अलिखित कहानी

मैं अपनी गृहलक्ष्मी से लड़कर अपने पढ़ने के कमरे में आकर बैठा हुआ था और कुढ़ रहा था।
लड़ाई मैंने नहीं की थी और निरपेक्ष दृष्टि से देखते हुए कहना पड़ता है कि शायद उसने भी नहीं की थी। वह अपने-आप ही हो गयी – या यों कह लीजिए कि जैसी परिस्थिति हमारी है, उससे लड़ाई होना स्वाभाविक ही है, उसका न होना ही अचम्भे की बात है।
मैं कोई बड़ा आदमी नहीं हूँ – पता नहीं, आदमी भी हूँ कि नहीं! – मैं हिन्दी का कहानी-लेखक हूँ। और मेरी गृहलक्ष्मी एक हिन्दी लेखक की गृहलक्ष्मी है – हिन्दी लेखकों का और किसी लक्ष्मी से परिचय ही कब होता है? हम दोनों का जीवन बिलकुल नीरस है। इसके अलावा कुछ हो भी नहीं सकता। और इसीलिए हमारी लड़ाई अवश्यम्भावी है…
क्योंकि, मैं कभी-कभी यत्न करता हूँ, अपनी कहानी के ‘एटमास्फियर’ द्वारा उस नीरसता को दूर कर दूँ जो हमारे जीवन में समा रही है। पर मेरी पत्नी यह नहीं कर सकती, उसका जीवन उस नीरसता में, गृहलक्ष्मी की सामान्य दिनचर्या में ऐसा जकड़कर बँधा हुआ है कि वह हिल-डुल भी नहीं सकती – अगर कभी हिलने की चेष्टा करे तो उसी दिन हम दोनों को रोटी न मिले-घर में चूल्हा ही न जले… और मैं कभी यह भी यत्न करता हूँ कि अपने को कहानी के ‘एटमास्फ़ियर’ में न भुलाकर कहानी का ‘एटमास्फ़ियर’ ही घर में ले आया जावे, ताकि हम दोनों उसका रस ले सकें, किन्तु तब लड़ाई हो जाती है…
जैसे आज हुई। मैं एक प्रेम-कहानी लिखता उठा था, प्रेम की भावुकता से छलकती हुई, और उसके वाक्य मेरे कानों में अभी गूँज रहे थे… मैं एकाएक उठकर रसोई में गया, देखा, गृहलक्ष्मी अनारदाना पीस रही हैं। इससे मैं तनिक हतप्रभ नहीं हुआ, उसे सम्बोधन करके वे वाक्य दुहराने लगा… उसने विस्मय से मेरी ओर देखा, फिर झुँझलाकर बोली, “यह सब काम करना पड़ता तो पता लगता-”
यदि मैं इतने से ही घबरा जाता, तो क्या खाक प्रेमिक होता? मैं और भी कहने लगा-
उसे ग़ुस्सा आ गया। बोली, “तुम्हें शर्म भी नहीं आती। मैं काम करती मरी जाती हूँ, घर में एक पैसा नहीं है, और तुम बहके चले जा रहे हो, जैसे मैं कोई थियेटर की-”
मुझे ऐसा लगा, किसी ने थप्पड़ मार दिया हो। मेरा सब आह्लाद मिट्टी हो गया, मुझे जो भयंकर क्रोध आया उसे मैं कह भी नहीं सका, चुपचाप अपने पढ़ने के कमरे में आ गया और सोचने लगा…
मुझे सूझा, घर को, इस प्रवंचना और कुढ़न के पुंज को जो घर के नाम से सम्बोधित होता है – छोड़कर चला जाऊँ! पर यदि इतने साधन होते कि घर छोड़कर जा सकूँ, तो घर ही में सुख से न रह सकता। यही सोचते-सोचते मेरा क्रोध गृहलक्ष्मी पर से हटकर अपने ऊपर आया। वहाँ ले हटकर अपने काम पर और फिर संसार पर जाकर कहीं धीरे-धीरे खो गया, मैं केवल कुढ़ता रह गया…
ऐसे ही, ऊँघने लगा। ऊँघते-ऊँघते मुझे याद आया, तुलसीदास भी अपनी स्त्री के मुख से ऐसी एक बात सुनकर विरक्त हो गये थे और तुलसीदास बन गये थे! और एक मैं हूँ… मुझे सूझा, इस विभेद को कहानी में बाँधकर रखूँ, अपने जीवन की सारी विवशताएँ उसमें रख दूँ…
