सोन सुराही
बहुत दिन हुए स्पेन के उत्तरी भाग में घोड़ों का एक व्यापारी रहता था। परिवार में अपना कहने के लिए उसके केवल मां और बहन थी। वह वर्ष में कुछ दिन तो अपने घर में रहता था, किंतु ज्यादा दिन बाज़ार में घोड़े और खच्चर की खरीद-बेच में बिता दिया करता था।
एक दिन वह व्यापारी किसी दूर के नगर में घोड़े बेचने के लिए गया। वहां अच्छा-खासा मेला लगा हुआ था। वहीं उसने एक अत्यंत सुंदर लड़की देखी जो अपने हाथ की बुनी हुई कुछ ऊन मेले में बेचने के लिए लायी थी। वह लड़की इतनी सुंदर थी कि व्यापारी उस पर मोहित हो गया और उससे शादी कर अपने घर ले आया।
लेकिन उसकी मां और बहन, बहू को देखकर खुश नहीं हुई क्योंकि वह गरीब बाप की बेटी होने के कारण अपने साथ दहेज नहीं लायी थी।
शादी के लगभग साल-भर बाद व्यापारी की पत्नी ने एक सुंदर लड़की को जन्म दिया। लेकिन इसके थोड़े ही दिन बाद वह अपने पति और बच्ची को रोता छोड़कर चल बसी। कुछ वर्ष बाद व्यापारी की मां भी मर गई। व्यापारी की मां छोटी बच्ची को बहुत प्यार करती थी और उसकी बड़ी देखभाल करती थी लेकिन उसकी बहन जुआना उससे बड़ी घृणा करती थी।
जब लड़की बड़ी हुई तो उसकी बुआ ने उसे ऐसे काम करने को दिए जो घर में सबसे मुश्किल थे। उसका पिता घर पर रहता तो उसे कभी ऐसे काम न करने देता लेकिन वह प्रायः घर से बाहर ही रहता था इसलिए जुआना उसे बहुत तंग किया करती थी। वह बेचारी मार के डर से पिता के आने पर बुआ की शिकायत भी नहीं कर सकती थी।
उस छोटी लड़की का नाम कौनचिटा था। उसकी बुआ ने उसे जितने भी छोटे-बड़े काम सौंप रखे थे, उनमें सबसे मुश्किल काम झरने से पानी भरकर लाने का था। यह झरना घर से बहुत दूर था।
झरना एक पहाड़ी की चोटी के नीचे था। इस पहाड़ी के बारे में लोगों का विश्वास था कि वहां भूत-प्रेत रहते हैं। पहाड़ी की चोटी पर एक महल के खंडहर बने हुए थे। गांव के बुजुर्ग लोगों का कहना था कि रात के समय उस महल में मशालें जलती देखी गई हैं और तरह-तरह के गाने की आवाज़ें भी सुनी गई हैं। लेकिन कौनचिटा ने कभी ऐसी कोई बात न देखी थी बल्कि उसे तो वहां जाने में बड़ा आनन्द आता था क्योंकि वहां उसे बड़ी शांति मिलती थी।
इसी प्रकार दिन बीतते रहे। कौनचिटा की सत्तरहवीं सालगिरह आयी। अब वह फूल की तरह सुंदर और मोहक बन गई थी। पड़ोस में ही एक ईसाई युवक रहता था-कारलो। वह कौनचिटा से प्रेम करता था। कौनचिटा भी उससे प्रेम करती थी। वे दोनों इस प्रतीक्षा में थे कि कब कौनचिटा के पिता घर लौटें और वे दोनों उनका आशीर्वाद प्राप्त करें। कारलो स्वभाव का बड़ा नेक और दयालु था। सुंदर तो था ही। दोनों को विश्वास था कि कौनचिटा के पिता इस रिश्ते के लिए मना नहीं करेंगे। फिर कारलो के पिता और कौनचिटा के पिता में पुरानी गहरी दोस्ती भी थी।
संयोगवश कौनचिटा की सालगिरह सेंट जॉन त्योहार से पहले दिन पड़ती थी। यह ईसाइयों का बहुत बड़ा त्योहार है। ईसाइयों का विश्वास है कि इस दिन मुर्दे कब्रों से उठ खड़े होते हैं। उस दिन रात के समय शहर में एक बड़ा नाच होने वाला था और कौनचिटा ने कारलो को वचन दिया था कि वह नाच में अवश्य मिलेगी। वह नाच के लिए तैयार होने लगी। उसने अपनी सबसे सुंदर पोशाक पहनी, फूलोंवाला रेशमी शाल निकाला, फिर अपने लम्बे सुनहरी बालों में सुगंधित तेल डालकर और फूल लगाकर अपनी बुआ के पास पहुंची। उसे देखते ही उसकी बुआ नाराज़ होकर बोली-“घर में पानी की बूंद भी नहीं है और तुझे नाच में जाने की सूझ रही है। अभी तो नाच में एक घंटे की देर है। जा, झरने से थोड़ा पानी तो भर ला।”
कौनचिटा ने विनती करते हुए कहा-“बुआजी, इस समय झरने पर जाना क्या ज़रूरी है? रात को पानी का क्या होगा? मैं नाच के लिए पूरी तरह से तैयार हो चुकी हूं। मैं बिलकुल थक जाऊंगी और मेरे सब कपड़े ख़राब हो जाएंगे। कहो तो मैं पासवाले नल से पानी ले आऊं।”
“वह कोई पानी में पानी है!” उसकी बुआ बोली, “उसे तो कुत्ते भी नहीं पिएं! नालायक, कामचोट्टी !”
