अद्भुत मोक्ष भाग 2
पूर्व भाग में आपने पढ़ा किस तरह सुंदरी और राजन को प्यार हुआ और मन्त्रिवर के कहने पर सुंदरी राजन से मिलन को मना कर देती है अब आगे।
राजन वहाँ से चले तो गए लेकीन आशक्ति उनकी नहीं गई।उन्होंने अब फैसला कर लिया था की सुंदरी के लिए इस असम्भव कार्य को भी पूर्ण करके दिखाएंगे जिससे दुनियावाले और सुंदरी को उनके प्रेम पर रत्ती भर भी संदेह नहीं हो।सुंदरी के घर से करीब पाँच सौ मीटर की दूरी पर एक मंदिर था जिसमें सुंदरी प्रायः पूजा करने जाया करती थी।राजन ने भी उसी मन्दिर में राजपाट का मोह त्याग डेरा डाल दिया।सम्भवतः सुंदरी का सामीप्य भी उनको मिलता रहेगा ये सोचकर राजन ने वह जगह चुनी हो भगवत आराधना हेतु।
प्रेम से परिपूर्ण मन कितना भी ठोकर खाए परंतु अपने अहम को नष्ट कर प्रिय के सान्निध्य के लिए ही अपना सर्वस्व न्योछावर कर देता है। चाहे प्रेम किसी देव से हो या किसी भी तुच्छ वस्तु से।तभी हर धर्म ऊपरवाले को पाने का सुगम मार्ग प्रेम ही बताता है।ऐसे ही प्रेम में मगन कभी मीरा हुई तो कभी चैतन्य महाप्रभु।इसकी महिमा का बखान तो रामायण में भी मिलता है।जब भरत जी राम से मिलने वन में जाते हैं।लक्ष्मण जी राम प्रेम में भरत से लड़ने की कामना कर प्रभु से आज्ञा माँग रहें।
राम मन्द मन्द मुस्कुराते हुए पूछते हैं क्या भरत को जीत पाओगे?लक्ष्मण जी कहते है “एक भरत तो हजारों लक्ष्मण पर भारी पड़ता लेकिन अगर उसके मन में कोई खोट है तो आज एक लक्ष्मण उस भरत पे भारी पड़ेगा।आप बस आशीर्वाद दे प्रभु।”
राम जी ने किसी तरह लक्ष्मण को शांत किया और कहा ” क्या कोई परछाई अपने स्वरूप से कभी लड़ने आ सकती है? भरत के प्रेम पर संदेह बिल्कुल ही वैसे होगा जैसे तुम मुझपर सन्देह करो।”
ऐसा नहीं था कि लक्ष्मण को भरत पर भरोसा न हो बल्कि राम जी के प्रेम में डूबकर वो श्रीराम जी की चिंता करने लगें थें।जगत पालक की चिंता एक जगत भक्त द्वारा विरले ही मिलता है।किसी समझदार व्यक्ति के लिए यह एक हर्षप्रद विषय हो सकता है लेकिन प्रेममय व्यक्ति के लिए सामान्य बात।
इधर भरत जब आते है तो प्रभु निकट धरासायी हो जाते हैं।राम जी कहते है भरत ये क्या? न ही ये चरणों में शीश नवाना है न ही कोई अभिवादन मुद्रा,क्या कर रहे हो तुम?प्रेममय भरत कहते हैं “प्रभु मैं तो आपके त्याग दिए जाने की वजह से निष्प्राण हो गया हूँ वो तो आपके प्रेम की शक्ति थी जो मुझे यहाँ तक खींच लाई अब आपके दर्शन कर निष्प्राण शरीर धरासायी हो चुका है।बिना आपके सहारे के अब इसमें इतनी भी शक्ति नहीं की आपके चरणरज को अपने शीश पर भी धारण कर सकूँ।
