क्या हम आजाद हैं
बचपन मे पढ़ा था “गेंहू और गुलाब” समझ मे तब भी उतनी ही आयी थी जितनी आज समझ में आती है।कद बढ़ने के साथ अगर हम समझने लगते है कि हमारी अक्ल भी इसी रफ्तार से बढ़ रही है तो क्षमा करें मैं यह आत्मसात नहीं कर पाता।
देखता हूं उन बढ़े हुए लोगो को जिनके नस नस में चाल, फरेब और पता नहीं क्या क्या भरा होता है।घिन आने लगती है इस तरह के इंसानो को देखकर।इन्हें देखकर ही यकीन हो जाता है की हमारे देख का भविष्य क्या है।इतने सालों में हम इतनी ही उन्नति कर पाए इसका भी कारण नजर आ जाता है।
जो धूर्त ,घूसखोर, मौके के फायदा उठाने वाले हमारे सिरमौर हैं।गलत कही से नहीं लगते वो।हमारे प्रतिनिधि हमारे ही समाज में से चुने हुए लोग है जो हमारा ही प्रतिनिधित्व करते हैं।कोई हक नही हमें की हम किसी को भ्रष्ट कहे।किसी को घटालेबाज।जब समाज ही ऐसा है तो उनसे पैदा हुए कीड़े भी ऐसे ही होंगे।
कुछ जगहों पर आकर सुकून मिलता है उनमें से एक जगह ये प्रतिलिपी भी है।ऐसे जगह कौन कौन से है विस्तार से बताता हूं।
उन जगहों में शामिल है प्रतिलिपी ,शमसान, हॉस्पिटल और मुसीबत।क्या इंसान देखने को मिलता है इन जगहों पर यदि ऐसे ही इंसान हर जगह मील जाये तो ये दुनिया ही स्वर्ग बन जाये।स्वर्ग पाने के लिये मरने की जरूरत ही न पड़े।
मर कर भी स्वर्ग मिलेगा कह नहीं सकते।खैर मैं मरने जीने स्वर्ग नरक की ब्याख्यान करने नही बैठा हूँ।
जिंदगी क्या है? क़यू है बहुत पेचीदा सवाल है।कुछ लोगो पर निराशा का ईंतना बुरा आवरण चढ़ गया कि उन्हें लगता है। जिंदगी से मुक्ति और इस मुक्ति के बाद ही इन पचड़ों से पीछा छूट पायेगा।पर ऐसा नहीं होता।जिंदगी को ईमानदारी से जीना अपने सारे कर्तव्यों का निर्वाह करना ही आपकी जीत है।
रही बात अपनी आजादी की तो क्या हमसब आजाद हो गए हैं हाँ शायद 1947 में हमे बताया गया था कि हम आजाद हो गये है।फर्क क्या पड़ा ,सत्ताधारी बदल गए बाकी सब तो वही है।हाँ उन शहीदों के लहू से ,कुछ कर्मठ देशभक्तों की कोशिस से कुछ परिवर्तन तो जरूर आया है।
हमारी शिक्षा व्यवस्था इंसानो को बनाने की फैक्टरी बनके रह गयी है जहाँ बच्चे जाते है और बाहर किसी के नौकर निकलते हैं।कितनी भी पढ़ाई करलो बनके निकलना किसी का नौकर ही है।क्योंकि मालिक तो अंगूठाटेक ही बनता है।चपरासी बनने के लिए पढ़ा लिखा होना चाहिए।पर देश का सिरमौर अनपढ़ हो सकता है।सुप्रीम कोर्ट का जज पढ़ा लिखा होना चाहिए पर वो कानून का पालन करवाएगा।कानून बनाने वाले तो अनपढ़ हो सकते है।कितनी बड़ी बिडम्बना है इस देश की।गाय,राम मंदिर और पुश्तैनी परिवार वाद छाए हुए है ना कि विकास और सुरक्षा व्यवस्था।लोग भूखे ,बेरोजगार मर रहे हैं।लोगो की नौकरियां जा रहीं हैं।उद्योग धीरे धीरे बन्द हो रहे है।हम चार पाँच सालो में एक दिन वोट देकर या फिर वोटिंग का रिजल्ट देखकर अपने को आजाद मान कर संतुष्ट हो रहे है।
वो दिखाते हैं डर की कि छिन जाएगी नौकरियां तुम्हारी बन जावो बंधुआ मजदूर।मित्र कहते है डर नहीं लगता तुम्हे कैसे इतने कूल रहते हो।क्या बताऊँ उन्हें डर तो बहुत लगता है।दिल मे अपनी चिंता तो नहीं।खुद पे आश्रितो की चिंता होती है।कभी कभी तो ये चिंतन भी होता है उसे की उसकी जिंदगी से ज्यादा तो उसकी मौत उसके आश्रितों को संभाल सकती है।हमने गरीब जीने और अमीर मरने की पॉलिसी जो ले रखी है।दुनिया भी तो ऐसी ही है।जिंदो की फिक्र नहीं मुर्दो पे आँसू बहाये जाती है।
बहुत बोर कर दिया मैने आपलोगो को क्षमा करें।