गुरु गुड़ ही रहे, चेला चीनी हो गया!
संवत् १९०० वि० की एक सच्ची और विचित्र घटना सुनिये। उस घटना ने यह कहावत प्रमाणित कर दी कि ‘गुरु गुड़ ही रहे, चेला चीनी हो गया!”
दक्षिणके एक शहरमें भगवान् श्रीकृष्ण का मन्दिर है। महन्त थे उस समय बाबा धरमदासजी। एक दिन एक अहीरका लड़का उनके पास आया और उनका चेला हो गया। वह माता-पिताहीन एक बारह सालका लड़का था। वह अपने गाँवमें अपने काकाके पास रहता था। मगर उस कौए काका ने ऐसी ‘कैं-कैं’ लगायी कि लड़के को भागना पड़ा। लेकिन यदि काकाकी ‘कैं-कैं’ न होती तो न तो वह वहाँ से भागता और न विशाखापत्तनके मन्दिरका महन्त ही बन सकता ।
शहरके समस्त रईस, समस्त अहलकार और समस्त भक्त नर-नारी उस मन्दिरमें आया करते थे और मूर्तिके साथ ही महन्तको भी प्रणाम किया करते थे। इसीलिये यह सिद्धान्त माना गया है कि मालिक की अकृपा में भी कृपा छिपी रहती है। रोष के भीतर भी पोष रहता है। अस्तु, उस लड़के को नाम मिला गरीबदास। गरीबदास को दिनभर मन्दिर की पाँच गायें वनमें चरानी पड़ती थीं। दोपहर और शामको बनी-बनायी रोटी खायी और पड़कर सो रहे। यही गरीबदास की दिनचर्या थी। लिखना-पढ़ना कुछ नहीं। पूजा-बंदगी कुछ नहीं। दूध पीना और गायें चराना।
एक दिन एकादशी आयी । महन्तजी ने गरीबदास से कहा-‘आज दोपहरको यहाँ मत आना, मेरा व्रत है। इसलिये भोजन शाम को बनेगा । तुम आधा सेर आटा और बीस आलू लिये जाओ। दोपहरी को स्नान करना और वनकी कंडी बीनकर आग सुलगाना। पानी से उस जगहको पवित्र कर देना। समझे?
गरीबदास- जी हाँ! धरमदास- अपने अँगोछेपर आटा गूंदना। मैं तुमको एक लौकी का कमण्डल दूंगा, उससे पानी का काम करना । समझे ?
गरीबदास-समझे । धरमदास–आध-आध पावके चार टिक्कर बनाना। फिर आलू भूनना। आज नमक नहीं खाना चाहिये। इसलिये नमक नहीं दूंगा। समझे? गरीबदास–समझे। तो अपने आलू भी अपने पास रखिये। समझे ? बाबा धरमदास का तकिया-कलाम था—’समझे।’ चेला गरीबदास ने भी वही तकिया-कलाम स्वीकार कर लिया। इस हरकतपर बाबाजी नाराज नहीं हुए, किंतु प्रमुदित हुए कि चेलाने एक बात तो सीखी। धरमदास- पागल है क्या? नमकहीन आलू और भी अच्छे लगते हैं। सोंधापन मिलता है। समझे ? गरीबदास – समझे । धरमदास – जब भोजन बन जाय, तब अपने गलेका शालिग्राम उतारना । समझे ? गरीबदास – समझे । शालिग्राम कैसा। समझे ? धरमदास- जिस दिन तुझे चेला किया था, उस दिन तेरे गले में एक शालग्रामकी मूर्ति, ताबीज बनाकर बाँध दी थी, उसीको शालिग्राम कहते हैं और वह ताबीज है कहाँ? तेरा गला तो सूना है। समझे?
गरीबदास– समझे। उतारकर फेंक दिया। समझे ? धरमदास– बड़ा गधा है! कहाँ फेंक दिया? समझे ? गरीबदास– छप्परमें खुरस दिया है। समझे ? धरमदास– पूरा उल्लू मालूम पड़ता है। समझे ? अबे, उसे फेंक क्यों दिया? समझे? गरीबदास-गलेमें पत्थर बाँधनेसे क्या फायदा? समझे? सोते समय कभी-कभी वह गलेके नीचे आ जाता था तो मालूम पड़ता कि जान गयी। समझे? मैं उसे नहीं पहनूंगा। समझे?
