने लगी और उनका साहस भी टूटने लगा-मेरिया को वह दिन याद है(यद्यपि बहुत देर से, ऐसे जैसे पिछले जीवन के सुख-दुख याद आ रहे हों!) जब उसके पिता ने आकर एक दिन थके हुए स्वर में मेरिया की माँ से कहा, “रोजा, हम लुट गये हैं, – दीवालिया हो गये हैं…”
उस बात को दो वर्ष हो गये। उसके बाद ही वह दिन भी आया, जब सेंटियागों में उनका मकान भी बिक गया और वे एक साधारण परिवार बनकर हवाना आये-मज़दूरी करने के लिए…। वह दिन भी, जबकि मेरिया का पिता एक दिन गन्ने के खेत की निराई करते-करते लू लगने से मर गया और उसके कुछ ही दिन बाद मेरिया की माँ भी – जो सब कष्ट और क्लेश सहकर भी अभिमान की चोट को नहीं सहार सकी थी।
तब से मेरिया और कार्मेन उस घर में रहती हैं। वे दोनों मज़दूरी नहीं करतीं-अब मज़दूरी करने से उतना भी नहीं मिलता, जितने के उसमें नित्य कपड़े ही घिस जाते हैं, खाने की कौन कहे… इसलिए, मेरिया अब कभी-कभी किसी अमरीकन यात्री के यहाँ एक-आध दिन सेवा करके कुछ कमा लेती है और उसी पर तोष कर लेती है। इस सेवा में कभी-कभी किसी यात्री को सूझता है कि मेरिया तो सुन्दरी है। तब मेरिया डरती नहीं, छिपती नहीं, सह लेती है और अपना वेतन कमा लेती है; क्योंकि नैतिक तन्त्र तो काल और परिस्थिति के बनाये होते हैं और प्रत्येक काल में जैसे ऊँचाई की एक सीमा-सी होती है, वैसे ही निचाई की भी। और, मेरिया समझती है कि वर्तमान परिस्थिति में वह कम-से-कम पतित नहीं, जूठी नहीं है…
सीपी जब समुद्र में पड़ी होती है, तब उसकी गति अबाध होती है और वह अस्पृश्य; जब वह तीर पर पड़ी सूखती है, तब लोग उसके बाह्य आकार को छू लेते हैं, सहला लेते हैं पर उससे उसके अन्दर छिपा हुआ जीव आहत नहीं हुआ, वैसा ही अस्पृश्य रहता है। फिर एक दिन ऐसा भी आ सकता है, जब सूखे उत्ताप से छटपटा कर, सीपी अपना बाह्य कठोर कवच खोल देती है, तब लोग उसके भीतर से मुक्तामणि लूट ले जाते हैं, तब उसका कवच कहीं पड़ा रहता है और उसके जीव को कौए नोच ले जाते हैं।
मेरिया विधवा थी पवित्र थी – अछूती थी। उसका विवाह उसके पिता ने अपने पड़ोस के एक उच्चकुल के निकम्मे युवक से कर दिया था, जो विवाह के कुछ ही दिन बाद मर गया था। उसके बाद ही मेरिया के माता-पिता सकुटुम्ब हवाना आये और दोनों लड़कियों को छोड़ परलोक सिधारे थे – जहाँ शायद चीनी पर विदेशी कर नहीं लगता था। तब पहले कुछ दिन मेरिया ने मज़दूरी भी की थी, पर फिर यात्रियों की टहल करने लगी थी। यात्री उससे अधिक कुछ नहीं माँगते थे – अधिक-से-अधिक एक मुस्कान, हाथों का स्पर्श, एक कोमल सम्बोधन… इतने के लिए वह इनकार नहीं करती थी, उपेक्षा से देती थी, और अपनी मजदूरी ले जाती थी। इससे आगे उसके भी एक कठोर कवच था, तीर-पड़ी सीपी की तरह, और वह सोचती थी कि उसका कौमार्य सदा ऐसा ही अक्षत रहेगा…
एक बार, ऐसा हुआ था कि वह इस गीत को बदलने लगी थी – वह अपने को उत्सर्ग करने लगी थी। अपनी ओर से वह उत्सर्ग हो भी चुकी थी, शायद स्वीकृत भी; पर यदि ऐसा हुआ था, तो न वह उत्सर्ग-चेष्टा ही व्यक्त हुई थी और न उसकी स्वीकृति ही!
वह पिछले साल की बात है। तब मिगेल उसके पड़ोस में रहता था। वह स्वयं गरीब था और मज़दूरी करता था, किन्तु वह मेरिया के छिपे अभिमान को समझता था। कभी-कभी वह मेरिया की अनुपस्थिति में आता, कार्मेन से बातचीत करता और उसके लिए खाने-पीने का बहुत-सा सामान छोड़ जाता। कार्मेन स्वयं खाती, तो मिगेल कहता, “रख लो, बहन के साथ खाना।” और कार्मेन इस उपदेश का औचित्य देखकर इसे स्वीकार कर लेती। इसी प्रकार, मिगेल हर दूसरे दिन कुछ भेंट छोड़ जाता, जिससे दोनों बहनों का एक दिन का खर्च बच जाता… तब एक दिन मेरिया ने उसे मना करने के लिए उसका सामना किया था और तब से फिर सामना कर सकने के अयोग्य हो गयी थी – बिक गयी थी…
मेरिया मिगेल से बात बहुत कम करती। वह आता और कार्मेन से बातें करता, हँसता-खेलता और मेरिया उनकी तरुण माता की तरह ही उन्हें देखा करती… पर कई बार उसे विचार होता, मिगेल के कार्मेन के साथ खेलने में एक प्रेरणा है, उसकी बातचीत में एक आग्रह, उसकी हँसी में एक सहानुभूति, जो कार्मेन को दी जाकर भी उसकी ओर आती है, उसीके लिए है… तब वह लज्जित भी होती, पुलकित भी; और एक विषण्ण आनन्द से और भी चुप हो जाती… और यह सब इसलिए कि उसकी अपनी सब प्रेरणाएँ, अपने सब आग्रह, अपनी सब सहानुभूति एक ही रहस्यपूर्ण अभिव्यक्ति में मिलेग की ओर जा चुकी थी…
मिगेल में प्रतिभा थी, और प्रतिभावान व्यक्ति कभी एक स्थिर, व्यक्तिगत प्रेम नहीं पाता-चाहे अपने व्यक्ति-वैचित्र्य से उसका अनुभव करने के अयोग्य होता है, चाहे भाग्य द्वारा ही उससे वंचित होता है। मिगेल और मेरिया भी ऐसे ही रहे। मिगेल हवाना के एक गुप्त मज़दूर-दल का अगुआ था – इस बात का पता लग जाने पर उसके नाम वारंट निकल गये और वह भाग गया। इस बात को भी छः मास हो गये। और, अब तो मिगेल महीने-भर से मैंटाज़ास के फ़ौजी जेल में पड़ा है। उसे पता नहीं क्या होगा-शायद बिना मुक़दमे के ही वह फाँसी लटका दिया जाएगा। क्योंकि अब है मैकाडो का राष्ट्रपतित्व, जो कि अमरीकन छत्रच्छाया से भी बुरा है, क्योंकि मैकाडो दास ही नहीं, वह अधिकार-प्राप्त दास है। इसलिए अधिकारी से अधिक क्रूर और हृदयहीन है… आज, अगस्त 1933 में, जब प्रजा पहले ही भूखी मर रही है, तब उसके बचे-खुचे जीविका के साधन भी छीने जा रहे हैं; और इतना ही नहीं जो इस भूखी मृत्यु का विरोध करते हैं, उन्हें सबसे पहले चुन-चुनकर मारा जा रहा है। हाँ, सभ्यता और प्रगति!
