तिलोत्तमा की रत्नमाला
यह कहानी उस समय की है जब धरती पर मानव की सृष्टि नहीं हुई थी । एक बार इन्द्र सभा में अप्सराओं की नृत्यप्रतियोगिता रखी गई थी । वहाँ लोक-लोकांतर के सभी चक्रवर्ती राजा भी उपस्थित थे । सभी अपसराओं में तिलोत्तमा को नृत्य की विजयेता घोषित किया गया । पुरस्कार में उसे विश्व का सर्वोत्तम रत्नमाला प्राप्त हुआ । साथ में ब्रह्माण्ड यात्रा के लिए अनुज्ञा पत्र भी मिला ।
गले में रत्नमाला डाल लोक – लोकांतर की सैर करते हुए वह पृथ्वीलोक पहुँची । पृथ्वीलोक की सुन्दरता उसे इतना आकर्षित किया कि तिलोत्तमा अपनी आँखें बन्द कर पृथ्वी की ओर बढ़ने लगी । आँखें खोलने पर उसे एक अद्भूत दृश्य देखने को मिला । वहाँ मानव के बदले एक विशाल और विकराल पशु दिखाई दिया जिसे आजकल हम डायनोसोर कहते हैं । वह पशु धरती पर, पानी में और आकाश में भी विचरण करता था । यदि उस समय मानव जन्म हुआ होता तो इन भीमकाय जीवों के बीच कुचल और मसल जाते ।
तिलोत्तमा इनसे बचने के लिए अपना शरीर बढ़ा कर अफ्रीका के पूर्वी तट पर पहुँची । उसके शरीर के भार से महाद्वीप का एक टुकड़ा जो उसके चप्पल में फंस गई थी, समुद्र में काफी दूर तक चला गया । आज वह टुकड़ा मडागास्कर के नाम से जाना जाता है । उसकी रत्नमाला टूट कर बिखर गई । निचले भाग का सबसे सुन्दर टुकड़ा मॉरीशस बन गया जो हिन्दमहासागर में अपने आलोक से तारे की तरह चमकता है । अपनी जीत की निशानी को खो कर तिलोत्तमा को बड़ा पछ्तावा हुआ । उसका विलाप हम क्षुद्र प्राणियों को बहुत महंगा पड़ता है । उसके क्रन्दन से सभी जीव-जन्तु, पेड़-पौधे सन्तप्त हो जाते हैं और उसका परिणाम दुखदायी होता है ।