नींद आने लगी। मैंने मेज़ पर पड़ी हुई किताबों को एक ओर धकेलकर सिर रखने की जगह निकाली, और वहीं मेज़ पर सिर टेककर सो गया…
नींद खुली, तो उस ढेर में से एक किताब खींची और विमनस्क-सा होकर उसके पन्ने उलटने लगा। एकाएक मेरी दृष्टि कहीं अटकी और मैं पढ़ने लगा…
“तुलसीदास के जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना थी वह, जब वे अपनी पत्नी के घर गये और उसकी फटकार सुनकर एकाएक विरक्त हो गये। इसी घटना ने उनके जीवन को बना दिया, उन्हें अमर कर दिया, नहीं तो वे उन साधारण सुखी सामान्य प्राणियों की तरह जीवन व्यतीत करते, जो अपनी जीवन-सन्ध्या में देखते हैं कि उनके जीवन में कोई कष्ट नहीं हुआ, किन्तु साथ ही महत्त्व की बात भी कोई नहीं। उनका जीवन सुखी रहा है उनके लिए, किन्तु संसार के लिए-फीका, व्यर्थ, निष्फल…
“पुरुष-प्रेम की स्वाभाविक गति है स्त्री की ओर, किन्तु जब वह चोट खाकर उधर से विमुख हो जाता है, तब वह कौन-कौन-से असम्भव कार्य नहीं कर दिखाता…
“किन्तु वह तभी, जब उसे इसके अनुकूल क्षेत्र मिले। ऐसा भी होता है कि वह चेष्टाएँ करके रह जाता है, स्त्री से विमुख होकर भी वह अपने को ऐसा आबद्ध पाता है कि और किसी ओर नहीं जा पाता, बढ़कर मर जाता है।
“इसी तथ्य को लेकर इस कहानी के लेखक ने यह छोटी-सी कहानी गढ़ी है।”
यह क्या? जो कहानी मैं लिखने को था, वह पहले लिखी जा चुकी है? और एक बिलकुल अज्ञात लेखक द्वारा, जिसकी कहानी समझाने के लिए सम्पादक को इतनी लम्बी भूमिका बाँधनी पड़ी है।
मैं समझा था, यह मेरी ही अभूतपूर्व सूझ है, मेरी सर्वथा अपनी रचना, जो मेरा नाम अमर कर देगी, किन्तु वह भी दूसरे को सूझ चुकी है, दूसरे द्वारा लिखी और प्रकाशित की जा चुकी है, एक अज्ञात लेखक द्वारा! हाय अत्याचार!
मैं पन्ना उलटकर वह कहानी पढ़ने लगा…

1
“जो कहानी केवल कहानी-भर होती है, उसे ऐसे लिखना कि वह सच जान पड़े, सुगम होता है। किन्तु जो कहानी जीवन के किसी प्रगूढ़ रहस्यमय सत्य को दिखाने के लिए लिखी जाय, उसे ऐसा रूप देना कठिन नहीं, असम्भव ही है। जीवन के सत्य छिपे रहना ही पसन्द करते हैं, प्रत्यक्ष नहीं होते। उन्हें दिखाना हो तो ऐसे ही साधन उपयुक्त हो सकते हैं जो प्रत्यक्ष न करें, छिपा ही रहने दें, जो छायाओं और लक्षणों के आधार पर उसका आकार विशिष्ट कर दें, और बस…
“इसीलिए मैं अपनी इस कहानी को ऐसे अत्यन्त असम्भाव्य रूप में रखकर सुना रहा हूँ, इस आशा में कि जो सत्य मैं कहना चाहता हूँ, वह इस रूप में शायद रखा जा सके, पाठक के आगे व्यक्त नहीं तो उसकी अनुभूति पर आरूढ़ किया जा सके…
“हाँ, तो, समझ लीजिए कि आरव्योपन्यास की किसी रात के वातावरण से घिरे हुए किसी नगर में दो युवक रहते थे। उनकी विशेषता यह थी कि दोनों का जन्म एक ही दिन हुआ था, उनके आकार-प्रकार भी बिलकुल एक-से थे, और उनका नाम भी एक ही था। लोग कहते थे कि वे जुड़वाँ बच्चे थे, किसी देवता के वर या शाप से अलग-अलग घरों में उत्पन्न हो गये थे। वे शैशव से ही परस्पर आकृष्ट रहते थे, फिर तब से इकट्ठे खेले और पले थे…