मेरिया ने मिगेल को अपनाया नहीं था, शायद इसलिए मिगेल का एक चिह्न मेरिया के पास सदा रहता है – उसकी द्वादशवर्षीया बहन। मेरिया का प्रेम मौन था, कार्मेन का स्नेह अत्यन्त मुखर क्योंकि वह प्रेम नहीं था, वह था एक पूजा-मिश्रित अधिकार-वैसा ही, जैसा किसी बच्चे के मन में अपने देवता के प्रति होता है। कार्मेन न हर समय मिगेल का नाम जपती थी; हरेक परिस्थिति में उसके मुख पर एक ही प्रश्न आता था कि “इसमें मिगेल को कैसा लगता?” यहाँ तक कि जब वह रूखा-सूखा खाना खाने बैठती, तब सर्वोत्तम खाद्य वस्तु (बहुधा तो एक ही वस्तु होती!) पर अंश निकालकर उसे एक अलग पात्र में रखकर पूर्वस्थ मैटांज़ास की ओर उन्मुख होकर कहती, “यह मिगेल के लिए है” …मेरिया हँसती, ‘पगली!” पर कार्मेन के कर्म से, उसे ऐसा जान पड़ता है कि मिगेल की एक सकरुण साँस उसके पास से, उसकी किसी लट को किंचित्मात्र कम्पित करती हुई, शायद उसके श्रुतिमूल को छूती हुई चली गयी… वह ज़रा पीछे झुक जाती है – विश्रान्ति की मुद्रा में क्षणभर पलकें मींचकर एक छोटी-सी साँस लेती, और फिर प्रकृतिस्थ हो जाती; भोजन का अधिक मधुर जान पड़ने लगता और मेरिया को एकाएक ध्यान आता कि कार्मेन उसकी कितनी, कितनी अत्यन्त प्रिय… पता नहीं, वह कार्मेन का अधिकृत प्रेम है, या मेरिया के हृदय में मिगेल की अनुपस्थिति के रिक्त को पूरा करनेवाला और अन्ततः मिगेल पर आश्रित भाव-पर मेरिया उसे कार्मेन पर बिखेरती है और बड़ी आत्मविस्मृति से (या शायद आत्म-विस्मृति के लिए ही?) बिखेरती है…
कार्मेन इसे जानती है। वह छोटी है, अबोध है, अपने इष्टदेव की पूजा में, अपनी वीर-पूजा में खोयी हुई है, पर मेरिया को जानती है। वह जानती है कि उसका देवता का कुछ है और मरिया सर्वथा उसकी ओर, उसे इससे ईर्ष्या नहीं होती। प्रेम किसी-न-किसी प्रकार के प्रतिदान का इच्छुक होता है – चाहे वह प्रतिदान कितना ही वंचक और मारक क्यों न हो – इसीलिए प्रेम में ईर्ष्या होती है। पर पूजाभाव, विशेषतः वीर-पूजा में प्रतिदान की इच्छा नहीं होती, इसीलिए उसमें विरोध की भावना नहीं होती। एक पुजारी अपने देवता के अन्य उपासकों से एक समीपत्व ही अनुभव करता है। और, फिर कार्मेन यह भी तो समझती है कि स्वयं मेरिया की कितनी अपनी है क्योंकि वह देखती है, मेरिया के जीवन का कोई भी रिक्त अगर भरा है तो कार्मेन से ही, मेरिया ने मानो अपने प्राणसूत्र के सब तन्तु सब ओर से समेट कर उसी में लपेट दिये हैं और उसी की आश्रित हो रही है… कार्मेन यह तो समझ सकती नहीं कि मेरिया की जीवन-लता कितनी अधिक उसके सहारे की आकांक्षी है, वह इसीलिए कि उसके भीतर कहीं घुन लग रहा है, जो उसकी शक्ति को चूस जाता है और उसे बाह्य आश्रय के लिए बाध्य कर रहा है। कार्मेन समझती है कि मेरिया का उसके प्रति सच्चा स्नेह है, और वह वास्तव मंा है भी सच्चा और विशुद्ध-किन्तु वह स्वयंभू नहीं है, वह एक रिक्त की प्रतिक्रिया है… जैसे, जब पैर में कहीं जूता चुभता है, तब उस चुभन से उस स्थान की रक्षा के लिए एक फफोला उठता है, और स्नेह से भरता है। वह फफोला भी सच्चा होता है और स्नेह भी, पर वह स्वाभाविक होकर भी स्वयंभूत नहीं होता, वह एक बाह्य कारण से, एक रिक्ति की या पीड़ा की प्रतिक्रिया से उत्पन्न होता है…
इसे कार्मेन भी नहीं जानती, मेरिया भी नहीं जानती। क्योंकि जो स्वयं जीने की क्रिया में व्यस्त होते हैं, उन्हें जीवन के स्रोतों का अन्वेषण करने का समय नहीं होता, शायद प्रवृत्ति भी नहीं…
मेरिया और कार्मेन के इस पाँच डालर मासिक के – साढ़े सात आने रोज़ के – जीवन में एक व्यक्ति और भी उलझा हुआ है। वास्तव में उलझा ही हुआ है, क्योंकि मिगेल तो उसका एक स्वाभाविक अंग है और यह व्यक्ति है एक पहेली, एक उलझन भी, जो विभिन्न अवस्था में शायद सुलझायी भी जा सकती, और जो किसी भी अवस्था में उनके जीवन का आवश्यक अंग नहीं हुई न होगी… यह व्यक्ति है सेबेस्टिन।
वर्तमान युग की गिनती में सेबेस्टिन से दोनों बहनों का परिचय बहुत दिन से है। वह भी किसी समय समृद्ध था, उसकी पत्नी मोटर में बैठती थी, उसके बेटे अभिजनों के स्कूल में पढ़ते थे… पर अब वह भी मज़दूरी करता है और दिन-भर खून-पसीना एक करके भी अपना खर्च नहीं चला सकता – विशेषतः इसलिए कि अपनी स्त्री का तुषारमय, उलाहने-भरा मौन उससे नहीं सहा जाता, उसे देखकर वह कई बार किसी भयंकर आग से भर जाता है और बिलकुल हृदयहीन एक मारक शस्त्र की तरह हो जाता है-अनुभूति, दया, आचार-ज्ञान तक से परे, उठे हुए खांडे की तरह, जो गिर ही सकता है, और जिसके गिरने की नीति-शास्त्र नहीं नियन्त्रित कर सकता।
वह मिगेल का सखा था, सहयोगी था, विश्वासपत्र था। मिगेल के साथ सामान्य दारिद्रय में बँधा था। और मिगेल, इस बन्धन को ही सबसे बड़ा बन्धन समझता था और इसी के कारण सेबेस्टिन का विश्वास करता था। पर मिगेल अकेला था और स्वच्छन्द, सेबेस्टिन अपनी गृहस्थी के बन्धनों में बँधा हुआ और सुरक्षित था। इसलिए मिगेल मित्रता में पूर्णतया बँध जाता था, और सेबेस्टिन उससे घिर कर भी उसके भीतर एक आत्मनिर्णयाधिकार बनाये रखता था…
मेरिया से मिगेल ने सेबेस्टिन का भी परिचय कराया था। मेरिया उन दोनों व्यक्तियों का अन्तर देखती थी, किन्तु सेबेस्टिन के प्रति मिगेल का आदर-भाव देख कर अपने विचारों को दबा लेती थी। मिगेल उसका कुछ नहीं था, किन्तु उसके बिना जाने ही उसका मन इस निश्चय पर पहुँच चुका था कि जो कुछ मिगेल का निजी है, वही उसका भी है।
मिगेल चला गया, बन्दी भी हो गया। मेरिया के जीवन में इससे कोई विशेष परिवर्तन प्रकट नहीं हुआ-सिवा इसके कि अब बहनों को जो कुछ खाने-पीने को प्राप्त होता है, वह मेरिया की अपनी कमाई का फल होता है, क्योंकि सेबेस्टिन उनकी कुछ सहायता नहीं कर सकता – वह स्वयं इसका आकांक्षी है! सेबेस्टिन और मेरिया अब कभी-कभी मिलते हैं, बस! कभी मेरिया सेबेस्टिन के घर का स्मरण करके, उसे अपने यहाँ रोटी खिला देती है। तब सेबेस्टिन कृतज्ञ तो होता है पर उसके हृदय में स्वभावतः ही यह भाव उदय होता है कि इन बहनों के पास आवश्यकता से अधिक धन है, नहीं तो ये क्यों मुझे खिलातीं – कैसे खिला सकतीं? बेचारे सेबेस्टिन के अब वे दिन नहीं थे, जब वह सोचे, मैं किसी को खिला सकता हूँ। और उसका यह भाव, उसकी कृतज्ञता के पीछे छिपा होने पर भी, मेरिया को दीख जाता था। तब वह विषण्ण-सी होकर, सेबेस्टिन के चरित्र को समझने की चेष्टा करती थी, वह उसके बहुत पास पहुँच जाती थी, किन्तु पूर्णतया हल नहीं कर पाती थी; सेबेस्टिन उसके लिए एक उलझन रह जाता था, जो सुलझ सकती है, यद्यपि अभी सुलझी नहीं; जो एक पहेली है। जिसका हल है तो, पर अभी प्राप्त नहीं हुआ…
तब वह सान्त्वना के लिए जाती थी – अपने चिर अभ्यस्त कवियों के पास नहीं-उस चिर अभ्यस्त कविता के जीवन-राहु, आँधी-पानी-धुएँ के पैगम्बर कार्ल मार्क्स की शरण में! क्योंकि, उस समय उसकी मनःस्थित कोमल कविता के अनुकूल नहीं होती थी, वह चाहती थी एक भैरव कविता, उच्छल लहरी की तरह एक ही भव्य गर्जन में सब कुछ डुबोनेवाली, घोर विनाशिनी।
वह कार्मेन को बुलाकर पास बिठा लेती और उसके साथ पढ़ने लगती। कार्मेन के उत्साहशील तरुण हृदय को मिगेल ने पूरा कम्युनिस्ट बना दिया था। वह कार्ल मार्क्स के नाम पर किसी समय कुछ भी पढ़ने को प्रस्तुत थी। उसकी इस तत्परता में वही व्यग्र भावुकता थी, मार्क्स उसकी बुद्धि पुष्ट कर सकता था, पर उसकी स्वाभाविक चंचलता को नहीं।
मेरिया भी मार्क्स को अपने मस्तिष्क से नहीं, अपने हृदय से पढ़ती थी। कार्मेन जब देखती कि मेरिया किस प्रकार उसके उच्चारण में ही लीन हुई जा रही है, उसके तर्क की ओर नहीं जाती केवल उसकी विराट् विध्वंसिनी प्रेरणा में बही जा रही है, तब मेरिया के भाव को प्रतिबिम्बित करता हुआ एक रोमांच-सा उसे भी हो जाता था, एक कँपकँपी-सी उसके शरीर में दौड़ जाती थी -वैसी ही, जैसी किसी अनीश्वरवादी मूर्तिपूजक हृदय में, किसी भव्य मन्दिर में आरती को देख-सुन कर हो उठती है। …जब मेरिया पढ़ चुकती थी, तब कार्मेन अकस्मात् कह उठती, “मिगेल के पढ़ाने में तो यह ऐसा नहीं होता था-”
मेरिया पूछती, “क्या?” तो कार्मेन से उत्तर देते न बनता! वह मन-ही-मन कल्पना करती, कहीं विजय समुद्र-तट पर बने गिरजाघर में समवेत गान हो रहा हो और लहरों के नाद से मिल रहा हो… और इस भाव को कह नहीं पाती थी, एक खोयी-सी मुस्कान मुस्करा देती थी!
