एकाकी तारा

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ऐसा भी सूर्यास्त कहाँ हुआ होगा… उस पहाड़ की आड़ में से सूर्य का थोड़ा-सा अंश दीख पड़ रहा है, और उसके ऊपर आकाश में, बहुत दूर तक फैली हुई एक लम्बी वारिदमाला लाल-लाल दीख रही है, मानो प्रकृति के बालों की लाल-लाल लटें… या, जैसे सूर्य को फाँसी लटका दिया हो, और किसी अज्ञात कारण से फाँसी की रस्सी खून से रंगी गयी हो… प्रतीची की विशाल कोख भी तो मानो सूर्य को लील लिये जा रही हो…
सूर्यास्त हो गया है। पर वह स्त्री-या युवती-उस प्रकार निश्चल खड़ी, स्थिर दृष्टि से पश्चिमी आकाश को देख रही है… आसपास के सुरम्य दृश्यों की ओर सामने बहती हुई छोटी-सी पहाड़ी नदी के स्वच्छ अन्तर की ओर, सामनेवाले पहाड़ की तलहटी से आती हुई बीन की अत्यन्त कम्पित, क्षीण ध्वनि की ओर, उसका ध्यान नहीं जाता… वह अत्यन्त एकाग्र हो, सामधिस्थ हो, पश्चिमी आकाश को देख रही है… मानो इसी पर उसका जीवन निर्भर करता है, मानो वह आकाश में बिखरे हुए रक्त को पीकर शक्ति प्राप्त करना चाहती है; किन्तु जीवन न पाकर विष ही पाती है, फिर भी छोड़ नहीं सकती, मूर्च्छित भी नहीं होती…
सान्ध्य आकाश में थोथे सौन्दर्य के अतिरिक्त कुछ नहीं होता… किन्तु जो अपने हृदयों में ही एक काल्पनिक संसार बसाये हुए उसे देखने आते हैं, जिनके अन्दर एक थिरकती हुई किन्तु अस्फुट प्रसन्नता होती है, या जो भीतर-ही-भीतर किसी गहरी वेदना से झुलस रहे होते हैं, उनकी तीखी अनुभूतियाँ उस आकाश में अपने ऐसे अरमानों का प्रतिबिम्ब पा लेती हैं, उनके लिए संसार की सम्पूर्ण विभूतियाँ, कोमलतम भावनाएँ, उसमें केन्द्रित हो जाती हैं – उस प्रदोषा के आकाश में…
वह देख रही है, और देखती जाती है… इस दृश्य को उसने सैकड़ों बार देखा है, उन दिनों भी जब उसमें थोथे सौन्दर्य के अतिरिक्त कुछ नहीं था, (उसके जीवन में भी ऐसे क्षण थे – वह जो आज समझती है कि उस पर काल का बोझ अनगिनत वर्षों से पड़ा हुआ है!) और उन दिनों भी, जब वह उसमें संसार की समग्र व्यथा और वेदना का प्रतिबिम्ब देख पायी है… पर वेदना का चिन्तन भी मदिरा की तरह होता है, ज्यों-ज्यों उन्माद बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों उसकी लालसा तीखी होती जाती है…
वह उस उन्माद के पथ पर बहुत दूर अग्रसर हो गयी है। एक परदा उसकी आँखों के आगे छा गया है, और एक सूर्यास्त के छायापट के आगे। पर इन तीनों पटों की आड़ से भी उसकी तीव्र दृष्टि आकारों को भेदती हुई चली जा रही है, देख रही है, पढ़ रही है, जीवन के नग्न सत्यों को…
इस भीषण शिक्षा से चौंककर, कभी-कभी उसकी दृष्टि एक दूसरी ओर फिरती है – उसके हाथ की ओर, जिसमें वह एक छोटा-सा पुरजा थामे हुए है। वह पढ़ना नहीं जानती, पर आह! कितनी तीव्र वेदना से, कितनी मर्मभेदी उत्कंठा से, वह उस पुरजे पर लिखी हुई दो-चार सतरों को देखती है; मानो उसके नेत्रों की ज्वाला से ही पत्र का आशय जगमगा कर हृदय में समा जाएगा…
वह पढ़ना नहीं जानती, पर पत्र में क्या लिखा है, वह पढ़वा कर सुन आयी हैं… ‘भाई की तारीख परसों की लगी है-रात के नौ बजे…’ बस, इतना ही तो लिखा है।
आज ही तो वह परसों है – आज ही तो रात को वह नौ बजेंगे…
और फिर वह पहले की भाँति, सूर्यास्त से वही शिक्षा ग्रहण करने लग जाती है…
वह है कौन?