“ऊपर कह आये हैं कि उनका नाम भी एक ही था। इस प्रकार इनकी इस सम्पूर्ण समरूपता का खंडन करनेवाली एक ही बात थी। एक धनिक की सन्तान था और एक दरिद्र की। बस, यही एक विभेद था उनके जीवन में। यद्यपि इसके फलस्वरूप एक और भी भेद आ गया था। उनके नाम में… दोनों के माता-पिता ने उनका नाम रखा था तुलसी, किन्तु एक धनिक होने के कारण तुलसीदास कहाता था और दूसरा दरिद्र का पुत्र होने के कारण तुलसू के नाम से पुकारा जाता था…
“यह सब तो हुई पूर्व की बात। हमारी कहानी का आरम्भ इन दोनों के विवाह के बाद से होता है। हम कह चुके हैं कि इन दोनों का जीवन बिलकुल एक-सा था, वे पढ़े भी एक साथ ही थे। और उसके बाद दोनों की रुचि भी साहित्य की ओर हो गयी थी। और पढ़ाई समाप्त कर चुकने पर एक ही दिन दोनों के विवाह भी हो गये थे, दोनों अपनी पत्नियों पर सम्पूर्णतः आसक्त थे…
“इतनी अधिक समरूपता संसार में मार्के की चीज़ है, दैवी देन है, इसलिए यह आशा करनी चाहिए थी कि दोनों को पत्नियाँ भी एक-सी ही मिलेंगी। और ऐसा ही हुआ भी, पत्नियों का साम्य भी उन्हीं की भाँति था और उन दोनों का नाम भी एक ही था।
“ख़ैर! विवाह के बाद की बात है, एक दिन दोनों नवयुवकों को एक साथ ही विचार आया कि पत्नी के बिना घर बिलकुल नीरस है, पत्नी ही घर की लक्ष्मी है और पत्नी ही सरस्वती भी, क्योंकि उसकी अनुपस्थिति में काव्योचित ‘इन्स्पिरेशन’ भी नहीं प्राप्त होता। अतः दोनों उठे और एक साथ ही चल दिये अपनी पत्नियों को लिवाने – वे उससे दो-चार दिन पहले ही मायके गयी थीं…
“दोनों एक ही पथ पर इकट्ठे ही जा रहे थे, क्योंकि दोनों की ससुराल एक ही स्थान पर तो थी, साथ-साथ के घरों में।
“अब, यह तो पाठक जान ही गये होंगे कि ये दोनों, तुलसीदास और तुलसू युवक होने के कारण मनचले भी थे, और कवि होने के कारण लापरवाह और उद्धत। बस, दोनों ने ससुराल में घुसकर उचित-अनुचित का विचार तो किया नहीं, प्रणाम-नमस्कार के झमेले में पड़े नहीं, सीधे अपनी पत्नियों के कमरे में चले गये, और उनकी काव्यमयी स्तुति करने लगे – उन्हें घर लिवा ले चलने के लिए।
“पत्नियों को यह बात अच्छी नहीं लगी। एक तो स्त्रियों को वैसे ही रीति-रस्म का, बड़े-छोटे का, परदे-दिखावे का ध्यान अधिक रहता है; दूसरे ये पत्नियाँ कोई कवि तो थीं नहीं, जो उस मधुर काव्यमयी प्रेरणा को समझतीं जो दोनों युवकों को वहाँ घसीट लाई थी, या समझकर उसका आदर करतीं, उसे अपनातीं और स्वयं उसके आगे नमित होकर वैसी ही निर्लज्ज हो जातीं! उन्हें अपने पतियों की यह बात बहुत बुरी लगी। क्रोध भी आया, ग्लानि भी हुई। उन्होंने सोचा, इन्हें फटकारना चाहिए।
“किन्तु, स्त्रियाँ यह भी तो जानती हैं, अपने हृदय के गुप्ततम कोने में अनुभव करती हैं – कि प्रेम को फटकारा नहीं जा सकता; वह इतना विशाल, इतना सर्वव्यापी, और सब-कुछ होते हुए इतना निराकार है… उसे फटकारा कैसे जाए?