ऐसी ही किसी भावना के वशीभूत होकर राजन उसी मन्दिर में अराधना में रत रहने लगें।सुंदरी हफ़्तों तक शोकाकुल रही न ही उसे अपना ख़याल था न ही पूजा अर्चना का वो तो बस राजन की यादों में खोई हुई थी।राजन के चिंतन में महीनों कैसे गुजर गए उसे भान ही न रहा।
एक दिन जब उसका मन मस्तिष्क कुछ हल्का महसूस कर रहे थे तब उसने भगवान के सान्निध्य में ध्यान लगाने की बात सोच कर मन्दिर पहुँच गई।वहाँ राजन को इस हाल में देख चकित रह गई।प्रिय दर्शन कर उसे आनन्द तो आया लेकिन उसका अंतर्मन उसे धिक्कारने लगा।राजन की उस स्तिथि की जिम्मेवार वह खुद को मान रही थी।उसे राजन की इस दयनीय हालत पर तरस भी आ रहा था और अपने ऊपर क्रोध भी।थोड़ी देर मन्दिर की द्वार पर खड़ी वो राजन को भक्ति में लीन निहारती रही।अचानक ध्यानमग्न राजन को किसी की उपस्थिति का भान हुआ और उन्होंने आँखे खोल दी।सुंदरी को सामने देख उनके चेहरे पर परम् सन्तोष झलकने लगा।
सहसा राजन को अपनी ओर इस तरह निहारते देख सुंदरी के मन मे अजीब सी निराशा उत्पन्न होने लगी और बिना पूजन वह मन्दिर के द्वार से लौट गई।मन्दिर की द्वार से लौट कर उसकी मनोदशा और भी विचलित हो गई।
इधर अब राजन का ध्यान भगवान में न लगता ,किसी भी खटके में वह ध्यान भंग कर सुंदरी आ गई क्या?सोच आँखे खोल देते।न चाहते हुए भी सुंदरी का मोह उनपर हावी हो जाता।सुंदरी ने राजन के खान पान और सहूलियत का ख़याल रखने को अपने छोटे नौकर को बोल रखा था।नौकर राजन की समय समय पर जरूरत के सामान और भोजन इत्यादि की व्यवस्था कर दिया करता था।
राजन के पास जब भी वो नौकर आता राजन उससे सुंदरी के बारे में ही पूछते।जब नौकर उनसे मिलकर सुंदरी के पास जाता सुंदरी भी राजन के बारे में उससे सवाल करती।नौकर दोनो को उत्तर दे दिया करता।दोनो ही एक दूसरे से दूर होकर भी अब नौकर के माध्यम से जुड़े हुए थे।
कुछ दिनों के बाद सुंदरी नियमतः मन्दिर जाने लगी वहाँ राजन को देख उसका मन द्रवित हो उठता था।राजन सुंदरी को देख प्रफुल्लित हो उठते।कुछ दिनों तक सबकुछ ऐसे ही चलता रहा।
एक दिन सुंदरी के मन मे ग्लानि की भावना जगी।”राजन को उनके राज पाट से तो हटा दिया क्या अब उनके मोक्ष मार्ग में भी बाधा ही बनोगी?न न ये तो मुझसे बहुत घोर अपराध हो रहा है।मुझे राजन से इस बारे में बात करनी चाहिए।”
सुंदरी अगले दिन मन्दिर पहुँची और राजन से कहा “प्रभु मैं अभागिन आपके कष्ट का कारण बनी ,और तो और आपको मुक्ति मार्ग से भी विचलित कर रही हूं।कृपा कर मुझ अभागन का मोह त्याग आप भक्ति मार्ग पर ही ध्यान दें।”
राजन ने कहा “कोशिश तो पूरी कर रहा हूँ परन्तु जब मन मे तुम्ही बसें हो किसी और को जगह कहाँ से दे पाऊँ।तुम्हारे चंचल मुख देख सर्व सुख और हर कामना का लोप हो जाता है।शायद मेरे मन पर मेरा बस नहीं रहा।”
