सद्गति | प्रेमचंद की कहानी

सद्गति | प्रेमचंद की कहानी

कई साल पहलेकी बात है। मि० सप्रू इटावामें डिप्टी कलेक्टर बनकर आये। एक दिन एक विचित्र घटना घटी। सप्रूजी भोजन करके पलंगपर लेटे हुए थे। रातके दस बजेका समय था। मनोहर नाई चरणसेवा कर रहा था।
सपू- मनोहर! कोई कहानी सुनाओ।
मनोहर-आपको मैं क्या सुना सकता हूँ। आपने हजारों किताबें पढ़ी हैं और लाखों कहानियाँ सुनी हैं। आप रोज जो मुकदमे करते हैं, वे सब कहानियाँ ही तो हैं। आप कुछ कहें और मैं सुनूं।
स०– नहीं मनोहर! तुम्हीं कोई कहानी कहो।
म०–आप नहीं मानते तो सुनिये। बीच-बीचमें ‘हूँ’ जरूर कहते जायँ। नहीं तो आप सो जायँगे और मैं बकता रहूँगा।
स०–अच्छा।
म०–अरबमें एक बादशाह था। एक रात को दासी ने छतपर बादशाह का पलंग बिछा या। गरमी के दिन थे। छतपर केवड़े का छिड़काव किया गया था।
स०–हूँ।
म०–सोनेका पलंग था, रेशमकी निवारसे भरा गया था, कालीन बिछा था, उसपर गद्दा बिछा था; फिर एक कालीन बिछा था; उसपर सफेद चद्दर बिछी थी। आमने-सामने, अगल-बगल चार तकिये रखे थे और फूलोंसे सेज सजाकर दासी उस पलंगकी शोभा एकटक देख रही थी।
स०–हूँ।
म०–दासीके मनमें विचार आया कि पाँच मिनट इस पलंगपर लेट लेना चाहिये। मैं भी तो देखूँ कि कैसा लगता है। मन होता है शैतान ! दासी बादशाहके पलंगपर लेट गयी।
स०—अच्छा।फिर?
म०–दासी थी बेचारी दिनभरकी थकी-माँदी! ऊपरसे लगी ठंडी हवा, नीचेसे उठी फूलोंकी गमक! तीन मिनट भी नहीं बीते, दासी टपसे सो गयी।
स०-अरे ! फिर क्या हुआ, शामत आयी होगी?
म०–एक घंटेके बाद भोजन करके बादशाह सलामत आराम करने आये। पूरनमासीकी चाँदनी थी ही, बादशाहने तुरंत जान लिया कि पलंगपर दासी सो रही है।
स०-गजब हो गया !
म०-बादशाहने दासीको जगाया। जमीनपर खड़ी होकर मारे डरके दासी थर-थर काँपने लगी। हाथ जोड़कर चरण पकड़ लिये और फूट-फूटकर रोने लगी। बादशाहने कहा कि ‘इस कसूरकी बिलकुल माफी नहीं हो सकती। इसकी सजा दी जायगी।’
सo—अच्छा। फिर?
म०-बादशाहने बेगम साहेबाको बुलाया और सब माजरा कह सुनाया। इसके बाद बादशाहने बेगमसे कहा कि ‘आप ही इस दासीकी सजा तजबीज करें, क्योंकि इसने आपका ही विशेष अपराध किया है।’
स०-ठीक। फिर?
म०–बेगम साहेबाने कहा कि इसने साठ मिनट पलंगपर व्यतीत किये हैं इसलिये साठ बेंतकी सजा दी जाती है।
स०—बहुत सख्त सजा दे दी।
म०–रुतबा पा जानेपर आदमी कसाई हो जाता है।
स०–हाँ, हूँ, आगे चलो।
म०–सजा सुनकर बादशाहके भी होश उड़ गये। बादशाहने सोचा कि अगर किसी आदमीने बेंत लगाये तो यह साफ मर जायगी।
स०-हूँ।
म०—तबतक बेगम साहेबाने खुद ही कहा कि बेंत मैं ही लगाऊँगी। ख़ुटीपरसे चमड़ेका बेंत उठाकर बेगम साहेबाने चार-पाँच हाथ करारे जमा दिये। बेचारी दासी रोती हुई गिर पड़ी। उसके बाद बेगम साहेबा थक गयीं। औरतकी जात मुलायम होती ही है।
स०–हूँ।
म०-बादशाह एक-दो-तीन-चार-पाँच कहकर गिनती गिनने लगे। तीस बेंततक दासी जोर-जोरसे रोती रही, परंतु उसके बाद दासीकी मति पलट गयी। तीससे साठतक दासी खूब हँसती रही।
स०–सो क्यों?
म०-धीरज रखिये। सब बातें आप-ही-आप खुलती जायँगी।
स०–अच्छा , हाँ।
म०–सजा समाप्त होनेपर बादशाहने दासीसे पूछा कि ‘तू पहले रोयी क्यों और पीछे हँसी क्यों?’ दासीने कहा कि ‘चोटके कारण रोयी थी, परंतु जब यह समझमें आया कि मैंने एक घंटा पलंगपर बिताया तब तो साठ बेंत लगे और बादशाह सलामत रातभर सोते हैं सो इनकी न मालूम क्या दशा होगी। पलंगकी सजासे बेगम साहेबा भी न बचेंगी। आप दोनोंपर अनगिनती बेंत पड़ेंगे। अत: यह सोचकर मैं हँसी कि सजा देनेवालोंको अपनी सजाकी खबर ही नहीं है। जिस तरहसे पलंगपर मुझे सोती देख आप क्रोधित हुए उसी तरह आपको पलंगपर सोता देख खुदा गुस्सा होता है। मेरे हँसनेका यही कारण है।’ इतना सुनते ही बादशाहकी बुद्धि बदल गयी। बादशाहने ताज फेंक दिया, इनाम फेंक दिया, जामा फेंक दिया और जूते फेंककर फकीरी कफनी पहन ली। रामचन्द्रजी दिनको वनकी ओर चले थे, बादशाह ठीक आधी रातको वनगामी हो गया।
स०-वाह वाह ! The duty is the beauty.
म०–अँग्रेजीमें क्या मुझे गाली देने लगे?
स०—नहीं मनोहर ! तुमने बहुत अच्छा किस्सा कहा, किन्तु अब हमको भी इस पलंगसे उतरना चाहिये।
‘Duty is beauty’ इतना कहकर वे पलंगसे उतर पड़े और पृथ्वीपर कम्बल बिछाकर लेट गये।

