रघुवंशी राजा दिलीप
श्रीराम प्रभु के रघुवंश की यह प्रसिद्ध कथा है। श्रीराम से पहले रघुवंश में एक महान चक्रवर्ती सम्राट दिलीप हुए ! ये गोव्रत का आचरण करते थे। अपने कुलगुरु वशिष्ठ की पूज्य गाय नन्दिनी को कोमल घास खिलाते हैं; उसकी पीठ एवं गरदन को सहलाते थे; उसपर बैठे मच्छर-मक्खियों को उडाते थे; नन्दिनी के साथ हमेशा छाया की तरह रहते थे; उसके बैठनेपर बैठते हैें, और चलनेपर चलते हैं।
एक दिन उस जंगल में एक महाकाय, महाक्रूर सिंह सम्राट के सामने खडा हो गया। वह नंदिनी गाय को खाने की तयारी में था। यह देखकर राजा ने धनुष्यपर बाण चढाया। तब सिंह ने राजा से कहा, ‘राजन, यदि आप अपना शरीर मुझे खाने के लिए देंगे, तो ही मैं इस गाय को छोड दूंगा ! यह मेरा अटल वचन है।’ सम्राट दिलीप; युवा सम्राट, सुन्दर, शक्तिमान एवं कांतिमान थे। वे प्रजा के पालनकर्ता, रक्षणकर्ता और आधार थे। परंतु गोरक्षा हेतु अपनी देह को तृणसमान मानकर सिंह को देने के लिए तयार हो गए। उन्होने कहा, ‘गोरक्षा ही मेरे जीवन का कार्य है ! अतः, मैं गाय को नहीं छोड सकता। अपकीर्तियुक्तं देह के साथ राजधानी लौटने से अच्छा है, मैं मृत्यु काे अपना लूं। मैं क्षत्रिय हूं। क्षत्रिय का अर्थ है, ‘जो क्षतों की, अर्थात आहतों की रक्षा करे !’
सम्राट ने आगे कहा, ‘सिंहराज, मुझे आपपर दया आ रही है। ‘आप सोचते होंगे कि क्षुद्र गाय के बदले यह सम्राट अपना देह दे रहा है, कितना मूर्ख है !’ मेरे शरीर एवं जीवनपर आपको दया आती होगी। उसकी अपेक्षा आप मेरे नश्वर शरीर की अपेक्षा यशरूपी अक्षय शरीर की रक्षा क्यों नहीं करते ? इस दृश्य, अन्ननिर्मित, जड एवं अधम देहपर करुणा करने का कोई कारण नहीं है। मेरी आंखों के समक्ष नन्दिनी की हत्या हुई, तो मेरे रघुवंश की कीर्ति कलंकित होगी। मुझपर करुणा करना ही चाहते हैं, तो मेरे शरीर को खाकर नन्दिनी को मुक्त करें। इससे मेरी यशरूपी काया चिरंतन हो जाएगी।’’ रघुवंश के श्रेष्ठतम सम्राट दिलीप, गायकी रक्षा हेतु यौवन से भरे स्वशरीर की आहुति देने को तत्पर हो गए।
सागरतक फैली सम्पूर्ण भूमि के एकमात्र स्वामी, सार्वभौम, हाथों में लिए कार्य को पूरा करनेवाले, रथ से स्वर्गतक यात्रा करनेवाले, देवराज इन्द्र के सहयोगी, क्षत्रिय के लिए उचित अग्निहोत्र विधिवत करनेवाले, याचको की मनोकामना आदरपूर्वक पूर्ण करनेवाले, अपराधी को उचित दण्ड देनेवाले, दान के लिए ही धनसंग्रह करनेवाले, मुख से सदैव सत्य एवं अत्यल्प बोलनेवाले, नित्य विजय की कामना से युक्त, गृहस्थाश्रम का पालन भलीभांति करनेवाले, जीवन के उत्तरकाल में मुनिसमान वानप्रस्थी जीवन जीनेवाले भारत के सार्वभौम सम्राट दिलीप !’