सुंदरी ने पंचतत्व रचित देह की आस्था पर राजन को खूब खरी खोटी सुनाई।और वापस चली गई।राजन उससे इतने आहत हो गए कि उन्होंने अपनी दोनों आँखों पर प्रहार कर उनकी इहलीला समाप्त कर दी।न रहेंगी आँखे न ही रूप दर्शन की अभिलाषा।
उधर राजन को बुरा भला कहने से और अपनी देह की तुक्षता पर सुंदरी को बहुत दुःख हो रहा था।उसे सबसे ज्यादा दुःख इस बात का था कि उसके नश्वर रूप और रंग के कारण उनके प्रिय न उनके हो सकें और न ही अपने मोक्ष की मार्ग पर आगे बढ़ पा रहें हैं।उसने उस रात्रि बहुत ही भयानक निर्णय लिया और सुबह लोगो को उसके घर मे उसकी मृत देह मिली।
जिस सुंदरतम रूप के पीछे राजन व्याकुल थे अब वो देह बिल्कुल कुरूप हो चुकी थी।विधि का विधान भी अजीब है।अब राजन के पास उस कुरूपता को देख पाने के लिए आँखे ही न थी। राजन तो उसकी अंतिम विदाई में भी शामिल न हो पाए।किसी से बस खबर भर सुना कि सुंदरी अब नहीं रही।
राजन अब अपनी अंधेरी दुनिया मे मगन रहतें उनकी सुंदरी अब उनके अंधेरी दुनिया की अकेली सहयोगी बनकर रह गई थी।जाने अनजाने अपनी अंधेरी दुनिया में वो सुंदरी की उपस्थिति का भान करतें।उससे बाते करते अपना गम सुख सब बताते।लोगो को लगने लगा था कि राजन पागल हो चूकें है।कोई कुछ दयाकर दे जाता तो राजन उसे खाकर जैसे तैसे अपना जीवन काट रहें थे।महल से कई बार बुलावा आया लेकिन राजन ने जाने से मना कर दिया।उनका मानना था जिसके लिए यहाँ हूँ उसे पाए बगैर वापसी अनादर होगा उस प्रेम भाव का।
लोग उन्हें समझाते राजन अब सुंदरी भी नहीं रही तो यह योग किसलिए ?राजन बस मन्द मन्द मुस्कुराते परन्तु कोई जबाब नहीं देते।सुंदरी तो भौतिक जगत से बाहर जाकर उनके चेतन मन में वास कर रही थी ये रहस्य भला राजन किसीको कैसे समझा पातें।
एक रात बहुत बारिश हुई राजन मन्दिर के बाहर बारिश में आकर नृत्य करने लगें आज उनका हृदय बहुत पुलकित हो रहा था कोई अनजानी खुशी उन्हें महसूस हो रही थी।इतने में जोर की बिजली चमकी और राजन के ऊपर वज्रपात हो गया।राजन वहीं धरासायी हो गए परन्तु मानो उनके प्राण उनके देह को त्यागना ही नहीं चाहते थे।उस क्षत विक्षत देह में उनकी आत्मा छटपटा रही थी।देवलोक से खुद यमराज उन्हें ससम्मान अपने रथ में लेने आये थे लेकिंग उनके प्राण निकलने को तैयार ही नही हो रहें थें।
यमराज ने क्रोधित हो अपना मृत्युपाश भी छोड़ा लेकिन कोई भी वार काम नहीं कर रहा था।गुस्से की चरम सीमा पार कर यमराज वापस चलें गए।थोड़ी देर बाद राजन को एक बहुत खूबसूरत रथ पर आती सुंदरी दिखाई पड़ी।सुंदरी ने आकर उनके हाथों को थामा और अपने साथ रथ पर बिठाकर स्वर्गलोक की तरफ उड़ चली।
:~~~ इतिश्री