आज, सेबेस्टिन के जाने के बाद भी यही हुआ। मेरिया पढ़ने लगी और कार्मेन चुपचाप सुनने। किन्तु मेरिया से बहुत देर तक नहीं पढ़ा गया। उसने उकता कर पुस्तक रख दी और बोली, “फिर सही।”
कार्मेन ने धीरे से पूछा, ‘मेरिया, आज तुम्हें कुछ हो गया है? बताओ, सेबेस्टिन क्या कहता था?”
मेरिया जैसे चौंकी। बोली, “कुछ तो नहीं?”
उस स्वर में कुछ था। जिसने कार्मेन को झकझोर कर कहा,”पास आ!”
कार्र्मेन आयी और मेरिया की गोद में सिर रखकर बैठ गयी। मेरिया ने उसे पास खींच लिया और उसे गले से लिपटाये बैठी रही… कभी-कभी कार्मेन को मालूम होता, मेरिया वहाँ नहीं है तब वह सिर उठाकर मेरिया का मुँह देखना चाहती, पर मेरिया उसे ओर भी ज़ोर से चिपटा लेती, सिर उठाने न देती थी…
ऐसे ही धीरे-धीरे सन्ध्या हो गयी। खजूर के पेड़ों के पीछे सारा वायुमण्डल स्वर्णधूलि से भर-सा गया, जिसमें गन्ने के खेत अदृश्य हो गये। जो क्षितिज दोपहर में बहुत दूर जान पड़ रहा था, अब मानो बहुत पास आ गया, मानो खजूर के वृक्षों के नीचे ही घोंसला बनाने को आ छिपा। दूर कहीं, अमरीकन राजदूत भवन से घंटे का स्वर सुन पड़ने लगा और नगर से शोर भी एकाएक बहुत पास जान पड़ने लगा…
कार्मेन, मेरिया की गोद में बहुत चुप पड़ी थी, मेरिया ने पूछा, “कार्मेन, सो गयी क्या?” तब कार्मेन ने गोद में रखा हुआ सिर, मेरिया के शरीर से रगड़कर हिला दिया और झूठमूठ के रूठे स्वर में बोली, “तुम बताती तो हो नहीं।”
“ओ, वह?” कहकर मेरिया फिर चुप हो गयी। थोड़ी देर बाद बोली, “कार्मेन, तुझसे एक बात पूछनी है; न, उठ मत, ऐसी ही पड़ी रह!”
कार्मेन ने विस्मय से कहा, “क्या आज रोटी नहीं खानी है?”
“खा लेंगे। तू सुन तो!”
“हाँ, कहो।”
“कार्मेन, जानती है, जब माँ मरी, तब हमें बिलकुल अनाथ नहीं छोड़ गयी?” मेरिया ने गम्भीर स्वर में ऐसी मुद्रा में यह प्रश्न किया, जैसे उत्तर की भी अपेक्षा नहीं और ऐसे ही कहती चली। कार्मेन चुपचाप सुनने लगी।
“वह मुझे थोड़े-से गहने सौंप गयी थी। बहुत तो नहीं थे, पर आजकल के ज़माने में उतने ही बहुत होते हैं। कुछ तो हमारे वंश की परम्परा में ही चले जा रहे थे, कुछ माँ ने तेरे विवाह के लिए बनवाये थे।”
“मेरे? और तुम्हारे लिए नहीं?”
“हाँ, मेरे भी थे, सुन तो। यह सब वह सौंप गयी थी, और सँभालकर रखने को भी कह गयी थी। इसके अलावा एक मोती भी है, जो मिगेल ने दिया था।”
“मिगेल ने? उसके पास था?”
“हाँ। उसे उसकी बुआ दे गयी थी। पर, तू ऐसे प्रश्न पूछेगी, तो मैं बात नहीं कहूँगी!”
मेरिया फिर कहने लगी, “यह सब मैंने एक बर्तन में रखकर दाब दिये थे कि कहीं गुम हो न हो जाएँ। आज उन्हें निकालने की सोच रही हूँ। मिगेल ने मँगवाये हैं।”
“पर वह तो कैद है न?”
“हाँ, वह वहाँ से निकलकर अमरीका जाएगा। इसलिए ज़रूरत है।”
“अच्छा, अभी मुझे भगाकर बातें कर रही थीं। हाँ, तो निकाल लाओ, रखे कहाँ है?”
मेरिया ने इस प्रश्न की उपेक्षा करके, “जो वंश के हैं, और जो तेरे विवाह के लिए बने थे, उन पर मेरा अधिकार नहीं है।”
कार्मेन सिर को झटककर उठ बैठी, कुछ बोली नहीं, मेरिया के मुख की ओर देखने लगी।
मेरिया ने देखा कि कार्मेन को यह बात चुभ गयी है, पर वह कहती गयी, ‘वे तेरे हैं, इसीलिए तुझसे पूछना था कि उन्हें बिकवा दूँ?”
कार्मेन ने आहत स्वर में कहा, “मुझसे पूछती हो?”
मेरिया ने जान-बूझकर उस स्वर को न समझते हुए, फिर पूछा, “हाँ बता तो!”
“मैं नहीं बताती -” कार्मेन की आँखों में आँसू भर आये। उसने मुँह फेर लिया, मेरिया उसकी मनुहार करने लगी। एक दृश्य हुआ, जिसे न देखना देखकर न कहना ही उचित है।
तब कार्मेन ने रोकर कहा, “मैं कभी मना करती?”
मेरिया एकाएक शिथिल हो गयी।

3
सन्ध्या घनी हो गयी।
कार्मेन अपनी बहन की प्रतिक्षा में बैठी थी। अन्धकार हो रहा है, इसलिए उसने पढ़ना छोड़ दिया है, पर अभी बत्ती नहीं जलायीं आवश्यकता भी क्या है? तेल बचेगा! और, इस कोमल अन्धकार में बैठकर सूर्यास्त के पट पर अपने स्वप्नों का नृत्य देखना अच्छा लगता है।
कार्मेन ने बहुत दिनों से इस प्रकार अपने-आपको प्रकृति की प्रकृतता में नहीं भुलाया-उसका जीवन ऐसा हो गया है कि इसके लिए अवसर नहीं मिलता; इसलिए जब अवसर मिल भी जाता, तब उस स्वप्न-संसार से लौटकर आने की चोट के भय से वह उधर जाती ही नहीं, पर आज, इतने दिनों बाद न जाने क्यों, उसे बड़ी प्रसन्नता हो रही है। शायद एकाएक मिगेल के निकलने की सम्भावना के कारण, शायद इस अनुभूति से कि आज उसकी बहन के प्यार में सदा से अधिक कुछ था – कोई वस्तु नहीं, किन्तु एक प्रकार की विशिष्टता का कोई सूक्ष्म भेद… कार्मेन एक विचित्र, अदम्य त्याग-भावना से भरी सान्ध्य नभ को देख रही है। देख नहीं रही, प्रतिबिम्बित कर रही है। नभ के प्रत्येक छाया-परिवर्तन के साथ-ही-साथ उसके प्राणों में भी मानो एक पर्दा बदलता है।
सूर्यास्त के बाद का रंग जाने कैसा कलुष लिए लाल-लाल, मैला-सा हो रहा है… उसे देखकर कार्मेन के मनःक्षेत्र में किसी अँधेरे विस्मृत कोने में एक विचार, या छाया, या कल्पना आ रही है… वह आकाश उसे ऐसा लग रहा है, जैसे वन में किसी रहस्यपूर्ण नैश-उत्सव की अपनी आग से दीप्त, उसे प्रतिबिम्बित करती हुई, किसी भैरव देवता की विराट्, चमकती हुई काली प्रस्तर-मूर्ति की खुली-खुली, चपटी-चपटी, फैली हुई छाती…
कार्मेन सोचती है कि वे दोनों बहनें उस देवता की रक्षित हैं, यद्यपि वह देवता बड़ा विकराल है… पर, मेरिया अभी तक आयी क्यों नहीं?
