समझ कर भी नासमझी का फ़साना क्यूँ।
अपने सी लगती फिर भी बेगाना क्यूँ।
नासमझी का यूँ हर रोज नया बहाना क्यूँ।
हर रोज याद करना फिर से भूल जाना क्यूँ।

मिलती हो जैसे अजनबी हो कोई।
महजबीन होके गुम हो जाना क्यूँ।
पूछतें है नफ़ासत से नाराजगी का सबब।
फिर बेपरवाह होकर ये दर्द  सीने में जगाना क्यूँ।

टूट जाता है कोई इस भूल भुलैये मे खोके।
हर रोज अपनो को भी इतना सताना क्यूँ।
जिसने बनाई ये दुनिया, तुम्हें और मुझे।
उसकी रचनाओ से इतना घबराना क्यूँ।

Ravi KUMAR

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Ravi KUMAR

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