कौनचिटा की आंखों में आंसू आ गए। उसने मुंह से एक शब्द भी नहीं निकाला और घड़ा उठाकर झरने से पानी भरने चल दी। उसने सोचा कि यदि पैं जल्दी ही लौट आऊं तो अभी भी नाच में जा सकती हूं क्योकि समय अभी काफी था। लेकिन घंटों बीत गए। गाना-बजाना बहुत कुछ हो चुका था, कुछ हो रहा था, लेकिन कौनचिटा नहीं आयी। कारलो इधर-उधर कौनचिटा के बारे में लोगों से पूछता फिर रहा था लेकिन किसी से उसे उसका पता नहीं मालूम हुआ। उसे शक हुआ कि कहीं वह बीमार तो नहीं पड़ गई और वह फौरन ही उसके घर की ओर चल दिया। लेकिन जब वह वहां पहुंचा तो उसे जुआना की ही मनहूस सूरत दिखाई दी। कौनचिटा का कहीं पता न था। जुआना इस समय इतना डरी हुई थी कि उसने दरवाजा भी डरते-डरते खोला।
“क्या बात है, बुआ? कौनचिटा कहां है?” उसने जुआना से पूछा।
“मैंने उसे कई घंटे पहले झरने पर भेजा था।” जुआना ने उत्तर दिया, “उसके बाद से ही वह गायब है। जब बहुत देर हो गयी और दिन छिपने को आया और वह तब भी नहीं लौटी तो मैं झरने पर गई थी। उसके घड़े तो झरने के पास रखे हुए थे लेकिन वह खुद कहीं नहीं दिखाई दी। मैं बहुत देर तक खड़ी हुई ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ लगाती रही लेकिन कोई उत्तर नहीं मिला। फिर मैं कुछ देर खड़ी होकर आवाज़ें सुनती रही। मैंने घोड़ों की टापों की आवाज़ें सुनीं। ऐसा लग रहा था मानो बहुत-से घुड़सवार मेरी ओर आ रहे हों। मैं इतना डर गयी कि एक चट्टान के पीछे छिपकर बैठ गयी। थोड़ी देर बाद मेरे सामने से बहुत-से घुड़सवार गुजरे जिन्होंने अजीब तरह की पोशाकें पहनी हुई थीं। उनके सिर पर सफ़ेद कफन-सा बंधा हुआ था। उन सबके चेहरे सफ़ेद थे और वे बहुत दुबले-पतले थे। कोई भी पहचानने में नहीं आ रहा था। मैं इस कदर डर गयी कि वहीं बेहोश हो गयी। वे लोग वहां से धीरे-धीरे चल रहे थे और इधर-उधर बिलकुल नहीं देख रहे थे। जब मुझे होश आ गया तो मैं वहां से भागकर घर आयी और दरवाज़ा बंद करके बैठ गई! लेकिन कौनचिटा का क्या हुआ? वह मुझे कहीं नहीं दिखायी दी । कहीं वही लोग तो उसे नहीं ले गए?”