हम सान्ध्य आकाश की छटा को एक स्वतन्त्र विभूति मानते हैं, पर वह है क्या? वह है किसी अन्य के, किसी अस्त हुए आलोक की प्रतिच्छाया-मात्र…
और, हम समझते हैं, सन्ध्या में एक आत्मभूत, आत्यन्तिक सौन्दर्य है, पर वहाँ वैसा कुछ नहीं है… हम सन्ध्या में देखते हैं-केवल अपने अन्तर का प्रतिबिम्ब, अपनी बुझी हुई, आशाओं-आकांक्षाओं का स्फूर्तिमान कंकाल…
नहीं तो, यह कैसा होता कि जिस सान्ध्य आकाश में कार्मेन को ऐसा भव्य चित्र दीखता है, उसी में चालीस मील दूर मेटांज़ास के फ़ौजी जेल में बैठे मिगेल को इतना वीभत्स चित्र दीखता है…
चार-पाँच खेमे गड़े हैं, जिनके आस-पास कँटीले तार का जँगला लगा हुआ है। उसके भीतर-बाहर दोनों और सशस्त्र सिपाहियों का पहरा है और उससे कुछ दूर एक और खेमा लगा है, जिसके बाहर बैठे सिपाही गाली-गलौज कर रहे हैं। उसके सामने ही तीन-तीन बन्दूकों को मिलाकर बनाये हुए चार-पाँच कुन्दले हैं। और उनसे आगे प्रशान्त खेत और पश्चिमीय क्षितिज…
एक खेमे के बाहर मिगेल खड़ा है। उसे बाहर निकलने की अनुमति नहीं है, किन्तु पहरेवाले सिपाही की दया से वह कुछ देर के लिए बाहर का दृश्य देखने निकला है। वह उन बन्दूकों के कुन्दले की अग्रभूति से, और खेतों के मौन से पार के सान्ध्य आकाश को देख रहा है और सोच रहा है…
इसी दिशा में चालीस मील दूर हवाना है, वहाँ उसका सब कुछ है। कुल चालीस मील; पर चालीस मील! वह सोचता है, यदि मैं आज छूटकर हवाना पहुँच सकूँ तो क्या कुछ कर सकूँगा… न जाने वहाँ क्या परिस्थिति है – बहुत दिनों से समाचार नहीं आया है, विद्रोह को जगाने में उसने इतना यत्न किया, जिस के लिए वह यहाँ भी आया, उसी में वह भागी नहीं हो सकेगा -हाय वंचना!
वह चाहता है, तीव्र गति से इधर-उधर चलकर अपने अन्दर भरते हुए इस अवसाद को कुछ कम कर लें; पर उसे तो वहाँ निश्चल खड़ा रहना है। उसे तो हिलना भी नहीं, वह तो वहाँ खड़ा भी है तो एक सिपाही की अनुकम्पा से, मैकाडो के सिपाही की अनुकम्पा से… हाय परवशता!
उसके मन में विचार उठता है, आज रात ही इसका अन्त करना है। वह अकेला ही है, अकेला ही यत्न करेगा। वह इस बन्धन का अन्त आज ही रात में करेगा – मुक्ति के लिए प्राणों पर खेल जाएगा। प्राण तो जाते ही हैं-शायद पहले मुक्ति मिल जाये। एक सिपाही ने उसे सहायता का वचन दिया है, वह उसे कँटीले तार के पार तक जाने देगा। उसके आगे मिगेल का अधिकार है। उसके पास एक पिस्तौल है। वह यदि निकल कर भाग न सकेगा, तो अपना अन्त तो कर सकेगा। यदि शत्रु की गोली से भी मरेगा, तो उस कँटीले तार के उस पार तो मरेगा! उस कँटीले तार की रेखा ही उसके लिए जीवन और मरण की विभाजक रेखा हो रही है, मुक्ति का संकेत – हाय दासता!
बुद्धि उसे कहती है, ये विचार तुझे विचलित कर देंगे। युद्ध में निश्चय हो जाने के बाद विकल्प नहीं करना चाहिए-वह तो उससे पूर्व की बातें हैं… तब वह कहीं पढ़ी हुई कविता की दो-चार पंक्तियाँ दुहराता है और सूर्यास्त को देख कर वही वीभत्स कल्पनाएँ करने लगता है…
यह वही आकाश है, वही आलोक का छायानर्तन… वही कलुषमयी, लाली, वह फीका-फीका मैलापन… पर मिगेल क्या देखता है! जैसे रोगिणी क्षितिज का रक्तमिश्रित रजस्राव… या, जैसे कालगति से किसी विकराल जन्तु के प्रसव के बाद गिरे हुए फूल… अपनी कल्पना की वीभत्सता से वही मचमचा जाता है, पर वह आती है और आती है… और इतना ही नहीं, वह यह भी सोचने लगता है कि वह विकराल जन्तु क्या होगा, जिसके प्रसव के ये फूल हैं – वह क्रूर, भयंकर, नामहीन, आंतक…
वह तो बहुत दूर है। यहीं हवाना के अन्तिक में उसी सूर्यास्त को एक और व्यक्ति देख रहा है – सेबेस्टिन।
वह अपने घर में अकेला है, यद्यपि उसके पास ही उसकी स्त्री और बच्चे हैं, और उसकी स्त्री उसे कुछ कह रही है। वह कुछ सुन नहीं रहा, उसे आज अपनी स्त्री के चुभ जाने वाले शब्दों का भी ध्यान नहीं, वह उससे भी अधिक चुभनेवाली बातों पर विचार कर रहा है… वह विश्वासघात की तैयारी कर रहा है; वह जानता है कि यह विश्वासघात होगा; यह भी अनुभव कर रहा है कि यह भयंकर पाप, अत्यन्त नीचता होगी, वह इस पर लज्जित भी है; किन्तु किसी अमर शक्ति से बँधा हुआ-सा वह यह अनुभव कर रहा है कि यह होगा अवश्य, उससे होगा, और वह सब-कुछ देखते हुए भी अन्धा होकर इसे करेगा…
क्या करेगा? कुछ भी तो नहीं। किसी के पास आवश्यकता से अधिक धन है, उसे ले लेगा, उनके लिए जिन्हें उसकी आवश्कता है – अपनी बीवी और बच्चों के लिए… यह कोई पाप है? और फिर, उसने इसके लिए योजना तो बनायी नहीं, उसे कब आशा थी कि मेरिया धनी है -उसने तो पता लगाने के लिए प्रश्न पूछा था… मेरिया स्वयं ही कहती है… भाग्य उसे कुछ देता है, तो वह न लेनेवाला कौन? वह झूठा, दगाबाज़ आत्मवंचक। अब उसे दीखता है, वह कुछ हो, वह एक अप्रतिरोध से बँधा हुआ है…। और उसके लिए, यदि कहीं क्षमा नहीं तो उसे प्रेरणा से अवश्य मिलेगी…
सारा आकाश, सारी सृष्टि, आग के लाल प्रतिबिम्ब, और काले-काले धुएँ से भरी हुई है! तब वही कहाँ से एक शीतल आत्मा ले आवे, वही कहाँ से आदर्श पुरुष हो जाये, वही कहाँ उस लाल प्रतिज्योति और उस काले धुएँ से बचकर जा पहुँचे।
और वह अकेला ही उसे नहीं देख रहा, यहीं हवाना शहर में, उसी सूर्यास्त में, अनेक व्यक्तियों को क्या कुछ दीख रहा है…
यहाँ हवाना का वह अंश रहता है, जिसे कभी उसका अंश गिना नहीं जाता, किन्तु जिस पर उसका अस्तित्व निर्भर करता है… जो हवाना की ग़रीबी का निकेत है, किन्तु जो हवाना की सम्पत्ति को बनाता है… यहाँ वे पुरुष हैं जो दिन-भर मज़दूरी करके एक मास में उतना कमा पाते हैं, जितना अमरीकन मज़दूर एक घंटे में, जिसके भले के नाम पर इन लोगों को पीसा जा रहा है और जो स्वयं किसी और के लिए पिसेंगे? यहाँ वे औरतें भी हैं, जो दिन-भर और आधी रात भर सिलाई का काम करती हैं और एक दर्जन कमीज़ें सीकर पाँच आने वेतन पाती हैं, या जो अपने शरीर को बेच कर उसके मूल्य में कुछ आने पैसे और कोई मारक रोग पाकर, कृतज्ञ भी हो सकती हैं… यहाँ वे लड़के भी हैं, जो अपने माता-पिता का पेट भरने-माता-पिता के पेट का ख़ालीपन कम करने के लिए वह भी करने को तैयार रहते हैं, जिसके विरुद्ध समस्त मानवता चिल्लाती है-
वे सब, सूर्यास्त को देख नहीं रहे है, पर सूर्यास्त उनकी आँखों के आगे है। उन्हें कुछ-न-कुछ दीखता भी है, उनके पास इतना समय नहीं कि रुककर उसे देखें, उस पर विचार करें, पर उनकी अशान्ति में सूर्यास्त के प्रति एक भाव जाग रहा है…
वही कलुषपूर्ण लाल-लाल, मैला-सा आकाश… उनके मन में ऐसा है, जैसे क्रोध की पिघली हुई आग उबल-उबल कर बैठ गयी हो; ऊपर सतह पर छोड़ गयी हो एक धूसार-सी, जली-बुझी-सुलगती-सी एक कुढ़न की आग…
उनके हृदय में भी कुढ़न की आग-सी उठ रही है… वे समझते हैं, उनमें क्रोध की ज्वाला है, पर क्रोध करने के लिए शक्ति की आवश्यकता होती है, और वे हैं निर्बल और अपनी निर्बलता के परिचित। वे कुढ़ ही सकते हैं, जैसे कि वे अब तक करते रहे हैं…
आज वे जो तैयारी कर रहे हैं, वह क्रोध नहीं, वह भी कुढ़न की आग ही है। तभी तो वे ऐसे चुप-चुप से हैं, यद्यपि वे विद्रोह की तैयारी में हैं; उसी के लिए निकल भी पड़े हैं… उनके प्रतिनिधियों का एक दल जा रहा है महल और फ़ौजी बारकों की ओर, और दूसरा दल चला है विद्रोह के द्रोहियों की तलाश में, पर उनकी प्रेरणा क्रोध नहीं, उनकी प्रेरणा है केवल भूख… उन्हें फ़ौज से सहायता की आशा है, पर वे पुलिस से डर भी रहे हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि पुलिस के जत्थे भी विद्रोहियों की खोज में हैं। और क्योंकि उनके हृदय में डर है, इसीलिए वे सोच भी सकते हैं, तैयारी भी कर सकते हैं, भविष्य की ओर उन्मुख भी हो सकते हैं…
सन्ध्या बहुत घनी हो गयी…

4
कार्मेन मेरिया से पूछ रही थी, “बड़ी देर कर दी?” कि सेबेस्टिन ने पुकार कर पूछा, “आ जाऊँ?”