अपना नाम वह स्वयं नहीं जानती। जब वह बहुत छोटी थी, तब शायद उसके माता-पिता ने उसका कोई नाम रखा था। पर जबसे वह अनाथिनी हुई, तबसे वह अपने भाई के साथ घर से निकल कर भीख माँगने लगी, जब एक दिन उसके भाई ने उसे शक्कर के नाम से नमक की एक फाँकी खिला दी, और उसकी मुखाकृति देख हँस-हँस कर उसे चिढ़ाने लगा, “लूनी! लूनी!” तब से वह अपना नाम लूनी ही जानती है…
न-जाने कैसे वे भीख माँगते-माँगते शहरों में पहुँच गये थे; पर पहाड़ों और जंगलों में रहने वाले वे उन्मुक्त प्राणी वहाँ के वातावरण को नहीं सह सके, कुछ ही दिनों बाद भाई-बहन दोनों फिर पहाड़ों में लौट आये और गूजरों के यहाँ चरवाहे बनकर रोटी का गुजारा करने लगे… लूनी दिन-भर ढोर चराया करती, और उसका भाई एक चट्टान पर बैठ कर गाया करता-या कभी-कभी कुछ पढ़ा करता… लूनी नहीं जानती कि वह पढ़ना कब और कहाँ सीख गया, कैसे सीख गया।
कभी-कभी वह सुबह नींद खुलने पर देखती, उसके भाई का पता नहीं है – वह दो-तीन दिन तक गायब रहता, फिर कुछ नयी किताबें लेकर लौट आता। पहली बार जब वह लापता हुआ तब लूनी कितनी घबरा गयी थी-पागल हो गयी थी… इतनी कि जब वह लौट कर आया, तब उसे उलाहना भी न दे पायी, उसे लज्जित-सा देख कर उससे चिपट गयी थी और खूब रोयी थी…
अब वह भाई लौट कर नहीं आएगा – अब उससे चिपट कर रोने का भी सौभाग्य लूनी को नहीं प्राप्त होगा…
उसके बाद, कितने दिन बीत गये थे! लूनी का भाई उसे अधिकाधिक प्रेम करता जाता था… पर साथ-ही-साथ दूर भी हटता जा रहा था। क्योंकि उसमें वह स्वयंभूति का भाव कम होता जा रहा था और उसमें गम्भीर, विचारवान्, सचेष्ट स्निग्धता आती जा रही थी। लूनी उसे समझती थी और नहीं समझती थी, उसका स्वागत करती थी और उससे खीझती थी…
दूर हटते-हटते एक दिन वह भाई उसके पास से बिलकुल ही चला गया – दिनों के लिए नहीं, बरसों के लिए…
जब वह लौट कर आया, तब लूनी नहीं थी, या स्मृति-भर रह गयी थी। वह एक सम्पन्न गूजर के घर बैठ गयी थी। वह उसकी विवाहिता भी नहीं थी, उसकी रखैल भी नहीं थी। लूनी ने अपने-आप को मानो उसे दान कर दिया था, उसे अपना दान देकर विदा कर दिया था और स्वयं अकेली रह गयी थी! कभी-कभी जब वह स्वयं अपनी परिस्थिति पर विचार करती, तब उसे जान पड़ता, उसके दो शरीर हैं, जो एक-दूसरे के ऊपर खड़े हैं। एक में उसकी सम्पूर्ण आत्मा, उसका अपनापन बसा हुआ है और लूनी के भाई की आराधना में लीन है; और दूसरा, निचला, केवल एक लाश-भर है। कभी-कभी दुरुपयोग से शारीरिक अत्याचारों से पीड़ित होकर यह लाश ऊपर की आत्मा के पास फ़रियाद करती थी, तो उसमें एक क्षीण व्यथा-सी जागती थी, अन्य कोई उत्तर नहीं मिलता था… जैसे कोई दान दी हुई गाय का कष्ट देखकर यही सोच कर रह जाता है कि अब मुझे इसका कष्ट निवारण करने का अधिकार नहीं रहा!