जब जुआना यह बता रही थी तो कारलो डर के मारे पीला पड़ता जा रहा था। उसे मालूम था कि उससे अगले दिन सेंट जॉन का त्योहार है। उस रात गड़े हुए मुर्दे भी उठ खड़े होते हैं। वह समझ गया कि जुआना ने जिन्हें देखा था वे स्पेन के मूर लोगों के भूत-प्रेत थे। मूर लोगों का राजा जिस जगह दफनाया गया था वे सब लोग वहीं जाया करते हैं।
“तुम्हारा भला हो!” उसने हाथ मलते हुए कहा, “तुम्हें मालूम है कि कल सेंट जॉन है और आज गड़े हुए मुर्दे कब्र में से उठे हैं। चारों तरफ भूत-प्रेत फैल रहे हैं और तुमने कौनचिटा को झरने पर पानी भरने भेज दिया। यदि उसे कुछ भी हो गया तो उसकी मौत की जिम्मेदार तुम होगी।”
और वह पागलों की तरह भागता हुआ झरने की ओर चल दिया। आकाश में पूरा चंद्रमा निकल रहा था और चारों ओर दिन की-सी रोशनी फैल रही थी। जब वह झरने के पास पहुंचा तो उसने देखा कि कौनचिटा के घड़े तो वहीं रखे हुए हैं लेकिन उसका कहीं पता नहीं है। बहुत देर तक वह पहाड़ की चोटी पर चिल्लाता फिरता रहा लेकिन उसे कौनचिटा नहीं मिली। उसने सोचा कि शायद कौनचिटा किसी और रास्ते से घर लौट गई हो इसलिए उसे घर जाकर देख लेना चाहिए। लेकिन घर जाकर उसे सिर्फ जुआना ही दिखाई दी जो भय से कांप रही थी। कारलो दरवाज़े से ही लौट पड़ा और भागता हुआ फिर झरने की ओर गया। उसने सोचा कि जब दिन निकल आएगा तो वह उसके पदचिन्हों के सहारे उसे तलाश करेगा।
उधर कौनचिटा के साथ कया बीती-अब ज़रा यह सुनो। कौनचिटा पानी भरकर घर लौटने की जल्दी में थी और उसने अपने घड़े भर लिए थे, लेकिन जैसे ही वह घड़े उठाकर चलने को हुई कि उसे भी कहीं दूर से बहुत-से घुड़सवारों की टापों की आवाज़ सुनाई दी। अपनी बुआ की तरह भागकर वह भी एक चट्टान के पीछे जा छिपी। उसने देखा कि वे सब घुड़सवार सफेद रंग के हैं और पुराने जमाने की पोशाक पहने हुए हैं और बिलकुल चुपचाप चल रहे हैं मानो किसी राजा की अरथी के साथ जा रहे हों। सभी सिपाही-से मालूम पड़ते थे लेकिन उनकी शकलें इतनी अजीब थीं कि कौनचिटा फौरन समझ गई कि ये भूत-प्रेत हैं और इस दुनिया के लोग नहीं हैं। डर के मारे वह थर-थर कांपने लगी।
जब सब घुड़सवार वहां से गुजर चुके तो कौनचिटा चट्टान के पीछे से निकली और जल्दी से अपने घड़े उठाकर भागने के लिए तैयार हो गयी। भूत-प्रेतों के इस स्थान पर अब वह ज़रा भी नहीं ठहरना चाहती थी। लेकिन जैसे ही वह अपने घड़े झरने के पास से उठा रही थी, झरने के दूसरी ओर एक स्त्री प्रकट हुई। उसके कपड़े सफेद रेशम के बने हुए थे और चांद की रोशनी में वे इस तरह चमक रहे थे मानो उन पर चांदी से किसी ने कढ़ाई-बुनाई कर रखी हो। उसके लम्बे-लम्बे काले बाल कंधों पर से लटककर घुटनों के नीचे तक जा रहे थे। वह सुंदर तो थी लेकिन पीली पड़ी हुई थी। वह चपुचाप खड़ी हुई कौनचिटा की ओर देख रही थी। कौनचिटा के डर के मारे प्राण निकले जा रहे थे। अंत में कौनचिटा ने साहस करके पूछा-“आप मुझसे कुछ कहना चाहती हैं क्या?”