मेरिया ने कन्धे पर से चादर उतार कर रखी और कार्मेन से बोली, “ले, देख!”
कार्मेन व्यग्रता से हँड़िया को खोल कर, उसके भीतर मोमजामे में लिपटे हुए आभूषणों को निकाल कर देखने लगी। सेबेस्टिन ने दबे विस्मय से पूछा, “इन्हें कहाँ से लायी है?”
मेरिया एक छोटी-सी सन्तुष्ट हँसी हँसी। फिर कार्मेन से बोली, “कार्मेन, तू इन्हें ले जाकर सो, हम ज़रा बातें कर लें।”
कार्मेन चली गयी तो मेरिया ने धीमे स्वर में सेबेस्टिन से पूछा, “पर्याप्त होंगे?”
“होने तो चाहिए। तुम्हें मूल्य का कुछ अनुमान है?”
“पाँच सौ से तो कहीं ज्यादा के हैं।”
“हाँ, पर आजकल तो बहुत घाटे पर देने पड़ेंगे। और, आज तो बहुत ही कम।”
“आज कोई खास बात है?”
“हाँ, पर वह ठहर कर बताऊँगा। तो, ये मैं ले जाऊँ?”
मेरिया ने कुछ हिचकिचाते हुए कहा, “हाँ।” सेबेस्टिन ने समझा, शायद सन्देह के कारण हिचकिचा रही है। ऐसी अवस्था में उसने चुप रहना ही उचित समझा। मेरिया बोली, “मैं ले आऊँ?” और भीतर चली गयी।
वहाँ से लौट कर आते, उसे केवल आभूषण लाने में जितनी देर लगनी चाहिए थी, उससे अधिक लगी। क्योंकि उसे एक बार फिर कार्मेन से पूछना था कि आभूषण देखकर उसकी राय बदल तो नहीं गयी, उसे बताना था कि कौन किसका था, उसे और कुछ नहीं तो मिगेलवाला मोती उसके हाथों गले में पहनकर दिखाना भी था, उसके मोती रखने का आग्रह सुनकर उसे टालना भी था और फिर सब आभूषण दे डालने के लिए प्रसन्न स्वीकृति पर, उसे चूमना भी था और उसके शरारत-भरे इस कथन पर कि ‘तुम्हारे मिगेल के लिए तो है।’ एक हल्का-सा मीठा चपत लगाकर तब कहीं बाहर आना था।
सेबेस्टिन ने चुपचाप गहने लेकर वस्त्रों में कहीं रख लिए। तब बोला, “कोशिश करूँगा, आज ही धन का प्रबन्ध हो जाये, एक-दो अमरीकन बैंकर हैं, जो रात में भी काम करते हैं – बल्कि रात में ही काम करते हैं।”
“हाँ।”
थोड़ी देर चुप्पी रही। फिर मेरिया एकाएक बोली, “हाँ, यह तो बताओ, वह खास बात क्या थी?”
“अरे, मैं तो भूल ही चला था इतनी जरूरी बात! यहाँ फौजवालों और विद्यार्थियों के साथ मिलकर लोगों ने कल बड़े सवेरे विद्रोह कर देने का निश्चय किया है।”
“हैं!” कल? अब पिछले निश्चय को दस ही दिन तो हुए हैं!”
“हाँ, अब भी आशा बहुत है। फौज सारी विद्रोही है, मैकाडो के पक्ष में पुलिस ही होगी। अगर कहीं मार-काट हुई भी तो थोड़ी ही। अकस्मात् ही कहीं हो जाये, नहीं तो जितनी होगी, हवाना शहर के बाहर ही होगी।”
“पर घुड़सवार पुलिस भी तो सशस्त्र है, और खुफ़िया?”
“हाँ, उनसे आशंका है। पर वे हैं कितने?”
“जितने भी हों।”
“देखा जाएगा!” कहकर सेबेस्टिन ने विदा माँगी और चला। चलते-चलते न जाने क्या सोचकर एकाएक रुक गया और बोला,”मेरिया, इन आभूषणों में से कोई एक-आध रखना हो तो रख लो।”
“नहीं, जब पाँच सौ डालर पूरे होने की आशा नहीं तो क्यों? यदि अधिक मिल सके, तब चाहे कोई रख लेना-।”
“कौन-सा ?”
मेरिया ने इन प्रश्न का उत्तर विधि पर डालते हुए कहा, “जो भी हो! पर, कोई भी क्यों रखना, जितना धन मिले, सब भेज देना। क्या पता, उसे अधिक की ज़रूरत पड़ जाये – ऐसे समय लोभ नहीं करना चाहिए!”
“हाँ, यह बात तो है।” कहकर सेबेस्टिन जल्दी से चला गया। मेरिया वहीं खड़ी-खड़ी बाहर अन्धकार की ओर देखकर कुछ सोचने लगी, कुछ देखने लगी, तभी कार्मेन की आवाज़ आयी, “सोने नहीं आओगी?”
उसके ऊपर एक कोमल उदासी छा गया।
मेरिया कोहनी टेके एक करवट लेटी हुई थी, किन्तु सिर उठाये, उसे हथेली पर टेककर। और कार्मेन उससे चिपट कर उसकी छाती में मुँह छिपाये पड़ी थी!
समाचार मेरिया सुन चुकी थी। दोनों ने यह निश्चय कर लिया था कि कल उन्हें क्रान्ति-विद्रोह में मिल जाना होगा; यद्यपि कैसे, क्या करना होगा, यह वे नहीं सोच सकी थीं।
और, इस निश्चय पर पहुँच जाने के बाद, जो विचार-रहस्य-गर्भित मौन छा गया था, उसी में दोनों पर वह उदासी छा गयी थी, न जाने क्यों…
कार्मेन देख रही थी क्रान्ति की विजय का स्वप्न, और उस स्वप्न की भव्यता में उसे एक कँपीकँपी-सी आती थी, एक रोमांच-सा होता था, किन्तु मेरिया और मिगेल की उस विजय पर छाई हुई छाया और मेरिया का इस समय का घनिष्ठ समीपत्व उसे उदासी के उस नशे में से बाहर नहीं निकलने देता था…
मानो मेरिया के शरीर में से, किसी अज्ञात मार्ग से, उसका प्रगाढ़ नैराश्य कार्मेन में प्रविष्ट हो रहा था। क्योंकि मेरिया के हृदय पर नैराश्य की छाया थी; ऐसा नैराश्य, जो अपनी सीमा पर पहुँचकर नष्ट हो गया है, भाव नहीं रहा, एक आदत-सी हो गयी है और इसलिए स्वयं मेरिया को भी दृश्य नहीं होता।
कार्मेन ने किसी गहरी छाया के दबाव का अनुभव करके धीरे से कहा, “कुछ गाओ!”
मेरिया ने दूरस्थ भाव से कहा, “आज तो मन नहीं करता कार्मेन! कल सुन लेना।”
“कल तो…” कहकर कार्मेन एकाएक चुप हो गयी। जिस छाया से वह बच रही थी, वह तनिक और भी गहरी हो गयी…
बहुत देर बाद, कार्मेन एकाएक चौंकी। मेरिया की आँखों से एक आँसू उसके गाल पर गिरा था-एक अकेला, बड़ा-सा, गर्म…
उसके चौंकते ही मेरिया ने ज़ोर से उसे अपने से चिपटा लिया और बार-बार घूँटने लगी…
मेरिया का भाव कार्मेन समझ नहीं सकी, किन्तु फिर भी, यह अतिरेक अच्छा-सा लगा… वह मेरिया के मानसिक संसार में प्रविष्ट नहीं हो सकी, किन्तु मेरिया के शरीर के इस दबाव का प्रतिदान देने लगी… उस श्रोता की तरह, जो किसी कलाकार गायक का गान सुनते हुए, स्वयं गाने की क्षमता न रखकर भी अपने को भूलकर गुनगुनाने और ताल देने लगता है…
तब न जाने कितनी और देर बाद, मेरिया भी बहुत धीमे स्वर में गाने लगी – एक अँग्रेजी कविता का टुकड़ा, जो उसने अपने समृद्ध जीवन में कभी सीखा था…
‘मस्ट ऐ लिटल वीप, लव,
फूलिश मी!
एंड सो फ़ाल एस्लीप लव,
लव्ड बाई दी…’
(थोड़ा-सा रोऊँगी-
भोली मैं!