जब वह भाई लौट कर आया, तब लूनी उसे अपने पास ठहरा तो क्या, उसके सामने भी नहीं हो सकी! वह चुपचाप चला गया – परिस्थिति देखकर वह लूनी की मनःस्थिति भी समझ गया था। दूसरे दिन जब लूनी अवसर पाकर अपने पुराने आसन पर – उसी चट्टान पर, जहाँ वह आज बैठी है – गयी, तब उसका भाई वहाँ बैठा उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। लूनी के हृदय के किसी अज्ञात कोने में यह भाव जाग्रत हुआ कि अब भी कोई उसे समझता है, और इसी भाव से स्तिमित होकर उसने अपना सिर भाई की गोद में रख दिया, रो भी नहीं पायी, पड़ी रह गयी… भाई ने भी उसे पुकारा नहीं, थोड़ी देर चुप रह कर फिर धीरे-धीरे गाने लग गया। उस गाने का प्रवाह अर्थ के बोझ से मुक्त था, इसलिए वह लूनी के सारे मनोमालिन्य को बहा ले गया… जब उसने पुनः जाग्रत होकर अपनी कथा कह देने को सिर उठाया, तब कथा कहने की आवश्यकता ही नहीं रही थी! उसका भाई ही न जाने क्या-क्या अनोखे विचार उसे सुना गया था जो उसने समझे नहीं, जो उसे याद भी नहीं रहे किन्तु जिनकी छाया उसकी स्मृति के परदे के पीछे सदा नाचती रही है…
आज वह चट्टान पर बैठी यही सोच रही है, और सूर्यास्त के छायापट से परे देख रही है…
क्या देख रही है? उसी भाई की आज तारीख पड़ी है, उसी भाई को रात के नौ बजे फाँसी मिलेगी!
अँधेरा हो गया है। तलहटी में चीड़ के वृक्षों के झुरमट में छिपे हुए छोटे-से गाँव में, कहीं आठ खड़के हैं। प्रशान्त वातावरण में, इतनी दूर का स्वर स्पष्ट सुन नहीं पड़ता है… लूनी के सामने, पहाड़ की चोटी के पास, सान्ध्यतारा अकेला जगमगा रहा है। ज्यों-ज्यों आकाश में इधर-उधर तारे प्रकट होते जा रहे हैं, त्यों-त्यों यह भी अधिकाधिक प्रोज्ज्वल होता जा रहा है, मानो अपने एकछत्र राजत्व में विघ्न होते देख कर उत्तेजित हो रहा हो… और लूनी जिस एक घटना पर चिन्तन करने आयी है, उसे सोच नहीं पाती; उसका मन निरन्तर उससे अन्य विषयों की ओर झुकता है, और उन्हीं पर जमने का प्रयत्न करता है… वह तारों की प्रतिस्पर्धा को देखकर उसी में अपने को भुला रही है – भुलाने का यत्न कर रही है…
उसका जीवन भी एक अनन्त प्रतिस्पर्धा ही रहा है-एक प्रतियोगिता, जिसमें वह अकेली ही रही है… और वह सान्ध्यतारे को देखकर सोच रही है कि इस संसार में भी मैं कितनी सुखी रही हूँ! प्रकृति में लड़ाई ही लड़ाई, संहार ही संहार है; किन्तु वह कितना निर्मल है – उस पर कैसी विराट् नैसर्गिक भव्यता छाई हुई है, जिसके सौन्दर्य में हम सुखी हो सकते हैं… मैं अपने इस संसार में सुखी थी-इस छोटे-से संसार में, जो कि उसी साम्राज्य का एक अंश है, जिसके विरुद्ध मेरा भाई लड़ता है, जिसके विनाश पर वह तुला हुआ है… वह क्यों लड़ता? क्यों सुखी नहीं हो सकता? इसमें उसका दोष है या राजा का? यह उसकी प्रकृति का विकार है या राजत्व में अन्तर्हित कोई प्रगूढ़ न्यूनता? यदि लोगों की आत्माएँ अपने को सौन्दर्य से घिरा पाकर भी सुखी नहीं होतीं, केवल इसलिए कि उनके शरीर पर एक अपार शक्ति का बन्धन-राज्य-है, तो यह उनकी कमी है या उनके ऊपर के राजत्व की?