“हां।” उस स्त्री ने धीमी और मीठी आवाज़ में उत्तर दिया, “अगर तुम चाहो तो मेरा एक बड़ा काम कर सकती हो, क्योंकि उस काम को करने के लिए तुम्हारी जैसी ही किसी निर्दोष और सुंदर लड़की की ज़रूरत है। मैं कई साल से तुम्हारी जैसी ही किसी लड़की की बाट में हर साल इसी दिन इस झरने के पास आया करती हूं, लेकिन तुम जैसी कोई लड़की मुझे आज तक नहीं मिली। तुम्हीं पहली लड़की हो जो आज मुझे मिली हो।”
कौनचिटा कारलो और उसके साथ नाचने की बात सोचने लगी। लेकिन उस स्त्री की आवाज़ में इतनी मिठास और करुणा थी कि कौनचिटा से उससे मना नहीं किया गया। उसने धीरे-से कहा, “मैं आपकी मदद करूंगी ।”
“अच्छा तो मेरे साथ आओ।” वह बोली।
और कौनचिटा अपने घड़े वहीं झरने के पास छोड़कर उस स्त्री के पीछे-पीछे चल दी। दोनों चुपचाप बहुत देर तक चलती रहीं। अंत में वे एक पहाड़ी गुफा के द्वार पर आयीं जिसका मुंह एक काले पत्थर से बंद था। स्त्री ने ज्योंही अपना हाथ उस गुफा के दरवाज़े पर रखा, वह पत्थर हट गया। इसके बाद वह गुफा कौनचिटा को साफ-साफ दिखाई देने लगी। !
वह स्त्री कौनचिटा से बोली-“अपनी आंखें बंद कर लो और मेरा हाथ पकड़ लो । मैं तुम्हें अपने पीछे-पीछे ले चलूंगी ।”
उस स्त्री का हाथ बर्फ़ की तरह ठंडा था। दोनों बहुत देर तक चलती रहीं। अंत में कौनचिटा को लगा कि वह पहाड़ के नीचे बिलकुल पाताल में आ गई है। यहां आकर वह स्त्री रुक गई और बोली-“अब तुम अपनी आंखें खोल लो।”
कौनचिटा ने अपनी आंखें खोल लीं। गुफा का दृश्य देखकर उसकी आंखें चौधियां गयीं। ऐसा प्रतीत होता था मानो गुफा में चारों ओर हीरे-ही-हीरे जड़े हुए हैं। हीरे-मोतियों की चट्टानें उसके सामने पड़ी हुई थीं और छत पर भी हीरे-ही-हीरे लगे हुए थे। उसके चारों ओर जो कुछ भी था, बड़ी तेजी से चमक रहा था। लेकिन यह सब चीज़ें किसी ऐसी रोशनी में चमक रही थीं जो न तो सूर्य की ही हो सकती थी और न ही चांद की। पता नहीं चल रहा था कि वह रोशनी कहां से आ रही है।
“मेरे पास आकर बैठो ।” वह स्त्री कौनचिटा से बोली, “फिर मैं तुम्हें अपनी कहानी सुनाऊंगी और बताऊंगी कि तुम किस प्रकार मेरी सहायता कर सकती हो।”
कौनचिटा उसके पास आकर बैठ गई।
उस स्त्री ने अपनी कहानी शुरू की-“आज से सदियों पहले मैं भी तुम्हारी तरह एक सुंदर-सी बच्ची थी। मेरा जन्म मूर परिवार में हुआ था। उन दिनों मूर और ईसाई लोगों में बड़ी लड़ाई चला करती थी। एक बार उन लोगों ने हमारे शहर को घेर लिया और मैं उनके घेरे में आ गयी। पहले तो मुझे अपने भाई-बहनों की चिंता होने लगी किंतु अंत में मैं उस ईसाई अफसर पर मोहित हो गई जिसने मुझे पकड़ रखा था। वह मुझे अपने देश ले गया और उसने मुझे ईसाई बना लिया। फिर हम दोनों की शादी हो गयी।
“जब मेरे पिताजी ने यह बात सुनी तो वह मृत्युशैया पर पड़े आखिरी सांस ले रहे थे। मरते-मरते भी उन्होंने मुझे श्राप दिया कि मैंने जो अपने देश और धर्म को छोड़ा है, उसकी सजा में मैं मरने के बाद तब तक भूत बनकर घूमती रहूंगी जब तक कोई सुंदर और बिलकुल निर्दोष लड़की मेरे साथ इस गुफा में आकर मेरी सहायता न करेगी। यह गुफा जादू की है और उस लड़की को मेरा हाथ कसकर पकड़े रखना होगा। इस बीच जो भी जादू मुझ पर हुए हैं वे सब धीरे-धीरे करके उतरेंगे। जब सब जादू उतर जाएं तो वह लड़की मुझे चूम ले। बस, इस तरह मेरी दुःखी आत्मा को शांति मिल सकती है। लेकिन क्या तुममें इतना साहस है कि तुम मेरा हाथ पकड़े बैठी रहो?”