“तब उन्हें सूझा, इसके लिए कोई ऐसी वस्तु चाहिए जो इससे भी विशाल, इससे भी सर्वव्यापी, इससे भी निराकार हो, यानी परमेश्वर… यानी परमेश्वर की दुहाई देकर इन्हें फटकारना चाहिए। और तब दोनों ने एक भर्त्सना-भरे दोहे में (क्योंकि कवियों की भर्त्सना करनी थी, जो भला गद्य में कैसे होगी?) पतियों को खूब फटकारा।
“दोनों पति अपने भीतर प्रेम की एक पीयूष-सलिला बहती हुई लेकर आये थे, किन्तु उन्होंने देखा, इस भर्त्सना से वह एकाएक सूख गयी, बन्द हो गयी! उन्होंने हृदय टटोलकर देखा, वहाँ था एक विशाल मरु, और कुछ नहीं, कुछ नहीं…
“और वे विरक्त होकर उल्टे-पाँव लौट पड़े, बिना अपनी पत्नियों से एक शब्द भी कहे, सिर झुकाये, आहत…
“घर से बाहर, दोनों का सामना हुआ। दोनों ने एक बार एक-दूसरे को आँख भरकर देखा, कुछ बोले नहीं। फिर दोनों अपने घरों की ओर चल दिये, किन्तु एक साथ नहीं, अलग-अलग। तुलसीदास चले सड़क की दायीं ओर, और तुलसू बायीं ओर। और उनके मध्य का वह थोड़ा-सा व्यवधान ऐसा हो गया, मानो वह ब्रह्माण्ड के विस्तार का दीर्घतम व्यास है, और वे दोनों उसके छोरों पर बँधे हुए, निकट नहीं आ सकते…
“और ऐसे ही, वे अपने-अपने घर जा पहुँचे।”

2
“वह जो दैवी देन थी, मानो लुट गयी, मानो उस भर्त्सना-भरे दोहे के दाह में भस्म हो गयी। तुलसीदास और तुलसू के जीवन बिलकुल एक-दूसरे से अलग हो गये… उसमें अगर कुछ समता रह गयी तो उनका भूत, जो मर चुका था। और उनके भविष्य…
“यहाँ से उनकी कहानी अलग-अलग कहना ही ठीक है।
“तुलसीदास ने घर पहुँचकर निश्चय किया, अब वे कभी स्त्री का नाम भी नहीं लेंगे, मुँह देखना तो दूर। उनका सारा मस्तिष्क स्त्री-मात्र के प्रति एक विरक्त ग्लानि-भाव से भर गया। उनके जीवन की फ़िलासफ़ी, जो अब तक स्त्रियोन्मुख थी, अब उधर से विमुख हो गयी। उन्होंने देखा, स्त्री केवल पुरुष के पतन का एक साधन है, एक मिथ्या मोह, जिससे बचना, जिसकी ताड़ना करना, जिसे जीवन से उन्मूलित करना पुरुष का परम कर्त्तव्य है… स्त्री, कुबुद्धि, कुमन्त्रणा, वासना, पाप, अधोगति, ईश्वर-विमुखता, नास्तिकता, ये सब एक ही तथ्य के विभिन्न मायाजनित रूप हैं, जिन्हें हम भ्रमवश विभिन्न नाम देते हैं… और यह निश्चय करके, स्त्री की नीचता और अयोग्यता और ताड़न-पात्रता पर विश्वास करके, वे खोजने लगे कि अब संसार में क्या है, जिससे अपनी जीवन-नौका बाँधी जाय, क्योंकि बिना सहारे वह ठहर नहीं सकती! और उन्होंने पाया कि स्त्री से बढ़कर व्यापक कोई वस्तु अगर हो सकती है तो ईश्वर ही। जो स्त्री से विमुख है वह अगर अपनी समूची शक्ति ईश्वर की भावना को पकड़ रखने में नहीं लगाता तो वह इस संसार-रूपी विराट् शून्य में खो जाएगा, उसका निस्तार किसी भाँति नहीं हो सकता… उन्होंने देखा, जो विरक्त होकर ईश्वरवादी रहते हैं या होते हैं, वे इसलिए नहीं होते कि ईश्वर है, या वे आस्तिक हैं, बल्कि इसलिए कि उन्हें विवाहित होना पड़ता है स्त्रीत्व-भावना, प्रेम-भावना को न मानने पर उनके लिए एकमात्र पथ यही रहता है कि ईश्वर-भावना के आगे सिर झुकाएँ क्योंकि कहीं तो सिर झुकाना ही पड़ता है…