और तब सोऊँगी,
तेरे प्यार में…)
और उन्हें इस व्यवहार में लीन देखकर रात चुपके-चुपके तीव्र गति से भागने लगी, मानो उन्हें धोखा देने के लिए मानो, ईर्ष्या से…
और मेरिया और कार्मेन बार-बार चौंक-सी जातीं और थोड़ी देर बातें कर लेतीं और फिर चुप हो जातीं, और कार्मेन दो-चार झपकियाँ सो भी लेती… कभी-कभी एकाध आँसू गिर जाता तो दोनों ही अपने आँसू-भरे हृदयों में सोचती, किसका था? और, फिर अपने को छिपाने के लिए बातें करतीं, या आलिंगन करतीं और इसी चेष्टा में वही प्रकट हो जाता जो वे छिपा रही थीं… तब वे इसी अतिशय समीपत्व की वेदना से घबरा कर आगे देखने लगतीं – भविष्य की ओर। मेरिया किधर और कार्मेन किधर… उनके पथ विभिन्न थे और प्रतिकूल, किन्तु न जाने जैसे अपने अन्त में वे मिल जाते थे – एक खारी बूँद में, एक दबाव में, एक साँस में, एक तपे हुए मौन में, या इन सभी की अनुपस्थिति की शून्यता में!
प्रतीक्षा की रातों को प्रतीक्षक का भाव ही लम्बी बनाता है, किन्तु यदि उनसे वह भी न हो, तो वे रातें कैसे कटें – अन्तहीन ही न हो जाएँ!

5
रात में आग फट पड़ी है।
जलती हुई पृथ्वी को रौंदते हुए, काल के घोड़े दौड़े जा रहे हैं… और उनके मुँह से पिघली हुई आग का फेन गिर रहा है, उनके फटे-फटे नथुनों में से ज्वाला की लपटें निकल रही हैं… और काल-पुरुष मृत्यु के धुएँ में घिरा बैठा है, घोड़ो को ढील देता जा रहा है, और शब्दहीन किन्तु सदर्प आज्ञापना से कह रहा है, “बढ़ो रौंदते चले जाओ!” और पृथ्वी की लाली और काल-पुरुष के प्रयाण की लाली के साथ ऊषा के जलते हुए आकाश की लाली मिल रही है-
हवाना में विद्रोह हो गया है।
उसमें बुद्धि नहीं है – अशान्ति को कहाँ बुद्धि? उसमें संगठन नहीं है – रिक्तता का कैसा संगठन? उसमें नियन्त्रण नहीं है – भूख का क्या नियन्त्रण? उसकी कोई प्रगति भी नहीं – विस्फोट की किधर प्रगति?
विद्रोह इन सबसे परे है… वह मानवता के स्वाभाविक विकास का पथ नहीं, वह उसके अस्वाभाविक संचय के बचाव का साधन है, उसकी बाढ़ का रेचन… वह ज्वार की तरह बढ़ रहा है।
उसका घात है-
इधर जहाँ मैकाडो के महल के आगे इतनी बड़ी भीड़ इकट्ठी हो रही है, जहाँ महल लूट लिया गया है, जहाँ महल का सब सामान यथावत् पड़ा है, केवल खाद्य पदार्थ लूटे जा रहे हैं, और बिखर रहे हैं;
इधर जहाँ बहुत-से निहत्थे लोगों ने किसी समृद्ध राज-कर्मचारी के एक घर से एक मोटा-सा सुअर निकला और उसे कच्चा ही काट-काट कर, नोच-नोच कर खा रहे हैं; भूनने के लिए भी नहीं रुक सकते, तथापि आग पास ही जल रही है;
इधर जहाँ कई एक कर्मचारी अपने अच्छे-अच्छे वस्त्र फेंककर अपने नौकरों के फटे मैले-कुचले कपड़े पहन रहे हैं कि वे भी इस गन्दी शून्यता में छिप सकें।
इधर जहाँ बीसियों नंगे लड़के, महलों के पीछे जमे हुए कूड़े-कर्कट के ढेर में से टुक्कड़ बीन-बीन कर खा रहे हैं – वही टुक्कड़, जिन्हें वहाँ के कौए भी न खाते थे;
इधर जहाँ पुरुषों की भीड़ में अनेक अच्छी-बुरी स्त्रियाँ और वेश्याएँ तक उलझ रही हैं, पर किसी को ध्यान नहीं कि वे स्त्रियाँ भी हैं;
इधर जहाँ पाँच-चार विद्रोही सैनिकों के साथ जुटी हुई विद्यार्थियों और नव-युवकों की भीड़ केना के फूल और खजूर की डालियाँ तोड़-तोड़कर, उछाल-उछाल कर चिल्ला रही है, और मैकाडो के पलायन की खुशी में अपना ध्येय, कर्त्तव्य और योजनाएँ भूल गयी है; पागल हो गयी है…
इधर जहाँ शोर हो रहा है, पर शोर की भावना से नहीं; नाच हो रहा है, पर नाच की भावना से नहीं; झगड़ा हो रहा है, पर झगड़े की भावना से नहीं; हत्या हो रही है, पर हत्या की भावना से नहीं; बदले लिए जा रहे हैं, पर बदले की भावना से नहीं…
इधर जहाँ क्रान्ति हो रही है, पर बिना उसे क्रान्ति समझे हुए, बिना उसे किये हुए ही…
उधर जहाँ मैकाडो के कर्मचारियों की स्त्रियाँ व्यस्त-वस्त्रों में किन्तु मुँह को चित्र-विचित्र पंखों की आड़ में छिपाये, मोटरों या गाड़ियों में बैठ-बैठकर भाग रही है; उधर जहाँ खुफ़िया पुलिस के सिपाही एक छोटे-से लड़के से उसके विद्रोही पिता का पता पूछ रहे हैं और उसकी प्रत्येक इनकारी पर कैंची से उसकी एक-एक उँगली काटते जाते हैं;
उधर जहाँ उन्हीं का एक समूह लोगों को पकड़-पकड़कर समुद्र में डाल रहा है, जहाँ शार्क मछलियाँ उन्हें चबाती है;
उधर जहाँ विद्रोहियों के नाखूनों के नीचे तप्त सूए चुभाये जा रहे हैं; और तपी हुई सलाखों से उनकी ज्ञानेन्द्रियाँ जलायी जा रही हैं;
उधर जहाँ सेबेस्टिन मेरिया के गहनों को बेच आया है, अपनी स्त्री को सन्तुष्ट कर आया है और स्वयं अपने हृदय से आत्मग्लानि मिटा कर अपने को निर्दोष मानकर, धीरे-धीरे एक गली में टहलता हुआ सोच रहा है यदि उसकी स्त्री न होती तो वह मेरिया को ठगने की बजाय उससे विवाह ही कर लेता, क्योंकि उसकी ठगी निर्दोष होकर भी ठगी ही है…
और उधर जहाँ मिगेल, जो रात-भर एक चुराये हुए घोड़े को दौड़ाता हुआ सैंटियागो से हवाना आया है, जिसका घोड़ा गोली से मर चुका है और जिसकी टाँग भी गोली लगने से लंगड़ी हो गयी है और खून से भरी पट्टी में लिपटी हुई है। मिगेल मेरिया और कार्मेन को घर में न पाकर हवाना की सूनी-सूनी गलियाँ पार करता हुआ जा रहा है, देखने कि कहाँ क्या हो रहा है, यह सोचता हुआ कि कोई परिचित या विश्वासी मिल जाए तो पता ले कि मेरिया और कार्मेन कहाँ हैं, कि बन्धुओं के और विद्रोह के समाचार क्या हैं, और नगर को एकाएक यह क्या हो गया है। मिगेल, जिसका चेहरा पीड़ा से नहीं, पीड़ाओं से विकृत है; जिसका अधनंगा बदन भूख का नहीं, अनेक बुभुक्षाओं का साकार पुंज है… जो थकान से नहीं, अनेक थकानों में चूर है और गिरता-पड़ता भी नहीं, गिरता ही चला जाता है…
और मेरिया और कार्मेन, जो इस भयंकर ज्वार के घात में भी नहीं, प्रतिघात में भी नहीं, वे कहाँ, किस अपूर्व और स्वच्छन्द समापन की ओर जा रही हैं? इस रौद्ररस-प्रधान नाटक की मुख्य कथा से अलग होकर, किस अन्तःकथा की नायिका बनने, किस विचित्र प्रहसन की नटी बनने, विधि की वाम रुचि की कौन-सी पुकार का उत्तर देने, कौन-सी कमी पूरी करने?
‘इस व्यापक तूफान के बाहर भी कहीं कुछ है?’
कहाँ?
क्या?