यह आकाश के असंख्य तारों की जो टिमटिमाहट है, यह क्या अपने अस्तित्व का उन्मत्त उल्लास है, या विद्रोह की जलन?
शायद दोनों!
लूनी को याद आया, यहीं एक दिन उसके भाई ने कहा था… उसकी स्मृति के पीछे जिन वचनों की छाया चिरकाल से नाच रही थी, जिन शब्दों का अभिप्राय वह अभी तक नहीं समझ पायी थी, वे एकाएक सामने आ गये, उसकी समझ में समा गये – सुख या दुख ऐसे नहीं होते। राज्य-बाह्य नियन्त्रण-सुख भी नहीं देता। इन दोनों का उद्भव मनुष्य के भीतर छिपी किन्हीं आन्तरिक शक्तियों से होता है। राज्य तो केवल एक शक्ति का ज्ञान देता है, एक भावना को जगाता है, एक उत्तरदायित्व की संज्ञा को चेता देता है… फिर वह दायित्व राज्य के संघटन में पूर्ण होता है, या उसके विरोध में, इसका निर्णय करनेवाली परिस्थितियाँ राज्य के नियन्त्रण में न कभी आयी हैं, न कभी आएँगी… मुझमें वह दायित्व जागा है, पर उसे चुकाने के लिए हमारे पास साधन नहीं, उसके पोषण के लिए सामग्री नहीं, इसलिए हम दुखी और अशान्त हैं, इसीलिए लड़ते हैं और लड़ना चाहते हैं…
ये निर्णय करनेवाली शक्तियाँ क्या हैं? क्या उसके हृदय में स्वार्थ था, जिसके लिए वह लड़ा? जिसके लिए वह आज प्राणदण्ड का भागी हुआ?
ऐसे खिंचाव के समय इस घोर एकान्त ने लूनी को उद्भ्रान्त कर दिया था-या शायद उसकी सूक्ष्म बुद्धि को और भी पैना कर दिया था। सूर्यास्त के पट पर उसने देखा, उसके भाई के कार्यों का एक प्रमुख कारण वह स्वयं थी। उसके भाई के आदर्शों का एक स्रोत उसके लिए सुख-कामना थी! क्यों? क्या वह ऐसे विद्रोह द्वारा सुख प्राप्त करना चाहती थी-प्राप्त कर सकती थी? क्या भाई को खोकर उसे सुख मिलेगा? नहीं, पर उसके भाई ने जो कुछ देखा, वह उसके दृष्टिकोण से नहीं, अपने दृष्टिकोण से देखा-या शायद देखा ही नहीं, केवल एक चिरन्तन सहज बोध के कारण, जो उसकी वसीयत में प्राचीनकाल से था-उस समय से, जब कि पृथ्वी पर मानव-जाति का अस्तित्व ही नहीं था, उसके पुरखा वन-मानुषों का भी नहीं, जब विवाह में जाति और वर्ण-विभेद नहीं थे, जब ‘पति-पत्नी’ और ‘भाई-बहिन’ एक ही स्वरक्षात्मक आर्थिक क्रिया की दो कलाएँ थीं…
लूनी ने भी यह सब अपनी बुद्धि से नहीं, एक सहज चेतना से ही अनुभव किया, और यह अनुभव उसके बौद्धिक क्षेत्र में नहीं आ पाया, उसकी बुद्धि केवल एक ही निरर्थक-सी बात कहकर रह गयी-”वह विद्रोही है…” कुछ-एक दिनों के बौद्धिक शासन के इस निर्णय के आगे उसकी चिरन्तन अराजकता से उत्पन्न वह पहली अनुभूति व्यक्त न हो पायी…
“वह विद्रोही है और कुछ काल में वह मूर्तिमान विद्रोही होकर मर जाएगा…”
लूनी अपनी थकी हुई, झुकी हुई गर्दन उठाकर आकाश की ओर देखने लगी। उसकी प्रगाढ़ नीलिमा को बाँधनेवाली, आकाशगंगा का धुँधलापन भी चमक रहा था… यह आकाशगंगा है, या प्रकृति के उत्तम आँसू-भरे हृदय की भाप, या विश्व-पुरुष के गले में फाँसी…
रात! तारे-तारे, तारे! लूनी के मन में एक विचार उठा, मैं इन्हें देख रही हूँ, वह भी एक बार तो इन्हें देख ही लेगा और पहाड़ों की याद कर लेगा… तारे क्षण-भर झपक लेंगे; जब जागेंगे, तब मैं इन्हें अलपक ही देख रही हूँगी, पर वह-?