“यह सब, उन्होंने इस रूप में नहीं देखा, या देखा भी तो बहुत जल्द भुला दिया। मानव के मस्तिष्क में एक ऐसी शक्ति है, जो कठोर सत्य का ग्रहण करती है तो पहले उसे कोमल बना लेती है, अपने अनुकूल कर लेती है, अपने बड़प्पन के आगे झुका है। वही तुलसीदास के मन में भी हुआ और वे नहीं जान पाये कि उनकी इस आस्तिकता का, इस धर्मपरायणता का, इस ईश्वरोन्मुख भक्ति, इस परमानन्द का मूलोद्भव कहाँ से हुआ है…
“ख़ैर! तुलसीदास ईश्वर-सेवा का व्रत लेकर घर से निकल पड़े। देशाटन करने लगे, देश के विभिन्न विद्यापीठों और बौद्धिक संस्थाओं को देखकर अपना ज्ञान और अनुभव बढ़ाने लगे… वे जहाँ जाते, उनका स्वागत होता, लोग उन्हें अपना रहस्य दिखाते और उनकी सम्मति माँगते, क्योंकि वे एक तो सम्पन्न, दूसरे प्रतिभाशील, तीसरे यौवन में ही विरक्त और इसलिए अधिक आकर्षक और इस प्रकार सर्वथा आदरणीय ये… जब वे बहुत-कुछ देख चुके, और उन्होंने पाया कि वे काफी विद्या और कीर्तिलाभ कर चुके हैं, तब उन्होंने बौद्धिक संस्थाओं का भ्रमण छोड़ तीर्थाटन करना आरम्भ किया; विभिन्न स्थानों के मन्दिर देख-देखकर, वहाँ के भव्य, शान्त सौरभ-भार से सुन्दर, घंटा-ध्वनि और आरती-द्युति से एक प्रकम्प आह्लादमय, वातावरण से उत्पन्न होनेवाली अकथ जाग्रति को कविता-बद्ध करने लगे। धीरे-धीरे उनकी कीर्ति बहुत फैल गयी, उनके कई एक शिष्य भी हो गये, तब उन्होंने बनारस में आकर विश्राम किया और वहीं एक विद्यापीठ या आश्रम स्थापित करके, अपने शिष्यों को एक महाकाव्य लिखाना आरम्भ किया जो कि संसार को स्त्री-प्रेम से परे खींचकर, भक्तिरस से परिप्लावित कर देगा, जो श्रीराम के भक्तों के लिए वेद से बढ़कर महत्त्व रखेगा, और जो तुलसीदास का नाम, और गौण रूपेण उनकी पत्नी का नाम (जिसका वे उच्चारण भी नहीं करते) अमर कर जाएगा… तुलसीदास प्रौढ़ हो गये हैं, धीरे-धीरे वृद्ध भी हो जाएँगे, फिर भक्तिरस से अनभिज्ञ मृत्यु आकर उन्हें उठा ले जायेगी, किन्तु जीवन के पट पर वे अमिट अक्षरों में अपना नाम लिख जाएँगे, उसे कोई मेट सकता है?

3
“और तुलसू…
“वह थका-माँदा भूखा घर पहुँचा और अपनी झोंपड़ी के एक कोने में पड़ी फटी चटाई पर बैठकर सोचने लगा, वह मेरे जीवन की चन्द्रिका किस बादल में उलझकर लुप्त हो गयी… प्रतिभा कहाँ गयी…
“उसने भी देखा, स्त्री कितनी भयंकर शक्ति है, कितनी व्यापक, कितनी अमोघ! उसने भी देखा, वह मानव को घेरे हुए है, घेर कर अटूट पाशों में बाँधे हुए है…
“उसके भी खिन्न और विरक्त और आहत मन ने कहा, स्त्री एक बन्धन है, उसे काट फेंको! जाओ, संसार तुम्हारे सामने खुला पड़ा है, प्रतिभा तुम्हारे पास है। एक स्त्री के एक वाक्य के पीछे अपना जीवन खोओगे? उठो, देखो, संसार कुम्हार की मिट्टी-सा निकम्मा और आकार-हीन पड़ा है, उसे बनाओ, किसी साँचे में ढालो; अपने स्त्री-विमुख किन्तु प्रोज्ज्वल शक्ति-सम्पन्न प्रेम की भट्ठी में पकाकर उसका कुछ बना दो! और अमर हो जाओ!