6
मेरिया और कार्मेन स्त्रियाँ हैं, जाति-दोष से ही वे प्रतिघात पक्ष की हैं, पर अपनी शिक्षा और अपनी रिक्तओं के कारण उनमें विद्रोह जागा हुआ है, इसलिए वे उधर नहीं जा सकती… तभी तो वे कहीं दीख नहीं पड़तीं, न उस लुटी हुई भीड़ में, न उस लूटनेवाली भीड़ में; न उस भूखी भीड़ में, न उस भूखा रखनेवाली भीड़ में… वे उस क्रान्ति में नहीं मिलतीं, क्योंकि वे उसकी संचालिका नहीं हैं, वे केवल सन्देश-वाहिका हैं…
मानव बनाता है, विधि तोड़ती है। मानव अपने सारे मनसूबे बाँधता है रात में अँधेरे में छिपकर; विधि उन्हें छिन्न-भिन्न करती है दिन में, प्रकाश में, खुले, परिहास-भरे दर्प से। मेरिया और कार्मेन ने, बहुत रो-धोकर रात में निश्चय किया था दिन में वे भी क्रान्ति में खो जाएँगी, कार्मेन ने छिपे उत्साह से मेरिया ने छिपी निराशा से किन्तु दोनों ने ही दृढ़ होकर… पर, दिन में उन्हें कुछ भी नहीं दीखा, वे नहीं सोच पायीं कि क्या करें… उन्होंने क्रान्ति की गति के बारे में जो कुछ सीखा था, वह मिगेल से सीखा था, पर मिगेल वहाँ था नहीं। उसके साथी उनके अपरिचित थे, और जो परिचित थे भी, वे मिल नहीं सकते थे। तब, वे क्या करतीं – कैसे उसके संगठन में हाथ बटातीं? उनके पास कोई साधन नहीं था – यदि था, तो उन्हें ज्ञात नहीं था। वे अपनी एक ही प्रेरणा पहचानती थीं-अपना निश्चय, और उसी को लेकर वे क्रान्ति करने निकल पड़ी थीं…
यह कोई नयी बात नहीं है। सागर में नित्य ही हजारों और लाखों व्यक्ति कुछ करने निकलते हैं, बिना जाने कि क्या; और कुछ कर जाते हैं, बिना जाने के क्या या कैसे या क्यों! यह तो सामान्य जीवन में ही होता है, जहाँ आदमी की सामान्य बुद्धि काम कर सकती है, तब क्रान्ति में क्यों नहीं सौ-गुना और सहस्र-गुना अधिक होगा… जो क्रान्ति करते हैं, उनमें कोई इना-गिना होता है जो जानता है कि वह क्या कर रहा है; यदि कोई कुछ जानते हैं तो इतना ही कि वे कुछ कर रहे हैं, कुछ करना चाहते हैं, कुछ करेंगे… और इतना भी बहुत है; क्योंकि अधिकांश तो इतना भी नहीं जानते कि वे कुछ कर भी रहे हैं, इतना भी नहीं कि कुछ हो रहा है! ये तो एक भीड़ के भीड़पन के नशे में खोकर, नींद में चलने वालो रोगी की तरह, एकाएक चौंककर जागते हैं और तब वे जानते हैं कि कुछ हो गया है; अब जो है, वह पहले नहीं था, और पहले नहीं था, और पहले जो था, वह अब नहीं है… जो कुछ हो चुका होता है, वह एक प्रगूढ़ आवश्यकता के कारण होता है। प्रायः परिस्थितियों की अनियन्त्रणीय प्रतिच्छति होती है, जो सर्वसाधारण के लिए भले ही क्रियाशील होती है; पर यह सब दूसरी बात है, बल्कि यह तो सही सिद्ध करती है कि सर्वसाधारण का उसके करने में कोई हाथ नहीं होता…
हाँ, तो मेरिया और कार्मेन एक ऐसी आन्तरिक माँग को लेकर, अपने जीवन की किसी छिपी हुई न्यूनता को, किसी और भी छिपी हुई प्रेरणा को आज्ञापना से पूरी करने के लिए निकल पड़ी थीं। वह था उषा के तत्काल बाद ही, और अब तो दिन काफ़ी प्रकाशमान हो चुका था, धूप में काफ़ी गर्मी आ गयी थी…
उन्होंने हवाना की गलियों में आकर देखा-कहीं कोई नहीं था। वे इधर-उधर ढूँढ़ती फिरी, पर सभी लोग किसी अज्ञात अफ़वाह के उत्तर में इतने सवेरे ही कहीं गुम हो गये थे…
केवल कहीं गली में दो-चार लड़कियाँ और बूढ़ी औरतें उन्हें मिलीं, और वे उनके साथ हो लीं। और वे धीरे-धीरे हवाना के बन्दरगाह की ओर उन्मुख होकर चलीं कि और कहीं नहीं तो वहाँ पर लोग अवश्य मिलेंगे, क्योंकि उसके सब ओर हवाना का अभिजात वर्ग और उनके सहायक-राजकर्मचारी, अफ़सर, सिपाही, पुलिसवाले, व्यापारी-इस विराट प्रपंच के स्तम्भ-बसते हैं।…
वे क्रान्तिकारिणी नहीं थीं – उनमें क्या था, जो क्रान्तिकारी कहा जा सकता है? वे एक निश्चय, और जीवन के प्रति एक भव्य विस्मय का भाव लेकर चल पड़ी थीं! उनमें वह क्रूर प्रचार-भाव नहीं था, जिससे क्रूसेडर लड़ा करते थे, या इस्लाम के मुजाहिद। यदि प्रचार की कोई भावना उनमें थी तो वैसी ही, जैसी तिब्बत में होकर चीन जाते हुए बौद्ध प्रचारक कुमारगुप्त के हृदय में…
जिधर वे जा रही थीं, उधर बहुत शोर हो रहा था और उसको सुन-सुनकर वे और भी तीव्र गति से चलती जाती थीं, उन दो-एक बूढ़ी स्त्रियों में भी किसी प्रकार का जोश जाग रहा था…
आगे-आगे कार्मेन उछलती जा रही थी-जैसे सूर्य के सात घोड़ों के आगे उषा बीच-बीच में, कभी वह किलकारी भरकर कहती थी, “क्रान्ति चिरंजीवी हो!” और मानो क्रान्ति की सत्यता के आगे इस नारी के क्षुद्रता की ज्ञान से, एकाएक-चुप हो जाती थी – तब तक, जब तक कि आत्मविस्मृति उसे फिर नारा लगाने की ओर प्रेरित नहीं कर देती थीं। बुड्ढियाँ चुप थीं – शायद इसलिए कि उन्हें क्या, उनके सात पुरखाओं को भी क्रान्ति का पता नहीं रहा था…
और मेरिया? वह इस परिवर्तन की ओर अशान्ति में भी अपना वैधव्य नहीं भूली थी। वह कार्मेन के साथ-साथ चलने का प्रयत्न कर रही थी, किन्तु फिर भी बिना जल्दी के, एक भव्य मन्थरता लिए हुए। उसमें कार्मेन का उत्साह, सुख, यौवन की प्रतीक्षामान चुनौती नहीं थी! न उन बुड्ढियों का उदासीन, विवश स्वीकृतिभाव, उसमें था एक सन्तुष्ट अलगाव, मानो वह कहीं और हो, कुछ और सोच रही हो, कोई और जीवन जी रही हो, उसने मानो इस जीवन की सम्पूर्णता पा ली थी…
क्यों?
उसके जीवन में आरम्भ से ही वंचना रही थी, लगातार आज तक; तब फिर सन्तोष कहाँ था?
यह जीवन का अन्याय (या एक क्रूर न्याय!) है कि उन्हीं की वंचना सबसे अधिक होती है, जो जीवन से सबसे अल्प माँगते हैं। मेरिया ने कभी जीवन से कुछ नहीं माँगा, इसीलिए वह इतनी वंचिता रही है कि उसे कुछ भी नहीं मिला…
किन्तु शायद इसीलिए वह आज वंचना में इतनी सन्तुष्ट है कि सोचती है वह सफल हो चुकी है, जीवन पा चुकी है और जी चुकी है।
उसने अपना कुछ – अपना सब-कुछ! – मिगेल को नहीं तो मिगेल के नाम पर दे दिया है…
वह विधवा है। मिगेल उसका कोई नहीं है। पर…
उसका जीवन सम्पूर्ण हो गया है। उसके जाने, मिगेल उसकी सहायता से छूट गया है, अमरीका चला गया है, आकर क्यूबा को स्वीधान और सुशासित कर गया है। इसके अलावा और कुछ हो ही नहीं सकता – क्या उसने अपना सब-कुछ इसी उद्देश्य से नहीं दे दिया?
विधवा मेरिया! तेरी फूटी आँखें, फूटी बुद्धि, फूटे भाग्य! चलो दोनों देखो, सम्पूर्णता से भी आगे कुछ है…
गली से सड़क, सड़क से चौराहे पर आकर वे एकाएक रुक गयी हैं।
चौराहे के आगे ही हवाना महल के सामने का खुला मैदान है। वहाँ बहुत-सी भीड़ इकट्ठी हो रही है, इकट्ठी हो चुकी है, और फिर भी लोग सब ओर से धँसे चले आ रहे हैं। कोई कुछ कर नहीं रहा – क्रान्ति में कौन क्या करता है? – पर सब धँसे आ रहे हैं, मानो स्वाधीनता यहीं बिखरी पड़ी है और वे उसे बटोरकर ले जाएँगे। और कोई जानता नहीं कि वे किसलिए वहाँ आ रहे हैं, केवल और लोगों के उपस्थित होने के कारण वे भी यहाँ आ जुटते हैं…
यहाँ क्या होगा? कुछ नहीं होगा, मानवता अपनी मूर्खता का प्रदर्शन अपने ही को करेगी, और फिर झेंप कर स्वयं लौट जाएगी। या अपने ही से पिटी हुई-सब लोग कहेंगे कि क्रान्ति सफल हो गयी या दूसरों से तब लोग जानेंगे कि प्रति क्रान्ति की जीत रही। और दोनों अवस्थाओं में वे उस ध्येय को नहीं पाएँगे, जिसके लिए उनमें अशान्ति उठ रही थी – क्योंकि अभी उनमें से उसे प्राप्त करने की शक्ति नहीं है। वे स्वाधीनता के किसी एक नाम से दासता का कोई एक नया रूप ले जाएँगे!