धरमदास– अरे राम-राम, चेला है कि चैला ! समझे? ले आ उसे मेरे पास समझे ? गरीबदास घबरा गया। कहीं वृद्ध साधु उसे उस नाहक पत्थरके लिये पीटने न लगे यह सोचकर वह चटपट ताबीज खोज लाया और गुरुजीको दे दिया। धरमदास– देखो बच्चा ! तुम अभी नादान हो। समझे ? इस कपड़ेके भीतर शालग्रामजीकी मूर्ति है। समझे? मूर्तिके भीतर गुपालजी रहते हैं। समझे? गरीबदास—वही गुपालजी कि जिन्होंने ‘बिनदाबन’ में अवतार लिया था। समझे? मेरी ही जातिके थे- अहीर थे।
दिनभर गायें चराया करते थे और मुरली बजाया करते थे। समझे ? धरमदास–हाँ-हाँ वही। समझे? जब भोजन बना लो तब इस ताबीजको गलेसे उतारकर आगे रख देना और कहना कि ‘गुपालजी! भोग लगाओ !’ समझे? फिर तुम भोजन करना। समझे ? गरीबदास- समझे। धरमदास–अच्छा, तो आ हीरा बाँध दें। समझे?गरीब-अहँ। समझे? धरमदास-कोई हरज नहीं है, समझे? गरीबदास–उहुँ। समझे ? धरमदास-हठ नहीं करना चाहिये। समझे ?
गरीबदास–गलेमें नहीं बाँधूंगा। सोते समय कभी गुपालजीने मेरा गला टीप दिया तो! चोर आदमीको दूर ही रखना चाहिये। समझे? मेरी कमरमें बाँध दीजिये। समझे? धरमदास–हुश् ! कमर में नहीं, आओ बाजू में बाँध दें। समझे? हाथ जोड़कर आँखें बंद करके भोग लगाना। समझे? । गरीबदासने अपना दाहिना हाथ आगे बढ़ा दिया। बाबाजीने वह ताबीज बाजूबंदकी तरह बाँध दिया। इसके बाद आधा सेर आटा और बीस आलू दिये। आधा पाव गुड़ इसलिये दिया कि बाबाजी उसकी बातोंपर खुश हो गये थे। इसके अलावा उसने उनको तकिया-कलाम कण्ठ कर लिया था। फिर एक तूंबा देकर कहा- जाओ बच्चा ! हरेक एकादशीको ऐसा ही करना पड़ेगा। समझे?
गायें लेकर गरीबदासने नदीका रास्ता पकड़ा।जब दोपहरी हुई तब गुरुजीके बताये विधानके अनुसार गरीबदासने ‘चार टिक्कर बनाये। आलू भूनकर भुरता बनाया और चारों पर थोड़ा थोड़ा रख दिया। ढाकके पत्तोंसे एक पत्तल भी बना ली थी। उसीपर चारों टिक्कर रख दिये और मूर्ति भी रख दी। इसके बाद उसने अपने दोनों हाथ जोड़े और आँखें बंद कीं। फिर कहा-‘गुपालजी ! भोग लगाओ।’ आँखें खोलकर गरीबदासने देखा कि चारों रोटियाँ ज्यों-की– त्यों रखी हैं। एक भी कम नहीं हुई। यानी गुपालजीने भोग नहीं लगाया। वह सोच रहा था कि कम-से-कम एक रोटी तो गुपालजी खा ही लेंगे।उसने फिर नेत्र बंद किये। फिर वही प्रार्थना की। मगर टिक्करों में कमी न हुई । गरीबदासने प्रतिज्ञा की कि जबतक गुपालजी भोग न लगायेंगे तबतक वह भोजन न करेगा। गुरुजीकी आज्ञा भी ऐसी थीं। ऐसा मुमकिन नहीं कि भोग लग जाय और भोजनमें कोई कमी न आये।दोपहरके ग्यारह बजेसे गरीबदास की यह हरकत शामके चार बजेतक जारी रही।
गुपालजीने देखा कि गरीबदास वज्र मूर्ख है। गुपालजी प्रकट हो गये। वे या तो वज्र पण्डितके सामने प्रकट होते हैं या वज्र मूर्खके। बीचवाले यों ही मुंह उठाये बैठे रहते हैं।अबकी बार रीबदासने जो नेत्र खोले तो देखता क्या है कि एक बारह सालका लड़का बैठा हुआ एक टिक्कर खा रहा है।गरीबदास–गुपालजी! तुम बड़े सुघर हो। जी चाहता है कि चिपटके रह जाऊँ। मगर, हो कठोर भी बहुत । समझे? मार डाला मुझे भूखसे । तब प्रकट हुए। समझे? पहले ही बुलावे में आ जाते तो क्या जात घट जाती। समझे?