“किन्तु तुलसू ने यह भी देखा, उसके बूढ़े माता-पिता उसकी ओर उन्मुख हुए मानो आँखों से ही कोई सन्देश उसे पहुँचा रहे हैं, जिसमें पितरोचित आज्ञापना नहीं, एक दरिद्र अनुरोध, एक करुण भिक्षा-सी है… उसने देखा, वे भूखे हैं और उसका कर्त्तव्य है उन्हें खिलाना-पिलाना, उनकी सेवा करना, उनके लिए मेहनत करना और उसमें अगर अपनी प्रतिभा का उपयोग अपने उच्चतम आदर्श को छोड़कर किसी छोटे काम के लिए करना पड़े तो उसे चुपचाप स्वीकार करना…
“और उसने यह किया। वह विवश होकर भजन-मंडलियों, रास-अभिनय करनेवाली टोलियों, कथावाचकों के लिए भजन, गीत इत्यादि लिखने लगा, जिससे उसकी, उसके माता-पिता की, जीविका चल सके… और उसने देखा ज्यों-ज्यों वह अधिकाधिक मेहनत करता है, अधिकाधिक उग्र प्रयत्न से वैसे गान, वैसे भजन लिखता जाता है, जैसे उससे माँगे जाते हैं, त्यों-त्यों उसकी प्रतिभा नष्ट होती जाती है, त्यों-त्यों ग्रह यन्त्र-तुल्य काम भी कठिनतर और कष्टसाध्य होती जाती… और अन्त में एक दिन ऐसा आया, जब उसने देखा, वह कुछ भी नहीं लिख सकता – वे भद्दे कवित्वहीन ‘इडियोटिक’ गीत भी नहीं, जिन मात्र की उससे आशा की जाती है; जब उसने देखा, वह अपनी प्रतिभा का दुरुपयोग करके भी माता-पिता की सेवा नहीं कर सकता क्योंकि वह प्रतिभा वहाँ है ही नहीं-वह एक मिथ्या, एक प्रवंचना थी जो इस सूक्ष्मकाल में उसे छोड़कर चली गयी है; जब उसने देखा, वह अकेला यह नहीं सह सकता तब उसने माता-पिता की अनुमति ली और ससुराल जाकर अपनी पत्नी को लिवा लाया।
“रत्नावली ने घर आकर, उसकी जो अवस्था देखी, तो जो थोड़ा-बहुत आदर तुलसू के प्रति उसके हृदय में रह गया था, वह भी नष्ट हो गया। तुलसू यदि अपने आहत अभिमान को लिए बैठा रहता, उसके पास न जाता, तब शायद वह उससे प्रेम करती, उसके वियोग में पीड़ित भी होती, क्योंकि प्रत्येक स्त्री के लिए उपेक्षा एक आकर्षक चैलेंज है जिसे वह इनकार नहीं कर सकती, जिसके आह्वान को वह विवश होकर स्वीकार करती है। किन्तु तुलसू को इस प्रकार लौटा हुआ देखकर उसे क्रुद्ध भी न पाकर, उसे और भी अधिक ग्लानि हुई, यद्यपि वह उसके साथ चली आयी।
“पति के घर आकर उसने तुलसू से कहा, ‘तुम्हारे यहाँ जोरू के गुलाम बनकर बैठे रहने की कोई ज़रूरत नहीं है। जाओ, कुछ कमाकर लाओ, ताकि पेट-भर खाना तो मिले!’