एक हल्की-सी चीख, या गहरी-सी साँस…
लूनी के मन की दशा इस समय ऐसी विकृत हो रही थी कि इस अशान्तिमय विचार के बीच ही में उसे अपनी छोटी-सी लड़की-नहीं, उस सम्पन्न गूजर और लूनी की लाश की सन्तान-की याद आ गयी, और साथ ही उसके पिता की… वे शायद इस समय लूनी को खोज रहे होंगे। बेटी अनुभव कर रही होगी, आज मुझे वह पागल प्यार देनेवाली कहाँ है? और पिता सोच रहा होगा, उसका दिमाग़ कुछ खराब हो रहा है, वक़्त-बे-वक़्त जंगलों में फिरती है! जब लूनी वापस पहुँचेगी – पर लूनी तो यहीं रहेगी, वापस तो उसकी लोथ ही जाएगी!-तब पिता उसकी विवशता पर अपनी भूख मिटाएगा, और बेटी अपनी विवशता के कारण भूखी रह जाएगी! और – और वह, जिसके लिए लूनी आज इस चट्टान पर बैठी है, वह मर जाएगा!
लूनी फिर सान्ध्यतारे की ओर देखने लगी। फिर उसका मन भागा-वर्तमान के विचार से दूर, भूतकाल की ओर! उस दिन की ओर, जब वह शहर में भीख माँगते-माँगते उकताकर, शहर के अन्तक प्रदेश में आकर किसी साल के या युकलिप्टस के वृक्ष के नीचे आ पड़ते, और पेड़ की पत्तियों में अपने परिचित वनों की सृष्टि किया करते… उस दिन की ओर, जब वे एकाएक, मूक संकेत में ही एक-दूसरे के हृदय की प्यास को समझकर, एक-दूसरे का हाथ थामे शहर से निकल पड़े अपने पहाड़ों के पथ पर… उस दिन की ओर, जब न जाने कहाँ से पकड़कर उसका भाई एक सुन्दर जल-मुरगाबी लाया, और लूनी का करुण अनुरोध, “इसे छोड़ दो!” सुनकर क्षण-भर विस्मित रह गया, और फिर उसे उड़ाकर धीरे-धीरे हँसने लगा… उस दिन की ओर, जब न-जाने कैसे दोनों को एकाएक अपने पुरुषत्व और स्त्रीत्व का ज्ञान हुआ, दोनों अपने-अपने अकेलेपन का अनुभव करके ज़ोर से चिपट कर गले मिले और फिर लज्जित-से होकर अलग हो गये… उस दिन की ओर, जब भाई ने आकर उल्लास-भरे स्वर में कहा, “देख लूनी, मैं गीत लिखकर लाया हूँ!” और उसके विस्मित प्रश्न का उत्तर दिए बिना ही गाने लगा… उस दिन की ओर जब उसने कहा, “लूनी, अब मैं बहुत कुछ पढ़ गया हूँ, अब मैं तुम्हें सुखी करने के लिए लड़ूँगा,” और रात में लापता हो गया… इसके बरसों बाद के उस दिन की ओर, जब उसके ‘पति’ ने उसे एक पत्र लाकर दिया और उपेक्षा से पूछा, “तेरा कोई भाई भी है? उसी का है!” और उसके पूछने पर कि पत्र में क्या है, इतना-भर बता दिया कि वह आएगा… उस दिन लज्जा और ग्लानि की ओर, जिस दिन वह अपने भाई के सामने न हो सकी, और वह बाहर ही से लौटकर चला गया… उस दिन की ओर, जब वह चट्टान पर उसकी गोद में सिर रखकर बरसों से जोड़ा हुआ कलुष धो आयी… उस दिन की ओर, जब वह फिर विदा लेकर चला गया, लूनी को सुखी करने के लिए… उस