भाग्य का खेल
देव-समाज के वृहद् महोत्सव का आयोजन हो रहा था। सभी देवता अपने-अपने वाहनों में आ रहे थे। महादेव शंकर सभा में प्रवेश कर रहे थे। उन्होंने सभा-भवन के बाहर स्थित एक वृक्ष की शाखा पर बैठे हुए एक शुक की ओर कुछ गम्भीर दृष्टि से देखा। शंकर तो सभा-भवन में चले गये, किंतु उस शुक के मन में चिंता उत्पन्न हो गयी। समीप बैठे गरुड़ से उसने अपनी आशंका का निवेदन किया। उसके बचने का उपाय सोचकर गरुड़ ने कहा, “शुकराज, मैं तुम्हें द्रुतगति से अनेक समुद्रों को पार करा कर किसी सुरक्षित स्थान पर छोड़ आता हूं। चिंता मत करो।”
गरुड़ ने पूरी शक्ति से उड़कर बहुत कम समय में अनेक समुद्र पार करके उसे दूर कहीं सुरक्षित स्थान पर बैठा दिया। शुक्र आश्वस्त हो गया कि वह प्रलयकर शंकर की कठोर दृष्टि से बच गया। गरुड़ लौटकर पुन: उसी वृक्ष पर जा बैठा और उत्सुकता से शंकर के सभा से बाहर आने की प्रतीक्षा करने लगा।
शंकर निकले। उन्होंने पुन: वृक्ष की उसी शाखा की ओर देखा। गरुड़ ने सहम कर उनकी गम्भीर दृष्टि का कारण पूछा।
शंकर बोले, “शुक्र कहां है ?”
गरुड़ ने कहा, “भगवान् ! शुक आपकी तीक्ष्ण दृष्टि से भयभीता हो गया था और मैंने उसे दूर एक सुक्षित स्थान पर बैठा दिया है।”
शंकर ने कहा, “यही तो मेरा आश्चर्य था कि कुछ ही क्षण के बाद वह शुक उसी स्थान पर एक महासर्प द्वारा कवलित हो जायगा। तुमने उस समस्या का उपाय कर दिया।”