“जो बात तुलसू की आत्मा ने कही थी, वही आज उसे अपनी स्त्री के मुख से सुननी पड़ी। और आत्मा की जिस आज्ञापना की वह उपेक्षा कर गया था, वही स्त्री से पाकर वह उपेक्षा नहीं कर सका – यद्यपि वह स्त्री से विरक्त हो चुका था। वह भी निकला, उसी पथ पर जिस पर तुलसीदास गये थे – उसी पथ पर, किन्तु उससे कितने विभिन्न पथ पर! तुलसू जहाँ जाता वहीं उसकी उपेक्षा होती, क्योंकि भारत में दरिद्रों की कब कमी हुई? और उसकी ईश्वरोपासना? लोग कहते, “घर में खाने को कुछ नहीं है, तो ईश्वर-भक्ति लिए फिरता है!’ और यौवन? लोगों ने कहा, ‘शर्म नहीं आती, ऐसा जवान होकर भी आलस के दिन काटने चला है, जाकर मेहनत-मज़दूरी करते नहीं बनता?’ और प्रतिभा? वह यदि उस दरिद्रता की चक्की में पिसकर बची भी होती तो भी क्या इस घातक उपेक्षा में दीख पाती…
“एक महीने बाद तुलसू लौट आया-भूखा, प्यासा, नंगा। छाती की एक-एक पसली दीख रही थी, मुँह खिंचा हुआ, सफेद, मानो हड्डी पर सूखा चाम तानकर लगा दिया गया हो, आँखें धँसी हुई, मानो अपनी ही लज्जा देखकर लज्जा से गड़ी जा रही हों-लौट आया, और झोपड़ी के आँगन में धूप में ही बैठ गया, अपने घर में भीतर जाकर स्त्री का सामना करने का साहस न पाकर…
“लौट आया, और आँगन में धूप में बैठकर रोने लगा… ऐसा रोना जो कि जीवन में एक बार रोया जाता है, ऐसा रोना जो कि और सब रोने से भयंकर और घातक होता है, बिना मुखाकृति बिगाड़े (यद्यपि और बिगड़कर मुखाकृति क्या होती!) रोना, बिना आँसू बहाये रोना, रोना कहीं प्राण के भीतर…
“तभी उसकी स्त्री बाहर आयी, और उसे ऐसे बैठे देखकर तीखे व्यंग्य के स्वर में बोली, ‘लौट आये! हाँ, बैठो, ज़रा सुस्ता लो, बहुत काम कर आये हो! एक वह है जिसका यश दुनिया गाती है, जिसने विरक्त होकर भी अपने साथ ही अपनी स्त्री का नाम भी अमर कर दिया है, और एक तुम! शर्म-हया कुछ होती तो डूब मरते उसी दिन जब…’ और फिर तुलसू के कमरबन्द में खोंसी हुई क़लम देखकर, पुनः धधककर ‘लिखते हैं, काव्य करते हैं! इससे तो मेरी यह भोंड़ी छुरी ही अच्छी है, साग-पात तो काट लेती है, कुछ काम तो आती है!’ कहकर उसने हाथ में ली हुई छुरी तुलसू के सामने पटक दी। और वापस भीतर चल दी। दो-एक कदम जाकर रुकी और अपने व्यक्तित्व का सारा ज़ोर, अपने पत्नी-हृदय की सारी ग्लानि, अपने स्त्रीत्व से संक्षिप्त सारा तिरस्कार एक शब्द में भरकर बोली, ‘लेखक!’ और फिर भीतर चली गयी…
तुलसू का प्याला भर आया। वह मुग्ध दृष्टि से उस छुरी की ओर देखने लगा, धीरे-धीरे गुनगुनाने लगा, यह भोंडी छुरी अच्छी है, साग-पात तो काट लेती है, कुछ काम तो आती है… कुछ काम तो आती है…
“उसने देखा, स्त्री ही संसार की सबसे बड़ी शक्ति है, स्त्री का प्रेम ही संसार की सबसे बड़ी प्रेरणा… जब वह स्त्री से विमुख होता है, तब भी उसकी शक्ति नष्ट नहीं होती, परिवर्तित हो जाती है, और कार्यों में लग सकती है… उसने देखा, उस एक दोहे के फलस्वरूप वह क्या कुछ नहीं हो सकता था… किन्तु नहीं हुआ, इसलिए कि जो शक्ति उसे बनाने में लगती वह सारी खर्च हो गयी उन छोटी-छोटी अत्यन्त क्षुद्र झंझटों में; वह लड़ता तो रहा, किन्तु उन्नति की ओर बढ़ता हुआ नहीं, अवनति से बचता हुआ मात्र…
“और अपनी हार मानकर भी, उसने जाना, वह एक बहुत बड़ा तथ्य पहचान गया है जो शायद तुलसीदास ने भी नहीं पहचाना कि स्त्री का प्रेम ही संसार की सबसे बड़ी और अचूक प्रेरणा है, चाहे वह कोई रूप धारण करके आविर्भूत हो। उसने जाना, वह रुद्ध होकर, नष्ट होकर भी जीवन पर अपना अधिकार बनाए रखता है। जैसे अब। वह स्त्री से कभी का विरक्त हो चुका है, किन्तु उसकी स्त्री जो प्रेरणा कर रही है, उसे क्या वह इस समय भी टाल सकता है? कभी भी टाल सकता है?