शहरभरमें खबर फैल गयी कि फर्स्ट क्लास मजिस्ट्रेट मिस्टर सप्रू ५५० रुपये मासिकपर लात मारकर फकीर हो गये। बँगलेके द्वारपर एक इमलीके वृक्षके नीचे, एक कम्बलपर डिप्टी कलक्टर फकीरी-वेषमें बैठे हैं।
बात-की-बातमें अँग्रेज कलक्टर साहब, सुपरिंटेंडेंट पुलिस, जिलेके शेष तीन डिप्टी कलक्टर और कोतवाल साहब घटनास्थलपर जा पहुंचे।
कलक्टर-वेल मिस्टर सप्रू ! टुमको क्या हो गया? टुम कलेक्टरीके वास्ते नामजद हो गया है। टुमने यह इसटीपा क्यों भेजा ? अम टुमारा इसटीपा मंजूर करना नहीं माँगटा !
स०–अभीतक सरकारी नौकरी की, अब मालिककी नौकरी करूंगा।
कलक्टर-पिकीरी करेगा पिकीरी? चौबीस घंटेमें पाँच घंटा सरकारी काम करो और बाकी वक्त में पिकीरी करो। टुम बी राम राम करना, अम बी राम राम करेगा।
स०–सजा देनेवाले नहीं जानते हैं कि उनके लिये किस सजाकी तजबीज हो रही है। इस बातने मेरा कलेजा काट दिया।
तहसील भरथनाके डिप्टी कलक्टरने कलक्टरसे कहा-‘हुजूर! “ज्ञानकी बात कृपानकी धारा”-यानी तलवारकी तरह बात भी काट करती है। मेरा मँझला भाई जिला बाँदामें तहसीलदार था। एक रोज उसने देखा कि एक काले साँपने एक मेढक पकड़ा और निगल गया। भाईने सोचा कि इसी तरह एक दिन मौतका साँप, मुझ मेढकको गटक जायगा। उसी वक्त वह साधू हो गया। आजतक पता नहीं कि कहाँ है।’
कलक्टर–मिस्टर सपू! अगर मेरी बातपर टुम नजर नहीं डालता तो न सही। वह देखो टुमारी खूबसूरत और तालीमयाफ्ता बीबी फाटकपर हाथ रखे रो रही है। टुमारा छोटा-सा बच्चा भी रो रहा है। टुमारे बिना टुमारे मेमसाहबका क्या हाल होगा? टुमारा बच्चा कैसे तालीम पायेगा। बच्चेको पढ़ा-लिखा दो, तब पिकीर होना, तब हम बी पिकीर होगा।
स०–नहीं हुजूर! भूखी-प्यासी, थकी-माँदी पब्लिकका पैसा वेतनके रूपमें लेकर मैंने जो पलंगबाजी की है, उसकी सजा मुझे जरूर मिलेगी। अब मैं किसी दूसरेका इन्साफ नहीं करूंगा–खुद अपना इन्साफ करूंगा। जो अपना इन्साफ नहीं करता, वह दूसरोंका क्या इन्साफ करेगा?
सबने समझाया, पर सब व्यर्थ! लाचार होकर कलक्टर साहबने इस्तीफा ले लिया। मनोहर नाई छाती पीट-पीटकर श्रीमती सप्रूके चरणोंमें लोट रहा था और कह रहा था कि ‘मैंने नहीं जाना था कि कहानीमें भी असर होता है, नहीं तो यह कहानी नहीं कहता।’