“मैं कोशिश तो जरूर करूंगी,” कौनचिटा ने साहसपूर्ण शब्दों में उत्तर दिया। उस स्त्री ने कहा-“चाहे जो भी हो, लेकिन तुम मेरा हाथ मत छोड़ना। अपनी प्रार्थनाएं भी कभी मत बंद करना। जब तक तुम प्रार्थना करती रहोगी, तुम्हारा कोई बाल भी बांका नहीं कर सकेगा। तुम ज़रा भी न चिल्लाना और किसी का नाम लेकर भी मत पुकारना। यदि तुम कहीं भी चूक गयीं तो मेरे ऊपर जो शाप है, उसका प्रभाव दूना हो जाएगा। लेकिन अगर तुम सफल हो गयी तो मेरी आत्मा मुक्त हो जाएगी ।” और उसने कौनचिटा को कांसे का एक पुराना-सा घड़ा दिया जो वहीं पड़ा हुआ था।
कौनचिटा ने घड़ा हाथ में ले लिया और दूसरे हाथ में उस स्त्री का हाथ पकड़ लिया। इसके बाद वह ज़ोर-ज़ोर से अपनी प्रार्थना पढ़ने लगी। उसने भय से देखा कि उसकी साथिन औरत फौरन ही एक भयंकर काले रीछ में बदल गयी है। जो हाथ उसने पकड़ रखा था, वह अब एक रीछ का घने बालों वाला पंजा बन गया था। भय के मारे वह उसे छोड़ने वाली ही थी कि उसे उस स्त्री की बात याद आयी। उसने फौरन ही उसके हाथ को कसकर पकड़ लिया और ज़ोर-ज़ोर से प्रार्थना पढ़ने लगी। तुरंत ही सारी गुफा बड़े-बड़े भयावने रीछों से भर गयी और सब उसकी ओर देख-देखकर दांत निकालने लगे। लेकिन उसने भी अपनी साथिन का हाथ कसकर पकड़े रखा और बराबर प्रार्थना पढ़ती रही।
थोड़ी देर में ही गुफा में चारों ओर अंधेरा फैल गया और उसे समुद्र की लहरों जैसी आवाज़ सुनाई दी। इन लहरों की दहाड़ के साथ ही उसे कुछ घुड़सवारों की आवाज़ आयी जो गुफा के ऊपर से गुज़र रहे थे। फिर सब शांत हो गया। लेकिन थोड़े ही देर बाद अचानक उसके कानों में कारलो की आवाज़ आयी-“कौनचिटा! कौनचिटा! तुम कहां हो? प्यारी कौनचिटा, तुम कहां हो?”
उसने रीछ का हाथ पकड़े-ही-पकड़े कारलो की बात का जवाब देना चाहा, लेकिन तभी उसे ध्यान आया कि वह कहां है और उसे ऐसा नहीं करना चाहिए। कारलो की आवाज़ अब भी बराबर उसके कानों में आ रही थी, “कौनचिटा! कौनचिटा!” उसने उन आवाज़ों की परवाह न करके ज़ोर-ज़ोर से अपनी प्रार्थना पढ़नी शुरू कर दी। धीरे-धीरे वह आवाज़ भी आना बंद हो गई।
अंत में गुफा में फिर रोशनी आना शुरू हो गई और उसी प्रकार हीरे चमकने लगे। उसके हाथ में जो पंजा था वह धीरे-धीरे और भी ठंडा होने लगा और उसकी शक्ल भी बदलने लगी। उसने डर के मारे अपनी आंखें बंद कर लीं और सोचने लगी कि उसके हाथ में जो हाथ है उसका अब क्या हो रहा है। थोड़ी देर बाद उसे फुंकारने की-सी आवाज़ सुनाई दी और उसने डरते-डरते आंखें खोलकर देखा कि उसकी साथिन स्त्री अब एक बहुत लम्बे और मोटे सांप में बदल गयी थी। तुरंत ही उसके चारों ओर गुफा में सांप-ही-सांप दिखाई देने लगे जो उसको डसने की कोशिश करने लगे। लेकिन कौनचिटा ने भी अपने हाथ वाले सांप को पकड़े ही रखा और ज़ोर-ज़ोर से अपनी प्रार्थना पढ़ती रही।
थोड़ी देर में सब सांप गायब हो गए। जहां वह खड़ी थी वहां आग की ऊंची-ऊंची लपटें उठने लगीं और उसने अपने आपको लाल-लाल लपटों के बीच पाया। उसके हाथ का सांप अब एक जलती और दहकती हुई लाल सलाख में बदल गया। वह डरकर उसे छोड़ने ही वाली थी कि उसे फिर अपनी दुखिया साथिन का ध्यान आया। वह उसको पकड़े खड़ी रही और अपनी प्रार्थनाएं दु्राती रही।
