मृग-कुण्ड
अपनी इच्छापूर्ति हेतु मनुष्यों में सदा यज्ञ करने की प्रथा रही है । परन्तु एक समय ऐसा भी आया था जब लोग अपने धर्म ज्ञान को भूल गये थे । वे यज्ञ में अन्न न डाल कर मांस डालते थे । इस अनर्थ का विरोध गौतम बुद्ध ने किया । उनके प्रचार से यज्ञ करना बंद हो गया । उनकी मृत्यु के पश्चात भारत में भयानक अकाल पड़ा । चारों तरफ हाहाकार मच गई किन्तु यज्ञ करने का विचार किसी को न आया । मनुष्यों की मूढ़ता के कारण निर्दोष और असहाय जीव-जन्तुओं की दशा दयनीय हो गई । तब देवताऒं ने यज्ञ करने का संकल्प किया ।
देवता एकान्त जगह की तलाश में निकले । तब उनकी नज़र मॉरीशस पर पड़ी । यहाँ उन्होंने मिट्टी का गड्ढा खोद कर यज्ञकुण्ड बनाया और यज्ञ किया । वेद मन्त्रों की गूंज और आग की ज्वाला से एक मनोरम दृश्य उत्पन्न हुआ । तब इस द्वीप का नाम ‘रुप्य द्वीप’ पड़ा । यज्ञ के प्रभाव से भारी वर्षा हुई । धीरे-धीरे जनसंख्या बढ़ने लगी । बाहर से लोग मॉरीशस में बसने हेतु आने लगे । उनमें कुछ समुद्री डाकू भी थे । देवताओं को यह कदापि पसन्द न था कि जहाँ पाप का धन गड़े हों वहाँ वे यज्ञ करें । वे इस देश को छोड़, सदा के लिए चले गये ।
उस कुण्ड के ईर्द-गिर्द घास, पेड़ -पौधे जम गये । वहाँ मृगों का बसेरा बन गया । धीरे -धीरे जंगल अदृश्य हो गया और मृग भी न रहे । केवल वह कुण्ड, एक घृत कूप और एक ऊँचा देवासन रह गया । एक समय में जो कुण्ड देवकुण्ड कहलाता था, आज मृगकुण्ड से विख्यात है, क्योंकि मनुष्यों ने शुरु में वहाँ मृगों का बसेरा पाया था । आज भी उस तपोभूमि में लोग रहना पसन्द करते हैं ।