एकला चलो रे
बहुत ही बड़े लेखक की रचना का शीर्षक लेकर कुछ लिखने की जुर्रत की है।कोई त्रुटि हुई तो क्षमापार्थी हुँ।
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चल मुसाफिर बढ़ अकेला ही मंजिल की ओर
यहाँ न कोई तेरा ठिकाना न ही कोई ठौर।
दूर क्षितिज में डूबता सूरज बुलाये अपनी ओर।
खुले आसमान के नीचे तारे गाकर लोरी सुलायें।
क़यू खिंचा जाये तुं इन घुंघरू की झंकारों से
जब अंत होना है तेरा अकेले ही अंगारों से।
न फ़स इन रंगीन गलियारों में,लगा थोड़ा जोर।
चल मुसाफिर बढ़ अकेला ही मंजिल की ओर।।
गम क्षणिक पायेगा उनके खोने का
हो सकता है दिल भी करे तेरा रोने का।
खो जाएगा खुदको जो पड़ा इस झमेले में।
कर खुदको मजबूत निकल पड़ अकेले में।।
बहुत देर हुई चल बढ़ मोह के बंधन तोड़।
चल मुसाफिर बढ़ अकेला ही मंजिल की ओर।।
मंजिल किसको समझ रहा तू जाने कहां भटक रहा
नादान था जो यू उनकी जुल्फों में अबतक लटक रहा।
था अहमक जो जोड़ लिया किसी से भी प्रेम की डोर।
छोड़ नादानी , ले करने लगी अब तो खामोशी भी शोर।
चल मुसाफिर बढ़ अकेला ही मंजिल की ओर।
जब तू न था तब भी उनकी ये शामे थी हंसी।
जब वो नहीं तो भी कटती थी तेरी जिंदगी रंगी।
क्यों लगा बैठा जानबूझ कर ये उनका रोग
इससे तो भला उठा पोटली, निकल ,देख हुई भोर।
चल मुसाफिर बढ़ अकेला ही मंजिल की ओर।।