भयंकर दिन की ओर, जिसमें लूनी से किसी ने कहा कि उसका भाई पकड़ा गया है, और यह नहीं बता सका कि कहाँ और किस जुर्म में… उस दिन की ओर, जब उसका घोर अनिश्चय दूर करने को समाचार आया यह कि भाई का प्राणदण्ड की आज्ञा हुई है… उस दिन की ओर, जब उसे भाई का अपने हाथों लिखा पत्र आया, जिसे उसने कई बार पढ़ा कर सुना, और कंठस्थ करके भी पूरा नहीं समझ पायी… और अन्त में, वामन-अवतार के पग की तरह, सम्पूर्ण सृष्टि को रौंदकर वह लौट आया, टिक गया, उसके हृदय के कोमलतम अंश पर, जहाँ उसने भाई के जीवन की स्मृति को छिपा रखा था – उसी जीवन की, जो अभी थोड़ी देर में नष्ट हो जाएगा और अपनी स्मृतियों को बिखेर जाएगा, जिसका स्थान शीघ्र ही अनझरे आँसू ले लेंगे…
लूनी की दृष्टि एक बार चारों ओर घूमकर लूनी के आसपास बिखरी हुई विभिन्न फूलों की रूपराशि और गन्ध को, नदी पर थिरकते हुए धुँधले-से आलोक को, तलहटी के चीड़ वृक्षों से उठती हुई अज्ञात साँसों को, सामने के पहाड़ पर काँपती हुई बीन की तान को और पहाड़ की स्निग्ध श्यामलता को पी गयी; फिर एक अव्यक्त प्रश्न से भरी हुई वह दृष्टि उठी सान्ध्यतारे की ओर, और फिर आकाश की शून्य विशालता की ओर… उसका वह अव्यक्त प्रश्न एक थरथराती हुई प्रतीक्षा-सा बन गया…
आकाश में दो बड़े-बड़े सफ़ेद आकार चले जा रहे थे – शायद बगुले… पर इनके पंख कितने बड़े-बड़े जान पड़ते हैं – जैसे सारस के हों…
और उनकी गति कितनी प्रशान्त… मानो मृत्यु की तरह, मानो जीवन के अवसान की तरह, निःशब्द…
नीचे गाँव में से ही कहीं घंटा खड़कने की ध्वनि आयी… लूनी तनकर बैठ गयी; उसकी ऐन्द्रिक चेतना अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गयी, किन्तु साथ ही उसके आगे, लूनी के शरीर-भर में अँधेरा भर गया…
तलहटी में कहीं चौंककर फटी हुई वेदना के स्वर में टिटिहरी रोयी, ‘चीन्हूँ! चीन्हूँ!’ मानो अपने घोंसले पर काँपती हुई अज्ञात छाया को देखकर, एकाएक भयभीत वात्सल्य और स्वरक्षात्मक साहस से भरकर तड़प उठी हो और उस छाया को ललकार रही हो…
लूनी का शरीर, उसकी आत्मा, शिथिल होकर झुक गयी… उसे जान पड़ा, एक निराकार छाया उसके पास खड़ी है और उसे स्पर्श कर रही है – उसे जान पड़ा, वहाँ कुछ नहीं है, वह अकेली हो गयी है, लुट गयी है, क्वारी ही विधवा हो गयी है…
उसने देखा, शून्य में आकाशगंगा – विश्वपुरुष के गले की फाँसी-को छूता हुआ वृश्चिक का डंक ही उसका एकमात्र सहचर रह गया है – दक्षिण के आकाश में जिधर देवताओं का लोक है…

(मुलतान जेल, अक्टूबर 1933)

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