मुसकराकर गुपालजीने कहा-‘अब पहले ही बुलावेमें आ जाया करूंगा।’ चटपट एक टिक्कर ख़तम करके गुपालजी खड़े हो गये और बोले-तुम भूखे तो नहीं रह जाओगे ? गरीबदास–नहीं! एक टिक्कर ज्यादा था। समझे ? गुपालजी–लेकिन अबकी बार मेरे साथ राधाजी भी आयेंगी। तुम्हारे लिये दो ही टिक्कर बचेंगे। समझे ? गुपालजी अन्तर्धान हो गये। गरीबदासने भोजन किया और अपना काम करने लगा। उसकी खुराक आध सेरकी थी। आज वह कुछ भूखा रहा था।
फिर एकादशी आयी। बाबाजीने आटा दिया, तब गरीबदासने कहा- पहली एकादशीमें अकेले ठाकुरजी आये थे। अबकी बार ठकुरानी भी साथ आयेंगी, पाव भर आटा और दीजिये। समझे? बाबाजीने सोचा कि भूखा रह गया होगा, इसलिये बकवाद कर रहा है। बेपरवाहीके साथ तीन पाव आटा तौलकर दे दिया। आलू भी तौलकर दे दिये। बाबाजीने उसकी बात समझी नहीं, सुनी ही नहीं । सुनी तो दिल्लगी मानी।दोपहरको फिर वही लीला हुई ।
छ: टिक्कर थे, सबपर नमकहीन आलूका भुरता रखा था। ज्यों ही ठाकुरजी को बुलाया गया त्यों ही ठकुरानी सहित आप आ गये। दो टिक्कर भोगमें ही चले गये। गुपाल०-भूखे तो नहीं रहोगे गरीबदास! गरीबदास–उस दिन तो तीन ही टिक्कर बचे थे और आज चार बचे हैं। भूखा नहीं रहूँगा। समझे ? गुपाल०-परंतु अबकी एकादशीमें सेरभर आटा लाना। नहीं तो भूखे रह जाओगे। समझे? गुपालजी चले गये। गरीबदास भोजन करने लगा।
उसने गुपालजीकी बात नहीं याद रखी; क्योंकि वह इस बातको समझ नहीं सका था। दिल्लगीं समझी थी।फिर एकादशी आयी। गरीबदासने तीन पाव आटा लिया था, इसलिये छ: टिक्कर बने थे। भोग लगाया गया। ठाकुरजी और ठकुरानीजीके साथ दो मूर्तियाँ और भी पधारीं। सत्यभामा और रुक्मिणीजी सहित चारों ने चार टिक्कर उठा लिये। अपने लिये दो ही टिक्कर देख गरीबदास मसोसकर रह गया। उसने सोचा ठाकुरजीकी ठकुरानियों का अन्त नहीं है क्या?जब सब लोग खा-पी चुके तब हँसकर गुपालजीने कहा’कहो गरीबदास ! मैंने कहा नहीं था कि आटा सेर भर लाना। खैर अबकी एकादशीपर डेढ़ सेर आटा लाना।’ समझे?