अब उसने देखा कि वह स्त्री फिर से प्रकट हो रही है। उसने जो जलती हुई सलाख पकड़ रखी है वह फिर कोमल सफेद हाथ में बदल गयी और थोड़ी-थोड़ी आग उसके चारों ओर जल रही है।
“अच्छा, अब मुझे चूम लो।” उस स्त्री ने धीरे-से कहा।
कौनचिटा ने डरते-डरते आग की लपटों पर झुककर उसे चूम लिया। फौरन ही आग गायब हो गयी और चारों ओर ठंडक फैल गयी और सब शांत हो गया। कौनचिटा का जो हाथ उस स्त्री के हाथ को पकड़े हुए था, वह अब खाली था। लेकिन अंधेरे में भी कौनचिटा को किसी की लम्बी और संतोषपूर्ण सांस सुनाई दी और उसे बड़े ज़ोर की नींद आ गयी।
जब वह सोकर उठी तो उसने अपने को झरने के पास पाया। पास ही उसके घड़े भरे हुए रखे थे। पहले तो उसने सोचा कि यह सब सपना रहा होगा, लेकिन उसने देखा कि अब भी उसके हाथ में वह घड़ा है जो उस स्त्री ने उसे दिया था। उसे विश्वास हो गया कि रात वाली बात सपना नहीं, बल्कि सच थी। लेकिन वह घड़ा अब सोने का लग रहा था। पौ फटने लगी थी और चारों ओर चिड़ियां चहचहाने लगी थीं। कौनचिटा का मन प्रसन्न था। उसने घड़ा उठाया और घर की ओर चल दी। वह थोड़े ही दूर गई होगी कि उसने कारलो को अपनी ओर आते देखा। कारलो के चेहरे पर चिंता छायी हुई थी। वह बड़ा उतावला-सा हो रहा था। कारलो उसे देखकर खुशी से पागल हो गया और उससे बार-बार रात का हालचाल पूछने लगा।
कौनचिटा ने उसे रातवाली कहानी कह सुनायी और साथ में वह घड़ा भी उसे दिखा दिया जो उस स्त्री ने कौनचिटा को दिया था। कारलो ने उसे हाथ में ले लिया और उसमें से हाथ डालकर कुछ निकालना चाहा, लेकिन जो भी उसके हाथ में आता वह कंकड़-पत्थर बन जाता। कौनचिटा ने घड़ा उसके हाथ से ले लिया और अपना हाथ डालकर उसमें से कुछ निकाला। जो भी उसके हाथ में आता, वही सोने का बन जाता।
“अरे, वाह!” कारलो बोला, “मेरे हाथ इतने कमबख्त हैं!”
जब वे दोनों घर पहुंचे तो जुआना बैठी अपनी भतीजी के शोक में आंसू बहा रही थी। रात-भर वह सोचती रही थी कि उसे कौनचिटा के साथ इतनी सख्ती नहीं बरतनी चाहिए। वह निश्चय कर चुकी थी कि अब कभी भी उससे नाराज़ नहीं होगी। लेकिन आदतें इतनी जल्दी नहीं बदल जातीं। थोड़े दिनों में ही जुआना फिर उससे उसी तरह नाराज़ होने लगी और उस पर भारी-भारी काम डालने लगी। झरने पर तो उसे अगले दिन से ही भेजने लगी।
कौनचिटा के पिता जब व्यापार से लौट आए तो उन्होंने कौनचिटा की सगाई कारलो से कर दी। उस घड़े में जो रुपया था उससे उन्होंने अपने गांव के पास ही एक सुंदर-सा खेत ख़रीदा और वहीं घर बनाकर रहने लगे। कौनचिटा के पिता जब भी घर रहा करते तो उनके खेत पर ज़रूर जाते।
कौनचिटा और कारलो हर प्रकार से सुखी रहने लगे। उनकी गायों के नीचे सबसे ज्यादा दूध रहता था, उनकी मुर्गियां साल-भर में बारहों महीने अण्डे देती थीं और उनके खेत में पेड़ों पर खूब शहद उतरा करता था। इस प्रकार दोनों सुख से अपना जीवन-निर्वह करते रहे।