कात्यायनी

महागौरी दुर्गा

महागौरी दुर्गा

चन्‍न्द्रहासोज्वलकरा शार्दूलवरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्याहेवी दानवघातिनी॥

माँ दुर्गके छठवें स्वरूपका नाम कात्यायनी है। इनका
‘कात्यायनी नाम पड़नेकी कथा इस प्रकार है–कत नामक
एक प्रसिद्ध महर्षि थे। उनके पुत्र ऋषि कात्य हुए।
इन्हीं कात्यके गोत्रमें विश्वप्रसिद्ध महर्षि कात्यायन उत्पन्न हुए
थे। इन्होंने भगवती पराम्बाकी उपासना करते हुए बहुत
शा 33. वर्षोतक बड़ी कठिन तपस्या की थी। उनकी इच्छा थी कि
माँ भगवती उनके घर पुत्रीके रूपमें जन्म लें। माँ भगवतीने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार
कर ली थी।

कुछ काल पश्चात्‌ जब दानव महिषासुरका अत्याचार पृथ्वीपर बहुत बढ़ गया तब
भगवान्‌ ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनोंने अपने-अपने तेजका अंश देकर महिषासुरके
विनाशके लिये एक देवीको उत्पन्न किया। महर्षि कात्यायनने सर्वप्रथम इनकी पूजा
की। इसी – कारणसे यह कात्यायनी कहलायीं।

ऐसी भी कथा मिलती है कि ये महर्षि कात्यायनके वहाँ पुन्नीरूपसे उत्पन्न भी
हुई थीं। आश्विन कृष्ण चतुर्दशीको जन्म लेकर शुक्ल सप्तमी, अष्टमी तथा नवमी-
तक–तीन दिन–इन्होंने कात्यायन ऋषिकी पूजा ग्रहण कर दशमीको महिषासुरका
वध किया था।

ग्ाँ कात्यायनी अमोधघ फलदायिनी हैं। भगवान्‌ कृष्णको पतिरूपमें पानेके लिये तब्रजकी
गोपियोंने इन्हींकी पूजा कालिन्दी-यमुनाके तटपर की थी। ये व्रजमण्डलकी अधिष्ठात्री देवीके
रूपमें प्रतिष्ठित हैं। इनका स्वरूप अत्यन्त ही भव्य और दिव्य है। इनका वर्ण स्वर्णके
समान चमकीला और भास्वर है। इनकी चार भुजाएँ हैं। माताजीका दाहिनी तरफका
ऊपरवाला हाथ अभयमुद्रामें है तथा नीचेवाला बरमुद्रामें है। बायीं तरफके ऊपरवाले
हाथमें तलवार और नीचेवाले हाथमें कमल-पुष्प सुशोभित है। इनका वाहन सिंह है।

दुर्गापूजाके छठवें दिन इनके स्वरूपकी उपासना की जाती है। उस दिन साधकका
मन “आज्ञा’ चक्रमें स्थित होता है। योगसाधनामें इस आज्ञा चक्रका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण
स्थान है। इस चक्रमें स्थित मनवाला साधक माँ कात्यायनीके चरणोंमें अपना सर्वस्व
निवेदित कर देता है। परिपूर्ण आत्मदान करनेवाले ऐसे भक्तको सहज भावसे माँ
कात्यायनीके दर्शन प्राप्त हो जाते हैं। माँ कात्यायनीकी भक्ति और उपासनाद्वारा मनुष्यको
बड़ी सरलतासे अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारों फलोंकी प्राप्ति हो जाती है। वह इस लोकमें
स्थित रहकर भी अलौकिक तेज और प्रभावसे युक्त हो जाता है। उसके रोग, शोक,
संताप, भय आदि सर्वथा विनष्ट हो जाते हैं। जन्म-जन्मान्तरके पापोंको विनष्ठ करनेके
लिये माँकी उपासनासे अधिक सुगम और सरल मार्ग दूसरा नहीं है। इनका उपासक
निरन्तर इनके सान्निध्यमें रहकर परमपदका अधिकारी बन जाता है। अतः हमें सर्वतोभावेन
माँके शरणागत होकर उनकी पूजा-उपासनाके लिये तत्पर होना चाहिये।

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