“उसका ध्यान फिर उस छुरी की ओर गया। वे शब्द फिर उसके कानों में गूँजे। ‘यह भोंड़ी छुरी ही अच्छी है।’ उसने छुरी उठायी। उँगली से देखने लगा कि क्या सचमुच भोंड़ी है। ‘साग-पात तो काट सकती है।’ उतनी अधिक भोंड़ी नहीं है। ‘कुछ काम तो आती है।’ कुछ काम…क्या काम? वह अचूक प्रेरणा…
‘तुलसू ने वह छुरी अपने हृदय में भोंक ली।”

4
“तुलसीदास और तुलसू फिर मिले। बनारस के एक घाट पर।
“हमने आरम्भ में कहा था कि तुलसीदास और तुलसू आख्योपन्यास की किसी रात के वातावरण से घिरे हुए किसी नगर में रहते थे और यहाँ हम उन्हें ले आये हैं बनारस में। पर यह इसलिए नहीं कि हमारी कहानी झूठी है, यह केवल इसलिए कि आख्योपन्यास के नगर भी उतने ही सच्चे हैं जितना बनारस, उतने ही स्थूल… संसार सारा बनारस-सा स्थूल भी नहीं है, आख्योपन्यास-सा काल्पनिक भी नहीं, उसमें दोनों ही तत्त्व हैं… संसार में एक-से एक बढ़कर असम्भाव्य घटनाएँ घटती हैं, और बिलकुल साधारण, सामान्य घटनाएँ भी। यदि हम केवल सामान्य घटनाएँ ही चुनें और लिखें, तब हमारी कृति ‘रिएलिस्टिक’ कहाती है, किन्तु होती है सच्चाई से उतनी ही परे जितनी ‘रोमांटिक’ कृति, जो केवल असम्भव घटनाओं का ही पुंज होती है… सच्चाई तो इन दोनों का सम्मिश्रण है, उसमें आरव्योपन्यास के नगरों का भी उतना ही अस्तित्व है जितना बनारस का।
“हाँ, तो तुलसू का शरीर उसके आँगन में से उठाकर तुलसीदासजी के आश्रम के पास ले जाया गया, क्योंकि तुलसू के घर में दाह-कर्म के पैसे भी नहीं थे। तुलसीदास जी को सूचना दी गयी कि एक मुर्दा है जिसके जलाने का प्रबन्घ नहीं है, तो उन्होंने तत्काल अपने एक शिष्य को भेज दिया कि वह प्रबन्ध करे। उसके चले जाने के बाद किसी ने कहा, ‘वही तुलसू था जो-’ और तुलसीदास ने, मानो बहुत दूर की कोई बात याद करने का प्रयत्न करते हुए दुहराया, ‘अच्छा, वही तुलसू था जो’ और फिर अपनी भक्ति की शान्ति में लीन हो गये। लोगों ने कहा, ‘धन्य हैं ये, जिन्हें’-”
स्वप्न!
पता नहीं क्यों, मैं चौंककर उठ बैठा, मैंने जाना, मैं वह सब पढ़ नहीं रहा था, वह स्वप्न में मेरी कल्पना दौड़ रही थी, वह मेरे जाग्रत विचारों का प्रक्षेपण (प्रोजेक्शन) मात्र था…
मुझे ध्यान हुआ, यह बनी-बनाई कहानी है। मैंने काग़ज़ लिये क़लम उठायी और लिखने को सन्नद्ध होकर बैठा।
हाँ, कहाँ से आरम्भ हुई थी? कैसे?
याद नहीं आयी… मैं झुँझला उठा। तब जो अंश याद थे, वे भूल गये… मुझे याद रही केवल एक बात कि मेरी गृह-लक्ष्मी रोटी पका रही थी, मैं उससे लड़कर यहाँ बैठा था, और सोच रहा था कि तुलसीदास-
तुलसीदास क्या?
तभी मैंने न जाने क्यों घूमकर देखा, पीछे मेरी पत्नी खड़ी है। और क्रुद्ध नहीं है। मुझे घूमकर देखकर उसने नीरस स्वर में कहा, “चलो, रोटी खाओ!”
मैंने देखा, उस स्वर में क्रोध नहीं है तो प्रेम भी नहीं, वह बिलकुल नीरस है। गृह-लक्ष्मी ने लड़ाई को भुला दिया है, किन्तु साथ ही सुलह करने का आनन्द भी खो चुकी है। और मैंने देखा, मेरी कहानी भी नष्ट हो गयी है।
मैंने एक छोटा-सा निःश्वास छोड़कर कहा, “चलो, मैं आया।”

(डलहौजी, मई 1934)

Ravi KUMAR

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