गरीबदास–सो क्यों, समझे? गुपाल०–मेरे दो सखा भी आना चाहते हैं- मनसुखा और श्रीदामा। वे तो अभी आ रहे थे, कहते थे कि गरीबदास को देखेंगे कि कैसे भोग लगाता है। समझे? गरीबदास-उनको लानेकी जरूरत नहीं। मैं ठाकुरजीको भोग लगाता हूँ या ठाकुरजीके खानदान भरको समझे ? गुपाल०-समझो चाहे न समझो ! अबकी बार आटा ज्यादा लाना। समझे? इस लीला द्वारा भगवान् महन्त धरमदासकी आँख खोलना चाहते थे। इस मर्मको गरीबदास कैसे समझ सकता था। वह चुपचाप भोजन करने लगा।
ठाकुरजी अपनी पार्टी के सहित गोलोक चले गये।धरम- बेटा गरीब ! आज फिर एकादशी है। समझे? गरीबदास–रोज-रोज एकादशी खड़ी रहती है। समझे? धरमदास—तुम्हें क्या तकलीफ होती है। समझे? गरीबदास-जिसपर बीतती है वही जानता है। समझे? धरमदास-क्या तुम भूखे रहते हो? तीन पाव खा जाते हो? यहाँ तो तुम दोपहरी में आधा सेर ही खाते हो। वनमें तीन पाव में भी भूखे रहते हो! समझे? क्या आटा बेचने लगे हो समझे ? गरीबदास–मैं ही सब खा जाता हूँ क्या? ठाकुरजी के भोग में कुछ खर्च नहीं होता है। समझे? कभी दो जने आते हैं, कभी चार आ जाते हैं। अबकी बार छ: प्रानी आयेंगे। डेढ़ सेर आटा दीजिये, नहीं तो मैं गाय चराने नहीं जाऊँगा।
आपकी चे-चे से तो कक्का की ‘कैं-कैं’ ही भली थी। समझे? धरमदासने डेढ़ सेर आटा दे दिया और स्थिर किया कि आज खुद दोपहरीमें छिपकर देखेंगे कि वह आटे को फेंकता है या बेचता है या क्या माजरा है ? भनभनाता हुआ गरीबदास जंगलकी तरफ चला गया।दोपहरी हुई । महन्त धरमदास छिपकर वहाँ जा पहुँचे जहाँ गरीबदास टिक्कर बना रहा था। एक झाड़ी में पीछे की तरफ बैठ गये। गरीबदास ने बारह टिक्कर बनाये थे। आटा बचाया नहीं था। सब रोटियोंपर थोड़ा-थोड़ा आलूका भुरता रखा था। जरा-जरा-सी मिठाई भी सबके साथ रख दी गयी थी। दोनों हाथ जोड़कर ज्यों ही गरीबदासने भोग लगाया त्यों ही यह क्या धरमदासने देखा कि सोलह हजार रानियों सहित, आठ महारानियों सहित, तीन सखाओं सहित मुरलीधर प्रकट हुए। सबने सब रोटियाँ टुकड़े-टुकड़े कर खा डालीं। उस दिन गरीबदासको कुछ भी न बचा। सोलह आना एकादशीको सामने देख वह बेचारा अकबका गया।
धरमदास का शरीर पसीने-पसीने हो रहा था। भोग या सर्वस भोग लगाकर नटवर तो रासलीला करने लगे सब लोग नाचने और गाने लगे। गरीबदासने कहा-‘मैंने पहले ही कहा था कि चोर आदमीसे दूर ही रहना चाहिये।’ समझे ? थोड़ी देर बाद वह परस्तान गायब हो गया। कहीं कुछ नहीं। मनमारे बैठे हुए गरीबदास के पैर पकड़कर धरमदास रोने लगे। यह नयी आफत देख बेचारा गरीबदास और भी घबरा गया और उछलकर दूर जा खड़ा हुआ।धरमदास-धन्य हो महाराज ! जो तुमको साक्षात् दर्शन होते रहे। और साक्षात् भोग लगता रहा। हाय, मुझे तो जीवनभर पूजा करते हो गया। कभी सपने में भी अपने गुपालजीको न देखा।
आजसे मैं चेला और आप गुरु। समझे ? गरीबदास–आप कहते क्या हैं? समझे ? आप तो कहते थे कि मैं आटे को बेचता हूँ। समझे ?धरमदास-समझे ! मैं पापी हूँ। मैं अपने प्रभु द्वारा त्यागा गया हूँ। समझे ? मुझसे कहीं ज्यादा आपकी पहुँच है। अब मन्दिर पर चलो आज से आप महन्त हुए और कलसे मैं गायें चराया करूँगा। गरीबदास और गायोंको साथ लेकर धरमदास जी मन्दिरपर गये। गरीबदासके बहुत रोकनेपर भी उसे महन्ती दे दी गयी। दूसरे दिनसे धरमदासजी गायें चराने लगे। शहरवालों को जब यह घटना मालूम हुई तो उनके हृदयमें भगवान् श्रीकृष्णका विश्वास कहीं ज्यादा बढ़ गया। इस घटनापर लोगों ने कहा‘गुरु गुड़ ही रहे, चेला चीनी हो गया।’