मेरिया स्तिमित-सी होकर खड़ी देख रही है। ये सब भाव उसके हृदय में से होकर दौड़े जा रहे हैं। उसका व्यथा से निर्मल हुआ अन्तर बहुत दूर भविष्य को भेद कर देख रहा है, यद्यपि वह वर्तमान नहीं देख पाता। उसके मन में एक निराश प्रश्न उठ रहा है, जिसे वह कह नहीं सकती; एक प्रकांड संशय जिसका वह कारण नहीं समझती। उसका हृदय एकाएक रोने लगा है, यद्यपि वह यही जानती है कि उसके इस समय आह्लाद से भर जाना चाहिए, इस नवल प्रभात में, जब उसका देश जागकर स्वतन्त्र हो रहा है।
एक थी कैसांड्रा, जिसकी दिव्य-दृष्टि अभिशप्त थी, जिसके फलस्वरूप उसकी भविष्यवाणी का कोई विश्वास नहीं करता था… एक है मेरिया, जो इतनी अभिशप्त है कि स्वयं ही अपनी दृष्टि पर विश्वास नहीं कर पाती… उसे कुछ समझ ही नहीं आता, वह पागल की तरह देख रही है…
नहीं तो, वह तो सफल हो चुकी है, सम्पूर्ण हो चुकी है, उसे अब क्या? वह तो सन्तुष्ट है, प्रसन्न है।
वह मुड़कर, कार्मेन की आँखों से खोजती है। कार्मेन उससे कुछ ही दूर खड़ी किसी से बात कर रही है।
क्या कह रही है? उस व्यक्ति को सुनाकर कार्ल मार्क्स के कुछ वाक्य दुहरा रही है, जिसे उन दोनों ने इकट्ठे पढ़ा था। और मेरिया को अनुभव होता है, कार्मेन प्रयत्न कर रही है कि उन वाक्यों को मेरिया की तरह बोले… वह व्यक्ति उपेक्षा से, तिरस्कार से, शायद क्रोध से या भय से या किसी मिश्रित भाव से, सुन रहा है, क्योंकि वह मैकाडो की पुलिस का आदमी है, (होने दो!) कार्मेन की ध्वनि सुनकर मेरिया आनन्द से और आह्लाद से भर जाती है, उसका सारा निराशावाद और असन्तोष निकल जाता है… क्या हुआ यदि वह कुछ नहीं है, वह कुछ नहीं पा सकी, वह रोती रही, अनाथिनी, अभागी, वंचिता रही है? उसके दो हैं, जो ऐसे नहीं, और उसी के कारण ऐसे नहीं-कार्मेन और मिगेल… कार्मेन, जिसे उसने सुखी रखा और जो उसके पास खड़ी है, मिगेल, जिसे उसने छुड़ाया है और जो इस समय अमरीका के पथ पर होगा… ओ स्वतन्त्र, स्वाधीन क्यूबा, तुझे मेरे ये दो उपहार हैं; और मेरा जीवन अब सफल और सम्पूर्ण हो चुका है-
मेरिया का गला घुटता है, वह चीख भी नहीं सकती, झपटती है-
उस व्यक्ति ने जेब से रिवाल्वर निकालकर कार्मेन पर गोली चला दी है, कार्मेन बिना खींची हुई साँस को छोड़े भी, ढेर हो गयी है…

7
वहाँ उसके आस-पास, एक छोटा-सा घेरा खाली हो गया है।
वह उसके मध्य में खड़ी है। वह एक स्वप्न में आयी थी, एक स्वप्न में झुकी थी, अब एक स्वप्न में खड़ी है। एक मरा हुआ स्वप्न उसकी बाँह में लटक रहा है; मरा हुआ, किन्तु रक्त-रंजित, अभी गर्म… और उसकी दूसरी बाँह उसके सिर पर धरी हुई है, मानो सिर पर कह रही हो, “ठहर, अभी यहीं रह..”
कहीं से उसी व्यक्ति की कर्कश हँसी सुन पड़ती है, पर सहमी हुई भीड़ में कोई नहीं है, जो इस समय भी उसे चुप करा दे! और मेरिया के सिर पर से तूफान बहा जा रहा है, निःशब्द भैरव, निरीह तूफ़ान… पर उसका सिर झुका नहीं, नींद में भीड़ के मुखों में कुछ पढ़ रही है, उन मुखों में लगी हुई आँखों में, जो उसकी बाँह से लटकते हुए अभी तक गर्म रक्त-रंजित स्वप्न को देख रही है, किन्तु जो मेरिया की फटी आँखों से मिलती नहीं…
मेरिया टूट गयी है, पर अभी जाती है, और सामने देख रही है… सामने जहाँ भीड़ स्तब्ध हो रही है…
यह सब क्षण-भर में-क्षण-भर तक! तब भीड़ में कुछ फैलता है जो भय से हजार गुना त्वरगामी जान पड़ता है, और भीड़ भागती है – इधर-उधर, जिधर हो… कहाँ को न जाने; किससे न जाने; पर यहाँ से कहीं, अन्यत्र, इस स्वप्निल स्त्री-रूप की छाया से बाहर कहीं भी, जहाँ संसार का अस्तित्व हो…
स्वप्न टूटता है। मेरिया उस भगदड़ में देखती है – एक भूखा, लंगड़ा, अधनंगा शरीर, एक प्यासा, थका हुआ, व्यथित मुख जो उसके देखते-देखते क्षण-भर में ही अत्यन्त आह्लाद और अत्यन्त पीड़ा में चमक उठता है – और खो जाता है।
मेरिया एक हाथ से कार्मेन को उठाये है – उसका दूसरा हाथ आगे बढ़ता है, मानो सहारे के लिए! ओंठ कुछ उठकर खुलते हैं, मानो पुकार के लिए – और मिगेल के लड़खड़ाकर गिरे हुए शरीर को रौंदती हुई भीड़ चली जाती है, चली जाती है, चली जाती है…
इसका भी अन्त होगा। सभी कुछ का अन्त होगा। और नयी चीज़ें होंगी, जो इससे विभिन्न होंगी। अच्छी हों, बुरी हों, ऐसी तो नहीं होगी। वह देश के अमर शहीदों में से होगी या अपमानित परित्यक्त वेश्या, सब एक ही बात है – ऐसे तो नहीं होगी, ऐसे खड़ी तो नहीं रहेगी… जैसे अब खड़ी है। एक हाथ से कार्मेन का शव लटक रहा है, और दूसरा मानो सहारे के लिए आगे बढ़ा है; शरीर और मुँह एक दर्प से उठा है, जो टूटता भी नहीं; आँखें एक भावातिरेक को लेकर भरी हुई हैं; और यह चित्र मानो शब्दहीन, जीवहीन, अत्यन्त श्वेत पत्थर का खिंचा हुआ उस जनहीन मैदान में खड़ा है…
यह क्या किसी कुछ का संकेत नहीं है-कुछ नश्वर, कुछ अमर; कुछ अच्छा, कुछ बुरा; कुछ सच्चा, कुछ मूक, कुछ व्यंजक; कुछ अतिशय विकराल…”
एक हाथ पर मरे हुए प्रेम का बोझ लिए, दूसरे हाथ से किसी चिर-विस्मृति मृत प्रेम को भीड़ में से बुलाती हुई, आँखों से भव को फाड़ती हुई, एक सन्देशवाहिनी पीड़ा…
घोड़े गुज़र जाते हैं। मनुष्य गुजर जाते हैं। भीड़ गुज़र जाती हैं। प्रमाद गुज़र जाता है। पर आशा-विभ्राट; भूख-भूख-रिक्तता; वेदना-वेदना-पराजय; बिखरी हुई प्रतिज्ञाएँ, यह है क्रान्ति की गति। प्रलय-लहरी क्यूबा में-जैसे वह अन्यत्र गुज़री है; वैसे वह सर्वत्र गुजरेगी – विद्रोह…
किन्तु कोई जानता नहीं। कोई देखता नहीं। कोई सुनता नहीं। कोई समझता नहीं। मेरिया की अनझिप आँखें – कैसांड्रा का अभिशाप…

(कैसांड्रा=एपोलो के वरदान से कैसांड्रा को भवितव्यदर्शिता प्राप्त हुई थी, किन्तु उसकी प्रणय-भिक्षा को ठुकराने पर एपोलो ने उसे शाप दिया कि उसकी भविष्यवाणी पर कोई विश्वास नहीं करेगा। ट्रॉय के युद्ध के समय, और उसके बाद एगामेम्नन की स्त्री बनकर, भावी घोर दुर्घटनाओं को देखकर वह चेतावनी देती रही, किन्तु ट्रॉयवालों ने उसे पागल समझकर बन्द कर रखा और एगामेम्नन ने भी उसकी उपेक्षा की। कैसांड्रा का अभिशाप यही है कि वह भविष्य देखेगी और कहेगी, किन्तु कोई उसका विश्वास नहीं करेगा।-लेखक)

(मुल्तान जेल, दिसम्बर 1933)

Ravi KUMAR

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