शहर इटावासे एक मील दक्षिणमें यमुनाजी हैं। एक पक्के घाटपर भूतपूर्व डिप्टी कलक्टर श्रीयुत् सपूजी बैठे हैं। फटी कमली है और एक मोटा सोटा है। यमुनामें खड़े होकर आप घाटपर सोटा खटखटाया करते थे और कभी-कभी कहते थे
‘लगा रहा खटका!’ ‘खटकेका खटका-खटपट करता रह!!’
‘मत मिटना-खटखटा !!!’ दस बजेके करीब झोली लेकर आप भिक्षा लेने शहरमें जाते थे। पब्लिक उनको पहचानती तो थी ही। सभी चाहते थे कि आज हमारे द्वारपर आयें। रोटी लेते थे—रोटियोंको लेकर उस झोलीको यमुनाजीमें डुबाते थे। तदनन्तर उस झोलीको एक इमलीकी डालीमें लटका देते थे। चार बजेतक झोली लटकती रहती थी फिर कुछ आप खाते और बाकी बंदरों में खिला देते थे। फटी कमलीके सिवा कोई वस्त्र पास नहीं रखते थे। इस प्रकार इटावाके एक डिप्टी कलक्टरने इटावामें ही बारह साल घोर तपस्या की।

‘खट-खट’ करते रहनेसे पब्लिक उनको ‘खटखटा बाबा’ कहने लगी। एक बार खटखटा बाबाने भण्डारा किया। घीकी कमी पड़ गयी। कड़ाही चढ़ी हुई थी, शहर दूर था। आपने एक चेलासे कहा कि दो कलसा यमुना-जल लाकर कड़ाहीमें छोड़ दो। वैसा ही किया गया। यमुना का जल घी बन गया। पूड़ी सेंकी गयी। एक बार कोई सिद्ध यमुनाजीकी बीच धारामें पद्मासन लगाये बैठा हुआ चला जा रहा था। खटखटा बाबाको देखकर कहा कि ‘पानी पिला जाओ।’ बाबाजी भी लोटामें जल लेकर यमुनामें स्थलकी भाँति चलने लगे। पानी पीकर महात्माने कहा–’तुम भी सिद्ध हो गये।’

खटखटा बाबाके समाधि-स्थानपर अब अनेक इमारतें बन गयी हैं। समाधिका मन्दिर और विद्यापीठकी इमारत दर्शनीय है। सहस्रों प्राचीन पुस्तकोंका अपूर्व संग्रह किया गया है। सालमें एक बार मेला लगता है। भारतके विद्वानों, योगियों और पण्डितोंको निमन्त्रण देकर बुलाया जाता है। खूब व्याख्यान होते हैं। खटखटा बाबाकी समाधि इटावा का तीर्थस्थान है। इटावा जिले का बच्चा-बच्चा खटखटा बाबा के नामसे परिचित है।

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